पाकिस्तान से शान्ति वार्ता या शस्त्र वार्ता

26/11/2008 की घटना के 1 महीना से ज्यादा गुजर गया है। 10 आतंकवादी सिर्फ मुम्बई को ही नही सारे देश को 60 घंटो से ज्यादा के लिये बन्धक बना कर रख लिया था (100 होते तो क्या होता) ताज होटल, नरीमन हाउस, ओबेराय, व छत्रपती शिवाजी स्टेशन सहीत 10-12 जगह हमला किया, ताबड़तोड़ फायरिंग, बम विस्फोट 200 के करीब आदमी मारे गये, जिसमें कई विदेशी भी थे, 300 से ज्यादा घायल, 3 अफसर समेत 14 पुलिस वाले व 2 एन.एस.जी. कमाण्डो शहीद। 9 आतंकी मारे गये और 1 को गिरफ्तार करके फिक्स-डीपोजीट (कभी जहाज का अपहरण होने पर आतंकी हो दे कर जहाज छुराया जा सके, अफजल को भी इसी तरह रखा गया है) में डाल दिया गया। इतना सब होने के बाद नतिजा क्या निकला वही हमेशा कि तरह ढाक के तीन पात। वही आरोप प्रत्योप, वही मिडीया का आतंक से लड़ने का संकल्प, मोमबत्ती जला कर हम एक हैं हम आतंकवाद से नही डरते जैसे तकियानुसी बातें, सुरक्षा ऎजेन्सी और खुफिया ऎजेन्सी पर देषारोपण, सरकार का वही घीसा पिटा व्यान : हम आतंकवाद से नही डरेंगे , हम आतंकवाद का भर्त्तसना करते हैं, आतंकीयों को मुहतोड़ जबाब दिया जायेगा, ये पाकिस्तान का कायराणा हरक्कत है ये, हम पाकिस्तान को नही छोडे़गे , जरुरत परने पर पाकिस्तान में घुस कर आतंकवादी को मारेंगे, इत्यादी-इत्यादी ( ये सब बातें मुझे याद हो गया है)। निन्दा प्रस्ताव, मरेने वालों के लिये शोक संदेश और 20 आतंकियों का वही पुराना लिस्ट जो हिन्दुस्तान 10-12 साल से लिये घुम रहा है।

लेकिन क्या सरकार ने अपना आतंकवाद के सफाया के रवैया में थोडा भी बदलाव लाया है। अफजल अभी तक फिक्सडीपोजीट मे बन्द है। अब एक और एक और आतंकी हाथ लग गया कसाव उसके साथ क्या होगा। उपर से 20 आतंकी का सूची सोचो क्या होगा अगर पाकिस्तान ने ये सभी 20 आतंकी को भारत को सौप दिया तो। हिन्दुस्तान की सरकार इन्हें फाँसी लगा नही सकता है क्यों कि एक समुदाय भड़क जायेगा और इन्हें वोट देना बन्द कर देगा जिससे शायद 10-12 सिट इन्हें कम मिलेगा। क्या होगा अगर ये 20 आतंकि भारत आ गये तो इनका हमारे देश के सरकार उनका क्या करेगा (इस पार आप अपना विचार दें)। अबू सलेम की तरह एक नया राजनीतिक पार्टी बना कर चुनाव के मैदान में ताल ठोकते नजर आयेंगें या फिर किसी राजनितीक दल के जा घुसेंगे और हमारे कर्णधार बन जायेंगे। हो सकता या किसी विशेष समूदाय के होने के कारण राष्टृपति तक बन जाये।

हमारे नेतागण कह रहें है हमारे पास आतंकी के खिलाफ सबूत है कि आतंकि पाकिस्तानी है पक्के सबूत हैं तो फिर आखिर हिन्दुस्तान किस शुभ मुहुर्त का इन्तजार कर रहा है पाकिस्तान पर कार्यवाही करने का। क्या 30-40 और बम विस्फोट और हो जायेगा तब हिन्दुस्तान सोचेंगा कि पाकिस्तान पर कार्यवाही करना है या नही। आखिर क्यों हम हमेशा की तरह इस बार भी अमेरिका का मुँह देख रहें है कि अमेरिका हमें हूक्म दे तो हिन्दुस्तान पाकिस्तान पर हमला करे या फिर सहिष्णुता व अहिंसा के नाम पर शान्ति की वार्ता दुबारा सुरु किया जाय, दोस्ती के नाम पर बस, रेल, प्लेन, बस का आवागमन किया जाय। कार्यवाही के नाम पर अमेरिका का मुँह देखें। हिन्दुस्तान की जगह अगर अमेरिका रहता तो अमेरिका क्या करता क्या अमेरिका। क्या अमेरिका आतंकवाद के खात्मे के नाम पर पर इराक पर हमला नही लिया क्या अफगानिस्तान में आतंकवादीयों को खदेड़-खदेड़ कर नही मारा। एक प्रश्न उठता है क्या ये यह अहिंसा है या कायरता, सहिष्णुता है या हिनभावना या फिर अपने स्वाभिमान का मौत। अगर यैसा नही तो फिर हिन्दुस्तान किस रास्ता पर चल रहा है। क्यों सारे सबूत होने के बावजूद हिन्दुस्तान पाकिस्तान पर कार्यवाही करने से क्यों कतरा रहा है? आज क्यों हिन्दुस्तान अपने स्वाभीमान की रक्षा के लिये अमेरिका जैसा व्यापारी देश का तलवा चाट रहा है क्या कारण है कि हमारे यहाँ के नेता सुटकेस में सबूत का पुलिन्दा बान्ध कर सारे विश्व का परिकर्मा कर रहा है। हमारे नेता क्यों नही वोट प्रेम को छोड़ अफजल को फाँसी पर लटका रहें हैं, लादेन के हमशक्ल को लेकर घुमने बाले नेताओं को देशद्रोह के मामले में जेल में क्यों नही डाला जा रहा है उन्हें पुरस्कार स्वरुप मंत्री पद क्यों दिया जा रहा है। क्यों नही तुष्टीकरण की नीति को छोड़ कर हिन्दुस्तान में पल रहे पाकिस्तान के ऎजेन्ट को किसी चौक चौराहे पर खरा करके गोली मारा जा रहा है। क्यों नही पाकिस्तान के साथ सभी संबन्ध को खत्म किया जा रहा है क्यों शान्ति वार्ता की जगह पाकिस्तान को शस्त्र वार्ता का न्योता नही भेजा जा रहा है। क्यों हमारे देश के कर्णधार राम व कृ्ष्ण के धर्म का पालन करते हूये पाकिस्तान में पल-बढ रहे आतंकि ठिकानों के खत्म करके अपने राजकीय धर्म का पालन क्यों नही कर पा रहें हैं।
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पाकिस्तान को मिटाओं नही तो पाकिस्तान हमें मिटा देगा

दो दिन पहले जैसे टी.वी. खोला समाचार चैनल का ब्रेकीग न्यूज सुनने को मिला कि नोयडा में यु.पी पोलिस और ए.टी.स. ने मिल कर दो आतंकी को ढेर कर दिया खबर मेरे लिये तो चौंकाने वाला था क्यों कि मैं भी नोयडा में रहता हू। लेकिन कुछ नेता के लिये ये खबर खुशखबरी लेकर आया है। जो सेक्यूलरिज्म का ढोंग करके वोट बैंक के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। जिन्हें इन दो मारे गयें आतंकवादियों के नाम पर राजनीति करने का मौका मिलेगा और आतंकवादियों को देशभक्त सिद्ध करके एक समुदाय को खुश करने का कोशिश करेंगे जिससे उस समुदाय का वोट उन्हें मिले। आखिर कब तक ये देश इन नेताओं के घिनौना नाटक को देख और सुन कर चुप बैठेगा।

ये हिन्दुस्तान हैं जहा लादेन का डुपलीकेट को लेकर चुनाव प्रचार में घूमें और उनकी इस देश विरोधी हरकत के लिये यहा कोई अँगुली तक उठाने वाला कोई नही । 26/11 कि घटना हो गई हमारे नेतागण सिर्फ गीदर भभकी देते रह गये तब तक पाकिस्तान ने नोयडा में दो और आतंकी भेज दिये।आखिर हिन्दुस्तान ने क्या कर लिया पाकिस्तान का, पाकिस्तान के नेताओं को हमारे हिन्दुस्तान के नेताओं का गिदर भभकी वाला औकाद पता था इस लिये पहले दिन से पाकिस्तान ने कह दिया पाकिस्तान किसी आतंकवादी को नही सौंपेगा हिन्दुस्तान को जो करना है कर ले। हिन्दुस्तान आज से नही लगभग 10-12 साल हिन्दुस्तान से मोस्ट वान्टेड अपराधी का एक लिस्ट बना कर जेब में रख कर घुम रहा है और पाकिस्तान का पैर पुज कर निहोरा कर रहा है कि दे दो हमारे मोस्ट वान्टेड अपराधी को दे दो जबकि पाकिस्तान हमेंशा से हिन्दुस्तान को लतीयाते रहा है। हमारा देश और यहा के नेता पाकिस्तान का एक बाल भी बांका नही कर पायें। हमारे देश का नींव ही कमजोर है। ये देश स्वार्थी, लोभी, अपराधियों, दलालों, अनाडींयों के हाथ का खिलौना बना गया है।

आज तक कई बार हिन्दुस्तान के पाकिस्तान का तलवा चाटा । लियाकत अली से मेल मिलाप करके अपने मंत्रीमण्डलीय साथियों को त्याग पत्र देने को बाध्य करते रहेंगे, फिरोज खाँ नून को बेरुवाडी़ सौंपते नहीं शर्मांयेगे, अयूब खाँ से हाथ मिलाने ताशकन्द जा पहूचेंगे, भुट्टो को शिमला की सैर करायें और अपने सौनिकों की विजय को उनके हाथ में दे कर अपना पीठ ठोंकेगें, जियाउल्ल हक के तलवा चाटने के लिये क्रिकेट मैच देखने के लिये बुलायें। हजरतबल आतंकियों को बिरयानी खिलाकर अपना चार बीघा नामक क्षेत्र 999 साल के लिये शत्रू को दे दिये। जन्मजात शत्रु से हाथ मिलाने के लिये बस ले कर पाकिस्तान गयें। कारगील और संसद पर हमला करने बाले मुशरफ को अपने गोद में बीठा कर आगरा घुमाये। जिन्ना को सेकूलर होने का प्रमाण पत्र देने का ठिका हम पाले। बेनजीर और जरदारी को शान में कशीदे का पाठ करें। नतीजा ढाक के तीन पात हिन्दुस्तान जितना पाकिस्तान का तलवा चाटता है पाकिस्तान उतना ही हिन्दुस्तान को लतीयाता है।

हमें ये बात याद करके रखना चाहिये कि पाकिस्तान हमारा अपना कभी नही था और ना होगा चाहे हिन्दुस्तान के नेता कितना भी तलवा चाट ले पाकिस्तान हमारा दोस्त नही बन सकता है, जिसने कसम खा रखा है हिन्दुस्तान को बरबाद करने का आखिर उस देश के साथ हम क्यों दोस्ती का हाथ मिलायें आखिर कब तक हमारे नेता चम्मचागीरी नीति ला पालन करतें रहेंगें। हमारें नेता कभी बस से, कभी प्लेन से तो कभी रेल पाकिस्तान गये क्या मिला हिन्दुस्तान को धोखा, बम ब्लास्ट कारगील युध्द, पाकिस्तान से इससे ज्यादा उम्मीद भी नही कि जा सकती है। हिन्दुस्तान को चहीये बस, रेल, प्लेन सब भुल कर सिर्फ एक बार टैंक पर चठ कर पाकिस्तान चले जायें पाकिस्तानीयों को छीपने के लिये एक नया बाप को खोजना पडे़गा । हमें यें बात गाठ बाध कर रख लेना चाहियें कि अगर पाकिस्तान को हम नही मिटाये तो पाकिस्तान हमें मिटा देगा।
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सिर्फ एक सुभाष चाहिये

हर रात में किरण की एक आश चाहिये,
सबके दिलों में एक विश्वास चाहिये,
भारत बनेगा फिर से विश्व गुरु
माँ भारती को सिर्फ एक
सुभाष चाहिये

जय हिन्द
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इजरायल की निन्दा क्यों?

इजरायल ने गाजा पट्टी में हमास पर आक्रमण किया नहीं कि समस्त विश्व एकजुट होकर इस देश की निन्दा करने लगा। विश्व की सर्वोच्च विधिक संस्था में संयुक्त राष्ट्र संघ में इजरायल की निन्दा के प्रस्ताव पारित किये जाने लगे और हर ओर से प्रयास होने लगा कि किसी प्रकार हमास और इजरायल के मध्य युद्ध विराम हो जाये। भारत सरकार भी इजरायल की निन्दा करने में पीछे नहीं रही और विदेश मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से इजरायल को आक्रांता की संज्ञा देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। लेकिन विश्व की इजरायल के विरुद्ध प्रतिक्रिया के पीछे अनेक प्रश्न खडे होते हैं जिनका संतोषजनक उत्तर अवश्य मिलना चाहिये।

इजरायल की निन्दा करने की भारत की पुरानी परम्परा रही है और भारत ने इजरायल के निर्माण की प्रक्रिया में भी फिलीस्तीन के विभाजन की शर्त पर इजरायल के निर्माण का विरोध किया था और इसके बाद भारत ने आधिकारिक रूप से अरब इजरायल संघर्ष में अरब देशों के साथ खडे होने का निर्णय लिया और इजरायल के हर उस कार्य की निन्दा की जो उसने अपनी आत्मरक्षा में किया। इजरायल के साथ भारत की नीति सदैव दोहरी रही है। एक ओर तो अरब देशों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिये, इस्लामी उम्मा के असंतुष्ट हो जाने के भय से और भारत में स्थित मुस्लिम समाज को तुष्ट करने के लिये भारत सरकार सदैव अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इजरायल की निन्दा करती रही तो वहीं अनेक रणनीतिक कारणों से इजरायल को साधने के प्रयास भी गैर सरकारी स्तर पर चलते रहे। वैसे तो भारत और इजरायल के मध्य कूटनीतिक स्तर पर सम्बन्ध 1992 में पी.वी.नरसिम्हाराव की सरकार में आरम्भ हुए परंतु खुफिया और सामाजिक स्तर पर दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध 1965 से ही आरम्भ हो गया था। इजरायल को लेकर भारत सदैव दुविधा का शिकार रहा है और इसी कारण 1992 के बाद भी इजरायल की निन्दा का दौर चलता रहा है।

अब यदि इजरायल के हमास पर किये गये वर्तमान आपरेशन पर दृष्टि डालें तो कुछ प्रश्न उभरते हैं। गाजा में हमास पर इजरायल की कार्रवाई के बाद सभी विश्लेषकों ने एक स्वर से इजरायल की कार्रवाई को बर्बर कहना आरम्भ कर दिया परंतु 1948 में अपने जन्म से लेकर आज अतक इजरायल जिस स्थिति का सामना कर रहा है उस सन्दर्भ में विश्लेषकों की राय पूरी तरह एकतरफा लगती है जो इस धारणा पर आधारित है कि इजरायल अरब संघर्ष में स्वाभाविक सहानुभूति अरब देशों या फिलीस्तीनियों के प्रति होनी चाहिये। राजनीतिक रूप से सही होने की परम्परा, छ्द्म उदारवाद और सेक्युलर दिखने की होड में इजरायल की निन्दा तथ्यों के विश्लेषण के बिना की जाती है। 1948 से लेकर आजतक इजरायल ने अरब देशों के साथ जो संघर्ष किये हैं उसकी पृष्ठभूमि जानने के लिये इतिहास में जाना होगा। 1924 में ओटोमन साम्राज्य को समाप्त कर ब्रिटिश ने इस्लामी साम्राज्यवाद की धुरी खिलाफत संस्था को ध्वस्त कर दिया और उसके बाद इस साम्राज्य को अनेक भागों में विभक्त कर मध्य पूर्व में अनेक नये देशों का निर्माण हुआ और इससे पूर्व 1917 में ब्रिटिश साम्राज्य ने विश्व भर के यहूदियों को इजरायल नामक नया देश देनी की उनकी माँग को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया था। इसके बाद फिलीस्तीन में यहूदियों को बसने की छूट दे दी गयी और द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत इजरायल राज्य के निर्माण का विषय संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तांतरित कर दिया गया जिसने अनेक बैठकों के बाद इस क्षेत्र का विभाजन स्वीकार कर इजरायल को यहूदियों के नये राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया और 1948 में इजरायल का जन्म हुआ। इजरायल के जन्म से पूर्व फिलीस्तीन में यहूदियों के बसने की प्रक्रिया में भी फिलीस्तीनी मुसलमानों और यहूदियों में खूनी झडप होती थी और 1940 के दशक में तो यहूदियों के विरुद्ध आतंकवाद का अभियान चलाया गया। 1948 में इजरायल के जन्म के साथ ही उसे अरब देशों के प्रतिरोध का सामना करना पडा और इजरायल को तत्काल युद्ध लड्ना पडा। इसके बाद जितने भी युद्ध हुए उसमें इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार न करने की जिद और उसका अस्तित्व समाप्त करने प्रयास हुआ। 1969 में जब इजरायल ने अरब की सभी सेनाओं को जो मिस्र के नेतृत्व में इजरायल से युद्दरत थी उन्हें इजरायल ने मात्र 6 दिनों में परास्त कर दिया तो अरब देशों और इजरायल के मध्य सम्बन्धों में नया मोड आया और मिस्र ने इजरायल के साथ सन्धि की।

वास्तव में इजरायल और फिलीस्तीन के मध्य समस्या को दो देशों के मध्य समस्या के रूप में देखा जाता और उसे राज्यक्षेत्र के विवाद से जोड्कर देखा जाता है। यह एक गलत धारणा है वास्तव में इस संघर्ष का मूल कहीं अधिक गहरा और जटिल है। मध्य पूर्व में पिछले साठ दशक में जितने भी इस्लामवादी आन्दोलनों ने जन्म लिया है उनके मूल में एक ही प्रेरणा रही है कि जेरुशलम पर नियंत्रण को लेकर अनेक शताब्दियों तक क्रुसेड और जिहाद चलता रहा (क्योंकि तीनों ही सेमेटिक धर्म इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी तीनों ही इसे अपने लिये पवित्र मानते हैं) और अंत में पश्चिमी शक्तियों ने यहूदियों के साथ मिलकर एक षड्यंत्र कर जेरुशलम का स्थान यहूदियों को दे दिया और इस प्रक्रिया में उन्होंने इस्लाम की एकता का आधार रही खिलाफत संस्था को नष्ट कर दिया। खिलाफत को नष्ट कर इस्लामी एकता को बिखेर दिया गया और जिस इस्लाम में नेशन स्टेट की कल्पना नहीं थी उसे छोटे छोटे देशों में बाँट दिया गया और इस्लाम के पवित्र स्थल अरब और मक्का मदीना में ऐसी शक्तियाँ सत्ताशीन हो गयीं जो पश्चिमी देशों की कठपुतली सरकारें हैं और वे इस्लाम और शरियत के अनुसार शासन नहीं चला रही हैं। इस भावना के चलते मध्य पूर्व में इस्लामवादी आन्दोलनों का जन्म हुआ जो जिहाद का सहारा लेकर इसे वैश्विक इस्लामी आन्दोलन बना रहे हैं।

इजरायल और हमास के वर्तमान संघर्ष को यदि इस पृष्ठभूमि में देखें तो कुछ प्रश्न उठते हैं। विश्व के जो देश इजरायल की निन्दा करते हैं उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये कि क्या वे इजरायल के जन्म को अवैध मानते हैं और यदि ऐसा है तो उन्होंने इजरायल को मान्यता क्यों दे रखी है क्योंकि मुस्लिम देश उसे स्वीकार नहीं करते और इसी कारण उसे मान्यता नहीं दे रखी है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ सहित सभी देशों को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये कि क्या वे इजरायल को खिलाफत के अवशेषों पर निर्मित मानते हैं और इसी कारण फिलीस्तीन और अरब देशों से सहानुभूति रखते है। क्योंकि आत्म रक्षा में इजरायल द्वारा की गयी कार्रवाई की निन्दा करना उसके अस्तित्वमान रहने के अधिकार से उसे वंचित करना है। इसलिये जो भी देश, मीडिया, विचारक और लेखक या विश्लेषक़ इजरायल की निन्दा करते हैं उन्हें छ्द्म उदारवाद और छवि निर्माण के प्रयासों से बाहर आकर इस समस्या के मूलभूत विचारों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये।

जहाँ तक हमास के विरुद्ध इजरायल के प्रतिरोध का प्रश्न है तो इजरायल ने एक बार फिर यह कदम अपने नागरिकों की रक्षा में उठाया है। हमास ने गाजा पट्टी में अपनी सरकार स्थापित करने के बाद भी इजरायल को नष्ट करने के अपने मूलभूत उद्देश्य को छोडा नहीं और पिछले अनेक वर्षों से इजरायल के भीतर राकेट दागकर निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाया। इजरायल ने अपने बेहतर प्रयासों से नागरिकों की रक्षा के प्रयास किये और राकेट की चेतावनी के लिये ठोस प्रयास किये जिससे इन राकेट हमलों में निर्दोष नागरिक अधिक मात्रा में नहीं मरे लेकिन इजरायल के इस प्रयास से हमास का आशय और अपराध कम नहीं हो जाता। इजरायल के विरुद्ध आरोप लगाया जा रहा है कि उसने गाजा में निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाया लेकिन इन आरोपों की चर्चा करते हुए भी लोग उसी भावुकता का शिकार हो जाते हैं जिसके चलते उनकी स्वाभाविक सहानुभूति फिलीस्तीन या अरब देशों के प्रति रहती है। यह कोई पहला अवसर नहीं है इससे पूर्व 2000-1 में जब यासिर अराफात ने इजरायल के विरुद्ध एक प्रकार का आतंकवादी आन्दोलन इंतिफादा के रूप में घोषित कर दिया था तो भी यासिर अराफात की आलोचना नहीं की गयी थी और इजरायल के प्रतिरोध की तत्काल निन्दा आरम्भ कर दी गयी थी।

वास्तव में इजरायल और फिलीस्तीन का संघर्ष पूरी तरह धारणागत छवि युद्ध का शिकार हो गया है। एक ओर तो आतंकवाद के प्रतिरोध और खुफिया एजेंसियों की सन्नद्धता को लेकर अनेक देश इजरायल की विशेषज्ञता का लाभ उठाना चाहते हैं वहीं जब इजरायल के आत्म रक्षा का विषय आता है तो उसकी निन्दा आरम्भ हो जाती है। व्यावहारिक विवशताओं और छवि खराब होने के भय से इस पूरे संघर्ष की वस्तुनिष्ठ व्याख्या का साहस कोई भी नहीं करता। यह छद्म उदारवाद और सेक्युलरिज्म के एकाँगी स्वरूप का सबसे बडा उदाहरण है। एक ओर तो इस्लामवादी और वामपंथी यहूदियों के विरुद्ध षड्यंत्रकारी सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और आरोप लगाते हैं कि कुछ अदृश्य हाथों से वे समस्त विश्व पर शासन कर रहे हैं लेकिन बिडम्बना है कि जब इजरायल फिलीस्तीन के संघर्ष का विषय आता है तो इस्लामवादियों का जनसम्पर्क अधिक सफल होता दिखता है। आज समय आ गया है कि छद्म उदारवाद का चोला छोडकर छवि निर्माण की चिंता के बिना इजरायल फिलीस्तीन संघर्ष के मूल कारण पर चर्चा की जाये क्योंकि इस समस्या का एक ही समाधान है कि इजरायल के पडोसी यह जान जायें कि वे आतंकवाद या सैन्य तरीकों से इतिहास के हिसाब नहीं चुका सकते और इजरायल एक वास्तविकता है जो उनके मध्य रहेगा। इजरायल की विजय केवल इस क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं करेगी वरन उन इस्लामवादी आन्दोलनों और देशों को हतोत्साहित करेंगी जो वर्तमान को अस्वीकार कर भूतकाल में जीना चाहते हैं और एक काल्पनिक विश्व का निर्माण प्रछन्न युद्ध और आतंकवाद के सहारे करना चाहते हैं।
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