भारत के इस्लामीकरण का खतरा

अभी कुछ दिनों पूर्व जब मैंने अपने एक मित्र और नवसृजित राजनीतिक आन्दोलन युवादल के राष्ट्रीय संयोजक विनय कुमार सिंह के साथ पश्चिम बंगाल की यात्रा की तो भारत पर मँडरा रहे एक बडे खतरे से सामना हुआ और यह खतरा है भारत के इस्लामीकरण का खतरा। पश्चिम बंगाल की हमारी यात्रा का प्रयोजन हिन्दू संहति के नेता तपन घोष सहित उन 15 लोगों से मिलना था जिन्हें 12 जून को हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुए मुस्लिम आक्रमण के बाद हिरासत में ले लिया गया था। तपन घोष को गंगासागर और कोलकाता के मध्य डायमण्ड हार्बर नामक स्थान पर जेल में रखा गया था। हम अपने मित्र के साथ 23 जून को कोलकाता पहुँचे और दोपहर में पहुँचने के कारण उस दिन तपन घोष से मिलने का कार्यक्रम नहीं बन सका और हमें अगली सुबह की प्रतीक्षा करनी पडी। अगले दिन प्रातः काल ही हमने सियालदह से लोकल ट्रेन पकडी और डायमण्ड हार्बर के लिये रवाना हो गये। कोई दो घण्टे की यात्रा के उपरांत हम अपने गंतव्य पर पहुँचे और जेल में तपन घोष सहित सभी लोगों से भेंट हुई जिन्हें अपने ऊपर हुए आक्रमण के बाद भी जेल में बन्द कर दिया गया था। जेल में हुई भेंट से पूर्व जो सज्जन हमें तपन घोष से मिलाने ले गये थे उन्होंने बताया कि हिन्दुओं का विषय उठाने के कारण उन्हें भी जेल में महीने भर के लिये बन्द कर दिया गया था परंतु उन्होंने जेल के अन्दर की जो कथा सुनाई उससे न केवल आश्चर्य हुआ वरन हमें सोचने को विवश होना पडा कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।

भारत के इस्लामीकरण की सम्भावना व्यक्त करने के पीछे दो कारण हैं जो स्थानीय तथ्यों पर आधारित हैं। एक तथ्य तो यह कि 12 जून को जो आक्रमण हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुआ उसमें अग्रणी भूमिका निभाने वाले व्यक्ति का नाम इस्माइल शेख है जिसका गंगासागर क्षेत्र में दबदबा है और यही व्यक्ति आस पास के क्षेत्रों में जल की आपूर्ति कर करोडों रूपये बनाता है पर बदले में इसकी शह पर गंगासागर से सटे क्षेत्रों में खुलेआम गोमांस की बिक्री होती है। एक ओर जहाँ देश के अन्य तीर्थ स्थलों में गोमांस की बिक्री निषिद्ध है वहीं यह क्षेत्र इसका अपवाद है क्योंकि पूरे गंगासागर में मस्जिदों का जाल है और इस्माइल शेख की दादागीरी है। रही सही कसर कम्युनिष्ट सरकार ने पूरी कर दी है और यहाँ तीर्थ कर लगता है। गंगासागर में प्रवेश करने के बाद आंखों के सामने मुगलकालीन दृश्य उपस्थित हो जाता है और ऐसा प्रतीत होता है मानों इस्लामी क्षेत्र में हिन्दू अपने लिये तीर्थ की भीख माँग रहा है।

इससे पूर्व जब लोकमंच पर इस घटना के सम्बन्ध में लिखा गया था तो आशंका व्यक्त की गयी थी कि यह पहला अवसर है जब पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट और इस्लामवादियों ने मिलकर किसी हिन्दू तीर्थ पर आक्रमण किया है। पश्चिम बंगाल की यात्रा के बाद यह आशंका पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई जब कोलकाता से गंगासागर तक पड्ने वाले क्षेत्रों की भूजनांकिकीय स्थिति के बारे में लोगों ने बताया। कुछ क्षेत्र और जिले तो ऐसे हैं जहाँ दस वर्षों में जनसंख्या की वृध्दि की दर 200 प्रतिशत रही है। कभी कभार कुछ जिलाधिकारियों या आईएएस अधिकारियों ने अपनी ओर से अपने क्षेत्र की जनसंख्या का हिसाब कर लिया और जिन लोगों ने इस विषय़ में अधिक रुचि दिखाई उनका स्थानांतरण कर दिया गया। फिर भी भगोने के एक चावल से पूरे चावल का अनुमान हो जाता है और उस अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में इस समय जनसंख्या का अनुपात पूरी तरह बिगड गया है और इसका सीधा असर इस्लामवादियों की आक्रामकता में देखा जा सकता है।


मुस्लिम घुसपैठियों की जनसंख्या से जहाँ एक ओर इस राज्य के इस्लामीकरण का खतरा उत्पन्न हो गया है वहीं कम से 1 करोड हिन्दू इस राज्य में ऐसा है जिसे देश या राज्य के नागरिक का दर्जा नहीं मिला है, एक ओर जहाँ बीते दशकों में बांग्लादेशी घुसपैठियों का स्वागत इस राज्य में राजनीतिक दलों ने दोनों हाथों में हार लेकर किया है वहीं 1971 के बाद से बांग्लादेश से आयए हिन्दुओं का नाम भी मतदाता सूची में नहीं है और यदि उन्हें नागरिक का दर्जा दिया भी गया है तो पिता का नाम हटा दिया गया है। इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए एक बंगाल के हिन्दू ने कहा कि हमें तो सरकार ने “हरामी” बना दिया और बिना बाप का कर दिया। लेकिन इस ओर किसी भी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं जाता। यही नहीं तो एक बडा खतरा यह भी है कि मुस्लिम घुसपैठी न केवल मतदाता सूची में अंकित हैं, या उनके पास राशन कार्ड है उन्होंने अपना नाम भी हिन्दू कर लिया है और सामान्य बांग्लाभाषियों के साथ घुलमिल गये हैं। यह इस्लामी आतंकवादियों और इस्लामवादियों के सबसे निकट हैं जो कभी भी राज्य की सुरक्षा और धार्मिक सौहार्द के लिये खतरा बन सकते हैं।

ऐसा नहीं है कि इस असहिष्णुता का असर देखने को नहीं मिल रहा है। जेल में एक माह बिता चुके एक हिन्दू नेता ने बताया कि डायमण्ड हार्बर जेल में 7 नं. की कोठरी ऐसी है जिसमें केवल मुसलमान कैदी हैं और उन्होंने अपनी कोठरी के एक भाग को कम्बल से ढँक रखा है और उसे “ कम्बल मस्जिद” का नाम दे दिया है। इस क्षेत्र के आसपास के स्नानागार और शौचालय में काफिरों को जाने की अनुमति नहीं है तो यही नहीं हिन्दुओं को ये लोग इस कदर परेशान करते हैं कि उन्हें शौचालय में अपने धर्म के विपरीत दाहिने हाथ का प्रयोग करने पर विवश करते हैं। मुस्लिम कैदियों की एकता और जेल के बाहर उनकी संख्या देखकर जेल प्रशासन भी उनकी बात मानने और उन्हें मनमानी करने देने के सिवा कोई और चारा नहीं देखता।

पश्चिम बंगाल में जिन दिनों हम यात्रा पर थे उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर में अमरनाथ यात्रा को लेकर चल रहे विवाद के बारे में भी सुना। जेल में तपन घोष से मिलने के बाद जब हम किसी घर में भोजन कर रहे थे तो टेलीविजन पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले पर चल रहे विरोध प्रदर्शन पर कश्मीर घाटी के पूर्व आतंकवादी और जेकेएलएफ के प्रमुख यासीन मलिक का बयान आ रहा था कि अमरनाथ यात्रा का प्रबन्धन पिछले अनेक वर्षों से मुस्लिम हाथों में है और इसकी रायल्टी से कितने ही मुस्लिम युवकों को रोजगार मिलता है। कितना भोंडा तर्क है यह कि हिन्दू तीर्थ यात्रा का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में हो क्या ये मुसलमान अजमेर शरीफ का प्रबन्धन, वक़्फ बोर्ड का प्रबन्धन, हज का प्रबन्धन हिन्दू हाथों में देंगे तो फिर अमरनाथ यात्रा का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में क्यों क्योंकि कश्मीर मुस्लिम बहुल है और मुस्लिम कभी सद्भाव से रहना जानता ही नहीं।

अमरनाथ यात्रा को लेकर जो विवाद श्राइन बोर्ड को राज्यपाल द्वारा दी गयी जमीन से उठा था उसकी जडें काफी पुरानी हैं। 2005 में भी जब तत्कालीन राज्यपाल ने अमरनात यात्रा की अवधि बढाकर 15 दिन से दो माह कर दी थी तो भी तत्कालीन पीडीपी मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसका विरोध कर इस प्रस्ताव को वापस यह कहकर किया था कि प्रदूषण होगा और सुरक्षा बलों को यात्रा में लगाना पडेगा जिससे कानून व्यवस्था पर असर होगा। बाद में सहयोगी कांग्रेस के दबाव के चलते मुफ्ती को झुकना पडा था और यात्रा की अवधि बढ गयी थी। इसी प्रकार मुख्यमंत्री रहते हुए मुफ्ती ने राज्यपाल एस.के.सिन्हा के कई निर्णयों पर नाराजगी जतायी थी। मुफ्ती ने कुछ महीने पूर्व जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने का भी सुझाव दिया था तो पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती तो खुलेआम पाकिस्तान की भाषा बोलती हैं। ऐसे में अमरनाथ यात्रा को लेकर हुआ विवाद तो बहाना है असली निशाना तो कश्मीर का इस्लामीकरण है। कश्मीर का इस्लामीकरण पूरी तरह हो भी चुका है कि वहाँ की सरकार ने घुट्ने टेक दिये और इस्लामी शक्तियों की बात मान ली। परंतु कश्मीर में हुए इस विरोध और सरकार को झुका लेने के इस्लामी शक्तियों के अभियान के अपने निहितार्थ है और ऐसे ही प्रयास स्थानीय विषयों को लेकर प्रत्येक मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में होंगे। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार के सीमावर्ती क्षेत्र अब अगले निशाने पर होंगे जब वहाँ से एक और पाकिस्तान की माँग उठेगी। इससे पूर्व कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो और देश धार्मिक आधार पर कई टुकडों में विभाजित हो जाये हमें अपनी कुम्भकर्णी निद्रा त्याग कर इस्लाम के खतरे को पहचान लेना चाहिये जो अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
read more...

गंगासागर की घटना से उभरे कुछ प्रश्न

दिनाँक 12 जून को पश्चिम बंगाल के सुदूर क्षेत्र में एक ऐसी घटना घटी जो सामान्य लोगों के लिये सामान्य नहीं थी पर उस राज्य के लिये सामान्य से भी सामान्य थी। हिन्दू संहति नामक एक हिन्दू संगठन द्वारा “वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश” विषय पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया और उस कार्यशाला पर कोई 6,000 की मुस्लिम भीड ने आक्रमण कर दिया और इस कार्यशाला में शामिल सभी 180 लोगों पर पत्थर और गैस सिलिंडर फेंके। इस घटना में अनेक लोग घायल भी हुए और यहाँ तक कि जो 10 पुलिसवाले कार्यशाला में फँसे लोगों को बचाने आये उनकी जान के भी लाले पड गये। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह भीड प्रायोजित थी और कुछ स्थानीय कम्युनिष्ट कैडर द्वारा संचालित थी। लोगों का कहना है कि एक स्थानीय कम्युनिष्ट नेता जो अभी हाल में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में पराजित हो गये हैं उन्होंने इस पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया और स्थानीय मुसलमानों को भडकाने और एकत्र करने में सक्रिय भूमिका निभाई।

आसपास के लोगों का कहना है कि मामला ऐसे आरम्भ हुआ कि कार्यशाला में भाग लेने आये प्रतिभागी गंगासागर से स्नान करके कार्यशाला आटो से लौट रहे थे और उत्साह में नारे लगा रहे थे। आटो चलाने वाला मुस्लिम समुदाय से था और उसे भारतमाता की जय, वन्देमातरम जैसे नारों पर आपत्ति हुई और उसने आटो में बैठे लोगों से नारा लगाने को मना किया साथ ही यह भी धमकी दी कि, “ तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे तुम्हारा कुछ करना पडेगा” इतना कहकर वह स्थानीय मस्जिद में गया और कोई दस लोगों की फौज लेकर कार्यशाला स्थल वस्त्र व्यापारी समिति धर्मशाला में ले आया। इन लोगों ने कार्यशाला में जबरन प्रवेश करने का प्रयास किया तो दोनों पक्षों में टकराव हुआ और यह हूजूम चला गया। कुछ ही समय के उपरांत हजारों की संख्या में मुस्लिम समुदाय और कम्युनिष्ट कैडर मिलाकर एकत्र हो गया और कार्यशाला को घेर लिया तथा पत्थर और जलता गैस सिलिंडर कार्यशाला के अन्दर फेंकना आरम्भ कर दिया। कार्यशाला और भीड के बीच कुछ घण्टों तक युद्ध का सा वातावरण रहा और कार्यशाला में अन्धकार था जबकि भीड प्रकाश में थी। भीड अल्लाहो अकबर का नारा माइक से लगा रही थी। कार्यशाला के प्रतिरोध के चलते भीड को कई बार पीछे की ओर भागना पडा। इस संघर्ष के कुछ देर चलते रहने के बाद दस पुलिसकर्मी आये और उनके भी जान के लाले पड गये। पुलिस टीम का प्रमुख तो प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बंगाली में कह रहा था कि, “ बचेंगे भी कि नहीं” ।
घटनाक्रम किस प्रकार समाप्त हुआ किसी को पता नहीं। पुलिस के हस्तक्षेप से या स्वतः भीड संघर्ष से थक गयी यह स्पष्ट नहीं है। परंतु बाद में पुलिस से एकतरफा कार्रवाई की और भीड को साक्षी बनाकर हिन्दू संहति के प्रमुख तपन घोष पर अनेक धाराओं के अंतर्गत मुकदमा लगा दिया और गैर जमानती धाराओं में जेल भेज दिया। जिस प्रकार पुलिस ने एकतरफा कार्रवाई की उससे इस पूरे मामले के पीछे राजनीतिक मंशा और नीयत स्पष्ट है।

इस पूरे घटनाक्रम से कुछ मूलभूत प्रश्न उभरते हैं। जिनका उत्तर हमें स्वयं ढूँढना होगा। एक तो यह घटना मीडिया पर बडा प्रश्न खडा करती है और दूसरा देश में हिन्दुत्व के विरोध में संगठित हो रही शक्तियों पर। गंगासागर जैसे हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थल पर इतना विशाल साम्प्रदायिक आक्रमण हुआ और तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया संवेदनशून्य बना रहा है। आखिर क्यों? इसके पीछे दो कारण लगते हैं। एक तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्टों के खूनी इतिहास को देखते हुए यह कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि इसमें कोई मृत्यु नहीं हुई थी। दूसरा इस विषय को उठाने का अर्थ था कि किसी न किसी स्तर पर इस पूरे मामले की समीक्षा भी करनी पड्ती और इस समीक्षा में पश्चिम बंगाल में उभर रहे हिन्दुत्व का संज्ञान भी लेना पडता जिसके लिये भारत का मीडिया तैयार नहीं है। तो क्या माना जाये कि मीडिया अब यथास्थितिवादी हो गया है और वामपंथ का सैद्धांतिक विरोध करने को तैयार नहीं है। या फिर यह माना जाये कि देश में अब उस स्तर की पत्रकारिता नहीं रही जो किसी परिवर्तन की आहट को पहचान सके। यही भूल भारत की पत्रकारिता ने 2002 में गोधरा के मामले को लेकर भी की थी और सेकुलरिज्म के चक्कर में जनता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को भाँप न सकी थी। देश में हिन्दू- मुस्लिम समस्या बहुत बडा सच है और इससे मुँह फेरकर इसका समाधान नहीं हो सकता। शुतुरमुर्ग के रेत में सिर धँसाने से रेत का तूफान नहीं रूकता और न ही कबूतर के आंख बन्द कर लेने से बिल्ली भाग जाती है। आज भारत का मीडिया अनेक जटिल राष्ट्रीय मुद्दों पर पलायनवादी रूख अपना रहा है। इसका सीधा प्रभाव हमें मीडिया के वैकल्पिक स्रोतों के विकास के रूप में देखने को मिल रहा है। गंगासागर में हुई इस घटना का उल्लेख किसी भी समाचारपत्र ने नहीं किया परंतु अनेक व्यक्तिगत ब्लाग और आपसी ईमेल के आदान प्रदान से यह सूचना समस्त विश्व में फैल गयी और लोगों ने पश्चिम बंगाल में स्थानीय प्रशासन को हिन्दू संहति के नेता तपन घोष की कुशल क्षेम के लिये सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। परंतु यह विषय भी अंग्रेजी ब्लागिंग तक ही सीमित रहा और इस भाषा में जहाँ यह विषय छाया रहा वहीं हिन्दी ब्लागिंग में इसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा गया। हिन्दी ब्लागिंग में अब भी काफी प्रयास किये जाने की आवश्यकता और मीडिया का विकल्प बनने के लिये तो और भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है। लेकिन जिस प्रकार अंग्रेजी ब्लागिंग जगत ने तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया की उपेक्षा के बाद भी गंगासागर में आक्रमण के विषय को अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया उससे यह बात तो साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया अनुत्तरदायित्व और पलायनवादी रूख से उत्पन्न हो रही शून्यता को भरने के लिये ब्लागिंग पत्रकारिता की विधा के रूप में विकसित हो सकती है और इसके सम्भावनायें भी हैं।

गंगासागर में हिन्दू मुस्लिम संघर्ष या जिहादी आक्रमण से एक और गम्भीर प्रश्न उभर कर सामने आया है और वह है इस्लामवादी-वामपंथी मिलन का। गंगासागर की घटना के आसपास ही समाचारपत्रों में समाचार आया था कि केरल राज्य में माओवादियों और इस्लामवादियों ने बैठक कर यह निर्णय लिया है कि वे तथाकथित “ राज्य आतंकवाद”, “ साम्राज्यवाद” और हिन्दूवादी शक्तियो” के विरुद्ध एकजुट होकर लडेंगे। गंगासागर में हिन्दू कार्यशाला पर हुआ मुस्लिम- कम्युनिष्ट आक्रमण इस गठजोड का नवीनतम उदाहरण है। गंगासागर पर आक्रमण के अपने निहितार्थ हैं। यह तो निश्चित है कि इतनी बडी भीड बिना योजना के एकत्र नहीं की जा सकती और यदि यह स्वतः स्फूर्त भीड थी तो और भी खतरनाक संकेत है कि हिन्दू तीर्थ पर आयोजित किसी हिन्दू कार्यशाला पर आक्रमण की खुन्नस काफी समय से रही होगी। जो भी हो दोनों ही स्थितियों में यह एक खतरे की ओर संकेत कर रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है किसी भी समुदाय या संगठन को देश की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर विचार विमर्श का अधिकार है और यदि इस अधिकार को आतंकित कर दबाने का प्रयास होगा और राजसत्ता उसका समर्थन करेगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। गोधरा के सम्बन्ध में ऐसी स्थिति का सामना हम पहले कर भी चुके हैं फिर भी कुछ सीखना नहीं चाहते। आज देश के सामने इस्लामी आतंकवाद अपने भयावह स्वरूप में हमारे समक्ष है अब यदि उसका रणनीतिक सहयोग देश के एक और खतरे माओवाद और कम्युनिज्म के नवीनतम संस्करण से हो जाता है तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा। यदि प्रशासन और सरकार या देश का बुद्धिजीवी समाज या फिर मीडिया जगत इस रणनीतिक सम्बन्ध की गम्भीरता को समझता नहीं तो इसकी प्रतिरोधक शक्तियों का सहयोग सभी को मिलकर करना चाहिये। अच्छा हो कि गंगासागर से उभरे प्रश्नों का ईमानदार समाधान करने का प्रयास हम करें।
read more...
FRIENDS OF HINDU SAMHATI
Registered in: New York, USA. Contact:
hindusamhati@gmail.com


June 13, 2008


The Friends of Hindu Samhati, USA unequivocally condemns today's gruesome attack on the Hindu Samhati training camp at Ganga Sagar (West Bengal) by a murderous mob of local Muslims, at least 6000-7000 strong, starting Thursday (June 12, 2008).

Ganga Sagar is a very reknowned Hindu Tirtha Kshetra (Place of Pilgrimage) where the sacred Ganga River has a confluence with the Bay of Bengal. Ganga Sagar is located on the western edge of the Sunderban Delta on Sagar Island. At the edge of Sagar town - adjacent to the beach - is the ancient temple dedicated to Kapil Muni, the sage responsible for initiating the chain of events that ultimately resulted in Mother Ganga descending to the earth from heaven and giving mankind an opportunity to wash away its sins in her pure water. The earliest mention of this sacred place is found in the Mahabharata where a learned sage explains to Bhishma the significance of taking a dip at the confluence of Ganga Sagar. Millions of Hindu pilgrims visit this holy place all year round to take a dip in the ho,y Ganges, particularly during the Kumbha Mela and Makara Sankranti festivities.

Since this morning (Thursday, 12 June, 2008), Hindu Samhati had started conducting a training camp and workshop on the current socio-political scenario to 180 men, women and children in the peaceful and serene surroundings of Ganga Sagar.


Sri Tapan Kumar Ghosh, the National Convenor of Hindu Samhati is conducting the main sessions of this camp. Other eminent people and local notables are also present. Everything went on smoothly until this evening, when suddenly the camp building was surrounded by a murderous mob of about 6000-7000 local Muslims bent on mayhem. The Muslim attackers were well-prepared and have been throwing gas cylinders and petrol bombs (molotov cocktails) and kept on attacking incessantly for a few hours, to incinerate the whole camp. The entire camp building has been reduced to ashes. All 180 of our camp attendees (a large number of them women and children) and 15 policemen are trapped inside this burning camp along with our dear leader Sri Tapan Kumar Ghosh.

Already 14-15 attendees of the camp have been injured in the carnage, and at least 7 of them are in very critical condition and are not expected to survive. The names of the critically wounded include: Subodh Kundu, Bivas Mondal, Gopinath Biswas, Prasenjit Sardar and Gautam Halder, apart from 2 others that could not be identified because of serious facial burn injuries
.

the camp, the rampaging Muslim mob has attacked and seriously damaged some nearby houses of the local Hindus. They have also seriously damaged and set fire to an adjoining Kali temple and a 'Yatri Nivas' (Travellers' Lodge) run by the Vishwa Hindu Parishad. The fireball attacks have slightly abated but the vicious threats and stone pelting continues – all attuned to the collective chants of both 'naara-e-takbir, allahu akbar' (allah is the Greatest) and 'inquilab zindabad' (Long Live the Revolution).

Sagar island at the Ganga Sagar – the confluence of the Ganga and the Bay of BNine camp attendees are still missing and may have been kidnapped by the Muslim mob. Their names are:
Gautam Mondal, Kartick Biswas, Ram Shil, Palash Roy, Gopal Dolui, Piyush Senapati, Ashok Das, Shankar Nandi and Subhash Roy. We are very apprehensive about their well being.
The local police-station (Thana) has unfortunately sent in a small posse of 15 policemen who are totally inadequate for resisting such a huge Jehadi mob armed to the teeth. The police could not control the mob of Muslims even after firing several rounds.
As of Friday morning (June 13, 2008), as per the recent information received by us, the assault by the Muslim mob at Hindu Samhati campsite in Gangasagar is still on, although the intensity has abated a little bit. Some more police force has reached the trouble spot, though the large force required to subdue a mob of this size and temperament is nowhere in sight. A recent update by phone from the camp is that along with the 14-15 attendees who were injured, 2 policemen have also been seriously injured due to the assault by the Muslim mob. Scores of other attendees to the camp has sustained minor injuries in this most cowardly assault including the National Convener of Hindu Samhati, Sri Tapan Kumar Ghosh. Thankfully his injuries are not serious.
Apart from throwing petrol bombs to incinerate the camp building, the Muslim mob also tried to breach the wall by exploding cooking gas cylinders against it. Failing to break into engal – is one of the holiest pilgrimages of India, where millions of Hindus from all over India and the world gather during the 'Makar Sankranti' (Winter Solstice) for the 'Punya Snan' (Holy Bath) every year. If a peaceful Hindu gathering can be assaulted with such viciousness and impunity in one of the most sacred Hindu sites of pilgrimage, one shudders to think what lies in store for the Hindus of West Bengal a few years hence.

In a travesty of justice, instead of arresting the attackers, the Police in West Bengal have slapped a non-bailable arrest warrant against Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists. The concocted charges against them are listed as being: "Incitement and Instigation for Rioting" and "Disruption of Communal Harmony".

As per the latest news received from the ground, Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists have been framed and arrested for inciting communal disharmony by Kakdwip Thana (Police Station) in West Bengal.


1) The Friends of Hindu Samhati, USA strongly protests this outrageous attack on a peaceful, indoor religious function that was held behind closed doors. There was no provocation for this vicious assault nor was any outdoor procession held at the location. It is pitiable that the police could not provide security to its peace loving citizens and is instead insisting on closing the camp down.

2) We strongly urge the police and the local administration to arrest all the perpetrators of this heinous crime immediately and provide security to continue the camp at a nearby, alternate location.

3) We deeply deplore the travesty of justice in West Bengal and appeal to the police and the local administration to remove the framed charges and release Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists immediately.

4) We request all friends and readers in India and abroad to call up the Indian administration to inquire about this incident. At least, they will know that people still care about justice and peace in India. The Numbers
to Call are:
a) District Magistrate, South 24 ParganasPhone: 033-24793713Email: dm-ali@wb.nic.in
b) Mr. Praveen Kumar
District Superintendent of Police, South 24 Parganas, West Bengal
Mobile Phone: 91-98300-23142

c) Ganga Sagar Police-Station/Thana
Officer in Charge
Phone: 91-3210-240-205

d) Mr. Tomal Das
Officer in Charge
Kakdwip Thana (Police Station)Mobile Phone: 98305-99612
e) Sub-Divisional Police Officer--Senior to Officer in ChargePhone: 94349-66000
5) Finally, please show your solidarity with the beleaguered Hindus of West Bengal, and spread the news of this heinous outrage among your friends, co-workers and family.



read more...

बराक ओबामा की उम्मीदवारी

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो चुकी है और यह तय हो गया है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट की ओर से क्रमशः प्रत्याशी कौन होगा। रिपब्लिकन की ओर से जान मैक्केन का नाम काफी पहले ही घोषित हो गया था और डेमोक्रेट में काँटे की टक्कर चल रही थी कि बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन के बीच कौन बाजी मार ले जाता है। अंततोगत्वा अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के बराक ओबामा को डेमोक्रेट प्रत्याशी बनने में सफलता प्राप्त हुई। बराक ओबामा के प्रत्याशी बनने की सम्भावनाओं के मध्य ही अनेक कथायें सामने आ रही थीं। अब जबकि बराक ओबामा अमेरिका में अश्वेत होकर भी देश के सर्वोच्च पद के लिये चुनाव लड्ने जा रहे हैं तो इस रूझान के अनेक अंतरराष्ट्रीय मायने भी हैं। एक ओर इसे अमेरिका में ऐंग्लो सेक्शन समुदाय के वर्चस्व के समापन का आरम्भ तक भी मान कर चला जा रहा है तो वहीं इसे लेकर विश्व में अमेरिका पूँजीवादी प्रभुत्व के लिये भी एक चुनौती मानकर चला जा रहा है। भारत के लोगों की अमेरिका की राजनीति में प्रत्यक्ष कोई भूमिका नहीं है परंतु इस बार भारत में अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जिज्ञासा काफी प्रबल है।

जब अमेरिका में दो प्रमुख दलों की ओर से प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया चल रही थी उसी समय से भारत में बराक ओबामा को लेकर काफी उत्साह का वातावरण था। अब जबकि यह निश्चित हो गया है कि ओबामा नवम्बर के चुनाव में रिपब्लिकन जान मैक्केन को टक्कर देंगे तो ओबामा के सम्बन्ध में दंतकथाओं का सिलसिला तेज हो गया है।

भारत मूल रूप से एक भावुक देश है और यहाँ के लोग कुछ सूचनाओं की गहराई में गये बिना सामने वाले के साथ स्वयं को भावना के स्तर पर जोड लेते हैं। ऐसा ही भारत में कुछ वर्गों के साथ ओबामा के सम्बन्ध में हो रहा है। भारत के समाचार पत्रों में जब यह समाचार आया कि ओबामा ने अपने पूरे अभियान में कुछ प्रतीक अपने साथ रखे और उसमें हनुमान जी का लाकेट भी था तो इसे भावुकता के साथ लिया गया। लेकिन क्या यह उचित है कि अमेरिका जैसे देश के राष्ट्रपति के चुनाव की समीक्षा अपने राष्ट्रीय हितों और अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में करने के स्थान पर भावुकता के आधार पर की जाये। वैसे जहाँ तक ओबामा के अपने साथ हनुमान जी के लाकेट को रखने का प्रश्न है तो उन्होंने इसे अमेरिका की प्रसिद्ध पाप गायिका मैडोना के साथ रख रखा था। इस विषय पर जब मैंने अमेरिका में रहने वाले भारतीयों से प्रश्न किया तो उन्होंने कहा कि इस विषय को भावना से जोडना कतई उचित नहीं होगा क्योंकि इसे ओबामा का हिन्दू धर्म के प्रति लगाव नहीं वरन पश्चिम में एंटीक पीस रखने के शौक से जोड्कर देखना चाहिये।

इसी प्रकार भारत के समाचार पत्रों में इस आशय के समाचार भी प्रकाशित हुए कि ओबामा के पूरे अभियान में महात्मा गान्धी उनके प्रेरणास्रोत रहे। यहाँ भी यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि पश्चिम में गान्धीजी को मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मण्डॆला जैसे अश्वेत उद्धारकों के साथ रंगभेद के विरुद्ध उनके अभियान के लिये खडा किया जाता है और इसके पीछे भी ओबामा के भारत के प्रति लगाव की भावना देखना जल्दबाजी होगी।

बराक ओबामा के प्रति एक भारतवासी का दृष्टिकोण क्या होना चाहिये। मेरी दृष्टि में विशुद्ध व्यावहारिक कि ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से विश्व राजनीति किस दिशा में जायेगी और भारत का इस पर क्या प्रभाव होगा। इस कसौटी पर कसते समय एक ही विचार ध्यान में आता है कि अमेरिका इस समय युद्ध की स्थिति में है उस युद्ध के साथ चाहे अनचाहे सभी देशों का हित जुड गया है और भारत का हित तो विशेष रूप से। यह युद्ध है इस्लामवाद के विरुद्ध युद्ध।

11 सितम्बर 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आक्रमण के बाद अमेरिका ने इस्लाम के नाम पर कट्टरपंथी रास्ता अपनाने वाली शक्तियों को अपने निशाने पर लिया और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध को लेकर अमेरिका की नीति उचित रही अनुचित यह तो अलग चर्चा का विषय है पर इस युद्ध को लेकर आज विश्व में ऐसी स्थिति निर्मित हो चुकी है कि इस युद्ध में कोई भी तटस्थ नहीं रह सकता।

विशेषकर भारत अपनी विशेष परिस्थितियों के कारण तो बिलकुल भी तटस्थ नहीं रह सकता। इसलिये इस पृष्ठभूमि में बराक ओबामा का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। बराक ओबामा ने विदेश नीति के सम्बन्ध में जो बातें कही हैं उनमें एक तो यह कि वे इराक से अमेरिकी सेनाओं को तत्काल वापस बुला लेंगे और दूसरा वे ईरान के राष्ट्रपति के साथ आमने सामने बैठकर बात करेंगे। इन दोनों ही बयानों से स्पष्ट है कि बुश की आक्रामक विदेश नीति को बदलना चाहते हैं। परंतु इन दोनों ही स्थितियों में कोई भी एकपक्षीय कदम घातक होगा। यदि आज इराक को इस स्थिति में छोड्कर अमेरिका चला जाता है तो वहाँ का प्रशासन किसी भी प्रकार इराक को सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं होगा और पाकिस्तान और अफगानिस्तान की भाँति इराक भी अल कायदा और तालिबान का नया अड्डा बन जायेगा जो कि पाकिस्तान के कबायली क्षेत्रों में पहले से ही पुनः संगठित हो चुके अल कायदा को नया जीवन प्रदान करने जैसा होगा।


इसी प्रकार एक बडा प्रश्न ईरान का है जिस पर किसी का ध्यान अभी नहीं जा रहा है। जिस प्रकार ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने बार बार इजरायल को विश्व के मानचित्र से मिटाने या इसे समाप्त करने की बात दुहराई है वह अब लफ्फाजी के स्तर से आगे जाकर माथे पर चिंता की लकीरें डालने लगी है। जिन लोगों को अभी अहमदीनेजाद के बयानों का निहितार्थ समझ में नहीं आता उन्हें पूरे इस्लामवादी आन्दोलन का स्वरूप समझना चाहिये। इस्लामवादी आन्दोलन की मूल प्रेरणा और इस्लामवादी आतंकवाद का पूरा ताना बाना इजरायल- फिलीस्तीनी संघर्ष और मुस्लिम भूमि पर पश्चिमी देशों द्वारा थोपा गये यहूदी देश की अवधारणा के इर्द गिर्द बुना गया है। अहमदीनेजाद जो कि स्वयं एक कट्टरपंथी इस्लामवादी की श्रेणी में आते हैं और शिया परम्परा के अनुसार बारहवें पैगम्बर या महदी के अवतरण में विश्वास करते हुए स्वयं में कुछ चमत्कारिक शक्तियों का अंश देखकर एक विशिष्ट चिंतन पर चलते हैं इजरायल के विरुद्ध अपने बयानों के निहितार्थ समझने को विवश करते हैं।


अहमदीनेजाद ने पिछ्ले वर्ष अमेरिका के राष्ट्रपति को और फिर जर्मनी की चांसलर को एक खुला पत्र लिखकर अपने उद्देश्य स्पष्ट कर दिये थे कि वे अमेरिका विरोधी और पश्चिम विरोधी धरातल पर विश्व की अनेक शक्तियों को एकत्र करना चाहते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर द्वारा यहूदियों के व्यापक जनसन्हार को एक कपोलकल्पित और गलत इतिहास की संज्ञा देने के लिये ईरान में राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इतिहासकारों का एक सम्मेलन बुलाया जो इतिहास के इस तथ्य को सत्य नहीं मानते। अहमदीनेजाद का मानना है कि इस कपोलकल्पित ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर यहूदियों ने पश्चिम को बन्धक बना रखा है और उसी का हवाला देकर विशेषाधिकार प्राप्त किये हैं। ईरान के राष्ट्रपति के ये प्रयास उनके इस्लामवादी आन्दोलन के नेता बनने की उनकी महत्वाकांक्षाओं की ओर संकेत तो करते ही हैं विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के गठजोड की कडी बनते भी दिखते हैं। ऐसी परिस्थिति में बराक ओबामा का फिलीस्तीन के प्रति नरम रूख अपनाना विश्व स्तर पर इस्लामवाद प्रतिरोधी शक्तियों को कमजोर करेगा।


इसके अतिरिक्त कुछ और भी कारण है जिन्हें लेकर बराक ओबामा की उम्मीदवारी प्रश्न खडा करती है। बराक ओबामा निश्चित रूप से एक अच्छे वक्ता, लोकप्रिय नेता हैं पर एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमताओं पर सन्देह है। अनेक अवसरों पर बराक ओबामा ने दबाव में आकर अपनी स्थिति बदल दी या उस पर सफाई दे डाली। जैसे अमेरिका के जिस अश्वेत चर्च से वे जुडे थे उस शिकागो के ट्रिनीटी यूनाइटेड चर्च आफ क्राइस्ट के पास्टर जेर्मियाह राइट जूनियर के 11 सितम्बर 2001 के अमेरिका पर आक्रमण सम्बन्धी बयान कि यह अमेरिका के कर्मों का फल है, के बाद ओबामा ने वह चर्च छोड दिया। इसी प्रकार अमेरिका के यहूदियों के समक्ष भावुक भाषण देकर जब उन्होंने जेरुसलम को अविभाजित इजरायल की राजधानी रखने का वादा किया तो फिलीस्तीनी अथारिटी के मोहम्मद अब्बास की आपत्ति के बाद ओबामा यहूदियों के समक्ष कही गयी अपनी बात से मुकर गये। यह ओबामा के कमजोर होने का प्रमाण है।

बराक ओबामा के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने भारत के साथ अमेरिका के परमाणु समझौते के सम्बन्ध में सीनेट में जो संसोधन का प्रस्ताव रखा था उसके अनुसार भारत को कोई भी विशेषाधिकार न दिया जाये और भारत को 123 समझौते की परिधि में लाने के लिये उससे सीटीबीटी पर हस्ताक्षर के लिये कहा जाये। अब यदि बराक ओबामा का प्रशासन कार्यभार सम्भालता है तो भारत के ऊपर सीटीबीटी पर हस्ताक्षर और विशेष सहूलियतों का दौर समाप्त हो जायेगा। इसी के साथ कश्मीर के विषय में भी ओबामा की राय जो है उससे पाकिस्तानी प्रोपेगैण्डा के आधार पर कश्मीर विश्व के विभिन्न कूट्नीतिक मंचों पर फिर से प्रमुख विषय बन सकता है क्योंकि बराक ओबामा की राय में अल-कायदा के विरुद्ध पाकिस्तान का सहयोग प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि पाकिस्तान का ध्यान कश्मीर के मामले में न बँटे। ओबामा के इस रूख से कश्मीर में आतंकवादी संगठनों को नया जीवन मिल सकता है और वैश्विक जिहाद को नया आयाम। आज इस विषय पर बहुत ध्यान पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि बराक ओबामा जहाँ एक ओर अमेरिका में आप्रवासियों के लिये सम्भावनायें जगाते हैं वहीं उनका अति वामपंथी और इस्लामवाद के प्रति अपेक्षाकृत नरम होना विश्व के वर्तमान परिदृश्य के लिये नकारात्मक विकास है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अन्ध अमेरिका विरोध के नाम पर कहीं उन शक्तियों के प्रति सहानुभूति न दिखाने लगें जो हमारी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा हैं। आर्थिक नीतियों के आधार पर या वैश्व्वीकरण के नाम पर अमेरिका विरोध के नाम पर वामपंथी-इस्लामवादी धुरी का अंग बनने से भी हमें अपने आप को रोकना होगा।
read more...

आतंकवाद विरोधी मुस्लिम पहल के निहितार्थ

31 मई दिन शनिवार, दिल्ली के रामलीला मैदान पर प्रमुख इस्लामी संगठनों की पहल पर एक आतंकवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन एक बार फिर सहारनपुर स्थित प्रसिद्ध मदरसा दारूल उलूम देवबन्द की पहल पर आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में मुख्य रूप से दारूल उलूम देवबन्द, जमायत उलेमा ए हिन्द, जमायत इस्लामी, नदवातुल उलेमा लखनऊ और मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्यों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधित्व का दावा किया गया। दारूल उलूम देवबन्द के मुख्य मुफ्ती हबीबुर्रहमान द्वारा तथाकथित फतवे पर हस्ताक्षर किये गये जिसके प्रति सभी उपस्थित लोगों ने सहमति व्यक्त की और इस फतवे के अनुसार किसी भी प्रकार की अन्यायपूर्ण हिंसा की निन्दा की गयी और जेहाद को रचनात्मक और आतंकवाद को विध्वंसात्मक घोषित किया गया। आयोजकों के दावे के अनुसार इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से तीन लाख लोगों ने भाग लिया। सम्मेलन में आने वालों में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग शामिल थे।


इससे पूर्व सहारनपुर स्थित प्रमुख इस्लामी शिक्षा केन्द्र और तालिबान के प्रमुख सदस्यों मुला उमर और जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अजहर के प्रेरणास्रोत रहे दारूल उलूम देवबन्द ने 25 फरवरी को भी देश भर के विभिन्न मुस्लिम पंथों के उलेमाओं को आमंत्रित कर आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया था। उस पहल को अनेक लोगों ने ऐतिहासिक पहल घोषित किया था और एक बार फिर रामलीला मैदान पर हुई आतंकवाद विरोधी सभा को एक सकारात्मक पहल माना जा रहा है। परंतु जिस प्रकार फरवरी माह में हुए उलेमा सम्मेलन के निष्कर्षों पर देश में आम सहमति नहीं थी कि ऐसी पहल का इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैला रहे लोगों पर क्या प्रभाव होगा उसी प्रकार का प्रश्न एक बार फिर आतंकवाद विरोधी सम्मेलन से भी उभरता है।


इस सम्मेलन में फतवे की भाषा और वक्ताओं का सुर पूरी तरह उलेमा सम्मेलन की याद दिलाता है। सम्मेलन में पूरा जोर इस बात पर था कि किस प्रकार यह सिद्ध किया जाये कि इस्लाम और पैगम्बर की शिक्षायें आतंकवाद को प्रेरित नहीं करती और इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है। इसके साथ एक बार फिर जेहाद को इस्लाम का अभिन्न अंग घोषित करते हुए उसे आतंकवाद से पृथक किया गया। इसमें ऐसा नया क्या है जिसको लेकर इस सम्मेलन या फतवे को ऐतिहासिक पहल घोषित किया जा रहा है। जब से इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हुआ है तब से इस्लामी बुध्दिजीवी और धर्मगुरु इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म बता रहे हैं और जेहाद को एक शांतिपूर्ण आन्तरिक सुधार की प्रक्रिया घोषित कर रहे हैं परंतु उनके कहे का कोई प्रभाव उन आतंकवादी संगठनों पर नहीं हो रहा है जो जेहाद और इस्लाम के नाम पर आतंकवाद में लिप्त हैं। वास्तव में एक बार फिर इस सम्मेलन ने हमारे समक्ष एक बडा प्रश्न खडा कर दिया है कि क्या इस्लामी संगठन, धर्मगुरु या फिर बुद्धिजीवी इस्लामी आतंकवाद का समाधान ढूँढने के प्रति वाकई गम्भीर हैं। उनके प्रयासों की गहराई से छानबीन की जाये तो ऐसा नहीं लगता।


वास्तव में इस्लामी आतंकवाद को एक सामान्य आपराधिक घटना के रूप में जो भी सिद्ध करने का प्रयास करता है वह इसे प्रोत्साहन देता है। इस्लामी आतंकवाद एक वृहद इस्लामवादी आन्दोलन का एक रणनीति है और इस आन्दोलन का उद्देश्य राजनीतिक इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करना है। समस्त समस्याओं का समाधान इस्लाम और कुरान में है, विश्व की सभी विचारधारायें असफल सिद्ध हो चुकी हैं और इस्लाम ही सही रास्ता दिखा सकता है, पश्चिम आधारित विश्व व्यवस्था अनैतिकता फैला रही है और उसके मूल स्रोत में अमेरिका है इसलिये अमेरिका का किसी भी स्तर पर विरोध न्यायसंगत है, इस्लामी आतंकवाद जैसी कोई चीज नहीं है यह समस्त विश्व में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार का परिणाम है, आज मीडिया इस्लाम को बदनाम कर रहा है, फिलीस्तीन में मुसलमानों के न्याय हुआ होता तो और इजरायल का साथ अमेरिका ने नहीं दिया होता तो इस्लामी आतंकवाद नहीं पनपता। ऐसे कुछ तर्क राजनीतिक इस्लाम के हैं जो इस्लामवादी आन्दोलन का प्रमुख वैचारिक अधिष्ठान है और इन्हीं तर्कों के आधार पर इस्लाम की सर्वोच्चता विश्व पर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। क्या किसी भी इस्लामी संगठन ने इन तर्कों या उद्देश्यों से अपनी असहमति जताई है। इसका स्पष्ट उत्तर है कि नहीं।


31 मई को रामलीला मैदान में जो तथाकथित आतंकवाद विरोधी रैली हुई उसमें भी जिस प्रकार के तेवर में बात की गयी वह यही संकेत कर रहा था कि इस रैली में मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा को ही प्रोत्साहित किया गया और अमेरिका के विरोध में जब भी वक्ताओं ने कुछ बोला तो खूब तालियाँ बजीं। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि अमेरिका शैतान है या नहीं यहाँ प्रश्न यह है कि एक ओर आतंकवाद को इस्लाम से पृथक कर और फिर इस्लामी आतंकवाद के मूल में छिपी अवधारणा को बल देकर इस्लामी संगठन किस प्रकार आतंकवाद से लड्ना चाहते हैं। किसी तर्क का सहारा लेकर यदि आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराये जाने का प्रयास हो तो फिर आतंकवाद की निन्दा करना एक ढोंग नहीं तो और क्या है। आज बडा प्रश्न जो हमारे समक्ष है वह राजनीतिक इस्लाम की महत्वाकांक्षा और इस्लामवादी आन्दोलन है जो इस्लाम में ही सभी समस्याओं का समाधान देखता है। वर्तमान समय में अंतरधार्मिक बहसों में भाग लेने वाले और ऐसी बहसें आयोजित कराने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी भी आतंकवाद के सम्बन्ध में ऐसी अस्पष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं कि उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। ऐसे ही एक मुस्लिम विद्वान हैं डा. जाकिर नाईक उनके कुछ उद्गार सुनकर कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। इस सम्बन्ध में कुछ यू ट्यूब के वीडियो प्रस्तुत हैं। जिन्हें देखकर कोई भी सोचने पर विवश हो सकता है कि मुस्लिम बुध्दिजीवी किस प्रकार इस्लामवादी आन्दोलन का अंग हैं और अंतर है तो केवल रणनीति का है। http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI

http://www.youtube.com/watch?v=KAdwy5IJzj4&feature=related

http://www.youtube.com/watch?v=_MtddCCuaC8&feature=related

http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI&feature=related

31 मई के सम्मेलन के सन्दर्भ में जाकिर नाइक का उल्लेख करना इसलिये आवश्यक हुआ कि आज उन्हें एक नरमपंथी और उदारवादी मुसलमान माना जा रहा है जो बहस में विश्वास करता है परंतु उनके भाव स्पष्ट करते हैं कि आज आतंकवाद की समस्या को एक प्रतिक्रिया के रूप में लिया जा रहा है और इसके लिये मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का सृजन किया जा रहा है। मुस्लिम उत्पीडन की इस अवधारणा का भी वैश्वीकरण हो गया है। एक ओर जहाँ इजरायल और फिलीस्तीन का विवाद समस्त विश्व के इस्लामवादियों के लिये आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने का सबसे बडा हथियार बन गया है वहीं स्थानीय स्तर पर भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा रची जाती है और इसका शिकार बनाया जाता है देश के पुलिस बल और सुरक्षा एजेंसियों को।


रामलीला मैदान में जो भी पहल की गयी उसकी ईमानदारी पर सवाल उठने इसलिये भी स्वाभाविक हैं कि इस सम्मेलन या रैली में एक बार भी इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले वैश्विक और भारत स्थित संगठनों के बारे में इन मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपनी कोई स्थिति स्पष्ट नहीं की। इन तथाकथित शांतिप्रेमियों ने एक बार भी सिमी, इण्डियन मुजाहिदीन, लश्कर, जैश का न तो उल्लेख किया और न ही उनकी निन्दा की या उनके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट की। वैसे आज तक ओसामा बिन लादेन के उत्कर्ष के बाद से विश्व के किसी भी इस्लामी संगठन ने उसके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की और अमेरिका पर किये गये उसके आक्रमण को मुस्लिम उत्पीडन की प्रतिक्रिया या फिर आतंकवादी अमेरिका पर आक्रमण कह कर न्यायसंगत ही ठहराया। सम्मेलन में जयपुर में आतंकवादी आक्रमण में मारे गये लोगों की सहानुभूति में भी कुछ नहीं बोला गया और पूरा समय इसी में बीता कि इस्लाम को आतंकवाद से कैसे असम्पृक्त रखा जाये। ऐसे में एक बडा प्रश्न हमारे समक्ष यह है कि आतंकवाद के विरुद्ध इस युद्ध में हम इन इस्लामी संगठनों की पहल को लेकर कितना आश्वस्त हों कि इससे सब कुछ रूक जायेगा। क्योंकि समस्या के मूल पर प्रहार नहीं हो रहा है।


25 फरवरी को दारूल उलूम देवबन्द ने उलेमा सम्मेलन किया और एक माह के उपरांत ही मध्य प्रदेश में सिमी के सदस्य पुलिस की गिरफ्त में आये और मई की 13 दिनाँक को जयपुर में आतंकवादी आक्रमण हो गया। जुलाई 2006 को मुम्बई में स्थानीय रेल व्यवस्था पर हुए आक्रमण के बाद अब तक 9 श्रृखलाबद्ध सुनियोजित विस्फोट हो चुके हैं और इन सभी विस्फोटों में भारत के मुस्लिम संगठनों और सदस्यों की भूमिका रही है। इससे स्पष्ट है भारत में मुसलमान वैश्विक जेहादी नेटवर्क से जुड गया है और वह मुस्लिम उत्पीडन की वैश्विक और स्थानीय अवधारणा से प्रभावित हो रहा है। जब तक इस्लामी संगठन इस अवधारणा के सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करते और आतंकवाद के स्थान पर आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध फतवा नहीं जारी करते उनकी पहल लोगों को गुमराह करने के अलावा और किसी भी श्रेणी में नहीं आती।


इस्लामी आतंकवाद आज इस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ से उससे लड्ने के लिये एक समन्वित प्रतिरोध की आवश्यकता है और ऐसी पहल जो पूरे मन से न की गयी हो या जिसमें ईमानदारी का अभाव हो उससे ऐसी प्रतिरोधक शक्ति कमजोर ही होती है जिसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। हमारे देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी-उदारवादी लाबी ऐसे प्रयासों को महिमामण्डित कर प्रस्तुत करती है ताकि इस्लामी आतंकवाद के मूल स्रोत, विचारधारा और प्रेरणा पर बह्स न हो सके। ऐसे प्रयासों के मध्य हमें अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है और साथ ही इस पूरी समस्या को एक समग्र स्वरूप में व्यापक इस्लामवादी आन्दोलन के रणनीतिक अंग के रूप में भी देखने की आवश्यकता है।
read more...