वेद व हिन्दू पुस्तकों में जातिवाद का कोई स्थान नही

ओ.पी. गुप्ता

फिनलैड मे भारत के राजदूत

विश्व मे हिन्दुओ के कुल प्रतिशत संख्या मे लगातार कमी आ रही है। ऐसा सदियो से हो रहा है। विश्व ही नही भारत मे भी ऐसा ही हो रहा है। भारत की जनसंख्या मे 1951 मे 84.98 प्रतिशत हिन्दू थे। 1971 मे यह प्रतिशत घटकर 82.7 प्रतिशत रह गई। पुन: 1981 मे यह घटी और यह 82.6 प्रतिशत हो गई। जबकि 1991 मे यह 82.41 प्रतिशत हो गई। जनगणना आंकड़ो की ऑनलाइन रिपोर्ट (टेबल 23 व 24 www.censusindia.net) आंकड़ो मे हालांकि इसे 82 प्रतिशत कर दिया गया है। वर्ष 2001 की आधिकारिक रिपोर्ट अभी आनी है। श्री रमेश चंदर डोगरा-उर्मिला डोगरा की पुस्तक 'लेट अस नो हिन्दुइज्म' के पृष्ठ 34 पर भारत मे हिन्दुओ की सख्या कुल आबादी का 79 प्रतिशत ही प्रकाशित किया गया है। संख्या मे हो रही इस कमी के लिए हम हिन्दू ही दोषी है। यह स्थिति हमे अपने सामाजिक-धार्मिक स्थिति के विवेचन के लिए बाध्य करती है। एक ओर जहां इस्लामिक पुजारी (मुफ्ती) एवं ईसाई पादरी पूरे जोर-शोर से लोगो को अपने धर्म मे लाने के लिए धर्म परिवर्तन कराने के लिए दिन-रात प्रयत्‍‌नशील है ताकि उनका भौगोलिक व संख्यात्मक अनुपात बढ़ सके, वही ऋग्वेद मे वर्णित समानता से विमुख हिंन्दू पुजारी मनुस्मृति की आड़ मे पूरे जोर-शोर से हजारो सालो से हिन्दुओ की संख्या को कम करने मे लगे हुए है। ये पुजारी ऐसे धार्मिक प्रतिपादनो को बढ़ावा देते रहे है कि हिन्दुओ का एक बड़ा तबका (जिसे आज अनुसूचित जाति/जनजाति व दलित वर्ग के नाम से जाना जाता है) अपने को हिन्दू बनाए रखने मे कठिनाई महसूस कर रहा है। उसके सामने यह कठिनाई जातिवादी बंधन, उसके आधार पर भेदभाव, विधवा विवाह पर हाय तौबा ऐसे कारक है जिससे हिन्दू समाज टूटता है। इसके विपरीत ये पुजारी दूसरे लोगो को हिन्दू बनाने मे कही से भी इच्छुक नही दिखते, न ही इसके लिए प्रयास करते है। [ विधवा विवाह RV(X.40.2), RV(X.18.8), RV(X.18.9], अथर्वेद (i3.5.27-28), एवं AV(XVIII.3.1-4) के तहत अधिकृत किया गया है।
ऋग्वेद, रामायण,एवं श्रीमद्भागवत गीता मे जन्म के आधार पर जाति, ऊंची व नीची जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की अवधारणा को ही वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41)मे मिलता है। अगर ऋग्वेद की ऋचाओ व गीता के श्लोको को गौर से पढ़ा जाए तथा भगवान राम द्वारा स्थापित मानदंडो पर गौर किया जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नही है। अगर सामान्य रूप से भी देखा जाए तो साफ है कि ऋग्वैदिक ऋषियो के नाम के आगे वर्तमान मे लिखे जाने वाले पंडित, चतुर्वेदी, त्रिपाठी, सिंह, राव, गुप्ता, नंबूदरी जैसे जातिसूचक शब्द नही होते थे।
ऋग्वेद की ऋचाओ मे लगभग 414 ऋषियो के नाम मिलते है जिनमे से लगभग 30 नाम महिला ऋषियो के है। इससे साफ होता है कि उस समय महिलाओ की शिक्षा या उन्हे आगे बढ़ने के मामले मे कोई रोक नही थी, उनके साथ कोई भेदभाव नही था। स्वयं भगवान ने ऋग्वेद की ऋचाओ को ग्रहण करने के लिए महिलाओ को पुरुषो के बराबर योग्य माना था। इसका सीधा आशय है कि वेदो को पढ़ने के मामले मे महिलाओ को बराबरी का दर्जा दिया गया है। वैदिक रीतियो के तहत वास्तव मे RV(X.85) विवाह के दौरान रस्मो मे ब्7 श्लोको के वाचन का विधान है जिसे महिला ऋषि सूर्या सावित्री को भगवान ने बताया था। इसके बगैर विवाह को अपूर्ण माना गया है। पर अज्ञानता के कारण ज्यादातर लोग इन विवाह सूत्र वैदिक ऋचाओं का पाठ सप्तपदी के समय नही करते है और विवाह एक तरह से अपूर्ण ही रह जाता है। ऐसे मे अभिभावको को चाहिए कि वे इस बात का ध्यान रखे कि विवाह के दौरान इन (\क्त्रफ्\स्.8भ्\क्त्र\स्) ऋचाओं का वाचन हो। यदि विवाह संपन्न करा रहा पंडित ऐसा नही करता है तो अभिभावको को सप्तपदी से पूर्व मंडप मे इसके (X.85) वाचन के लिए पण्डित पर जोर देना चाहिए। कुछ हिन्दी फिल्मो मे आप विवाह के दौरान दुर्गा सप्तपदी का वाचन के दृश्य देख सकते है।
हिंदुओ के लिए वेद, वाल्मीकि रामायण और गीता, ये तीन धार्मिक पुस्तकें ही सर्वोपरि है। बाकी सब (ब्राह्मण, उपनिषद, पुराण, सूत्र और स्मृति) टिप्पणियां, विवरणिकाएं, ऐतिहासिक घटनाओ से जोड़ी गई कहानिया या कवियो की कल्पनाएं है जो द्वितीयक है कई पुराणो मे साफ तौर पर कहा गया है कि ये काकभुसुण्डी, शंकराचार्य या दूसरे संतो द्वारा सुनाई गई कहानियां (महात्म्य) है। ऐसे मे इन सब पर वेदो की सर्वोच्चता साफ तौर पर स्थापित है। उदाहरण के लिए मनुस्मृति मे श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। मनुस्मृति (II.13) भी वेदो की सर्वोच्चता को मानते हुए कहती है कि कानून श्रुति अर्थात वेद है। ऐसे मे तार्किक रूप से कहा जा सकता है कि मनुस्मृति की जो बाते वेदो की बातो का खंडन करती है, वह खारिज करने योग्य है। चारों वेदो के संकलनकर्ता/संपादक का ओहदा प्राप्त करने वाले तथा महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता और दूसरे सभी पुराणो के रचयिता महर्षि वेद व्यास ने स्वयं (महाभारत 1-V-4) लिखा है-
श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥

अर्थात जहां कही भी वेदो और दूसरे ग्रंथो मे विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात की मान्य होगी। 1899 मे प्रोफेसर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक ''ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर'' के पेज 28 पर लिखा है कि वेदो की श्रुतियां संदेह के दायरे से तब बाहर होती है जब स्मृति के मामले मे उनकी तुलना होती है। पेज 31 पर उन्होने लिखा है कि सामान्य रूप मे धर्म सूत्र भारतीय कानून के सर्वाधिक पुराने स्त्रोत है और वेदो से काफी नजदीक से जुड़े है जिसका वे उल्लेख करते है और जिन्हे धर्म का सर्वोच्च स्त्रोत स्थान हासिल है। इस तरह मैकडोनेल बाकी सभी धार्मिक पुस्तको पर वेदो की सर्वोच्चता को स्थापित मानते है। न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्य भी अपनी पुस्तक ''हिंदू लॉ एंड कांस्टीच्यूशन'' के पेज 16 पर लिखा है कि अगर श्रुति और स्मृति मे कही भी अंतर्विरोध हो तो तो श्रुति (वेद) को ही श्रेष्ठ माना जाएगा लेकिन ब्रिटिश अदालते इसका उलट ही करता रही। न्यायमूर्ति भट्टाचार्य (पेज 18) पर कहते है कि प्रचलन मे ब्रिटिश अदालतो मे टिप्पणियो और निबंधो ने वेदो का स्थान ले लिया। आत्माराम बनाम बाजीराव के मामले मे प्रिवी काउंसिल ने कहा कि टिप्पणियां वेदो से ऊपर है। पेज 37 पर उल्लेख किया गया है कि प्रिवी काउंसिल के निर्णय के आलोक मे दिए गए रामनाद मामले (1868) के निर्णय के बाद हिंदुओ के लिए यह जानने का रास्ता भी बंद हो गया कि विवादित मुद्दे वेदो के अनुकूल है भी या नही। इस तरह ब्रिटिश अदालतो ने धीरे-धीरे वेदो की सर्वोच्चता को खत्म करना आरंभ किया और दूसरे ग्रंथो की बातो को ऊपर रख दिया गया। इसमे 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का भी बड़ा योगदान रहा जो ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था।
कोई इस बात पर एक मत नही है कि वेद, रामायण और गीता कितनी पुरानी है? उनका वास्तविक काल क्या है? यूरोपीय विद्वानो का मानना है कि ऋग्वेद की रचना ईसा पूर्व 1500 से 1200 मे हुई। ऋग्वेद मे 414 ऋषियो की श्रुतियां है। एक तरह से इसे 414 ऋषियो की धर्म संसद द्वारा मान्यता प्राप्त और पवित्र ग्रंथ माना जा सकता है। इसके बाद ही रामायण और महाभारत की रचना हुई। श्रीमद्भागवत गीता महाभारत का ही अंग है। अन्य विद्वानो का मत है कि ऋग्वेद की रचना ईसा पूर्व 5000 से भी बहुत पहले हुई होगी क्योकि इसमे कपास तक का जिक्र नही है जबकि ईसा पूर्व 5000 के दौरान महरगढ़ (बलूचिस्तान) मे कपास पाया गया है (साइंटिफिक अमेरिकन जर्नल, अगस्त 1980)। दूसरे कई अन्य तथ्य भी स्थापित करते है कि ऋग्वेद ईसा पूर्व 5000 से बहुत पहले की रचना है। माना जाता है कि मनुस्मृति की रचना इसके बहुत बाद मे कुषाण काल के दौरान हुई जो चाणक्य/कौटिल्य के 100 साल बाद का काल है। पटना, बिहार मे जन्मे आक्सफोर्ड कॉलेज के प्राचार्य रह चुके अर्थर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक 'ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर' मे लिखा है कि वर्तमान स्वरूप वाली मनुस्मृति सन् 200 के आसपास लिखी गई प्रतीत होती है जबकि यज्ञवालक्य धर्म सूत्र सन् 350, मिताक्षर सन् 1100, प्रसार स्मृति सन् 1300 और दयाभाग सन् 1500 के आसपास लिखी गई प्रतीत होती है। पेज 366 पर मैकडोनेल लिखते है कि बाद मे ब्राह्मणो ने ब्राह्मणो के फायदे के लिए जातिवाद का प्रवर्तन किया और तथ्यो को तोड़ मरोड़कर पेश किया। बाद की किसी भी पुस्तक को किसी धर्म संसद ने मान्यता दी हो, इसका प्रमाण नही मिलता है। ऐसे मे मैकडोनेल सलाह देते है कि अच्छा होगा यदि स्मृति मे किसी बाहरी स्त्रोत के दावे/बयान को जांच लिया जाए। पर ब्रिटिश भारतीय अदालतो ने उनकी इस राय की उपेक्षा कर दी। साथ ही मनुस्मृति के वास्तविक विषय वस्तु के साथ भी खिलवाड़ किया गया जिसे ईस्ट इंडिया के कर्मचारी सर विलियम जोस ने स्वीकार किया है जिन्होने मनु स्मृति को हिंदुओ के कानूनी पुस्तक के रूप में ब्रिटिश भारतीय अदालतो मे पेश और प्रचारित किया था। मनुस्मृति मे ऐसे कई श्लोक है जो एक दूसरे के प्रतिलोम है और ये साबित करते है कि वास्तविक रचना के साथ हेरफेर किया गया है, उसमे बदलाव किया गया है। बरट्रेड रसेल ने अपनी पुस्तक पावर मे लिखा है कि प्राचीन काल मे पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। मध्य काल में यूरोप मे कई ऐसे देश थे जिसका शासक पोप की सहमत के सहारे राज्य पर शासनरत था। मतलब यह कि धर्म के नाम पर समाज के एक तबके द्वारा शक्ति संग्रहण भारत से इतर अन्य जगहो पर भी चल रहा था।
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्क्)

अर्थात बलि देने के लिए पुरुष को कितने भागो मे विभाजित किया गया? उनके मुख को क्या कहा गया, उनके बांह को क्या और इसी तरह उनकी जंघा और पैर को क्या कहा गया? इस श्लोक का अनुवाद राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ ने भी कमो-बेश यही किया है।
रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृ त:।

ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्ख्)

इस श्लोक का अनुवाद एचएच विल्सन ने पुरुष का मुख ब्राह्मण बना , बाहु क्षत्रिय एवं जंघा वैश्य बना एवं चरण से शूद्रो की उत्पत्ती हुई किया है। ठीक इसी श्लोक का अनुवाद ग्रिफिथ ने कुछ अलग तरह से ऐसे किया है- पुरुष के मुख मे ब्राह्मण, बाहू मे क्षत्रिय, जंघा मे वैश्य और पैर मे शूद्र का निवास है। इसी बात को आसानी से प्राप्त होने वाली दक्षिणा की मोटी रकम को अनुवांशिक बनाने के लिए कुछ स्वार्थी ब्राह्मणो द्वारा तोड़-मरोड़ कर मनुस्मृति मे लिखा गया कि चूंकि ब्राह्मणो की उत्पत्ती ब्रह्मा के मुख से हुई है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है तथा शूद्रो की उत्पत्ती ब्रह्मा के पैर से हुई है इसलिए वह सबसे निकृष्ट और अपवित्र है। मनुस्मृति के 5/132 वे श्लोक मे कहा गया है कि शरीर मे नाभि के ऊपर का हिस्सा पवित्र है जबकि नाभि से नीचे का हिस्सा अपवित्र है। जबकि ऋग्वेद मे इस तरह का कोई विभाजन नही है। इतना ही नही इस प्रश्न पर इतिहासकारो के भी अलग-अलग विचार है। संभवत: मनुस्मृति मे पुरुष के शरीर के इस तरह विभाजन करने के पीछे समाज के एक वर्ग को दबाने, बांटने की साजिश रही होगी। मनुस्मृति के श्लोक सं1.31 के अनुसार ब्रह्मा ने लोगो के कल्याण(लोकवृद्धि)के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र का क्रमश: मुख, बाहू, जंघा और पैर से निर्माण किया। जबकि ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के रचयिता नारायण ऋषि के आदेश इसके ठीक उलट है। उन्होने सरल तरीके से (10.90.11-12)यह बताया है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर से मुख, बाहू, जंघा और पैर अलग कर दिया जाए तो वह ब्रह्मा ही क्यो न हो मर जाएगा। कदाचित मनुस्मृति के अनुसरणकर्ता इसमे वर्णित जाति व्यवस्था का पालन करने के साथ ही हिंदू समाज को विभाजित करने के रूप मे सदियो से यही कार्य कर रहे है। इसके कारण हिंदू समाज अंदर से जाति के आधार पर विभाजित हो रहा है और यहां तक कि एक-दूसरे से लड़ने को भी तैयार है। शूद्रो को समाज से बाहर रहने की बंदिश लगा कर एक तरह से हिंदू धर्म के पैर को काट दिया है, जिससे हिंदू धर्म क्षरित हो रहा है और हिंदुओ की संख्या के घटते जाने, एवं हिंदू धर्म के अप्रासंगिक होते जाने का यह बहुत बड़ा कारण है।
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