राम नाम की लूट में बुद्धि गई कहीं छूट



पुरानी कहावत है कि सारी रामायण बांचने के बाद यह पूछना, ‘राम कौन था?’ अपनी जन्मजात बेवकूफी का विज्ञापन ही समझा जा सकता है। ऐसा ही कुछ अपने प्यारे हिन्दुस्तान की कट्टरपंथी धर्मनिरपेक्ष सरकार करती नजर आ रही है। सेतु समुद्रम्‌ परियोजना को लेकर जो हलफनामा केन्द्र सरकार की तरफ से पहले सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया गया और फिर जनाक्रोश भड़कता देख जैसी कलाबाजी विद्वान समझे जाने वाले कानून मंत्री ने खाई, उस सबको देखते शक-शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।
अटपटी बात सबसे पहले। भारद्वाज साहब ने जिन शब्दों में बगलें झांकते अपने हाथ झाड़ने की कोशिश की है वह हास्यास्पद ही नहीं, तरस खाने लायक भी है। ‘राम हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। उनका अस्तित्व हम नकार नहीं सकते और न ही मुकदमे का विषय बना सकते हैं। राम की वजह से सारी दुनिया ‘एक्जिस्ट’ करती है। हिमालय-हिमालय है, गंगा-गंगा है वैसे ही राम-राम है’। इन सब बातों को मजाक में नहीं लिया जाना चाहिए। हिमालय को देवात्मा कहने का दुस्साहस हिन्दू कवि कालिदास कर सकता हो, आज हमें अपनी भलाई इसी में नजर आती है कि हिमालय को सिर्फ भौगोलिक रूप में भौतिक वास्तविकता के रूप में पहचाना जाए- बर्फ से ढकी ऊंची पर्वतमाला, जिससे जीवनदायिनी नदियां बह निकलती हैं गंगा सरीखी।
गंगा के बारे में भी यह एहतियात बरतने की जरूरत है कि इसका जिक्र किसी पाप धोने वाले मजहबी रस्मो-रिवाज के सिलसिले में न किया जाए। इसे हमारी गलती न समझा जाए कि हजारों साल से तीर्थराज कहलाने वाले शहर में गंगा तट पर कुंभ मेला जुटता रहा है, जिसका जिक्र चीनी और अरब यात्री इन्हें महत्वपूर्ण समझ कर करते रहे। राम की बात निराली है, जब ऐतिहासिकता ही विवादों के दायरे में है तब ‘एक्जिस्टेंस’ ‘इमेजनरी’ ही समझा जा सकता है। पता नहीं भारद्वाज साहब की और उनके वक्तव्यों के मसौदे तैयार करने वालों की कितनी रुचि दर्शनशास्त्र में है, वरना शायद यह याद दिलाने की जरूरत न पड़ती कि दार्शनिक दकार्ते ने एक बार कहा था ‘मैं सोचता हूं इसीलिए मेरा अस्तित्व है’।
वास्तविक और काल्पनिक यथार्थ तथा साझे के कपोलकल्पित यथार्थ को इस तरह सिरे से खारिज करना खतरनाक है। एक चुलबुले अंग्रेजी पत्रकार ने अपने स्तंभ में ‘रियलिटी’ और ‘हाईपर रियलिटी’ वाली बहस शुरू कर भी दी है। ‘वर्चुअल रियलिटी’ का फुटनोट हमारे कानून मंत्री को और भी नागवार गुजरेगा। लीपापोती करने वाले अंदाज में जो दूसरा हलफनामा पेश किया गया है, उससे बात सुधरी नहीं बिगड़ी ही है। सरकार ने अपनी दरियादिली का परचम फहराते हुए यह दिखलाने की कोशिश की है कि वह सेतु समुद्रम परियोजना और राम के अस्तित्व के बारे में पुनर्विचार इसलिए कर रही है कि उसका मिजाज जनतांत्रिक है और वह जनभावना का तिरस्कार नहीं करती। साथ ही यह भी जोड़ा गया है कि वह सभी धर्मों का आदर करती है खासकर हिन्दू धर्म का।
अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री ने इस प्रवचन में हाथ बंटाते हुए यह याद दिलाया कि राम का उल्लेख सिखों की गुरबाणी में भी मिलता है। कबीर धर्मनिरपेक्ष भारत में प्रगतिशील लोगों को सूर, तुलसी, मीरा से ज्यादा रास आते हैं, उनकी पक्तियां भी याद दिलाने लायक है-
‘कबिरा कूता राम का मुतिया मेरो नांउ,
गले राम की जेबड़ी जित खींचे तित जाउं’!
राम की ऐतिहासिकता पर इतना बखेड़ा ही पैदा न होता अगर अपने आकाओं को खुश करने की इतनी चापलूस उतावली न होती। इन पंक्तियों का लेखक बार-बार इस केन्द्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की बात उठाता रहा है। इसी सिक्के का दूसरा पहलू है बहुसंख्यक हिन्दुओं की आस्था का जानबूझ कर तिरस्कार। यह निर्विवाद है कि हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष राज्य में कोई खास स्थान नहीं दिया जा सकता। कम से कम हिन्दुओं की आस्था किसी और धर्म के अनुयायियों की आस्था की तुलना में कम संवेदनशील और महत्वपूर्ण नहीं समझी जा सकती।
कानूनमंत्री तमाम व्यस्तताओं के बावजूद यह भूले न होंगे कि अपने विश्वास के अनुसार आस्था-उपासना के बुनियादी अधिकार को संविधान का संरक्षण प्राप्त है और भारतीय दंडसंहिता में धार्मिक-सांप्रदायिक आक्रोश भड़काना एक दंडनीय अपराध। जिस तरह गुरुओं और पैगंबरों के बारे में सरकारी सार्वजनिक घोषणाओं में संयम बरतने की जरूरत है, वैसा ही संयम राम, कृष्ण, गणेश और सरस्वती के बारे में भी अपेक्षित है।
रही बात इस सरकार के जनतांत्रिक मिजाज की, वह तो साफ नजर आ रहा है पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कुछ अफसरों के निलंबन से। गुस्से की गाज उन बेचारों पर गिर चुकी है। अब विधिमंत्री कंधे उचका कर यह कह सकते हैं और क्या चाहते हैं आप सजा दे तो दी। दुर्भाग्य से हमारे सार्वजनिक जीवन में रामायण के फिकरों का अवसरवादी ढंग से इस्तेमाल इनका बुरी तरह अवमूल्यन करा चुका है- ‘अग्नि परीक्षा’ हो या ‘लक्ष्मण रेखा’, ‘लंका दहन’ हो या और कुछ। सेतु समुद्रम्‌ परियोजना की मूल प्रेरणा क्या है? क्या यह सच नहीं कि दैत्याकार फिजूलखर्ची वाला यह अभियान सिर्फ सहयोगी-समर्थक तमिल पार्टियों को खुश करने के लिए, मुंहमांगा मोल चुकाने के लिए साधा जा रहा है?
क्या यह सच नहीं कि इसीलिए इस मंत्रालय पर अपना कब्जा बनाए रखने का हठ थिरू करुणानिधि पाले रहते हैं? इस पूरे प्रोजेक्ट का परीक्षण पर्यावरण पर इसके प्रभाव के संदर्भ में लाभ-लागत की दृष्टि से किया जाना चाहिए। पर्यावरणविद यह सवाल उठा चुके हैं कि समुद्र सेतु भले ही मानव निर्मित न हो, एक प्राकृतिक संरचना ही हो पर यह हमारे देश के पूरबी तट को सुनामी जैसी आपदाओं के विनाश से बचाने में कवच का काम करती है।
एक कहावत गांव देहात में आम है ‘राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट’। फिलहाल यह लूट-मार जारी है। मन करता है कहें- राम को राम ही रहने दो दूजा नाम न दो। साध्वी उमा भारती ने जो सलाह आडवाणी जी को दी है उस पर बाकी राजनेताओं को भी अमल करना चाहिए। राम की चर्चा राजनीति के अखाड़े के बाहर जानकार लोगों को ही करने दें।
जो अंग्रेजी दां अंग्रेजीपरस्त शहरी हिन्दुस्तानी वाल्मीकि रामायण के अंग्रेजी अनुवाद तक से अछूते हैं, उन्हें कम से कम रामचरितमानस के बारे में मुंह खोलने से परहेज करना चाहिए। मानस की प्रतिष्ठा करोड़ों हिन्दू परिवारों में आज भी नैतिक मूल्यों को पुष्ट करने वाली, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय वाले आदर्श आचरण को प्रेरित करने वाली रचना के रूप में है। राष्ट्रपिता बापू के लिए जनतांत्रिक आदर्श ‘राम राज्य’ ही था। आज भी देहांत के बाद किसी आत्मीय को श्मसान तक ले जाते संताप बांटने के लिए ‘राम नाम सत्य है’ स्वत: फूट निकलता है।
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