वामपंथियों का भगत सिंह पर दावा खोखला


भगत सिंह को लेकर वामपंथियों या साम्यवादियों की दावेदारी और उनका यह कहना कि दक्षिणपंथियों को भगत सिंह से ख़ुद को जोड़ने का कोई हक़ नहीं है, मेरे ख़्याल से बिल्कुल अनर्गल और निराधार है.
भगत सिंह की एक मात्र विचारधारा प्रखर देखभक्ति और भारत की स्वतंत्रता थी.
भगत सिंह की विचारधारा को समझने के लिए ध्यान रखना चाहिए कि उनकी शहादत के वक्त उनकी उम्र क्या थी और देश-दुनिया की परिस्थितियाँ कैसी थीं.
भगत सिंह 1926 के आसपास समाजवादी विचारधारा और उसके साहित्य के क़रीब आए. उन दिनों देश में समाजवादी विचारधारा की काफ़ी चर्चा हो रही थी.
उन्हीं दिनों के बारे में चर्चा करते हुए क्रांतिकारी सचिंद्रनाथ सान्याल जो कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन पार्टी के संस्थापक थे, ने अपनी किताब विचार विनिमय में लिखा है कि जब मैं अंडमन की जेल से छूटकर आया तो मैंने पाया कि समाजवाद की चर्चा तो बहुत हो रही है पर इसका कोई अध्ययन करने वाला मुझे नहीं मिला.
रूस का प्रचार
यह वही दौर था जब रूस की ओर से एक ज़ोरदार प्रचार की आंधी चल रही थी कि रूस की धरती पर मजदूरों के लिए एक स्वर्ग क़ायम हो गया है और वहाँ एक शोषणविहीन और समतामूलक समाज की स्थापना हो गई है.
इसकी सच्चाई से तो कोई वाकिफ़ था नहीं पर इतना ज़रूर था कि नौजवान इस प्रचार से काफ़ी प्रभावित थे. उन्हें समतामूलक समाज का विचार उन्हें बहुत प्रभावित करता था.
सचिंद्रनाथ सान्याल के जरिए ही भगत सिंह 1924 में क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े थे. क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने के बाद भी इस बात के प्रमाण हैं कि भगत सिंह 1928 तक आर्यसमाज से जुड़े रहे. वो 1928 में जब कलकत्ता गए तो आर्यसमाज में ही रुके थे.
इस दौरान समाजवादी विचारधारा लोकप्रिय थी इसलिए भगत सिंह ने उसे जानने का प्रयास ज़रूर किया पर इसका यह मतलब नहीं कि वो समाजवादी हो गए थे या कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हो गए थे.
वामपंथियों ने यह झूठा प्रचार किया है कि भगत सिंह उनकी विचारधारा के थे या उनसे जुड़े थे और इसका उनके पास कोई आधार भी नहीं है.
नास्तिक होने का मतलब...
भगत सिंह ने 1930 में जेल में रहते हुए एक लेख लिखा- मैं नास्तिक क्यों हूँ. हाँ, मगर उनके नास्तिक होने का मार्क्सवाद या समाजवाद से कोई संबंध नहीं था.
उन्होंने किसी दार्शनिक आधार पर ख़ुद को नास्तिक नहीं बताया था. भगत सिंह नेशनल कॉलेज, लाहौर के तत्कालीन प्रिंसिपल छबीलदास से संपर्क में थे. छबीलदास नास्तिक हो गए थे. ऐसी ही कुछ बातों से भगत सिंह का भावुक युवा मन भी प्रभावित हुआ होगा जिसके कारण वो नास्तिक हो गए थे.
भगत सिंह की एक नोटबुक है जो उन्होंने जेल में लिखी है. इस नोटबुक में भगत सिंह ने उन पुस्तकों के नोट्स लिए हैं जिनको वो जेल में रहते हुए पढ़ रहे थे. इन नोट्स के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वो उस विचारधारा से सहमत थे जिसके बारे में उन्होंने नोट्स लिए.
भगत सिंह की शहादत की खूँटी पर वामपंथी अपनी मुर्दा विचारधारा की लाश लटकाने की कोशिश कर रहे हैं.
दरअसल, वामपंथी भगत सिंह की शहादत को आज भी भुनाना चाहते हैं ताकि उनकी लगभग मर चुकी विचारधारा और पार्टी में फिर से कुछ दमखम आ सके.
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दोहरे मानदंड का दुर्लभ नमूना

किसी शपथपत्र और कार्टून में समानता खोजना मुश्किल कार्य है, लेकिन ये दोनों बिलकुल अलग-अलग चीजें किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम किस तरह लगभग समान रूप से कर सकती हैं, इसका उदाहरण है कुछ समय पहले डेनमार्क के समाचार पत्र में छपा एक कार्टून और पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से पेश किया गया शपथपत्र। डेनमार्क के अखबार में छपे कार्टून ने जहां दुनिया भर के मुसलिम समुदाय को नाराज किया था वहीं पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के शपथपत्र ने हिंदू समुदाय को क्षुब्ध किया। संभवत: इससे सभी अवगत हैं कि उस विवादास्पद कार्टून के छपने के बाद भारत समेत दुनिया भर के अन्य देशों में क्या हुआ था, लेकिन शपथपत्र के सिलसिले में सरकार द्वारा माफी मांगने से इनकार किए जाने के बाद यह स्मरण करना जरूरी हो जाता है कि उस समय हमारी सरकार की क्या प्रतिक्रिया थी? यह जानने के लिए सबसे पहले पढ़ते हैं 11 फरवरी 2006 का एक समाचार। नई दिल्ली,11 फरवरी। पैगंबर मुहम्मद के कार्टूनों को लेकर दुनिया भर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच भारत ने आज इस पूरे घटनाक्रम पर चिंता व्यक्त करते हुए आधिकारिक रूप से कहा कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली गतिविधियों से परहेज किया जाना चाहिए। सरकार के एक प्रवक्ता ने यहां कहा कि भारत सरकार मुस्लिम समुदाय को आहत करने वाले कार्टूनों के कारण गहराते विवाद से बहुत चिंतित है। उन्होंने कहा कि जब ये कार्टून अक्टूबर 2005 में पहली बार प्रकाशित किए गए थे तभी भारत ने इन पर आपत्ति का इजहार डेनमार्क सरकार के सामने कर दिया था। सरकार ने कोपेनहेगेन को सुझाव दिया था कि इन कार्टूनों को प्रकाशित करनेवाले अखबार से माफी मांगने के लिए कहा जाए और वह अखबार आश्वासन दे कि उनका पुन‌र्प्रकाशन नहीं किया जाएगा। इस समाचार में यह स्पष्ट नहीं कि प्रवक्ता की भूमिका में कौन था, लेकिन प्रवक्ता का नाम जानने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि संप्रग सरकार ने इस मामले को कितनी गंभीरता से लिया? इसी सिलसिले में एक अन्य समाचार का संज्ञान लेना भी आवश्यक है। यह समाचार 22 फरवरी का है। यद्यपि इस समाचार की कुछ बातें वही हैं जो सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता ने कही थीं, फिर भी पूरा समाचार पढ़ने में हर्ज नहीं। नई दिल्ली, 22 फरवरी।
डेनमार्क के एक अखबार में प्रकाशित पैगंबर मुहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून को लेकर दुनिया भर में चल रहे विवाद के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज कहा कि सरकार इस प्रकार की घटनाओं की घोर निंदा करती है। उन्होंने सामाजिक तथा धार्मिक नेताओं से इस मामले में संयमित व्यवहार करने की अपील की। राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का समापन करते हुए प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में कहा कि सरकार ने पिछले साल अक्टूबर माह में ही डेनमार्क सरकार के समक्ष नई दिल्ली और कोपेनहेगन, दोनों जगह अपना विरोध दर्ज करा दिया था। उन्होंने कहा कि भारत ने डेनमार्क सरकार से कहा कि वह संबद्घ अखबार से माफी मांगने के लिए कहे। श्री सिंह ने कहा कि सरकार ऐसे सभी कृत्यों की भ‌र्त्सना करती है जिससे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगे। उन्होंने सभी सामाजिक और धार्मिक नेताओं से अपील की कि वे इस प्रकार के संवेदनशील मुद्दों पर लोकतंत्र की सीमा के भीतर संयमित व्यवहार करें। यदि प्रधानमंत्री को अपनी सरकार के प्रवक्ता की कुछ बातें राज्यसभा में भी दोहरानी पड़ें तो इसका मतलब है कि उनकी नजर में वह मामला बहुत गंभीर रहा होगा। खास बात यह है कि 23 फरवरी को उन्होंने लोकसभा में भी कार्टून विवाद पर अपनी सरकार के रवैये और अपनी चिंता का इजहार किया था। क्या किसी ने रामसेतु पर पेश किए गए शपथपत्र के संदर्भ में सरकार के किसी व्यक्ति-यहां तक कि अनाम प्रवक्ता के मुख से भी, यह सुना कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली गतिविधियों से परहेज किया जाना चाहिए? क्या सरकार और उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के किसी प्रवक्ता- यहां तक कि अनाम प्रवक्ता ही सही-ने घोर निंदा, भ‌र्त्सना या माफी जैसा शब्द इस्तेमाल किया? नि:संदेह विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने शपथपत्र मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की गलती मानी, लेकिन क्या गलती के बाद क्षमा मांगना जरूरी नहीं? क्या यह ऐसी गलती है जिस पर क्षमा की जरूरत नहीं? हमारे देश का सामान्य शिष्टाचार तो यह कहता है कि तनिक सी भी गलती पर माफी मांग ली जाए, लेकिन भारत सरकार का एक विभाग और एक मंत्रालय भयानक गलती शपथपत्र देकर करता है और फिर भी माफी मांगने से परहेज किया जाता है।
आखिर क्यों? चूंकि कोई भी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार नहीं इसलिए जनता के पास अनुमान लगाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता? एक अनुमान तो यह कहता है कि सरकार की नजर में यह ऐसी मामूली गलती रही होगी जिस पर क्षमा मांगने की कोई जरूरत ही नहीं। दूसरा अनुमान यह कहता है कि मामला हिंदू समुदाय से संबंधित होने के नाते सरकार को शायद यह महसूस हो रहा होगा कि माफी मांगने से कहीं उसकी पंथनिरपेक्ष छवि न धूमिल हो जाए या फिर कोई ऐसा संदेश न चला जाए कि वह बहुसंख्यक समुदाय के समक्ष झुक गई। तीसरा अनुमान यह इंगित करता है कि सरकार करुणानिधि के कोप का भाजन नहीं बनना चाहती होगी, जिन्होंने शपथपत्र की वापसी के बाद यह कहा कि वह तो सही था और हम ऐसी कहानियां नहीं चलने देंगे। करुणानिधि के इस बयान पर केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी ने फरमाया है कि लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है। ठीक इसी तर्ज पर जनता को अनुमान के मुताबिक निष्कर्ष निकालने का अधिकार तो दिया ही जाना चाहिए और यदि वह यह मानती है कि संप्रग सरकार बहुसंख्यक समाज की अनदेखी करती है तो क्या उसे दोष दिया जा सकता है?
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Islam,Terrorism and Hindustan -- why Hindus should start 'Dharma Yuddha'

By : - Nithin.S

Whenever a Terrorist attack takes place, the Muslim community is looked upon suspision.This is because, the most of the terrorist attacks are done by the Jehadi Mujahidins of Islam. Bharath, that is India is the worst victim of this Islamic aggression and terrorism,for past 1000 years.The only other country that has faced these is Israil. Still, Hindus love to maintain their image of Non-Violence.But,the recent attack is again indicating, that our Inaction is not going to solve the problem.The Pseudo-Secularists in India may try to portray that this is in reaction to the Gujarath riots or Babri Masjid Demolition.They may even say that RSS/BJP/VHP did this.But, I ask them was their a Gujarath riots in USA, was their any RSS in Russia or any where in this world where innocent people are being targeted by Islamic terrorists,such as Palastienians or Chechynyans or Kashmiris? The great secular govt Congress uunder the Italian Sonia, removed the POTA[Prevention od terrorism act]. just because, it was introduced by BJP.These type of Minority appeasement and selffishness will only increase the confidence of Terrorists.

WHY TERRORISTS ARE THE TRUE FOLLOWERS OF ISLAM
To understand terrorism, we need to go deeper.It is not coincidence that, all the people involved in the terrorism are Muslims.Most of the Muslims claim that, Islam is peacefull, but the terrorists are spoinling the Islam, many claim that there is no religion for terrorists.But, this claim fails when we just look at the basic preachings of Islam.Mohammud divided the world into 2 parts-
1. Darul-harab[land of Non-believers]
2. Darul-Islam[land of believers of islam]

Islam calls the Non -believers as Khafirs, and orders that every true Muslim should start Jihad, to turn Darul-harab into Ddarul-Islam, by either killing or converting the Khafirs.
Koran says- XCVIII/6: Lo! those who disbelieve, among the people of the Scripture and idolaters, will abide in fire of hell. They are the worst of created beings.
XLIV/43-50: LO! the tree of Zaqqum (The tree that grows in the heart of hell bearing fruits like devil's heads) - the food of the sinner. Like molten brass, it seetheth in their bellies as the seething of boiling water. (And it will be said): Take him and drag him to the midst of hell, then pour upon his head the torment of boiling water. Saying: TASTE! LO! thou wast forsooth the mighty, the noble! Lo! this is that whereof ye used to doubt.
Koran 9:71 “O Prophet, strive hard [fighting] against the unbelievers and the Hypocrites, and be harsh with them. Their abode is Hell, an evil refuge indeed.”
Koran 8:59 “The infidels should not think that they can get away from us. Prepare against them whatever arms and weaponry you can muster so that you may terrorize them.”
Koran 8:12 “I will terrorize the unbelievers. Therefore smite them on their necks and every joint and incapacitate them. Strike off their heads and cut off each of their fingers and toes.” Koran 8:13 “This because they rejected Allah and defied His Messenger. If anyone opposes Allah and His Messenger, Allah shall be severe in punishment. That is the torment: ‘So taste the punishment. For those infidels who resist there is the torment of Hell.’”
These some quotes will show what Islam directs Muslims to Do.Today, many of the common Muslims are peaceful because, they do not no the Islam properly.The Terrorists on other hand follows blindly what Islam says to them.Therefore they are the true Muslims.The problem is not with the Muslims but with the Principles of the Islam.

WHAT HINDUS[Indians] NEED TO DO?
It is a known fact that, the goal of terrorists is to make India a Pakistan.They are not concerned about Kashmir, but their agenda is to Islamise Hindustan.Pakistan for these reasons is not only sheltering Terrorists, but it is providing all types of supports,both monetary and military.There can be no peace in India until Pakistan is there, until a part of Kashmir is with Pakistan.There is only one solution, India should occupy the POK[Pak occupied Kashmir] and kill all the terrorists and then clise down all their camps. But this does not end here, Pakistan should be cautioned that if it does not stop this proxy war, it will have to face a Nuclear War. The time has come when all Hindus to become Kshtriyas and to start a 'Dharma Yuddha', To save Dharma[Rightioussness], to save Hindus, to save Hinduism, to save Hindustan.
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किसी भी इतिहास से बड़े हैं श्रीराम

कर्ण सिंह

हमारे राष्ट्र की झोली में मानो पहले ही विवादों की कोई कमी थी, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने एक और मुद्दा जोड़ दिया। हमारे चारों ओर मौजूद भ्रम एवं तनाव इससे और भी बढ़ गया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इस बारे में अपनी राय कायम कर सकता था कि राम सेतु या आदम पुल बालू तथा मूंगे से बनी एक कुदरती संरचना है, जिसे ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक महत्व का नहीं कहा जा सकता। यह एक तार्किक नजरिया है, जिसे केवल इतने ही मजबूत पेशेवर जवाबी तर्क से निरस्त किया जा सकता है। लेकिन पुरातत्व विभाग ने तो इससे परे जाकर राष्ट्र को स्तब्ध कर दिया। उसने ऐतिहासिक विभूति के रूप में श्रीराम के अस्तित्व पर ही संदेह प्रकट कर दिया। इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग के बाद सत्य की प्रतिष्ठा के लिए कई तर्क दिए जाने की आवश्यकता है।
पहला, संसार की ज्यादातर महान धार्मिक विभूतियों के 'ऐतिहासिक' साक्ष्यों को खोजना बेहद मुश्किल है, खासतौर से उनके जो प्राचीनता के कुहासे में विलीन हो चुकी हैं। यह कोई पीएचडी के शोध प्रबंध का विषय नहीं है। यह ऐसा मामला है जो संसार भर के करोड़ों लोगों के विश्वासों और मनोभावों का विषय है। इसके अलावा अयोध्या, जनकपुरी, रामेश्वरम और धनुष्कोटि सहित भारत और श्रीलंका में ऐसे बहुत से स्थान हैं जो श्रीराम के जीवन के घटनाक्रम के साथ अंतरंग रूप से जुड़े हैं। इतिहासकार अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि ऐसे 'मिथकों तथा आख्यानों' और वास्तविक घटनाओं के बीच अक्सर बहुत गहरा रिश्ता होता है। यानी मिथक सिर्फ कल्पना की उपज नहीं होते, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। ये वास्तविक प्रसंगों से ही जुड़े हैं, चाहे उसके स्पष्ट सबूत न मिलें।
दूसरा, महर्षि वाल्मीकि की मूल रामायण से लेकर कंब की महान तमिल कृति और तुलसीदास के अमर काव्य रामचरितमानस तक संसार की लगभग सभी भाषाओं में रामकथा सैकड़ों बार कही और दोहराई गई है। श्रीराम के जन्म से शुरू होकर सीता से विवाह, चौदह वर्ष के वनवास, लंका के राजा रावण के साथ उनके निर्णायक युद्ध और विजय के बाद अयोध्या लौटने तक की यह अत्यंत मनमोहक कथा दुनिया भर के असंख्य हिन्दुओं के मानस पटल पर अमिट रूप से अंकित है। यह उनके लिए उतनी ही सच्ची और वास्तविक है जितना कोई भी तथाकथित ऐतिहासिक प्रसंग हो सकता है। रामायण और महाभारत के बारे में 'भारत एक खोज' में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, 'मैं इन ग्रंथों के सिवाय कहीं भी किसी ग्रंथ को नहीं जानता, जिसने जनमानस पर इतना अविराम और व्यापक प्रभाव डाला हो। दूरस्थ इतिहास से चले आ रहे ये ग्रंथ अब भी भारतीय जनमानस की जीवनी शक्ति हैं। चंद बुद्धि विलासों को छोड़कर ये न केवल संस्कृत, बल्कि अनुवादों एवं रूपांतरों तथा असंख्य प्रथाओं की भी जीवन शक्ति हैं, जिनमें स्मृति, हिन्दू धर्मशास्त्र और आख्यान विस्तीर्ण हुए। ये ग्रंथ सांस्कृतिक विकास के विविध सोपानों के लिए श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से साधारण अनपढ़ और निरक्षर ग्रामवासियों तक सबको एक साथ पोषित करने वाली विशुद्ध भारतीय पद्धति का निरूपण करते हैं। ये हमें बहुविध विभाजित और जातियों में वर्गीकृत बहुरंगी समाज को एकजुट रखने, उनके बिखरे स्वरों को समस्वर करने का रहस्य बताते हैं और उन्हें उदात्त परंपरा तथा नीतिपरक जीवन-यापन की एक साझी पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं। जनसाधारण के बीच इन्होंने वैचारिक रूप से दृष्टिकोण का सामंजस्य कायम करने का यत्न किया, जिसे वर्तमान रहना ही था और भिन्नता को बेअसर करना ही था।'
तीसरा, सिर्फ भगवान श्रीराम ही नहीं, बल्कि महासती सीता, आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण और आकाश विचरण करने वाले महावीर हनुमान सहित रामकथा के कितने ही पात्र समय के आरपार जनसाधारण की चेतना में गहराई तक रचे-बसे हैं। हर वर्ष विजयादशमी पर्व में रामकथा का अभिनय तथा प्रदर्शन हजारों जगहों पर रामलीलाओं के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। दक्षिण भारत की तुलना में यह भले ही उत्तर भारत में अधिक प्रचलित हो, लेकिन इस बात से इसका महत्व कम नहीं हो जाता। दक्षिण भारत में कार्तिकेय, अयप्पा और शिव-नटराज की आराधना ज्यादा प्रचलन में है। इसी तरह पूर्व में भगवान जगन्नाथ की आराधना और दुर्गा पूजा का जोर रहता है, लेकिन ये क्षेत्रवार या भौगोलिक फर्क कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि इन सभी देवों में हिन्दुओं की गहरी आस्था कायम रहती है। श्रीराम हम सबके आराध्य हैं।
विलक्षण बात यह है कि रामकथा सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। इसकी सुगंध सुदूर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैली हुई है। दुनिया में धार्मिक उपासना का सबसे विशाल स्थान है कंबोडिया स्थित अंकोरवाट का भव्य मंदिर। इसकी भित्तियों पर जो शानदार मूर्तिकला उकेरी गई है, उसमें पूरी रामकथा और महाभारत समाई हुई है। इंडोनेशिया में आमतौर पर मुस्लिम कलाकार रामलीलाओं का बड़ी शालीनता और भावुकता के साथ प्रदर्शन करते हैं, जो मन को छू लेता है। हमारे यहां की रामलीलाओं से ये ज्यादा भव्य और श्रेष्ठ होती हैं। थाइलैंड का राज परिवार अपने आप को राम-वंश कहता है। यहां अयोध्या नामक एक तीर्थ स्थल भी है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, क्योंकि रामकथा कई महाद्वीपों तक फैली है। कई संस्कृतियों में इसके असर मौजूद हैं और गैर हिंदू भी इससे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। ब्रिटिशों ने पृथ्वी के सुदूर छोरों पर बंधुआ मजदूर भेजे, जिनके वंशज अब फीजी, मॉरीशस, गुयाना और सूरीनाम में बसे हुए हैं। इन लोगों के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सहारे का एकमात्र स्त्रोत रामचरितमानस ही है। पूरी पृथ्वी पर इन देशों तथा अन्य देशों के हिन्दू, मर्यादा पुरुषोत्तम आदर्श मानव के रूप में भगवान के अवतार श्रीराम का ही ध्यान करते हैं। जब गांधीजी ने आदर्श समाज की परिकल्पना की थी, तब उन्होंने रामराज्य का ही आह्वान किया था और अंतिम समय उनके मुख से 'हे राम' ही निकला था। इन उदाहरणों से हमें पता चलता है कि राम हमारे जीवन में किस तरह समाए हुए हैं कि उनके बिना भारतीय जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। श्रीराम को हम भारतीय मानस के प्रतीक पुरुष कह सकते हैं।
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का वह हलफनामा न केवल पूरी दुनिया के हिन्दुओं, बल्कि हमारी विलक्षण बहुलतावादी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण, अनुचित और अपमानजनक था।
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राम के नाम पर

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता करूणानिधि को यह अधिकार किसी ने नहीं दिया कि वे राम के बारे में वैसी भाषा और फिकरेबाजी का प्रयोग करें जैसा करने की आदत उनकी जैसी सोच वालों को अपनी विचारधारा के गुरू रामस्वामी नायकर पेरियार के आंदोलन के जमाने से रही है। अगर रामस्वामी पेरियार अपने आंदोलन को विज्ञानवादी और तर्कसम्मत साबित करने के अति उत्साह में राम का उस हद तक घोर अपमान करने में सफल हो पाए कि जिसका शब्दों में बखान करना भी आज के वैज्ञानिक युग में असभ्यतापूर्ण लगता है, तो इसलिए कि उस समय भारत में साम्राज्यवादकालीन सोच का ही देश के जनमानस पर असर था, और पेरियार जो चाहते थे, वे कर गुजरे। पर आज भारत लोकतंत्री सोच और लोकतंत्री सक्रियता से एकाकार हो चुका है। एक जिम्मेदार नेता होने के नाते करूणानिधि को इस बात का अहसास होना चाहिए कि उनके लिए क्या बोलना ठीक है और क्या नहीं। क्या राम एक सिविल इंजीनियर थे, और थे तो किस कॉलेज से पढ़कर आए थे, रामसेतु के संदर्भ में जो तिरस्कारपूर्ण सवाल उन्होंने पूछे हैं, तो वही पलटकर उनसे भी पूछ सकता है कि अपने मुख्यमंत्री काल में आपने जो सड़कें बनवाईं, पुल बनवाए, नई बस्तियां बसाई, तो क्या उसके लिए आपको किसी कॉलेज से सिविल इंजीनियर होना जरूरी था? यानी ऐसे सवाल बेमतलब के तो हैं ही, उस वितृष्णा की अभिव्यक्ति भी हैं जो करूणानिधि के मन में राम और रामकथा को लेकर बनी हुई है। एक भारतीय नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी हर वितृष्णा को पालने-पोसने का संवैधानिक अधिकार हासिल है। पर दूसरे की आस्था को हानि पहुंचाने में समर्थ इन वितृष्णाजनित तिरस्कार भरी अभिव्यक्तियों का अधिकार नहीं है। वे एक प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और केंद्र की यूपीए सरकार का एक महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए खुद को संयत करने का जितना दायित्व उनका है, उतना ही दायित्व प्रधानमंत्री का भी है कि वे देखें कि उनकी सरकार का कोई घटक धार्मिक विद्वेष फैलाने का दोषी न बनने पाए।
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राम नाम की लूट में बुद्धि गई कहीं छूट



पुरानी कहावत है कि सारी रामायण बांचने के बाद यह पूछना, ‘राम कौन था?’ अपनी जन्मजात बेवकूफी का विज्ञापन ही समझा जा सकता है। ऐसा ही कुछ अपने प्यारे हिन्दुस्तान की कट्टरपंथी धर्मनिरपेक्ष सरकार करती नजर आ रही है। सेतु समुद्रम्‌ परियोजना को लेकर जो हलफनामा केन्द्र सरकार की तरफ से पहले सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया गया और फिर जनाक्रोश भड़कता देख जैसी कलाबाजी विद्वान समझे जाने वाले कानून मंत्री ने खाई, उस सबको देखते शक-शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।
अटपटी बात सबसे पहले। भारद्वाज साहब ने जिन शब्दों में बगलें झांकते अपने हाथ झाड़ने की कोशिश की है वह हास्यास्पद ही नहीं, तरस खाने लायक भी है। ‘राम हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। उनका अस्तित्व हम नकार नहीं सकते और न ही मुकदमे का विषय बना सकते हैं। राम की वजह से सारी दुनिया ‘एक्जिस्ट’ करती है। हिमालय-हिमालय है, गंगा-गंगा है वैसे ही राम-राम है’। इन सब बातों को मजाक में नहीं लिया जाना चाहिए। हिमालय को देवात्मा कहने का दुस्साहस हिन्दू कवि कालिदास कर सकता हो, आज हमें अपनी भलाई इसी में नजर आती है कि हिमालय को सिर्फ भौगोलिक रूप में भौतिक वास्तविकता के रूप में पहचाना जाए- बर्फ से ढकी ऊंची पर्वतमाला, जिससे जीवनदायिनी नदियां बह निकलती हैं गंगा सरीखी।
गंगा के बारे में भी यह एहतियात बरतने की जरूरत है कि इसका जिक्र किसी पाप धोने वाले मजहबी रस्मो-रिवाज के सिलसिले में न किया जाए। इसे हमारी गलती न समझा जाए कि हजारों साल से तीर्थराज कहलाने वाले शहर में गंगा तट पर कुंभ मेला जुटता रहा है, जिसका जिक्र चीनी और अरब यात्री इन्हें महत्वपूर्ण समझ कर करते रहे। राम की बात निराली है, जब ऐतिहासिकता ही विवादों के दायरे में है तब ‘एक्जिस्टेंस’ ‘इमेजनरी’ ही समझा जा सकता है। पता नहीं भारद्वाज साहब की और उनके वक्तव्यों के मसौदे तैयार करने वालों की कितनी रुचि दर्शनशास्त्र में है, वरना शायद यह याद दिलाने की जरूरत न पड़ती कि दार्शनिक दकार्ते ने एक बार कहा था ‘मैं सोचता हूं इसीलिए मेरा अस्तित्व है’।
वास्तविक और काल्पनिक यथार्थ तथा साझे के कपोलकल्पित यथार्थ को इस तरह सिरे से खारिज करना खतरनाक है। एक चुलबुले अंग्रेजी पत्रकार ने अपने स्तंभ में ‘रियलिटी’ और ‘हाईपर रियलिटी’ वाली बहस शुरू कर भी दी है। ‘वर्चुअल रियलिटी’ का फुटनोट हमारे कानून मंत्री को और भी नागवार गुजरेगा। लीपापोती करने वाले अंदाज में जो दूसरा हलफनामा पेश किया गया है, उससे बात सुधरी नहीं बिगड़ी ही है। सरकार ने अपनी दरियादिली का परचम फहराते हुए यह दिखलाने की कोशिश की है कि वह सेतु समुद्रम परियोजना और राम के अस्तित्व के बारे में पुनर्विचार इसलिए कर रही है कि उसका मिजाज जनतांत्रिक है और वह जनभावना का तिरस्कार नहीं करती। साथ ही यह भी जोड़ा गया है कि वह सभी धर्मों का आदर करती है खासकर हिन्दू धर्म का।
अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री ने इस प्रवचन में हाथ बंटाते हुए यह याद दिलाया कि राम का उल्लेख सिखों की गुरबाणी में भी मिलता है। कबीर धर्मनिरपेक्ष भारत में प्रगतिशील लोगों को सूर, तुलसी, मीरा से ज्यादा रास आते हैं, उनकी पक्तियां भी याद दिलाने लायक है-
‘कबिरा कूता राम का मुतिया मेरो नांउ,
गले राम की जेबड़ी जित खींचे तित जाउं’!
राम की ऐतिहासिकता पर इतना बखेड़ा ही पैदा न होता अगर अपने आकाओं को खुश करने की इतनी चापलूस उतावली न होती। इन पंक्तियों का लेखक बार-बार इस केन्द्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की बात उठाता रहा है। इसी सिक्के का दूसरा पहलू है बहुसंख्यक हिन्दुओं की आस्था का जानबूझ कर तिरस्कार। यह निर्विवाद है कि हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष राज्य में कोई खास स्थान नहीं दिया जा सकता। कम से कम हिन्दुओं की आस्था किसी और धर्म के अनुयायियों की आस्था की तुलना में कम संवेदनशील और महत्वपूर्ण नहीं समझी जा सकती।
कानूनमंत्री तमाम व्यस्तताओं के बावजूद यह भूले न होंगे कि अपने विश्वास के अनुसार आस्था-उपासना के बुनियादी अधिकार को संविधान का संरक्षण प्राप्त है और भारतीय दंडसंहिता में धार्मिक-सांप्रदायिक आक्रोश भड़काना एक दंडनीय अपराध। जिस तरह गुरुओं और पैगंबरों के बारे में सरकारी सार्वजनिक घोषणाओं में संयम बरतने की जरूरत है, वैसा ही संयम राम, कृष्ण, गणेश और सरस्वती के बारे में भी अपेक्षित है।
रही बात इस सरकार के जनतांत्रिक मिजाज की, वह तो साफ नजर आ रहा है पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कुछ अफसरों के निलंबन से। गुस्से की गाज उन बेचारों पर गिर चुकी है। अब विधिमंत्री कंधे उचका कर यह कह सकते हैं और क्या चाहते हैं आप सजा दे तो दी। दुर्भाग्य से हमारे सार्वजनिक जीवन में रामायण के फिकरों का अवसरवादी ढंग से इस्तेमाल इनका बुरी तरह अवमूल्यन करा चुका है- ‘अग्नि परीक्षा’ हो या ‘लक्ष्मण रेखा’, ‘लंका दहन’ हो या और कुछ। सेतु समुद्रम्‌ परियोजना की मूल प्रेरणा क्या है? क्या यह सच नहीं कि दैत्याकार फिजूलखर्ची वाला यह अभियान सिर्फ सहयोगी-समर्थक तमिल पार्टियों को खुश करने के लिए, मुंहमांगा मोल चुकाने के लिए साधा जा रहा है?
क्या यह सच नहीं कि इसीलिए इस मंत्रालय पर अपना कब्जा बनाए रखने का हठ थिरू करुणानिधि पाले रहते हैं? इस पूरे प्रोजेक्ट का परीक्षण पर्यावरण पर इसके प्रभाव के संदर्भ में लाभ-लागत की दृष्टि से किया जाना चाहिए। पर्यावरणविद यह सवाल उठा चुके हैं कि समुद्र सेतु भले ही मानव निर्मित न हो, एक प्राकृतिक संरचना ही हो पर यह हमारे देश के पूरबी तट को सुनामी जैसी आपदाओं के विनाश से बचाने में कवच का काम करती है।
एक कहावत गांव देहात में आम है ‘राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट’। फिलहाल यह लूट-मार जारी है। मन करता है कहें- राम को राम ही रहने दो दूजा नाम न दो। साध्वी उमा भारती ने जो सलाह आडवाणी जी को दी है उस पर बाकी राजनेताओं को भी अमल करना चाहिए। राम की चर्चा राजनीति के अखाड़े के बाहर जानकार लोगों को ही करने दें।
जो अंग्रेजी दां अंग्रेजीपरस्त शहरी हिन्दुस्तानी वाल्मीकि रामायण के अंग्रेजी अनुवाद तक से अछूते हैं, उन्हें कम से कम रामचरितमानस के बारे में मुंह खोलने से परहेज करना चाहिए। मानस की प्रतिष्ठा करोड़ों हिन्दू परिवारों में आज भी नैतिक मूल्यों को पुष्ट करने वाली, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय वाले आदर्श आचरण को प्रेरित करने वाली रचना के रूप में है। राष्ट्रपिता बापू के लिए जनतांत्रिक आदर्श ‘राम राज्य’ ही था। आज भी देहांत के बाद किसी आत्मीय को श्मसान तक ले जाते संताप बांटने के लिए ‘राम नाम सत्य है’ स्वत: फूट निकलता है।
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ये नेता हैं देश के दुश्मन

भारत की राजनीति में कई ऐसे नेता हैं जिन्हें न देश की चिंता है, न देशवासियों की। उन्हें चिंता है तो सिर्फ अपनी राजनीतिक दुकान की। यह दुकान चलती रहे इसके लिए वे कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं।
जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती बाप-बेटी की पार्टी पी.डी.पी. के दबाव में आकर सी.आर.पी.एफ. ने कुछ समय पहले अपनी कुछ चौकियां खाली कर दी थीं। अब पी.डी.पी. और नैशनल कांफ्रैंस के नेता यह दबाव बना रहे हैं कि रमजान के महीने में संघर्ष विराम हो यानी सेना आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई रोक दे।
‘‘राह अलगाव की चाह सद्‌भाव की,
दो तरह का चलन तो मुनासिब नहीं।’’

सेना में कुछ बड़े अधिकारी दबी जुबान में यह मानते हैं कि कुछ नेता ऐसे हैं जो राष्ट्र विरोधी हैं, कौम के दुश्मन हैं। संघर्ष विराम लागू करने की मांग का एक ही मकसद है कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की रफ्तार कम हो जाए। यदि यह मांग मान ली गई और आतंकवादियों को थोड़ी भी राहत दी गई तो उन्हें गोलाबारूद इकट्ठा करने का मौका मिल जाएगा। कौम के दुश्मन ये नेता सुरक्षा बलों से तो संघर्ष विराम का आग्रह करते हैं, आतंकवादी गिरोहों से क्यों नहीं कहते कि रमजान के दौरान वे अपनी गतिविधियां बंद कर दें।
पी.डी.पी. के संस्थापक नेता मुफ्ती मोहम्मद वही व्यक्ति है जिसके भारत का गृहमंत्री रहते उसकी बेटी रूबिया को आतंकवादी उठा ले गए थे और उसे अपहर्ताओं से मुक्त कराने के लिए फिरौती में पांच दुर्दांत आतंकवादी रिहा करने पड़े थे। तभी एक शायर ने कहा थो
‘‘देश के दुश्मनों से सुलह के लिए,
कितना कमजोर यह बाप का प्यार है,
आबरू की हिफाजत वे करेंगे क्या,
जिनके हाथों में सौंपी यह सरकार है।’’

आज भी पाकिस्तान में 50 से ज्यादा आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। इनमें से तीस शिविर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में हैं। चार से पांच हजार तक प्रशिक्षित आतंकवादी सीमा पार करने की फिराक में हैं।
इन हालात में पी.डी.पी. या नैशनल कांफ्रैंस जम्मू-कश्मीर में सेना में कटौती करने या संघर्ष विराम की मांग करते हैं तो ऐसे दलों और इनके नेताओं को कौम का दुश्मन ही कहा जाएगा।
मैं भारतीय सेना के जवानों की बहादुरी और जनरलों की निर्भीकता का हमेशा प्रशंसक रहा हूं। सियाचिन से सेनाएं हटाने की चर्चा चली तो भारत के थलसेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह ने इसका डटकर विरोध किया। अब घाटी में संघर्ष विराम की मांग का भी वहां के सैन्य अधिकारी कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका तो यहां तक कहना है कि सीमा पार से घुसपैठ को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए वर्तमान से दस गुणा ज्यादा फौज की तैनाती की जरूरत है। उनका मानना है कि थोड़ी भी ढील घाटी में हालात को बिगाड़ सकती है।
नेता तो आतंकवाद की आग में अपने हाथ सेंकने का मौका चाहते हैं और सेना के जनरल और जवानों की हर समय यह कोशिश रहती है केि
‘‘वादियों में लगी आग की यह तपन,
क्यारियों में खिले फूल मुरझा न दे,
झील के खूबसूरत शिकारे कहीं,
गोलियों की दनादन यह बिखरा न दे।’’

राष्ट्र विरोधी सोच रखने वाले दलों और नेताओं को लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुचित लाभ उठाने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। रमजान मुस्लिम भाइयों का बहुत बड़ा धार्मिक त्यौहार है। यह पूरी श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाना चाहिए। आतंकवादियों का तो कोई धर्म है ही नहीं। उनकी नजर में न इन्सानियत की कोई कीमत है न इन्सान की। उनका तो एक ही काम हैेसमाज में आतंक फैलाना। उनका रमजान से क्या संबंध? उन्हें थोड़ी भी राहत देने का अर्थ है आतंक फैलाने की छूट देना। आतंकवादियों के साथ पी.डी.पी. और नैशनल कांफ्रैंस के नेताओं की हमदर्दी हो सकती है आम देशवासियों की नहीं। वे तो अपने सभी त्यौहार अमनचैन और शान से मनाना चाहते हैं।
जम्मू-कश्मीर में संघर्ष विराम की मांग करने वाले नेता नहीं चाहते कि राज्य के लोग अपने त्यौहार अमनचैन के माहौल में मनाएं। ऐसे नेताओं को राष्ट्र विरोधी और जनता के दुश्मन ही कहा जाएगा। वे किसी हमदर्दी के पात्र नहीं हैं।
‘‘ओ मेरे देश के नौजवां रहबरो,
राहजनों को पुन: सिर उठाने न दो,
इस मुकुट की हिफाजत करो शक्ति से,
स्वाभिमानों को यूं लड़खड़ाने न दो।’’
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J&K CM builds mansion in hindu temple complex

Srinagar: No construction work is supposed to be done in the Green belt area around Srinagar’s Dal lake. The Jammu and Kashmir government clearly prohibits it. But then if it is the Chief Minister's residence inside a temple complex, the authorities choose to look the other way.
The only structure that exists here is a 2,000-year old Hindu temple. And adjacent to this ancient Hindu temple complex, a 16-room mansion is being built which, according to sources, belongs to Jammu and Kashmir Chief Minister Ghulam Nabi Azad.
Also, a three-storeyed structure is coming up within the periphery of the ancient Zetiar temple complex.
“The house belongs to the CM. We are constructing 16 more rooms and two halls,” said an official of one 'Zeastadevi Prabandhak Committee' that is taking care of the construction work.
“This building will take just two more months to complete,” said Shahji Bhat, another official.
Open land facing the lake belongs to the J&K government and must be maintained as a green belt, rules the Joseph Allen Stein, 1973 recommendation. No construction work is allowed within a range of 1,000 feet around the lake. However the caretakers of the lake are turning a blind eye to the ‘illegal’ structure.
“It definitely violates the norms. We will check and take action,” said Mir Naseem, vice- chairman, Lakes and Waterways Development Authority.
Enforcing law on CM's property seems easier said than done, even as the law gets flouted with impunity.

Link For Videos

http://www.ibnlive.com/videos/48702/ghulam-nabi-flouts-green-belt-norms-in-srinagar.html
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राम हैं तो रामसेतु भी है

जरा इस भारत नामक अपने देश को तो देखिए। जिस देश की 85 प्रतिशत आबादी हिंदू हो, यानी जिस देश में हिंदू जबर्दस्त बहुसंख्यक हों और जिस देश में वयस्क वोट आधारित लोकतांत्रिक शासन होने का ढोल सारी दुनिया में पीटा जा चुका हो, ठीक उसी देश में हिंदू के साथ उसकी सामाजिक मान्यताओं और आस्थाओं के साथ कैसा-कैसा खिलवाड़ कर दिया जा सकता है? देश में और विदेशों में बसे करोड़ों-करोड़ हिंदू राम को, कृष्ण को अपना आराध्य मानते हैं, आपस में मिलने पर राम-राम और जय श्रीकृष्ण का अभिवादन करते हैं, उनमें से जो भक्त हो गए, और ऐसे लोग भी असंख्य हैं, दिन रात चौबीसों घंटे उठते-बैठते, सोते-जागते राम का नाम जपते रहते हैं, उस देश के वे बुद्धिजीवी जिन्होंने प्रगतिशीलता को अपना धंधा बना लिया है, इतिहास और समाज पर शोध का नाटक करने वाली वे संस्थाएं जो इन्हीं धंधई प्रगतिशीलों के लोहे के पंजों में कैद हैं और वे विचार संवाहक जो प्रगतिशीलता का दंभ भरने वालों के काडर के रूप में बमुलाहिजा काम करते हैं, राम के ऐतिहासिक अस्तित्व पर ही सवालिया निशान उठाने की हिम्मत जुटा लेते हैं? आप भारत के किसी भी प्रदेश और कोने में चले जाइए (और हम अविभाजित भारत की ही बात कर रहे हैं), आपको वहां राम और कृष्ण के पदचाप के, कर्म और साधना के, वरदान और अभिशाप के, संतों के प्रति करूणा और दुष्टों के प्रति क्रोध के अमिट चिह्न मिल ही जाएंगे। राम और कृष्ण की ऐतिहासिक उपस्थिति के इन असंख्य प्रमाणों के बीचों-बीच अपने ही देश की सरकार उच्चतम न्यायालय में शपथपूर्वक कहती है कि राम इस देश में हुए या इस धरती पर कभी उनका जन्म हुआ था, इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सबूत नहीं मिलते। और इसकी प्रतिक्रिया में जब हिंदू भावनाओं की एक जबर्दस्त अभिव्यक्ति दिल्ली और बाकी देश के चौराहों पर नजर आती है तो आशंकित चुनावी पराजय के डर के मारे वही सरकार और उसके कृपापात्र कहने लग जाते हैं कि राम तो हुए पर रामसेतु नहीं था।
अर्थात पानी तो बरसा पर जमीन गीली नहीं हुई। आग तो जली पर तपिश महसूस नहीं हुई। हवा तो बही पर स्पर्श का अनुभव नहीं हुआ। रामसेतु का, जिसका दूसरा नाम नलसेतु भी है, क्योंकि उस सेतु का निर्माण राम के अपने विश्वेश्वरैया नल और उनके भाई नील के नेतृत्व में हनुमान सहित पूरी वानर सेना ने किया था, ऐसे रामसेतु का आज के आंखों देखे विवरण जैसा विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है। और वाल्मीकि वह महाकवि है जो पूरी रामकथा में स्वयं एक पात्र हैं। राम को जब प्रजा के दबाव में आकर सीता का निर्वासन करना पड़ा, तब निर्वासित सीता को इन्हीं आदि कवि वाल्मीकि ने ही अपने आश्रम में अपनी पुत्री की तरह रखा था। तब तक वाल्मीकि रामायण लिखकर अपनी आ॓र से उसकी फलश्रुति भी लिख कर समाप्त कर चुके थे। अर्थात वे राम के अयोध्या लौटने और उनके राज्याभिषेक तक की घटनाओं पर अपना प्रबंध काव्य लिखकर युद्धकांड पर ही रामायण को संपूर्ण कर चुके थे। पर सीता निर्वासन, फिर वाल्मीकि के आश्रम में सीता का रहना, वहीं पर लव-कुश का पैदा होना, बड़ा होना और फिर स्वयं वाल्मीकि की आंखों के सामने सीता का पृथ्वी प्रवेश और उसके कुछ समय बाद संतप्त राम की जल समाधि, इतने महत्वपूर्ण घटनाचक्र को देख वाल्मीकि को लगा कि इन सबको काव्यरूप देने के लिए उसी रामायण में एक कांड और जोड़ना जरूरी है। उन्होंने फिर अपनी पोथी खोली, उत्तरकांड लिखा और फिर से लिखी एक और समाप्ति सूचक फलश्रुति। यह सब रामायण की भूमिका में ही लिखा है। अब खबरें सामने आ चुकी है, उच्चतम न्यायालय में दाखिल किया गया शपथ पत्र केंद्र सरकार की, उसके संस्कृति, विधि और गृह मंत्रालयों की पूरी जानकारी और स्वीकृति के बाद ही दाखिल किया गया था। पर जब लगा कि करोड़ों वोट हाथ से खिसक रहे हैं तो सरकार के और सरकार में बैठी पार्टी के नेता अनजान होने का अभिनय करते हुए तलवारें भांजने लगे कि किसने ऐसा शपथ पत्र लिखा, राम तो हमारे आराध्य हैं, अब नया हलफनामा दाखिल होगा, सब ठीक कर दिया जाएगा, वगैरह। पर सचाई सामने आ गई। तो क्या वाल्मीकि भी अपनी रामायण में ऐसा ही कुछ लिख रहे थे? राम जन्मभूमि (अयोध्या) का वर्णन, राम वनवास, सीता हरण, रामसेतु का निर्माण, राम-रावण युद्ध, राम का लौटना और राज्याभिषेक और फिर अगली किस्त में सीता निर्वासन, सीता का पृथ्वी प्रवेश- यह सब झूठ उन्हें लिखने की क्या जरूरत थी? उनके हाथ से कौन से वोट खिसके जा रहे थे? किस सरकार में उन्हें शामिल होना था या उसे बचाना था? हमें तो वाल्मीकि कहीं से झूठ बोलते नजर नहीं आ रहे, क्योंकि हमने ऐसा झूठ आज तक नहीं पढ़ा या सुना जिसे हजारों सालों से किसी देश के करोड़ों-अरबों लोग बार-बार दोहराते रहे हों और उस झूठ के महानायक की आराधना करते रहे हों यानी आप तो हजारों सालों से इस देश में राम की पूजा कर रहे करोड़ों हिंदुओं को बेवकूफ और जाहिल साबित करने में उतारू हैं?
और अगर आज आप कहने को मजबूर हैं कि राम तो हुए, तो कल तो आप यह कहने को भी मजबूर होंगे कि राम हुए थे और उन्होंने रामसेतु भी बनवाया था। जो जरूरत से ज्यादा अक्लमंद लोग लेफ्ट के काडर की तरह इस कुप्रचार में लगे हैं कि राम का जल्वा सिर्फ उत्तर में है, दक्षिण में नहीं है, विंध्य के उस पार नहीं है तो उनसे भी हमारा निवेदन है कि हे मित्र, आप कृपया तमिल में लिखी कंबन की रामकथा और उसमें वर्णित नलसेतु पढ़ जाइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण में राम का जल्वा क्या और कैसा रहा है। अगर लेफ्ट को अहंकार हो कि उसके भारत यानी बंगाल में राम का कोई जल्वा ही नहीं था तो वे भी अगर बंगाली में लिखी कृतिवास रामायण पढ़ जाएंगे तो अपनी हीनता और दीनता में अपने बाल नोचते रह जाएंगे। पश्चिमी भारत वाले भावार्थ रामायण पढ़ लें, कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी रामायण पढ़ लें। या तो ये सभी रामकथाएं, जो तीन सौ से भी ऊपर हैं, सत्ता के लालच में झूठ बोल रही हैं, या फिर उनके द्वारा वर्णित राम थे, तो उन्हीं के द्वारा वर्णित रामसेतु भी राम ने ही बनाया था।
दुनिया का हर देश अपने यहां की पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों को ढूंढने और उन्हें बचाने में लगा रहता है और एक हम हैं कि रामसेतु जैसी स्वत: उपलब्ध ऐतिहासिक धरोहर को पर्यटन का महत्वपूर्ण केंद्र बनाने के बजाय उसे तोड़ने पर आमादा हैं।
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पोटा जैसे कानून लाए जाएं

हैदराबाद में शनिवार को हुए सीरियल बम धमाकों में किनका हाथ है, यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है लेकिन साफ है कि इस शहर में आतंकवादियों की घुसपैठ काफी मजबूत हो गई है। कट्टरपंथी तबके का यहां बोलबाला हो गया है। यहां लश्कर, हिजबुल मुजाहिदीन व हरकत उल जेहादी इस्लामी से जुड़े कई स्थानीय सेल्स हैं जिनका मकसद हर हाल में दहशत फैलाना है। सांप्रदायिक सौहार्द्रता को बिगाड़ने की कोशिश भी है जिसे मक्का मस्जिद में हुए हमले की पृष्ठभूमि में भी साफ देखा जा सकता है। विस्फोटकों और नकली नोटों की बरामदगी से भी साफ है कि आतंकवादी यहां अफरातफरी फैलाना चाहते हैं। अब सवाल यह है कि इन्हें चोट पहुंचाने के लिए किया क्या जाए? जाहिर है जिस एक उपाय पर आज लोग सबसे कम ध्यान दे रहे हैं वह है पोटा जैसे कानून की जरूरत। ऐसा कानून जो पकड़े गए आतंकवादियों को फांसी या सख्त सजा सुनाए।
पोटा को निरस्त कर मेरी समझ से अच्छा नहीं किया गया। अतिवादियों को इससे राहत ही मिली होगी। आज जिस जैश के आतंकवादी यहां इतने सक्रिय हैं अगर उसके सर्वेसर्वा मसूद अजहर को फांसी दे दी गई होती तो यकीनन संगठन कमजोर होता। अभी अफजल को फांसी दिये जाने में देरी हो रही है इसका भी फायदा आतंकवादी संगठन उठा लें तो कोई आश्चर्य नहीं। आतंकवादियों का मनोबल तोड़ने के लिए हमें न्यायिक प्रक्रिया में भी बदलाव लाना चाहिए। इसके तीव्र गति से मामलों का निष्पादन करना होगा, खासकर राष्ट्रदोह जैसे मामलों में। मैं जब पंजाब में था तो आतंकवादियों के विरूद्ध अभियान चलाने में मुझे मानवाधिकारवादियों की फिजूल रूकावटों का भी सामना करना पड़ा। वहां हर कार्रवाई पर उनका विरोध करना एक सामान्य बात हो गई थी, लेकिन किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि मानवाधिकार हनन की घटनायें कितनी सही थी। इक्का-दुक्का मामला हो भी तो इसे भूल-चूक समझा जाना चाहिए न कि सुरक्षा बलों की सोची-समझी अतिवादी कार्रवाई। फिर सुरक्षा बलों के अधिकारों के दायरे में भी बढ़ोतरी की जानी चाहिये ताकि वे अपने तरीके से काम कर सकें। सेना व सुरक्षा बलों के लिए आज भी सरकार की मंशा क्या है, इसे समझना टेढ़ी खीर होती है। सरकारें वोट बैंक के दायरे में रह कर काम करती हैं। एक सरकार जो कानून बनाती है दूसरी आते ही उसे निरस्त कर देती है। फिर केंद्र सिमी को आतंकी संगठन घोषित करता है तो कुछ राज्य नहीं। ऐसे मामले सुरक्षा बलों को न सिर्फ कनफ्यूज करते हैं बल्कि आतंकवादियों से निपटने में आप कितने ढीले हैं यह भी दर्शाते हैं। जैसे-जैसे आतंकवादियों का नेटवर्क भारत के भीतरी भागों में फैल रहा है इसके खिलाफ ठोस, कारगर व पारदर्शी नीति अपनानी होगी। आईबी और रॉ को मजबूती देनी होगी। अब खुफिया तंत्र को जिला स्तर पर फैलना होगा। आम लोग, वे चाहे किसी मजहब के हों- उन्हें शांति का माहौल बनाए रखने की दिशा में न्यूर्ट्रल न होकर सकारात्मक होना होगा।
दरअसल जैशे मोहम्मद, लश्करे तैयबा, हरकत उल मुजाहिदीन, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकत उल जेहादे इस्लामी की जड़ें देश में इतनी गहरी हो गई हैं कि इनके खिलाफ सख्ती व सतत कार्रवाई जरूरी है। इन संगठनों के देश में सैकड़ों सेल हैं। एक आतंकवादी को योजना की उतनी ही जानकारी होती है जितना उनका काम होता है। इससे एक से दूसरे तक पहुंचने का सूत्र ब्रेक होता है। किया यही जा सकता है कि जो पकड़े जाए, उनसे जितनी हो सके तत्काल खुफिया जानकारी लें और उन्हें कड़े दंड दे दिए जाएं। इन्हें जेल में रखने का कोई फायदा नहीं।
( श्री गिल पूर्व पुलिस महानिदेशक एवं
आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ हैं)
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मुसलमानों व ईसाइयों को आरक्षण

तमिलनाडु सरकार ने सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में मुसलमानों तथा ईसाइयों को अलग से आरक्षण देने के लिए आज एक अध्यादेश जारी किया। यह आरक्षण पिछड़े वर्गों के लिए मौजूदा आरक्षण में से ही दिया जाएगा।
मध्यावधि चुनावों की अटकलों के बीच मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि ने एक बयान में कहा कि प्रदेश सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों दोनों में से प्रत्येक को 3.5 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया है। यह हिस्सा प्रदेश में पिछड़े वर्गों के लिए दिये जा रहे 30 प्रतिशत आरक्षण में से ही निकाला जाएगा। यह आरक्षण द्रमुक के मुख्य चुनावी वायदों में शामिल था। आरक्षण 15 सितम्बर से लागू होगा। 15 सितम्बर को द्रमुक संस्थापक सीएन अन्नादुरै की 99वीं जयंती है।
करूणानिधि ने कहा कि न्यायमूर्ति जनार्दनम की अध्यक्षता वाले तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की थी कि दूसरे पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की जनगणना के अनुसार आरक्षण का प्रतिशत तय किया जा सकता है। मुख्यमंत्री ने कहा, ‘द्रमुक सरकार की अल्पसंख्यकों के प्रति हमेशा ही सहानुभूति रही है। हमारी पार्टी ने उनके लिए अलग से आरक्षण का वायदा किया था। दिवंगत सीएन अन्नादुरै की 99वीं जयंती पर तोहफे के रूप में 15 सितम्बर से अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आरक्षण शुरू किया जा रहा है।’
प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय लंबे समय से अपने लिए अलग से आरक्षण की मांग करता रहा है। प्रदेश सरकार के इस निर्णय का विदेश राज्य मंत्री ई. अहमद ने स्वागत किया और कहा कि अन्य राज्यों को भी तमिलनाडु का अनुसरण करना चाहिए। द्रमुक केंद्र की यूपीए सरकार का अहम घटक है।
आईयूएमएल महासचिव अहमद ने कहा कि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा में अन्य राज्यों को तमिलनाडु का अनुसरण करना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मैंने फोन पर करूणानिधि से बात की और अध्यादेश जारी कर मुसलमानों तथा ईसाइयों को आरक्षण देने के लिए उन्हें बधाई दी। मुझे विश्वास है कि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अन्य राज्य भी ऐसे ही कदम उठाएंगे।’
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श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री श्रीमती सोनिया गांधी और श्री करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।
वोटों के सौदागर अपने निहित स्वार्र्थों के लिए सब प्रकार के कुतर्क कर रहे हैं। रामसेतु की ऐतिहासिकता पर सब प्रकार के प्रमाण उपस्थित होने के बावजूद वे हिंदुओं के आस्थाओं के सबूत मांग रहे हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में केंद्रीय सरकार ने अपनी सब सीमाएं पार करते हुए रामायण में वर्णित घटनाओं पर प्रश्न चिह्न लगाने का दुस्साहस करते हुए हिंदू समाज की आस्थाओं को चोट पहुंचाई है। उन्होंने न केवल हिंदू समाज का अपमान किया है अपितु भगवान राम का भी अपमान किया है जिससे सम्पूर्ण हिंदू समाज आंदोलित हो उठा है। केंद्रीय सरकार को अपनी हठधर्मिता छोड़नी चाहिए और समय की चेतावनी को समझना चाहिए। कहीं ऐसा न हो जाए कि हिंदू समाज को अपने स्वभाव के विपरीत ऐसी भाषा बोलने के लिए विवश होना पड़ जाए जिस भाषा को यह केन्द्रीय सरकार समझती है।
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भारत को कुएं और खाई में से एक चुनना होगा

इंडियाटाइम्स
आतंकवाद का काला साया विश्व पर मंडरा रहा है। लेकिन उससे लड़ने के लिए सभी देश एक जुट होने का नाटक कर रहे हैं या उसकी आड़ में विश्व दो खेमों में बंटता जा रहा है। एक ओर अमेरिका का खेमा है, जो आतंकवाद के सफाए के लिए किसी भी देश की सीमाओं का उल्लंघन करने से परहेज नहीं कर रहा है। उसने अफगानिस्तान को तबाह किया, इराक की ऐसी की तैसी की। रूस और चीन के विरोध के बावजूद अमेरिका अपने एजेंडे विश्व समुदाय पर थोपता रहा। लेकिन क्या आगे भी विश्व समुदाय उसकी दादागिरी को मूक बनकर झेलता रहेगा ? लेकिन विश्व के दो खेमों में ध्रुवीकरण की आहट आने लगी है। भारत के सामने भी खाई और कुएं में से एक को चुनने की चुनौती होगी।
1813 से 1907 तक मध्य एशिया में दबदबे के लिए ब्रिटेन और रूस में कूटनीतिक खींचतान चलती रही। रूड्यार्ड किपलिंग ने 1901 में इसे 'द ग्रेट गेम ' का नाम दिया। अब 100 साल बाद फिर एशिया में एक दूसरे ग्रेट गेम की शुरुआत की आहट मिलने लगी है। इस गेम में एक कोर्ट में खड़े दिखाई पड़ रहे हैं रूस और चीन और दूसरे खेमे में हैं अमेरिका और जापान। इस खेल में भारत की भूमिका को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। यदि बंगाल की खाड़ी में चल रहे संयुक्त युद्धाभ्यास जिसे 'मालाबार 07' भी कहा जा रहा है, को संकेत माना जाए तो कह सकते हैं कि भारत चीन की ताकत को रोकने के लिए अमेरिकी खेमें की ओर झुक रहा है। 'मालाबार 07' में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर की नौसेनाएं भारत की नौसेना के साथ युद्धाभ्यास कर रही हैं। इसी कड़ी में अमेरिका - भारत न्यूक्लियर डील को भी माना जा रहा है। इन दो घटनाओं के कारण अनुमान लगाया जा रहा कि ग्रेट गेम में भारत अमेरिकी टीम में शामिल हो रहा है।
4 से 9 सितम्बर तक चलने वाले ' मालाबार 07 ' का उद्देश्य पायरेसी और आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त युद्धाभ्यास करना है। लेकिन जिस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका ने NATO ( नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी आरगनाइजेशन) का गठन करके वेस्टर्न यूरोप के देशों को अपने खेमे में कर लिया था, चीन मालाबार 07 को एशियन NATO के रूप में देख रहा है। चीन के अनुसार इसका मकसद चीन की बढ़ती आर्थिक, सैनिक और स्ट्रैटजिक ताकत पर लगाम लगाना है।
ऐसी स्थिति में चीन भला कैसे पीछे रह सकता है। उसने शंघाई कोआपरेशन (SCO) का गठन कर लिया है, जिसमें रूस के साथ ऊर्जा समृद्धि वाले मध्य एशियाई देश कजाकस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान जैसे देश शामिल हैं। गत माह इन ताकतों ने चीन के शिंजियांग और रूस के चरबाकुल में सैन्य ताकत का प्रदर्शन किया। इसका भी मकसद आतंकवाद पर लगाम लगाने का ही बताया गया था।
लगता है दुनिया आतंकवाद से लड़ने के नाम पर दो खेमों में बंट रही है। इस खेमेबाजी में भारत को अपने हितों को देखते हुए खेमे का चयन करना होगा। एक ओर अमेरिका है जो भारत के खिलाफ पाकिस्तान की मदद करता रहा है, और 1971 के युद्ध में उसने भारत के खिलाफ 7वां बेड़ा भी भेजा था। दूसरी ओर चीन है जिसके साथ 1962 में भारत दो-दो हाथ कर चुका है, और आज भी सीमा का विवाद चल रहा है , लेकिन उसके साथ है रूस जो भारत का ' ट्रस्टेड ' और ' टेस्टेड ' मित्र रहा है। आज के दौर में गुट निरपेक्षता का मतलब तो रह नहीं गया है, इसलिए भारत को खेमे का चयन करना होगा, या फिर अपना खेमा बनाना होगा, जिससे उसके हितों की अनदेखी न की जा सके। अब तक हुए दोनो ही विश्वयुद्धों में दुनिया दो खेमों में बंट गई थी। कहीं हम तीसरे विश्व युद्ध की तरफ तो नहीं बढ़ रहे है।
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आतंक का साया और नपुंसक राष्ट्र

नवभारतटाइम्स
आतंक का सामना करने की बात जब आती है तो भारत की तस्वीर एक नपुंसक राष्ट्र के रूप में उभरती है। पुलिस और नेता पुराना राग अलापते हैं लेकिन वास्तव में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होता। मुंबई बार-बार आतंकवादियों के निशाने पर चढ़ता है और सीरियल बम ब्लास्ट होते है। दिल्ली का भी बार-बार आतंकवादी चीर-हरण करते रहे हैं। चार माह में हैदराबाद को भी आतंकवादियों ने दो बार तार-तार करने का दुस्साहस किया है , बेंगलुरू में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस पर भी हमला किया गया। आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं और एक एक करके नए शहर उनके निशाने पर चढ़ते जा रहे हैं और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
स्थितियां भयावह हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि हमारा तंत्र आतंकवादी हमलों को रोकने में तो नाकाम है ही साथ में कसूरवार को पकड़कर अंजाम तक पहुंचाने में भी उसका रेकॉर्ड अच्छा नहीं है। 1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट के मामले में अभियुक्तों को अंजाम तक पहुंचाने में 14 साल लग गए। अभी तक उसके असली षडयंत्रकारी खुलेआम घूम रहे हैं। हमारे तंत्र में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति की कमी सदैव खलती है। और इससे भी खतरनाक है , ऐसे तत्वों के बारे में राजनीतिक प्रटेक्शन की कहानियों का बाजार में होना।
9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई की चौतरफा निंदा भले ही हो रही हो लेकिन दुनिया के सामने आज यह एक सच्चाई है कि 2001 के बाद से अमेरिका की ओर आतंकवादियों ने आंख उठाकर भी नहीं देखा है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि आतंकवाद के प्रति अमेरिका के अप्रोच का हम समर्थन कर रहे हैं। लेकिन कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और निर्दोष लोगों को आतंकवादियों के हाथों मरते देखते रहेंगे ? वक्त आ गया है कि हम आतंकवाद पर जवाबी हमला बोलें।
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इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय - गीता हो राष्‍ट्रीय ग्रन्‍थ और मदिंरों और हिन्‍दुओं का संगरक्षण दे सरकार

इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने अपने ताजे फैसले में कहा कि मंदिर या कोई भी धार्मिक संस्था की संपत्ति जिला न्यायाधीश की पूर्व अनुमति के बगैर बेची नहीं जा सकती, ऐसी बिक्री शून्य व अवैध मानी जायेगी। तथा राज्‍य सरकार को निर्देश जारी किया कि एक तदर्थ बोर्ड का गठन किया जाये, तब तक के लिये कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति आरएम सहाय की अध्यक्षता में तदर्थ बोर्ड गठित करने के साथ ही सरकार को निर्देश दिया है कि वह मंदिरों व धार्मिक संस्थाओं की रक्षा के लिए विशेष पुलिस बल बनाये और यह कार्यवाही तीन माह में पूरी कर दी जाये।
माननीय न्‍यायमूर्ति ने 104 पृष्ठ का निर्णय में इतिह‍ास के साक्ष्‍य प्रकट करते हुए कहा कि विगत 1300 वर्षो से लगातार सांप्रदायिक एवं समाज विरोधी तत्वों द्वारा हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है इस प्रकार के प्रकरणों से सीख लेते हुए राज्य का यह दायित्व है कि वह हिन्दू मंदिरों व धार्मिक संस्थाओं को संरक्षण प्रदान करे और इसके लिए अलग से पुलिस बल या स्पेशल सेल गठित किया जाये।
न्‍यायालय ने धर्मिक स्‍वतंत्रता से सम्‍बन्धि स‍ंविधान की अनुच्‍छेद 25 व 26 का जिक्र करते हुऐ कहा कि हिन्दुओं को भी धार्मिक आजादी का पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए क्‍योकि आजादी के बाद से कुछ विशेष सम्‍प्राद के व्‍यक्तियों की जनसंख्‍या पूरे भारत के कुछ जिले/मोहल्‍लों में अप्रत्‍याशित रूप से वृद्धि हुई है। और इसके फल स्‍वरूप हिन्‍दू जनसंख्‍या अपनी सुरक्षा के लिये अपनी जमीन व मंदिर की संपत्ति बेचकर सुरक्षित हिन्दू बहुल क्षेत्रों में बस रहे है।
न्‍यायालय ने राज्‍य को निर्देशित किया कि मंदिरों की सुरक्षा के लिए कानून बनाये ताकि समाजविरोधी सांप्रदायिक तत्वों के मंदिरों पर हमले की प्रवृत्ति पर रोक लगायी जा सके। इसी के साथ न्यायालय ने तिलभांडेश्वर वाराणसी स्थित श्री शालिगराम शिला गोपाल ठाकुर की प्रतिमा पुनस्र्थापित कर रखरखाव का निर्देश दिया है और राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह मंदिर के सेवाइती को पूर्ण सहयोग प्रदान करे ताकि मंदिर में राग, भोग व पूजा शांतिपूर्ण ढंग से चलती रहे। एक संप्रदाय की बढ़ती आबादी व तनाव के चलते मंदिर बेचकर उसे इलाहाबाद लाया जा रहा था। इस मामले में न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के आदेश को रद कर दिया है। यह आदेश न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव ने गोपाल ठाकुर मंदिर के सेवाइत श्यामल राजन मुखर्जी की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है।
न्यायालय ने हिन्दू मंदिरों की देखरेख व सुरक्षा के लिए राज्य सरकार को हिन्दू मंदिरों का बोर्ड गठित करने को भी कहा, जो मंदिरों का पंजीकरण, रखरखाव व प्रबंधन का काम देखेगा इसके सदस्‍य सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय तथा प्रमुख सचिव धर्मादा उप्र सरकार सदस्य सचिव होंगे। माननीय न्‍यायालय ने तदर्थ बोर्ड से कहा कि मामले की जॉच कर चार माह में राज्य सरकार को रिर्पोट सौंप दें। और राज्‍य सरकार को भी आदेश दिया कि वह किसी को भी मंदिरों या धार्मिक संस्थाओं, मठ आदि की संपत्ति बेचने की अनुमति न दे जब तक कि जिला न्यायाधीश की अनुमति न प्राप्त कर ली गई हो

एक अन्‍य मामले में माननीय न्‍यायमूर्ति श्री श्रीवास्‍तव ने फैलसा देते हुए कहा कि राष्ट्रीय ध्वज , राष्ट्रगान , राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय पुष्प के समान भगवद्गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित किया जाना चाहिए। जस्टिस श्रीवास्तव ने वाराणसी के गोपाल ठाकुर मंदिर के पुजारी श्यामल राजन मुखर्जी की याचिका पर फैसला देते हुए कहा कि देश की आजादी के आंदोलन की प्रेरणास्रोत रही भगवद्गीता भारतीय जीवन पद्धति है। उन्होंने कहा कि इसलिए संविधान के अनुच्छेद 51( ए ) के तहत देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह इसके आदर्शों पर अमल करें और इस राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा करें।
न्‍यायालय ने अपने आदेश में कहा कि भगवद्गीता के उपदेश किसी खास संप्रदाय की नहीं है बल्कि सभी संप्रदायों की गाइडिंग फोर्स है। गीता के उपदेश बिना परिणाम की परवाह किए धर्म के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं। यह भारत का धर्मशास्त्र है जिसे संप्रदायों के बीच जकड़ा नहीं जा सकता। न्‍यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव ने कहा कि संविधान के मूलकर्तव्यों के तहत राज्य का यह दायित्व है कि भगवद्गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र की मान्यता दे।
न्‍यायलय ने यह भी कहा कि भारत में जन्मे सभी सम्प्रदाय, सिख, जैन, बौद्ध आदि हिदुत्व का हिस्सा है जो भी व्यक्ति ईसाई, पारसी, मुस्लिम, यहूदी नहीं है वह हिन्दू हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 व 26 के तहत अन्य धर्मो के अनुयायियों की तरह हिन्दुओं को भी अपने सम्प्रदायों का संरक्षण प्राप्त करने का हक है। न्यायालय ने कहा है कि भगवत् गीता हमारे नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों की संवाहक है यह हिन्दू धर्म के हर सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करती है इस लिए प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह इसके आदर्शो को अमल में लाये।
माननीय न्‍यायमूर्ति के इन फैसलों से इस अल्‍पसंख्‍यकों की वस्तविकता स्‍पष्‍ट करती है वरन इलाहाबाद और आगरा की घटनाओं के बाद हुई हिंसा से इनकी कट्टारता भी प्रकट करती है। इसके पूर्व में भी माननीय न्‍यायमूर्ति ने मुस्लिम अल्‍पसंख्‍यक नही का जो फैसला दिया था वह गलत नही था। क्‍योकि आज वे संख्‍या में भले हिन्‍दु से कम है किन्‍तु आज जिन इलाकों में वे हिन्‍दुओं से संख्‍याबल में ज्‍यादा है वहॉं पर हिन्‍दुओं का सर्वधिक अहित हुआ है। अगरा में ट्रक के टक्‍कर के परिणाम हिन्‍दुओं की दुकानों को लूट कर किया गया इलाहाबाद के करेली की अफवाह के परिणाम स्‍वरूप हिन्‍दु बस्‍ती की तरफ हमले की योजना रची गई अगर कर्फ्यू न लगा होता तो शायद वस्‍तु‍ स्थिति कुछ और होती तथा इसके साथ ही साथ कर्फ्यू के कारण कई परिवारों के भोजन नही नसीब नही हुआ। वास्‍तव आज न्‍यायालय के निर्णय समाज और सरकार को वस्तिविकता का शीशा दिखा रहा है। जो सरकार आज अल्‍पसंख्‍यक वाद का ढोग रच रही है उसे वास्तविकता के आगे जागना होगा।
माननीय न्‍यायमूर्ति जी को उनके फैसले तथा स्‍वर्णिम कार्यकाल के लिये हार्दिक शुभकामनाऐं।
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वेद व हिन्दू पुस्तकों में जातिवाद का कोई स्थान नही

ओ.पी. गुप्ता

फिनलैड मे भारत के राजदूत

विश्व मे हिन्दुओ के कुल प्रतिशत संख्या मे लगातार कमी आ रही है। ऐसा सदियो से हो रहा है। विश्व ही नही भारत मे भी ऐसा ही हो रहा है। भारत की जनसंख्या मे 1951 मे 84.98 प्रतिशत हिन्दू थे। 1971 मे यह प्रतिशत घटकर 82.7 प्रतिशत रह गई। पुन: 1981 मे यह घटी और यह 82.6 प्रतिशत हो गई। जबकि 1991 मे यह 82.41 प्रतिशत हो गई। जनगणना आंकड़ो की ऑनलाइन रिपोर्ट (टेबल 23 व 24 www.censusindia.net) आंकड़ो मे हालांकि इसे 82 प्रतिशत कर दिया गया है। वर्ष 2001 की आधिकारिक रिपोर्ट अभी आनी है। श्री रमेश चंदर डोगरा-उर्मिला डोगरा की पुस्तक 'लेट अस नो हिन्दुइज्म' के पृष्ठ 34 पर भारत मे हिन्दुओ की सख्या कुल आबादी का 79 प्रतिशत ही प्रकाशित किया गया है। संख्या मे हो रही इस कमी के लिए हम हिन्दू ही दोषी है। यह स्थिति हमे अपने सामाजिक-धार्मिक स्थिति के विवेचन के लिए बाध्य करती है। एक ओर जहां इस्लामिक पुजारी (मुफ्ती) एवं ईसाई पादरी पूरे जोर-शोर से लोगो को अपने धर्म मे लाने के लिए धर्म परिवर्तन कराने के लिए दिन-रात प्रयत्‍‌नशील है ताकि उनका भौगोलिक व संख्यात्मक अनुपात बढ़ सके, वही ऋग्वेद मे वर्णित समानता से विमुख हिंन्दू पुजारी मनुस्मृति की आड़ मे पूरे जोर-शोर से हजारो सालो से हिन्दुओ की संख्या को कम करने मे लगे हुए है। ये पुजारी ऐसे धार्मिक प्रतिपादनो को बढ़ावा देते रहे है कि हिन्दुओ का एक बड़ा तबका (जिसे आज अनुसूचित जाति/जनजाति व दलित वर्ग के नाम से जाना जाता है) अपने को हिन्दू बनाए रखने मे कठिनाई महसूस कर रहा है। उसके सामने यह कठिनाई जातिवादी बंधन, उसके आधार पर भेदभाव, विधवा विवाह पर हाय तौबा ऐसे कारक है जिससे हिन्दू समाज टूटता है। इसके विपरीत ये पुजारी दूसरे लोगो को हिन्दू बनाने मे कही से भी इच्छुक नही दिखते, न ही इसके लिए प्रयास करते है। [ विधवा विवाह RV(X.40.2), RV(X.18.8), RV(X.18.9], अथर्वेद (i3.5.27-28), एवं AV(XVIII.3.1-4) के तहत अधिकृत किया गया है।
ऋग्वेद, रामायण,एवं श्रीमद्भागवत गीता मे जन्म के आधार पर जाति, ऊंची व नीची जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की अवधारणा को ही वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41)मे मिलता है। अगर ऋग्वेद की ऋचाओ व गीता के श्लोको को गौर से पढ़ा जाए तथा भगवान राम द्वारा स्थापित मानदंडो पर गौर किया जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नही है। अगर सामान्य रूप से भी देखा जाए तो साफ है कि ऋग्वैदिक ऋषियो के नाम के आगे वर्तमान मे लिखे जाने वाले पंडित, चतुर्वेदी, त्रिपाठी, सिंह, राव, गुप्ता, नंबूदरी जैसे जातिसूचक शब्द नही होते थे।
ऋग्वेद की ऋचाओ मे लगभग 414 ऋषियो के नाम मिलते है जिनमे से लगभग 30 नाम महिला ऋषियो के है। इससे साफ होता है कि उस समय महिलाओ की शिक्षा या उन्हे आगे बढ़ने के मामले मे कोई रोक नही थी, उनके साथ कोई भेदभाव नही था। स्वयं भगवान ने ऋग्वेद की ऋचाओ को ग्रहण करने के लिए महिलाओ को पुरुषो के बराबर योग्य माना था। इसका सीधा आशय है कि वेदो को पढ़ने के मामले मे महिलाओ को बराबरी का दर्जा दिया गया है। वैदिक रीतियो के तहत वास्तव मे RV(X.85) विवाह के दौरान रस्मो मे ब्7 श्लोको के वाचन का विधान है जिसे महिला ऋषि सूर्या सावित्री को भगवान ने बताया था। इसके बगैर विवाह को अपूर्ण माना गया है। पर अज्ञानता के कारण ज्यादातर लोग इन विवाह सूत्र वैदिक ऋचाओं का पाठ सप्तपदी के समय नही करते है और विवाह एक तरह से अपूर्ण ही रह जाता है। ऐसे मे अभिभावको को चाहिए कि वे इस बात का ध्यान रखे कि विवाह के दौरान इन (\क्त्रफ्\स्.8भ्\क्त्र\स्) ऋचाओं का वाचन हो। यदि विवाह संपन्न करा रहा पंडित ऐसा नही करता है तो अभिभावको को सप्तपदी से पूर्व मंडप मे इसके (X.85) वाचन के लिए पण्डित पर जोर देना चाहिए। कुछ हिन्दी फिल्मो मे आप विवाह के दौरान दुर्गा सप्तपदी का वाचन के दृश्य देख सकते है।
हिंदुओ के लिए वेद, वाल्मीकि रामायण और गीता, ये तीन धार्मिक पुस्तकें ही सर्वोपरि है। बाकी सब (ब्राह्मण, उपनिषद, पुराण, सूत्र और स्मृति) टिप्पणियां, विवरणिकाएं, ऐतिहासिक घटनाओ से जोड़ी गई कहानिया या कवियो की कल्पनाएं है जो द्वितीयक है कई पुराणो मे साफ तौर पर कहा गया है कि ये काकभुसुण्डी, शंकराचार्य या दूसरे संतो द्वारा सुनाई गई कहानियां (महात्म्य) है। ऐसे मे इन सब पर वेदो की सर्वोच्चता साफ तौर पर स्थापित है। उदाहरण के लिए मनुस्मृति मे श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। मनुस्मृति (II.13) भी वेदो की सर्वोच्चता को मानते हुए कहती है कि कानून श्रुति अर्थात वेद है। ऐसे मे तार्किक रूप से कहा जा सकता है कि मनुस्मृति की जो बाते वेदो की बातो का खंडन करती है, वह खारिज करने योग्य है। चारों वेदो के संकलनकर्ता/संपादक का ओहदा प्राप्त करने वाले तथा महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता और दूसरे सभी पुराणो के रचयिता महर्षि वेद व्यास ने स्वयं (महाभारत 1-V-4) लिखा है-
श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥

अर्थात जहां कही भी वेदो और दूसरे ग्रंथो मे विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात की मान्य होगी। 1899 मे प्रोफेसर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक ''ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर'' के पेज 28 पर लिखा है कि वेदो की श्रुतियां संदेह के दायरे से तब बाहर होती है जब स्मृति के मामले मे उनकी तुलना होती है। पेज 31 पर उन्होने लिखा है कि सामान्य रूप मे धर्म सूत्र भारतीय कानून के सर्वाधिक पुराने स्त्रोत है और वेदो से काफी नजदीक से जुड़े है जिसका वे उल्लेख करते है और जिन्हे धर्म का सर्वोच्च स्त्रोत स्थान हासिल है। इस तरह मैकडोनेल बाकी सभी धार्मिक पुस्तको पर वेदो की सर्वोच्चता को स्थापित मानते है। न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्य भी अपनी पुस्तक ''हिंदू लॉ एंड कांस्टीच्यूशन'' के पेज 16 पर लिखा है कि अगर श्रुति और स्मृति मे कही भी अंतर्विरोध हो तो तो श्रुति (वेद) को ही श्रेष्ठ माना जाएगा लेकिन ब्रिटिश अदालते इसका उलट ही करता रही। न्यायमूर्ति भट्टाचार्य (पेज 18) पर कहते है कि प्रचलन मे ब्रिटिश अदालतो मे टिप्पणियो और निबंधो ने वेदो का स्थान ले लिया। आत्माराम बनाम बाजीराव के मामले मे प्रिवी काउंसिल ने कहा कि टिप्पणियां वेदो से ऊपर है। पेज 37 पर उल्लेख किया गया है कि प्रिवी काउंसिल के निर्णय के आलोक मे दिए गए रामनाद मामले (1868) के निर्णय के बाद हिंदुओ के लिए यह जानने का रास्ता भी बंद हो गया कि विवादित मुद्दे वेदो के अनुकूल है भी या नही। इस तरह ब्रिटिश अदालतो ने धीरे-धीरे वेदो की सर्वोच्चता को खत्म करना आरंभ किया और दूसरे ग्रंथो की बातो को ऊपर रख दिया गया। इसमे 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का भी बड़ा योगदान रहा जो ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था।
कोई इस बात पर एक मत नही है कि वेद, रामायण और गीता कितनी पुरानी है? उनका वास्तविक काल क्या है? यूरोपीय विद्वानो का मानना है कि ऋग्वेद की रचना ईसा पूर्व 1500 से 1200 मे हुई। ऋग्वेद मे 414 ऋषियो की श्रुतियां है। एक तरह से इसे 414 ऋषियो की धर्म संसद द्वारा मान्यता प्राप्त और पवित्र ग्रंथ माना जा सकता है। इसके बाद ही रामायण और महाभारत की रचना हुई। श्रीमद्भागवत गीता महाभारत का ही अंग है। अन्य विद्वानो का मत है कि ऋग्वेद की रचना ईसा पूर्व 5000 से भी बहुत पहले हुई होगी क्योकि इसमे कपास तक का जिक्र नही है जबकि ईसा पूर्व 5000 के दौरान महरगढ़ (बलूचिस्तान) मे कपास पाया गया है (साइंटिफिक अमेरिकन जर्नल, अगस्त 1980)। दूसरे कई अन्य तथ्य भी स्थापित करते है कि ऋग्वेद ईसा पूर्व 5000 से बहुत पहले की रचना है। माना जाता है कि मनुस्मृति की रचना इसके बहुत बाद मे कुषाण काल के दौरान हुई जो चाणक्य/कौटिल्य के 100 साल बाद का काल है। पटना, बिहार मे जन्मे आक्सफोर्ड कॉलेज के प्राचार्य रह चुके अर्थर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक 'ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर' मे लिखा है कि वर्तमान स्वरूप वाली मनुस्मृति सन् 200 के आसपास लिखी गई प्रतीत होती है जबकि यज्ञवालक्य धर्म सूत्र सन् 350, मिताक्षर सन् 1100, प्रसार स्मृति सन् 1300 और दयाभाग सन् 1500 के आसपास लिखी गई प्रतीत होती है। पेज 366 पर मैकडोनेल लिखते है कि बाद मे ब्राह्मणो ने ब्राह्मणो के फायदे के लिए जातिवाद का प्रवर्तन किया और तथ्यो को तोड़ मरोड़कर पेश किया। बाद की किसी भी पुस्तक को किसी धर्म संसद ने मान्यता दी हो, इसका प्रमाण नही मिलता है। ऐसे मे मैकडोनेल सलाह देते है कि अच्छा होगा यदि स्मृति मे किसी बाहरी स्त्रोत के दावे/बयान को जांच लिया जाए। पर ब्रिटिश भारतीय अदालतो ने उनकी इस राय की उपेक्षा कर दी। साथ ही मनुस्मृति के वास्तविक विषय वस्तु के साथ भी खिलवाड़ किया गया जिसे ईस्ट इंडिया के कर्मचारी सर विलियम जोस ने स्वीकार किया है जिन्होने मनु स्मृति को हिंदुओ के कानूनी पुस्तक के रूप में ब्रिटिश भारतीय अदालतो मे पेश और प्रचारित किया था। मनुस्मृति मे ऐसे कई श्लोक है जो एक दूसरे के प्रतिलोम है और ये साबित करते है कि वास्तविक रचना के साथ हेरफेर किया गया है, उसमे बदलाव किया गया है। बरट्रेड रसेल ने अपनी पुस्तक पावर मे लिखा है कि प्राचीन काल मे पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। मध्य काल में यूरोप मे कई ऐसे देश थे जिसका शासक पोप की सहमत के सहारे राज्य पर शासनरत था। मतलब यह कि धर्म के नाम पर समाज के एक तबके द्वारा शक्ति संग्रहण भारत से इतर अन्य जगहो पर भी चल रहा था।
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्क्)

अर्थात बलि देने के लिए पुरुष को कितने भागो मे विभाजित किया गया? उनके मुख को क्या कहा गया, उनके बांह को क्या और इसी तरह उनकी जंघा और पैर को क्या कहा गया? इस श्लोक का अनुवाद राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ ने भी कमो-बेश यही किया है।
रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृ त:।

ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्ख्)

इस श्लोक का अनुवाद एचएच विल्सन ने पुरुष का मुख ब्राह्मण बना , बाहु क्षत्रिय एवं जंघा वैश्य बना एवं चरण से शूद्रो की उत्पत्ती हुई किया है। ठीक इसी श्लोक का अनुवाद ग्रिफिथ ने कुछ अलग तरह से ऐसे किया है- पुरुष के मुख मे ब्राह्मण, बाहू मे क्षत्रिय, जंघा मे वैश्य और पैर मे शूद्र का निवास है। इसी बात को आसानी से प्राप्त होने वाली दक्षिणा की मोटी रकम को अनुवांशिक बनाने के लिए कुछ स्वार्थी ब्राह्मणो द्वारा तोड़-मरोड़ कर मनुस्मृति मे लिखा गया कि चूंकि ब्राह्मणो की उत्पत्ती ब्रह्मा के मुख से हुई है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है तथा शूद्रो की उत्पत्ती ब्रह्मा के पैर से हुई है इसलिए वह सबसे निकृष्ट और अपवित्र है। मनुस्मृति के 5/132 वे श्लोक मे कहा गया है कि शरीर मे नाभि के ऊपर का हिस्सा पवित्र है जबकि नाभि से नीचे का हिस्सा अपवित्र है। जबकि ऋग्वेद मे इस तरह का कोई विभाजन नही है। इतना ही नही इस प्रश्न पर इतिहासकारो के भी अलग-अलग विचार है। संभवत: मनुस्मृति मे पुरुष के शरीर के इस तरह विभाजन करने के पीछे समाज के एक वर्ग को दबाने, बांटने की साजिश रही होगी। मनुस्मृति के श्लोक सं1.31 के अनुसार ब्रह्मा ने लोगो के कल्याण(लोकवृद्धि)के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र का क्रमश: मुख, बाहू, जंघा और पैर से निर्माण किया। जबकि ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के रचयिता नारायण ऋषि के आदेश इसके ठीक उलट है। उन्होने सरल तरीके से (10.90.11-12)यह बताया है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर से मुख, बाहू, जंघा और पैर अलग कर दिया जाए तो वह ब्रह्मा ही क्यो न हो मर जाएगा। कदाचित मनुस्मृति के अनुसरणकर्ता इसमे वर्णित जाति व्यवस्था का पालन करने के साथ ही हिंदू समाज को विभाजित करने के रूप मे सदियो से यही कार्य कर रहे है। इसके कारण हिंदू समाज अंदर से जाति के आधार पर विभाजित हो रहा है और यहां तक कि एक-दूसरे से लड़ने को भी तैयार है। शूद्रो को समाज से बाहर रहने की बंदिश लगा कर एक तरह से हिंदू धर्म के पैर को काट दिया है, जिससे हिंदू धर्म क्षरित हो रहा है और हिंदुओ की संख्या के घटते जाने, एवं हिंदू धर्म के अप्रासंगिक होते जाने का यह बहुत बड़ा कारण है।
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Is this Secularism? Think Hindu




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A Call to Nation

Over the last decade about 20,000 people have been killed in Jammu and Kashmir due to Pakistan supported Islamic terrorism. In 2005, naxalite violence has claimed 669 lives including 153 police personnel in 1594 incidents as against 556 casualties in 1533 incidents in 2004.
The attempts have been made for the Christianization of Tirupathi- Hindu holy place in Andra Pradesh by Christian missionaries.
The appeasement of minorities especially the Muslim community has increased with the tabulation of fraud report of Jaustic Sachar Committee
In India, Hindus who are in numerical Majority are in Moral minority. The Hindu interests are neither taken care of nor protected. It may be Government control of Hindu temples and diverting its funds for non-Hindu causes or the propagation of the Aryan invasion lie or even the negationism of the holocaust experienced by Hindus in the past. For last thousand years, Hindu society is continuously being targeted first, by Islamic invaders, then by Christian British rulers, and now, after independence by Islamic terrorism, Christian Misionaryism, Marxist Goondaism, and Nehruvian Psuedo-secularism.
The War against Hindus had started with the unsuccessful attempts made by Caliph Umar[634AD-644AD] to infiltrate into Sindh region of Bharath of that time and is still going on. About 80 million9 Hindus lost their lives while fighting the Islamic rule in the middle ages, and thousands died during freedom struggle. But even now suffering of Hindus have not ended. 300,00010 Kashmiri Pandits had been driven out of their ancestral land in the name of Ethnic cleansing by the Muslim fundamentalists of Kashmir, But, still Media which blown out of proportion, the murder of Graham Stains, didn’t even gave the attention they deserved. In India, secularism for all practical purposes have become Anti-Majority[Hindus] and Pro-Minority.
In one side, Jehadis are trying to bring another partition of India, by isolating North-East from rest of India [Jan 15,2005,The Pioneer], on Other side, Hindus are being forcibly converted into Christianity. Then, the Marxists and Pseudo-secularists are assisting these Anti-national forces. Hindus have to get united forgetting their difference in caste, community, beliefs, region, language and sex and protect Hindu Nation. This war which Hindus have been fighting for almost 1400 years is a war which they have to Fight for Honor, for Nation, culture and existence because their very existence is in question. This is a call to Nation, a call to Hindus and all Nationalists to Fight for Victory.
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Bangladeshi Infiltrations – A Silent Invasion

Bangladesh, officially the People's Republic of Bangladesh was formed in 1971, under the leadership of Sheikh Mujibur Rahman after the bloody Bangladesh Liberation War, in which it was supported by India.1 But, today Bangladesh had become home for Islamic terrorist outfits like Harkat-ul-Jehad-al-Islami (HuJI), Jagrata Muslim Janata Bangladesh (JMJB) ,Jama'atul Mujahideen Bangladesh (JMB), Purba Bangla Communist Party (PBCP).2 North-East India’s separatist outfits like ULFA [Assam], ANVC[Meghalaya],NLFT[Tripura], NSCN[Nagaland], PLA[Manipur] have there camps in Bangladesh. These organizations are involved not only in creating chaos in India but also ethnic cleansing of minorities in Bangladesh. The Hindu population of Bangladesh[then East Pakistan] in 1947 was 29.17%, but it decreased to 2.5% in 2001.4
According to the 2001 census report Indian population is 1,027,015,247.3 Of this, 1.5 crore people of Bangladeshi Infiltrators who are living in India.5 The Intelligence Bureau has reportedly estimated, after an extensive survey, that the present number is about 16 million. The August 2000 report of the Task Force on Border Management placed the figure at 15 million, with 300,000 Bangladeshis entering India illegally every month.6 It is estimated that about 13 lakh Bangladeshis live in Delhi alone. It has been reported that 1 crore Bangladeshis are missing from Bangladesh[August 4,1991,Morning Sun] and it implies that those people have infiltrated India. These infiltrators mainly settle in North-East India and in West Bengal. This is shown by the fact that there has been irregular increase in the muslim population in these states and many of the districts have become Muslim majority. The proportion of Muslims in Assam had increased from 24.68% in 1951 to 30.91% in 2001.Whereas in the same time period the proportion of Muslims in India increased from 9.91% to 13.42%.7 In West Bengal, the Muslim population in west Dinajpur, Maldah, Birbhum and Murshidabad percentage wise in 36.75, 47.49, 33.06 and 61.39 respectively according to 1991 census.
This has not only caused the burden on the Indian Economy, but also threatens the Identity of the Indigenous people of the North-East of India. In Tripura, another north eastern state of India, the local population have been turned into a minority community over time by the sheer numbers of cross border migrants from Bangladesh. In 1947, 56 per cent of Tripura’s population consisted of tribal (or indigenous) population. Today this stands at a quarter of the total.8 In many districts these infiltrators are the one who decides the outcome of elections. Outcomes of the 32% of Vidhana Sabha seats in Assam and 18% of seats in West Bengal are decided by them.9 This is due to the fact that political parties are helping them to get Ration Cards and Voters ID and hence using them to win elections.
North-Eastern region is connected to rest of India by a small strip called “The Siliguri Corridor” or “Chickan’s Neck”.The militants have planned to isolate North-East of India from the rest of India and to create a new Muslim nation called “Islamistan”. This Operation is named as “Operation Pincode”. For this they have planned to infiltrate 3000 Jihadis into North Eastren region.[Jan 15, 2005,The Pioneer]. The “Mughalistan Reaserch Institute Of Bangladesh” has released a map where a muslim corridor named “Mughalistan” connects Pakistan and Bangladesh via India. According to the task force, there are 905 Mosques and 439 Madrasas along Indo-Bangladesh border on the Indian side10.
These clearly indicate the intensity of the problem. Bangladesh with the help of ISI is silently invading India. If we do not take necessary measures India will undergo another partition. The present laws to counter the infiltration issues is not enough. We need to enact stringent laws. Indians should economically boycott them and create a hostile situation for them.
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ULFA - A Threat To Nationalism

The recent killings of more than 50 Hindi speaking population of Assam1 are the remainder of how situation in Assam is out of control. About 138,212,194,149 and 96 civilians have been killed in 2002, 2003, 2004, 2005, and 2006 respectively due to terrorist violence. From 1992 onwards about 4443 people have been killed in terrorist violence of which 1373 terrorists and 611 security forces have been killed.
There are many insurgent groups operating in Assam like-National Democratic Front of Bodoland (NDFB), United Liberation Front of Asom (ULFA), Adivasi Cobra Force (ACF), Muslim United Liberation Tigers of Assam (MULTA) United People's Democratic Solidarity (UPDS), Bodo Liberation Tigers [BLT].Only NDFB and ULFA are banned organizations. ULFA was banned in 1990.
United Liberation Front of Asom (ULFA) was formed on April 7, 1979 by Bhimakanta Buragohain, Rajiv Rajkonwar alias Arabinda Rajkhowa, Golap Baruah alias Anup Chetia, Samiran Gogoi alias Pradip Gogoi, Bhadreshwar Gohain and Paresh Baruah at the Rang Ghar in Sibsagar to establish a "sovereign socialist Assam" through an armed struggle.3 It considers itself a "revolutionary political organization" engaged in a "liberation struggle" against India for the establishment of a sovereign, independent Assam.
Some of the major assassinations by ULFA include that of Surendra Paul in May 1990, the brother of businessman Lord Swraj Paul, that precipitated a situation leading to the sacking of the Government of Assam under Prafulla Mahanta and the beginning of Operation Bajrang. In 1997, Sanjay Ghose, a social activist and a relative of a high ranking Indian diplomat, was kidnapped and killed An unsuccessful assassination attempt was made on AGP Chief Minister Prafulla Kumar Mahanta in 1997. A mass grave, discovered at a destroyed ULFA camp in Lakhipathar forest, showed evidence of executions committed by ULFA.
During the Kargil conflict, the ULFA issued a statement condemning Indian Government's role in Kashmir. The language of the above statement was exactly the same as that issued by the Harkat-ul-Mujahideen, a Pakistan based terrorist outfit controlled by the ISI. There are enough evidences to prove that ISI had provided training to many cadres of ULFA apart from arms supply to them.
According to ULFA Assam is not a part of India but an independent country. It has been killing Hindi-speaking people on the basis that Hindi speakers are Indians. But if we allow this type of tendency to grow, and then there will be an ULFA in every non-Hindi speaking state. ULFA is a threat to India’s unity and integrity. It was a blunder on the part of the government to announce ceasefire or try to have negotiation with such an organization helping them to regroup and increase their strength. Realization of this blunder made Gogoi to say on Jan 15-“In retrospect, I admit that the judgment may be a little wrong when we offered a ceasefire to the ULFA.”
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Neighbour or invader?

Author: Dina Nath Mishra
Publication: The Pioneer
Date: February 23, 2003

No country faces the problem of illegal migrants as gigantic as India does. Over two crore Bangladeshis are residing in this country, mostly in neighbouring States. Cities like Delhi, Mumbai and Ahmedabad have lakh of Bangladeshi infiltrators living there. These infiltrators are involved in many heinous crimes. The Indian Government puts their figure at 1.5 crore. Their numbers are more than the total Afghan population. The menace has changed the demography of the entire East.
The most affected States are West Bengal, Assam, Bihar, Tripura and Northeast States. The six border districts of West Bengal, viz South 24 Parganas, North 24 Parganas, Nadia, Murshidabad, Malda and West Dinajpur; four districts of Bihar, viz. Purnia, Katihar, Kishanganj and Araria; and 10 districts of Assam, viz Dhubri, Barpeta, Bongaigaon, Nalhari, Kokrajai, Lakhimpur, Darrang, Nagaon and Kamrup have become extensions of Bangladesh. If nothing is done, India will certainly face demands for another partition in the coming decades. Already, there is a demand for 'Greater Bangladesh' by a couple of Dhaka-based organisations, funded by ISI. India has 4,096 kms border with Bangladesh. On almost the entire border, there is already 5-15 kms deep strip within the Indian side totally populated by Bangladeshi Muslims.
After Pakistan's partition and creation of Bangladesh, infiltration changed into a systematic and planned demographic aggression. This resulted in a sudden dip in the Hindu population which plummeted to 8 per cent. In 1947, it was 28 per cent. Despite this, Bangladesh is the most thickly populated country in the world. It is poorer than the neighbouring Indian States.
After independence, Bangladesh emerged as a secular State under a new constitution and the leadership of its father of the nation, Sheikh Mujibur Rehman. But eventually, he became the target of Islamists and was done away with. The residual Pakistani influence was quite powerful. The word 'secular' was dropped in 1977 by General Zia-ur-Rahman. Islam had already been declared the 'State religion' in the Bangla constitution since General Ershad's time in lieu of Saudi aid for setting up mosques and madrasas in Bangladesh.
India's corrupt BSF personnel let poor Bangladeshis enter India. The booty was shared by high-ranking officers as well. Indian votebank politics facilitated these infiltrators a place in the voter's list and acquire ration cards. They had experience of pre-independence days when former President Fakhruddin Ali Ahmad, in his neighbouring Assam Lok Sabha constituency, invited Bangladeshis to make his constituency a Muslim majority. They also knew that Indian media would hide the largescale Bangladeshi infiltration. It was only the BJP which was raising the issue of Bangladeshi infiltration, but the entire secular establishment either brushed it aside, or twisted it to suit the votebank politics and paint the BJP with a communal colour.
However, Bangladesh never conceded the existence of its people in India. Even its Prime Minister or Ministers visiting Delhi unabashedly denied it. In fact, a decade-long Assam agitation did not bring the Congress back to its senses.
Any effort to push back even a few hundred Bangladeshis was thwarted by the West Bengal Government. When once illegal Bangladeshis living in Mumbai were sent by train to Kolkata, the State Government did not cooperate. Many Chief Ministers opposed the proposal of multipurpose citizenship card. But gradually, the presence of a large Bangladeshi population in various States made political statements by their mere presence. BJP's campaign gathered momentum. Also, politicians and various parties realised the hidden dangers of this demographic change. Moreover, Buddhadev Bhattacharya replaced Jyoti Basu. For the first time, a change in the attitude of the political elite was seen.
In the recent Chief Minister's Conference, a general consensus on the question of Bangladeshi infiltration was reached. Now it appears that State Governments would cooperate in identifying the Bangladeshis in their respective States. BSF has started taking a tough stand to check further infiltration. A delegation of West Bengal ruling Left Front is scheduled to meet Deputy Prime Minister L K Advani to press for the Centre's intervention in resolving the problem.
Till recently, no Bangladeshi authority admitted the presence of Bangladeshis on Indian soil. But during his recent visit to India, Foreign Minister Murshed Khan conceded the Bangladeshi citizens' presence in India. Mr Advani has been adopting a reasonably tough stand on this problem. While talking to the Bangladeshi Foreign Minister, he made it clear that Bangladeshi infiltrators have no right to reside here permanently. In no country, such illegal immigration takes place.
The priorities should be expeditious border fencing, smashing immigration and smuggling rackets, weeding out corrupt BSF personnel, creating separate immigration service in charge of long-term national immigration policy, sustained diplomatic assertiveness and simultaneously increase the trade and other economic relations with Dhaka for huge bilateral economic gains.
Only Hindus can bring back the glory of Bharat
Vashim: It is a defeat of Hindus that Hindus have to unite to protect Hindu Dharma in Hindustan. It is really unfortunate that the country is ruled by such people who do not believe in imparting moral education to future generations. Our democratic government has failed and betrayed us. Now the ability to thrust aside democracy and bring back patriarchal rule is present only in Hindus. The above statements were made by Bharatacharya S. G. Shevade in a huge gathering of Hindus.

On the occasion of birth centenary year of H. Golwalkar Guruji, the gathering was organized. It was attended by many eminent leaders. Bharatacharya Shevade said that 400 temples have been constructed in USA and people visit those temples. But under the influence of evils, here, the Government is trying to shake faith of Hindus by passing Black Magic Act. There is only one religion on this earth and all others are Sects. Hindu Dharma is created by God. People going against this Dharma should be kicked out.

Other leaders present on the occasion expressed their views on the subject. It was stated that Hindus are real enemies of Hindus. They are responsible for their destruction; we should boycott purchasing from non-Hindu shops; the Sect of Sree Macchindranath will prove that miracles do happen and it is not blind faith; Hindus must unite and strongly oppose anti-Hindu activities.
'Shastrameva Jayate' should be the only policy
Gandhiji brought the policy of 'Satyameva Jayate', Indira Gandhi made it 'Shramameva Jayate'(Glory be to arms); both the policies did not work. If we want to survive now, we will have to implement the policy of 'Shastrameva Jayate', said Pujya Bandyatatya Karhadkar. He was talking in the all-Sects Hindu Dharma Rakshan meet held at Sreekshetra Alandi. Thousands of devotees present at this meet.

He further exclaimed that the Warkaris need not possess any other weapon as they already have the 'Taal' and the stick of their flag as weapons. Hindu Dharma preaches compassion. However, compassion and warding off dangers go hand in hand and are two sides of the same coin. If the Warkaris determine, they can suppress the Government. He also said that he shall urge the Government to withdraw both these Acts unconditionally.
Has Islam ever benefitted Hindus? - Pujya Baba Mahahansa
Lakhs of temples have been demolished and mosques have been built in their place, bomb explosions have occurred at the Ramajanmabhoomi, Kashi, Mumbai, all due to Islam. Islam has not been of any use to us; rather it has caused a great deal of damage, all due to the grace of the Congress. These people (Congress) are the descendents of the demons Ravana and Kansa. They must be finished. Pujya Baba was addressing the audience on the topic 'Does Islam pose a threat to Hindu Dharma?'
Hand over power to the one who has love for Hindu Dharma - H.B.P. Keshav Maharaj Ukhlikar
Do not commit the grave mistake of handing over power to foolish leaders. We ourselves have committed the folly of electing foolish leaders who are bringing into force these (Anti-Hindu) Acts. Henceforth, cast your votes and bring to power leaders who have love for Hindu Dharma. He further said that, Muslims and Christians openly exhibit their rivalry towards Hindus; but these people (anti-Hindu politicians) put up a show that they are one among us. They are dangerous from our point of view.
To tolerate injustice is injustice itself - H.B.P. Sandipaan Maharaj Shinde
H.B.P. Sandipaan Maharaj Shinde said that, we should not tolerate the injustice being inflicted on our Dharma. To tolerate injustice is tantamount to injustice itself. He further said that we should be loyal to our Nation, Dharma, Deities and Saints; all the same we should also possess the strength to face dangers that occur as a result of this.

During this session, talks were delivered by H.B.P. Rameshwar Shastri Maharaj, H.B.P. Balayogi Narayananadaji Saraswati Maharaj, H.B.P. Nivrutti Maharaj Wakte, H.B.P. Bhaskargiri Maharaj, H.B.P. Prakash Maharaj Javanjaal, H.B.P. Ramakrishnanand Saraswati Maharaj, H.B.P. Maruti Maharaj Tuntune and Shri. Virendrasingh Tawade of the HJS.
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