कन्नूर कम्युनिस्ट पार्टी का घिनौना चेहरा

केरल का कन्नूर जिला मा‌र्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मा‌र्क्सवादी गर्व से 'भारत का लेनिनग्राद' कहते है। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मा‌र्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए है। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे।
कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मा‌र्क्सवादी गुंडों के निशाने पर है। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मा‌र्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे है। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे है। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मा‌र्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, '''सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है।''' उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, ''पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है।'' व्यवस्थातंत्र पर मा‌र्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है।
सत्तार के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मा‌र्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मा‌र्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मा‌र्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मा‌र्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हे मा‌र्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मा‌र्क्सवादी किस हद तक जा सकते है।
साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, ''हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है।'' 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना।
तब से लेकर आज तक मा‌र्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मा‌र्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तारी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मा‌र्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे है। कथित मा‌र्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मा‌र्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मा‌र्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मा‌र्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मा‌र्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मा‌र्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हे पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती।
साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मा‌र्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मा‌र्क्सवादियों के निशाने पर रहते है। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मा‌र्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मा‌र्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताड़ित करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज है। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है।
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तिब्बत और फिलीस्तीन

इन दिनों तिब्बत चर्चा में है। वैसे तो इसके पीछे जो कारण है उसे लेकर तो तिब्बती भी प्रसन्न नहीं होंगे पर दशकों उपरांत ऐसा अवसर जरूर आया है जब तिब्बत का विषय एकदम से वैश्विक मह्त्व का हो गया। हम यहाँ इस विषय पर चर्चा नहीं करना चाह्ते कि तिब्बत के इस विषय के मह्त्वपूर्ण होने के पीछे प्रमुख कारण क्या है वरन हम एक समानता की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाह्ते हैं जो न केवल रोचक है वरन उसके गम्भीर राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। साथ ही यह विषय कहीं न कहीं जाकर उन नारों से भी जुड्ता है जिसे विभिन्न संगठन या राजनीतिक दल समय-समय पर अपनी सुविधा के अनुसार गला फाड्-फाड् कर लगाते हैं। ऐसा ही एक नारा मानवाधिकार का है जो विश्व भर के वामपंथियों का सबसे प्रिय विषय है। यह वामपंथियों के हाथ में वह छडी है जिससे वे जब चाहे जिसे चाहे मारते रह्ते हैं। इस नारे रूपी छडी का सर्वाधिक उपयोग इन वामपंथियों ने सबसे अधिक इजरायल या फिर हिन्दूवादी शक्तियों के लिये किया है। परंतु तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर उनका जो भी रूख है वह उनके बौद्धिक आडम्बर को अनावृत करने के लिये पर्याप्त है।

तिब्बत में चीन का दमन इन छद्म बुद्धिजीवियों को मानवाधिकार का हनन नहीं चीन का आंतरिक मामला लगता है तो फिर यह सिद्धांत इजरायल पर लागू क्यों नहीं होता। या फिर गोधरा की प्रतिक्रिया में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों को लेकर जब विभिन्न वामपंथी संगठन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को विश्व के विभिन्न मंचों पर बदनाम कर रहे थे और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से दखल देने की मांग कर रहे थे तो इनका आंतरिक मामले का सिद्धांत कहाँ चला गया था। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर खोजने का प्रयास हम अपने लेख में कर रहे हैं।

तिब्बत और फिलीस्तीन में किस मामले में समानता है तो वो यह कि फिलीस्तीन भी दावा करता है कि वह अपनी स्वाधीनता की लडाई लड रहा है। लेकिन क्या तिब्बत को विश्व मंच पर वह स्थान कभी मिल सका या उसकी आवाज कभी सुनी गयी। आखिर क्यों नहीं। ऐसा क्यों हुआ जबकि तिब्बत वास्तव में 14,000 पुराना एक राष्ट्र है जिसकी अपनी संस्कृति और अपना धर्म है। जब कि इस मुकाबले फिलीस्तीन की तुलना करें तो वह इन सन्दर्भों में कभी राष्ट्र नहीं रहा। वह बीसवीं शताब्दी के लम्बे समय तक इजरायल का ही हिस्सा था और फिलीस्तीनियों को फिलीस्तीनी यहूदी कहा जाता था। फिलीस्तीनियों का इस्लाम से पृथक ऐसा कोई धर्म भी नहीं था जैसा कि तिब्बत के मामले में है। फिर भी समस्त विश्व में फिलीस्तीन की छवि एक ऐसे देश के निवासियों के रूप में है जिन्हें अपने देश से निकाल दिया गया है और उनके देश पर आक्रांता इजरायल ने कब्जा कर रखा है। इस सहानुभुति का कारण क्या है। इसके कुछ कारण मोटे तौर पर ये नजर आते हैं-

फिलीस्तीन ने अपनी लडाई के लिये आतंकवाद का सहारा लिया जबकि तिब्बती शांति के उपासक हैं और सहिष्णु धर्म बौद्ध के अनुयायी हैं।

फिलीस्तीन ने स्वयं को इजरायल से पीडित देश के रूप में प्रस्तुत किया जिसके आधार पर उसे विश्व में ध्रुवीकरण करने में सफलता मिली। फिलीस्तीन को विश्व के प्रायः सभी देशों का समर्थन प्राप्त हो गया क्योंकि यह विषय मुसलमानों से जुडा है और विश्व के सभी देश मुस्लिम तुष्टीकरण को अपनी विदेश नीति का अंग मानते हैं। इसके विपरीत तिब्बत मुस्लिम देश नहीं है इस कारण उसके प्रति सहानुभुति दिखाना किसी की मजबूरी या फैशन नहीं है।

फिलीस्तीन को उन मुस्लिम देशों का समर्थन प्राप्त है जिनके पास तेल की दौलत है और इसके आधार पर वे विश्व् में धाक जमाते हैं और अपने प्रमुख सम्मेलनों में फिलीस्तीन के विषय को इस्लामी उम्मा के स्वाभिमान के साथ जोड्कर इस्लामी जनमानस की भावनाओं को उद्दीप्त करते हैं। जबकि इसके ठीक विपरीत तिब्बत का सहयोग करने को कोई तैयार नहीं है। ले देकर भारत ने तिब्बत की निर्वासित सरकार और उनके धर्मगुरु दलाई लामा को शरण दे रखी है तो वह भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस विषय को उठाने से कतराती है।

फिलीस्तीन के विषय को अधिक प्रमुखता मिलने का एक बडा कारण विश्व बिरादरी की सबसे बडी कानून निर्माता संस्था सन्युक्त राष्ट्र संघ है। समस्त विश्व में इजरायल की अलोकप्रियता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानों कर्मकाण्ड ही बना लिया है कि प्रत्येक बैठक या सत्र में फिलीस्तीन के लिये इजरायल की निन्दा करता हुआ एक प्रस्ताव अवश्य होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के इस रूख से फिलीस्तीन को वैश्विक मान्यता प्राप्त हो जाती है जबकि तिब्बत को पीडित करने वाला देश स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई सदस्य है इस कारण शायद ही कभी संयुक्त राष्ट्र संघ में तिब्बत में चीनी अत्याचार पर चर्चा हुई हो।

फिलीस्तीन और तिब्बत की स्थिति में इस अंतर का एक प्रमुख कारण समाचार साधन हैं। विश्व भर के टी वी चैनलों पर ऐसे चित्र और समाचार आते हैं जो फिलीस्तीन को इजरायल द्वारा उत्पीडित देश के रूप में चित्रित करते हैं। फिलीस्तीन के अनेक हिस्सों से समाचार और टी वी छवि आती रह्ती है जिसके आधार पर लोग अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। इसके विपरीत तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है उसके बारे में विश्व को उतना ही पता लग पाता है जितना चीन विश्व को बताना चाह्ता है। वैसे यह अजीब विडम्बना है कि जिस देश को वामपंथी रक्त पिपासु सिद्ध करना चाह्ते हैं उसके यहां कम से कम मीडिया पर सेंसर तो नहीं है।

फिलीस्तीन और तिब्बत की स्थिति में अंतर का एक प्रमुख कारण यह भी है कि तिब्बत पर अधिकार करने वाला देश स्वयं वामपंथी या कम्युनिस्ट है जबकि इसके विपरीत फिलीस्तीन का मुद्दा विश्व के समस्त वामपंथियों के लिये प्रमुख विचारधारागत मुद्दा है जो उन्हें आपस में जोड्कर रखता है। विश्व के किसी भी कोने में कोई वामपंथी क्यों न हो उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता की पहचान इसी से होती है कि फिलीस्तीन और इजरायल मसले पर उसका रूख क्या है।
आखिर वह कौन सा कारण है जो कम्युनिस्टों और वामपंथियों को फिलीस्तीन के निकट लाता है और इतना निकट लाता है कि वे यासर अराफात के इंतिफादा या आत्मघाती हमलों में भी कोई बुराई नहीं देखते। उन्हें तो इस्लाम के नाम पर आतंकवाद करने वाले भी अपने सहयोगी लगते हैं। ऐसा क्यों?

इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत जब शीत युद्ध् आरम्भ हुआ तो साम्यवादियों या वामपंथियों को लगता था कि अब पूँजीवाद ध्वस्त हो जायेगा और पूँजीवाद के अंतर्गत पूँजी पर नियंत्रण की भावना के चलते कर्मचारी और मजदूर असंतुष्ट होंगे और समस्त विश्व में सर्वहारा संग़ठित होकर एक क्रांति को जन्म देगा और रूस का माडल एक स्थाई व्यवस्था बन जायेगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं। पूँजीवाद की व्यवस्था के रह्ते हुए भी कर्मचारियों की जेबें भरती रहीं और मजदूर भी सर्वहारा क्रांति से दूर ही रहे। 1990 के दशक में सोवियत संघ के पतन के उपरांत साम्यवाद का आर्थिक दर्शन समाप्त हो गया और उसके अस्तित्व का एकमात्र दर्शन रह गया अमेरिका का विरोध। अपने दर्शन के बूते जब साम्यवादियों में अमेरिका को नष्ट करने की कूबत न रही तो उन्हें इस्लामवादियों में नया साथी दिखाई पडा। इसी कारण उन्होंने 2000 के उपरांत अपने सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में इजरायल फिलीस्तीन को अपना सबसे बडा मुद्दा बताते हुए फिलीस्तीन के प्रति अपनी सहानुभुति रखी।

यह कोई संयोग नहीं है कि विश्व के अनेक शीर्ष वामपंथियों ने 11 सितबर 2001 को अमेरिका पर हुए आक्रमण की प्रशंसा तक की है और उसे अमेरिका की नीतियों का परिणाम बताया है।
ऐसा नहीं है कि वामपंथी केवल अमेरिका की निन्दा करते है वही तत्व भारत में इस्लामवादी हिंसा का प्रकारांतर से समर्थन करते हैं और हिन्दूवादी संगठनों पर आरोप लगाते हैं। ये नक्सली हिंसा को प्रश्रय देते हैं और भारत के पडोस में नेपाल में नक्सल और इस्लामवादी गठजोड का एक बडा खतरा इन्होंने खडा ही कर दिया है।

इन समानताओं से यही निष्कर्ष निकलते हैं कि वामपथियों की मानवाधिकार को लेकर ईमानदार नीयत नहीं है और उनके लिये ये केवल नारे हैं जिनका उपयोग वे अवसरवादिता से करते हैं तथा साथ ही वे अब विश्व में अपना वर्चस्व हिंसावादियों के साथ मिलकर बढायेंगे। इस्लामवाद और वामपंथ का यह गठबन्धन आने वाले दिनों में विश्व के लिये नयी चुनौती बनने वाला है।
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हिन्दुस्तान के हिन्दुओं ने क्या गुनाह किया है

पिछले दिनों महाशिवरात्रि के अवसर पर श्रीलंका के राष्ट्रपति श्री महिंदा राजपक्षे ने वहाँ की जनता को संबोधित किया. उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म विश्व के महान धर्मो में से एक है और लोगो को हिंदू धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए क्योंकि हिंदू धर्म के अनुसरण से हम अपना आने वाला कर बेहतर बना सकते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू धर्म से हमे एकता, भाईचारा और सहिष्णुता की सीख मिलती है जो शान्ति स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. साथ ही श्री महिंदा ने ये भी कहा कि वो भारत में शांति स्थापित हो इसकी प्रार्थना करते हैं.

हमारा पड़ोसी देश, और वो देश जो ख़ुद दशकों से आतंकवाद से जूझ रहा है के राष्ट्रपति ने महाशिवरात्रि पर हिन्दुओं का प्रोत्साहन किया, हिंदू धर्म को बढावा देने वाली बातें कहीं, हिन्दुओं का मनोबल ऊँचा किया.

हमारे राष्ट्रपति ने क्या किया? प्रधानमंत्री ने क्या किया? क्या हिन्दुओं का मनोबल ऊँचा करने के लिए कोई संदेश आया? क्या हिन्दुओं को प्रोत्साहित किया? अगर ईद होती तो राष्ट्रपति का देश के नाम संदेश आ जाता और प्रधानमंत्री जी तो कहीं ना कहीं किसी ईद समारोह में सिवईयाँ खाने जाते और शायद वहाँ बच्चों को ईदी भी बाँट आते.
यही तो फर्क हो रहा है हिन्दुओं के साथ.सभी क्षेत्रों में हिन्दुओं को नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है. क्यों?बहुसंख्यक होने के बावजूद भी हमे दोयम दर्जे का माना जाता है. क्यों? मुसलमानों के त्यौहार त्यौहार और हिन्दुओं के त्यौहार एक सामान्य दिन. क्यों? अगर अब भी हिंदू जाग्रत नहीं हुए तो वो दिन दूर नहीं जब मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं को गुलाम बनाया जाएगा, उन्हें प्रताड़ित किया जाएगा, हिन्दुओं की अस्मिता के साथ खेला जाएगा और धीरे-धीरे संपूर्ण हिन्दुस्तान को पाकिस्तान में मिला कर देवभूमि हिन्दुस्तान और हिन्दुओं का नाम-ओ-निशाँ हमेशा के लिए इस धरती से मिटा दिया जाएगा. हिंदू जाग्रति समय की मांग और आवश्यकता है. इसीलिए हिन्दुओं जागो और आह्वान करो धर्मयुद्ध का और हिंदू युग का.
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कम्युनिस्ट पार्टी का धर्म हिंसा है

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शांति-प्रयासों का हमेशा स्वागत तथा समर्थन दिया । आगे हिंसा न हो, इस प्रयास में भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेगडी़ तथा दीनदयाल शोध संस्थान दिल्ली के तत्कालीन निदेशक श्री पी.परमेश्वरन ने दिल्ली के वरिष्ट कम्युनिस्ट नेता श्री ई.एम.एस. नम्बुदरीपाद और श्री राममूर्ति से वार्ता की । इसी प्रकार केरल में भी संघ और सी.पी.एम. के नेताओं के बीच वार्तायें हुयीं। लेकिन शांति समझौते के कागज की स्याही सूख्नने से पहले ही संघ स्वयंसेवकों पर बिना किसी उत्तेजना के हमले प्रारम्भ कर दिये गये। शांति बनाये रखने के लिये प्रतिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अतिसम्मानित न्यायाधीश कृष्णाय्यर एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री ई.के. नयनार की पहल पर सी.पी.एम. के साथ पुन: बैठकर 1999 में शान्ति प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिये सहमत हुआ। परन्तु इस वार्ता के दो दिन बाद ही सी.पी.एम. कार्यकर्ताओं ने भारतिय जनता युवा मोर्चा के राज्य उपाध्यक्ष श्री जयकृ्ष्णन मास्टर की उनके विद्यालय की कक्षा में छोटे-छोटे बच्चों के सामने निर्मम ढंग से हत्या कर दी गई। स्पष्ट है कि शान्ति वार्तायें पूर्णत: असफल एवं अनुपयोगी सिद्ध हुयीं।
फिर भी कुछ वर्षो तक भड़काने के गम्भीर प्रयासों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शान्ति बनाए रखने की अपनी प्रतिबद्धता पर डटा रहा और कभी प्रतिकार नहीं किया और इसका परिणाम यह हुआ कि संघ को कई अच्छे कार्यकर्ताओं को खोना पड़ा और सी. पी. एम. के कार्यकर्ता और अधिक निर्दयी होते गये। वे जब भी राज्य में आते हैं तो सरकारी मशीनरी की मदद से उनकी निर्दयता सभी सीमायें लाँघ जाती है।
मार्च से शुरु हत्याओं का नवीनतम दौर अब तक पाँच स्वयंसेवकों का जान ले चुका है। 5 मार्च 2008 को शिवरात्रि के दिन थलसेरी शहर में तालुक शारीरिक शिक्षण प्रमुख श्री सुमेश हमेशा से शान्ति वार्ताओं में संघ का प्रतिनिधित्व करते थे। उसी दिन निखिल (22 वर्ष ) नाम के एक दूसरे स्वयंसेवक की जो लांरी क्लीनर था और अपने गरीब परिवार का एकमात्र सहारा था, हत्या कर दी गयी। श्री सत्यन नाम के राज मिस्त्री स्वयंसेवक को उसके कार्यस्थल से अक्षरश: बाहर घसीटकर उसका सिर काट दिया गया । उसके सिर कटे शरीर को उसके घर के निकट सड़क पर फेंक दिया गया । अगले दिन 6 मार्च को कुत्तुमरम्बा गांव के श्री महेश नाम के कार्यकर्ता की हत्या कर दी गयी और सिर धड़ से अलग कर दिया गया, अगले दिन 7 मार्च को कुडिडयेरी के श्री सुरेश बाबू तथा इल्थ्थुजा के श्री के.वी.सुरेन्द्रन (65 वर्ष ) की नि्र्मम हत्या की गई । इस प्रकार तीन दिनो़ में गरीब परिवारों के पांच नौजवान कार्यकर्ता हमसे छीन लिये गये । एक दर्जन से अधिक युवकों का अंग - भंग कर दिया गया। और वे विकलांग हो गये।
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राजनीतिक इस्लाम का बढता दायरा

इन दिनों समस्त विश्व में जिस इस्लामवादी खतरे का सामना सर्वत्र किया जा रहा है उसके पीछे मूल प्रेरणा इस्लाम की राजनीतिक इच्छा ही है। समस्त विश्व में मुसलमानों के मध्य इस बात को लेकर सहमति है कि उनके व्यक्तिगगत कानून में कोई दखल ना दिया जाये और विश्व के अधिकांश या सभी भाग पर शरियत का शासन हो। इस विषय में इस्लामवादी आतंकवादियों और विभिन्न इस्लामी राजनीतिक या सामाजिक संगठनों में विशेष अंतर नहीं है। इसी क्रम में पिछ्ले दिनों कुछ घटनायें घटित हुईं जो वैसे तो घटित अलग-अलग हिस्सों में हुईं परंतु उनका सम्बन्ध राजनीतिक इस्लाम से ही था। सेनेगल की राजधानी डकार में इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज की बैठक हुई और उसमें दो मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये जिनका आने वाले दिनों में समस्त विश्व पर गहरा प्रभाव पडने वाला है। इन दो निर्णयों के अनुसार

इस्लामी देशों के संगठन ने प्रस्ताव पारित किया कि समस्त विश्व में विशेषकर पश्चिम में इस्लामोफोब की बढती प्रव्रत्ति के विरुद्ध अभियान चलाया जायेगा और इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित किये जाने पर उसके विरुद्ध कानूनी लडाई लडी जायेगी। इस प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित करने या पैगम्बर को अपमानित करने के किसी भी प्रयास का डट कर मुकाबला किया जायेगा और कानूनी विकल्पों को भी अपनाया जायेगा।

दूसरे निर्णय के अनुसार मुस्लिम मतावलम्बियों को चेतावनी दी गयी कि वे शरियत के पालन के प्रति और जागरूक हों इस क्रम में सऊदी अरब के विदेशमंत्री ने अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हुए घोषणा की कि उनका देश आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज के गरीब देशों को एक अरब यू.एस. डालर की सहायता देगा परंतु बदले में उन्हें अपने यहाँ शरियत के अनुसार शासन-प्रशासन सुनिश्चित करना होगा।

ये दोनों ही निर्णय दूरगामी प्रभाव छोडने वाले हैं। पिछ्ले कुछ वर्षों में पश्चिम ने अनेक सन्दर्भों में इस्लाम को चुनौती दी है और विशेष रूप से डेनमार्क की एक पत्रिका में पैगम्बर को लेकर कार्टून छपने के उपरांत पश्चिम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार को लेकर व्यापक बहस आरम्भ हो गयी। पिछ्ले वर्ष कैथोलिक चर्च के धार्मिक गुरु पोप द्वारा इस्लाम के सम्बन्ध में की गयी कथित टिप्पणी के बाद इस बहस ने फिर जोर पकडा। इस बार इस्लामी सम्मेलन में इस्लाम के प्रतीकों पर आक्रमण की बात को प्रमुख रूप से रेखांकित किये जाने के पीछे प्रमुख कारण यही माना जा रहा है कि इस्लाम पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार कर अपने अन्दर कोई परिवर्तन लाने को तैयार नहीं है। आने वाले दिनों में यह विषय इस्लाम और पश्चिम के मध्य टकराव का प्रमुख कारण बनने वाला है। पश्चिम को इस बात पर आपत्ति है कि जब उनके यहाँ सभी धर्मों पर मीमांसा और आलोचना की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है तो इस सिद्धांत की परिधि से इस्लाम बाहर क्यों है या उसे विशेषाधिकार क्यों प्राप्त है। इस्लामी देशों ने इस विषय पर अपना रूख पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि वे अपनी विशेषाधिकार की स्थिति को कायम रखना चाह्ते हैं। उधर पश्चिम में इस्लाम के विशेषाधिकार को ध्वस्त करने के अनेक प्रयास हो रहे हैं। हालैण्ड की संसद के एक सदस्य और आप्रवास विरोधी राजनीतिक दल फ्रीडम पार्टी के प्रमुख गीर्ट वाइल्डर्स ने कुरान पर अपने विचारों को लेकर एक फिल्म तक बन डाली है जो 28 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है। पश्चिम की इस मानसिकता के बाद इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन द्वारा जिस प्रकार का अडियल रवैया अपनाया गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस्लामी मतावलम्बी किसी भी नये परिवर्तन के किये तैयार नहीं हैं। इससे तो एक ही बात स्पष्ट होती है कि आने वाले दिनों में पश्चिम और इस्लाम का टकराव बढने ही वाला है।

इस सम्मेलन के दूसरे प्रस्ताव से भी राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय ही प्रोत्साहन मिलने वाला है। इस प्रस्ताव के अनुसार इस्लामी संगठन के उन सदस्य देशों को आर्थिक सहायता देते समय जो गरीब हैं यह शर्त लगायी जायेगी वे अपने शासन और प्रशासन में शरियत का पालन सुनिश्चित करें। इस शर्त से उन मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता बढ सकती है जिनमें विकास का सूचकांक काफी नीचे है और राजनीतिक इस्लाम और कट्टरपंथी इस्लाम में अधिक अंतर नहीं है। इन देशों के पिछ्डेपन का लाभ उन संगठनों को मिल सकता है जिन्होंने शरियत का पालन सुनिश्चित करने के लिये आतंकवाद और हिंसा का सहारा ले रखा है। इस्लामी देशों के इस सम्मेलन में शरियत पर जोर देकर राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय दे कर इस्लामी कट्टरता को नया आयाम ही दिया गया है। इस निर्णय के उपरांत यह फैसला कर पाना कठिन हो गया है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी राजनीति के इस संकल्प में अंतर क्या है। विशेषकर तब जबकि दोनों का उद्देश्य शरियत के आधार पर ही विश्व का संचालन करना और उसे प्रोत्साहित करना ही है। इस्लाम के विशेषाधिकार को कायम रखना और शरियत के अनुसार शासन और प्रशासन चलाने के लिये मुस्लिम देशों को प्रेरित करना मुस्लिम देशों की उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ वे परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिखते और इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं।

इसके अतिरिक्त दो और घटनायें पिछ्ले दिनों घटित हुईं जो इस्लाम को लेकर चल रही
पूरी बह्स को और तीखा बनाती हैं तथा इस्लामी बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता इस्लामी आतंकवाद से असहमति रखते हुए भी उसके उद्देश्यों से सहमत प्रतीत होते दिखते हैं। इन दो घटनाओं में एक का केन्द्र उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रहा जहाँ आतंकवाद विरोधी आन्दोलन के बैनर तले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के कुछ प्रमुख सदस्यों ने निर्णय लिया कि वे प्रदेश के किसी भी जिले में बार काउंसिल के उस निर्णय का खुलकर विरोध करेंगे जिसमें वकील उन लोगों के मुकदमे लडने से इंकार कर देंगे जो किसी आतंकवादी घटना के आरोप में गिरफ्तार किये जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के इस फैसले के बाद वकीलों के संगठन बार काउंसिल में धर्म के आधार पर विभाजन हो गया है और इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि आतंकवादी घटनाओं के नाम पर निर्दोष मुसलमान युवकों को पकडा जा रहा है और उन्हें कानूनी सहायता मुसलमान वकील दिलायेंगे। ज्ञातव्य हो कि पिछ्ले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में अनेक आतंकवादी घटनायें घटित हुईं जिनमे अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि पर आक्रमण, वाराणसी स्थित संकटमोचन मन्दिर पर आक्रमण प्रमुख हैं। इन आतंकवादी घटनाओं में जो आतंकवादी गिरफ्तार हुए उनका मुकदमा लडने से स्थानीय बार काउंसिल ने इंकार कर दिया। इसी के विरोध में न्यायिक प्रक्रिया को आतंकित करने के लिये पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में अनेक न्यायालयों में एक साथ बम विस्फोट हुए और आतंकवादी संगठनों ने इसके कारण के रूप में आतंकवादियों का मुकदमा लडने से वकीलों के इंकार को बताया।

अब जिस प्रकार मुस्लिम वकील आतंकवादियों को निर्दोष बताकर सरकार और पुलिस बल पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं उससे उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है और यहाँ भी इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी आन्दोलन के मध्य उद्देश्यों की समानता दिख रही है। इस निर्णय का व्यापक असर होने वाला है और विशेष रूप से तो यह कि जब समस्त विश्व इस्लामी बुद्धिजीवियों से आतंकवाद की इस लडाई में रचनात्मक सहयोग की आशा करता है तो उनका नयी-नयी रणनीति अपनाकर प्रकारांतर से सही इस्लाम के नाम पर चल रहे अभियान को हतोत्साहित करने के स्थान उसे बल प्रदान करने के लिये तोथे तर्कों का सहारा लेना इस आशंका को पुष्ट करता है कि इस्लामी आतंकवाद कोई भटका हुआ अभियान नहीं है।

इसी बीच एक और प्रव्रत्ति ने जोर पकडा है जिसकी आकस्मिक बढोत्तरी से देश की खुफिया एजेंसियों के माथे पर भी बल आ गया है। जिस प्रकार पिछ्ले दिनों उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित दारूल-उलूम्-देवबन्द ने देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों और उलेमाओं को आमंत्रित कर इस्लाम के साथ आतंकवाद के सहयोग को नकारने का प्रयास किया उसने भी अनेक प्रश्न खडे किये। क्योंकि इस सम्मेलन में भी ऊपर से तो आतंकवाद के साथ इस्लाम को जोडने की प्रव्रत्ति की आलोचना की गयी परंतु जो विषय उठाये गये और मुस्लिम समाज की जिन चिंताओं को व्यक्त किया गया उनसे उन्हीं बिन्दुओं को समर्थन मिला जो इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद के हैं। दारूल उलूम देवबन्द के सम्मेलन के उपरांत इसी प्रकार के और सम्मेलन देश के अनेक हिस्सों में आयोजित करने की योजना बन रही है। आतंकवाद विरोध में मुस्लिम संगठनों की इस अचानक पहल की पहेली देश की खुफिया एजेंसियाँ सुलझाने में जुट गयी हैं। एजेंसियाँ केवल यह जानना चाहती हैं कि यह मुस्लिम संगठनों की स्वतःस्फूर्त प्रेरणा है या फिर इसके लिये बाहर से धन आ रहा है। यदि इसके लिये बाहर से धन आ रहा है या फिर यह कोई सोची समझी रणनीति है तो इससे पीछे के मंतव्य को समझना आवश्यक होगा। कहीं यह जन सम्पर्क का अच्छा प्रयास तो नहीं है ताकि इस्लाम के सम्बन्ध में बन रही धारणा को तो ठीक किया जाये परंतु आतंकवाद की पूरी बह्स और उसके स्वरूप पर सार्थक चर्चा न की जाये जैसा कि देवबन्द के सम्मेलन में हुआ भी। तो क्या माना जाये कि खतरा और भी बडा है या सुनियोजित है।

आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज ने जहाँ अपने प्रस्तावों से संकेत दिया है कि इस्लामिक उम्मा आने वाले दिनों में अधिक सक्रिय और कट्टर भूमिका के लिये तैयार हो रहा है तो ऐसे में भारत में घटित होने वाली कुछ घटनायें भी उसी संकेत की ओर जाती दिखती हैं। समस्त मुस्लिम विश्व में हो रहे घटनाक्रम एक ही संकेत दे रहे हैं कि इस्लाम में शेष विश्व के साथ चलने के बजाय उसे इस्लाम के रास्ते पर लाने का अभियान चलाया जा रहा है। वास्तव में इस्लामी राजनीति के अनेक जानकारों का मानना है कि इस्लामी आतंकवाद और कुछ नहीं बल्कि फासिस्ट और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित अधिनायकवादी आन्दोलन है जो अपने काल्पनिक विश्व को शेष विश्व पर थोपना चाह्ता है परंतु नये घटनाक्रम से तो ऐसा लगता है कि समस्त इस्लामी जगत इस काल्पनिक दुनिया को स्थापित करना चाह्ता है और उनमें यह भावना घर कर गयी है कि वर्तमान विश्व के सिद्धांतों को स्वीकार करने के स्थान पर कुरान और शरियत के आधार पर विश्व को नया स्वरूप दिया जाये। यही वह बिन्दु है जो राजनीतिक इस्लाम को इस्लामी आतंकवाद के साथ सहानुभूति रखने को विवश करता है क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है खिलाफत की स्थापना और समस्त विश्व के शासन प्रशासन का संचालन शरियत के आधार पर करना।
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कन्नूर: कम्युनिस्ट पार्टी का रक्तरंजित इतिहास

उत्तर केरल के कन्नूर जिले में सी.पी.एम. के कार्यकर्ताओ द्वारा 05-03-2008 के बाद पुन: शुरु किये गये आक्रमणों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मे पांच कार्यकर्ता मारे गये हैं तथा दर्जनों गम्भीर रुप से घायल हुये हैं। इस हिंसा में 40 से अधिक स्वयंसेवक के घर को नष्ट कर दिये गये हैं।
यह माना जाता है कि केरल की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कन्नूर जिले के पिनाराई नामक स्थान पर हुआ था और पार्टी इस जिले को अपना गढ़ मानती है। इस जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में शुरु हुआ और 25 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्ण ढँग से चला । इस दैरान सी.पी.एम. के कई कार्यकर्ता संघ के प्रति आकर्षित हुये और बडी़ संख्या में उसमें शामिल हुये। संघ की बढती हुई शक्ति को सी.पी.एम. सहन नहीं कर सकी और 1969 से हत्या की राजनीति पर उतर आई।
एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी श्री रामकृष्णन थलसैरी शाखा के मुख्य शिक्षक थे उसने कम्युनिस्टों के आतंक का हिम्म्त से मुकाबला किया और थलसैरी तथा आस-पास के क्षेत्र में कई शाखायें खडी़ कीं। वह कम्युनिस्टों का पहला शिकार बना और 1969 में उसकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी। वर्तमान में सी.पी.एम. पार्टी के राज्य सचिव श्री पिनराई विजयन, जो इसी जिले के निवासी हैं, इस हत्या के मुख्या अभित्युक्तों में से एक हैं। वर्तमान गृहमंत्री कुडियेरी बालकृष्णन जो कन्नूर जिले के ही निवासी हैं के. सतीशन नामक, दूसरे स्वयंसेवक की हत्या में अभियुक्त थे।
अब तक अकेले इस जिले में 60 से अधिक स्वयंसेवक सी.पी.एम. के हाथों मारे गये हैं। यहाँ तक कि वृद्ध महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। 22 मई 2002 को एक स्वयंसेवक श्री उत्त्मन जिसकी हत्या सी.पी.एम. ने पहले दिन की थी, उसकी अंत्येष्टि में भाग लेकर जीप से वापस आ रहीं श्रीमती अम्मू अम्मा (72 वर्ष ) की सी.पी.एम कार्यकर्ताओं द्वारा बम फेंककर हत्या कर दी गयी।
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दारुल उलूम का मुस्लिम सम्मेलन की सच्चाई

दारुल उलूम का मुस्लिम सम्मेलन खासी चर्चा में है। बेशक पहली दफा किसी बड़े मुस्लिम सम्मेलन में आतंकवाद की निंदा की गई, लेकिन आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद 'असंख्य निर्दोष मुस्लिमों पर हो रहे असहनीय अत्याचारों' पर गहरी चिंता भी जताई गई। आल इंडिया एंटी टेररिज्म कांफ्रेंस की दो पृष्ठीय उद्घोषणा में आतंकवाद विरोधी सरकारी कार्रवाइयों को भेदभाव मूलक कहा गया। इसके अनुसार निष्पक्षता, नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्यों वाले भारत में वर्तमान हालात बहुत खराब है। सम्मेलन ने आरोप लगाया कि इस वक्त सभी मुसलमान, खासतौर से मदरसा प्रोग्राम से जुड़े लोग दहशत में जी रहे है कि वे किसी भी वक्त गिरफ्तार हो सकते है। सम्मेलन में सरकारी अधिकारियों पर असंख्य निर्दोष मुस्लिमों को जेल में डालने, यातनाएं देने और मदरसों से जुड़े लोगों को शक की निगाह से देखने का आरोप भी जड़ा गया। सम्मेलन ने भारत की विदेश नीति और आंतरिक नीति पर पश्चिम की इस्लाम विरोधी ताकतों का प्रभाव बताया। देश दुनिया के मुसलमानों से हमेशा की तरह एकजुट रहने की अपील की गई। ऐलान हुआ कि सभी सूबों में भी ऐसे ही जलसे होंगे। सरकार के कथित मुस्लिम विरोधी नजरिए के संदर्भ में अवाम को बताया जाएगा।
सम्मेलन की उद्घोषणा दरअसल आतंकवाद से जारी संघर्ष की हवा निकालने वाली है। जाहिर है कि जलसे का मकसद दीगर था। आतंकवाद की निंदा की वजहें भी दूसरी थीं। निगाहे मुस्लिम एकजुटता पर थीं, निशाना आतंकवाद से लड़ रहा राष्ट्र था। इराक, अफगानिस्तान, फलस्तीन, बोस्निया और दक्षिण अमेरिकी देशों के मुस्लिम उत्पीड़न की चर्चा की गई। जेहाद के नाम पर मारे गए हजारों भारतीय निर्दोषों, श्रृद्धा केंद्रों, कचहरी और मेला बाजारों में मारे गए नागरिकों के बारे में शोक संवेदना का एक लफ्ज भी इस्तेमाल नहीं हुआ। आतंकवाद से लड़ते हुए मारे गए सैकड़ों पुलिस जवानों/ सैनिकों की तारीफ के बजाय पुलिस व्यवस्था को ही भेदभाव मूलक बता दिया गया। आतंकवाद के आरोपों में बंद 'असंख्य निर्दोष मुस्लिम' वाक्य का इस्तेमाल भारतीय राष्ट्र-राज्य की घोर निंदा है। सम्मेलन की राय में यहां असंख्य मुसलमानों को बेवजह फंसाया जा रहा है। उन पर लगे सारे आरोप मनगढ़ंत है। सम्मेलन के मुताबिक देश के असंख्य मुसलमानों की जिंदगी तबाह है। वे प्रतिपल दहशत में हैं। उन्हे यहां सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं है। आतंकवाद विरोधी सरकारी कार्रवाई को मुस्लिम विरोधी बताने का काम अध्यक्षीय भाषण में भी हुआ। सम्मेलन के अध्यक्ष मुहम्मद मरगूबउर्रहान ने फरमाया, ''आतंकवादी कार्रवाई के सिलसिले में दोषी या कम से कम संदिग्ध करार देने के लिए न तो किसी विचार-विमर्श की आवश्यकता महसूस की जाती है, न किसी सावधानी से काम लिया जाता है और न तथ्य और प्रमाण इकट्ठा करने का कोई गंभीर प्रयास किया जाता है। उनको दोषी बताने के लिए केवल इतना ही आवश्यक समझा जाता है कि वे मुसलमान है।''
मौलाना ने आतंकवाद से निपटने में खास सतर्कता की जरूरत भी बताई। उन्होंने कहा कि इतिहास में अक्सर ऐसा हुआ है कि सरकार के दोषी हीरो कहलाए है-खासतौर से वे जिनके कट्टरवादी व्यवहार के कारण सरकार की ओर से अन्याय और अत्याचार हो। इतिहास के इस तथ्य पर नजर रखते हुए ऐसा काम न किया जाए जिसकी प्रतिक्रिया आतंकवाद के रूप में हो। यानी आतंकवाद के विरुद्ध नरमी से पेश आना चाहिए, अन्यथा इसकी प्रतिक्रिया में आतंकवाद और भड़केगा। केंद्र सरकार की नरम नीति उलेमा की हिदायत से मिलती-जुलती है। बावजूद इसके केंद्र पर असंख्य निर्दोष मुस्लिमों को जेल में बंद रखने के आरोप भी लगाए। दरअसल, मजहब और पंथ का उदय देश, काल और परिस्थिति में ही होता है। वे प्रत्येक देश, समय और परिस्थिति में उपयोगी नहीं होते। मजहब-पंथ का काम मानवीय सद्गुणों का विकास ही है। दर्शन और विज्ञान यही काम 'सत्य दिखाकर' करते है। पंथ और मजहब यही काम अकीदत और आस्था के जरिए करते हैं। मौलाना ने इस्लाम की तारीफ की। ठीक किया। यह भी कहा कि इस्लाम निष्पक्षता, न्याय और दया की सीख देता है। उन्होंने कुरान के हवाले से कहा कि इस्लाम में गवाही देते समय परिवार और संबंधी का मोह भी छोड़ने की हिदायत है। वह भूल गए कि कुरान की इसी आयत के बाद कहा गया है, ''जो ईमानवालों/मुसलमानों को छोड़कर इनकार करने वालों को अपना दोस्त बनाते हैं, क्या उन्हे प्रतिष्ठा की तलाश है।'' आगे हिदायत दी गई, ''ऐ ईमानवालो! इनकार करने वालों को अपना मित्र न बनाओ।'' यह भी कहा गया कि जो इस्लाम के अलावा कोई और दीन तलब करेगा उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न होगा और अंतत: वह घाटे में रहेगा।
सह-अस्तित्व और समझौते की बातें भी अध्यक्षीय भाषण में कही गईं, लेकिन कुरान में साफ हिदायत है, ''तुम अपने दीन के अनुयायियों के अलावा किसी पर भी विश्वास न करो।'' इस्लामी विचारधारा दुनिया के सभी मनुष्यों को दो हिस्सों में बांटती है। पहला, ईमानवाले यानी मुसलमान और दूसरे वे जिन्होंने इनकार किया। कुरान में बताया गया कि इनकार करने वालों से कह दो कि वे बाज आएं तो क्षमा है। यदि वे फिर भी वही करेगे तो जैसा पूर्ववर्ती लोगों के लिए किया गया, वही रीति अपनाई जाएगी। उनसे युद्ध करो, यहां तक कि फितना भी बाकी न रहे और दीन पूरा का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। सम्मेलन ने जिन फलस्तीन, इराक आदि का जिक्र किया है वहां इस्लाम के पहले क्या था? भारत नाजुक दौर में है। मौलाना ने बजा फरमाया कि आतंकवाद हमारे देश की मूल समस्या नहीं है, लेकिन उन्होंने गलत कहा कि यह साम्राज्यवादी देशों द्वारा फैलाया गया। प्राचीन अरब और अरबी सभ्यता पर पहला हमला इस्लामी विस्तारवाद ने ही किया। ऋग्वेद की निकटतम जेंदअवेस्ता वाली महान ईरानी सभ्यता भी इस्लामी हमले में तबाह हुई। यूरोप में स्पेन तक हमला हुआ। इस्लामी विस्तारवाद को भारत और स्पेन में ही टक्कर मिली, जबकि सीरिया, मिस्त्र, फलस्तीन और ईरान तबाह हो गए। मुहम्मद बिन कासिम से लेकर तराई (1192 ई.) की लड़ाई तक वे यहां अपनी स्थायी हुकूमत नहीं बना पाए।
इस्लामी गलबे के खिलाफ पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, गुरु तेग बहादुर, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह सहित हजारों लोग न लड़े होते तो भारत भी फलस्तीन, मिस्त्र, यूनान, ईरान और मध्य एशिया के तमाम इलाकों की तरह प्राचीन संस्कृति और इतिहास से शून्य होता? मुस्लिम सम्मेलन ने विश्वव्यापी इस्लामी विस्तारवाद की चर्चा नहीं की। पाकिस्तान द्वारा मुसलसल भारत भेजे जा रहे आतंकवादी गिरोहों पर भी कोई बात नहीं हुई। पाक आतंकी डेली पैसेंजरी नहीं करते। वे भारत के ही लोगों द्वारा सहायता पाते हैं। सम्मेलन ने भारत के ऐसे राष्ट्रद्रोही तत्वों की आलोचना नहीं की। बावजूद इसके लोग खुश हैं कि सम्मेलन ने आतंकवाद के विरुद्ध बोलकर भारत पर भारी कृपा की है। विद्वान प्रधानमंत्री बुरे फंसे। वे मुस्लिम सर्वोपरिता और तुष्टीकरण का संगीत बजा रहे है। ये है कि तमाम नाजायज कोशिशों के बावजूद रुष्ट है, तुष्ट होने का नाम भी नहीं लेते और 'असंख्य निर्दोष मुस्लिमों' को जेल में यातना देने का आरोप भी लगा रहे है।
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कुन्नूर स्थानीय प्रशासन जिम्मेवार : हाईकोर्ट

केरल सरकार के कुन्नूर मामले पर हाईकोर्ट की टिप्पणी, कि वहां पर जो हत्याएं हो रहीं हैं उसके लिए वहां का स्थानीय प्रशासन जिम्मेवार है वहां की स्थानीय पुलिस निष्पक्ष न होकर एक पार्टी विशेष के लिए कार्यरत है। इसके साथ हाईकोर्ट ने राज्य पुलिस को हटा कर केन्द्रीय सुरक्षा बल लगाने का सुझाव दिया। कुन्नूर में 2006 में एक समाचारपत्र विक्रेता की हत्या की जांच सीबीआई से कराने का आदेश हाईकोर्ट ने दिया।
हाईकोर्ट का यह कहना कि इस समस्या का सही समाधान तभी हो सकता है जब केन्द्र सरकार हस्तक्षेप करे और वहां राज्य पुलिस को हटाकर केन्द्रीय पुलिस को पदस्थापित करे। हाईकोर्ट का यह आदेश एक विधवा द्वारा जारी याचिका की सुनवाई के दौरान आया।
न्यायालय द्वारा अपने आदेश में राज्यपाल को यह निर्देश दिया कि वहां पर हो रही घटनाओं के बारे में केन्द्र सरकार को जानकारी दे और वहां पर चल रही खूनी घटनाओं को रोकने के लिए केन्द्र सरकार को उचित प्रबंध करने का सुझाव दे। बीजेपी और कांग्रेस का यह कहना कि राज्य के गृह मंत्रालय से वहां के लोगों को न्याय मिलना बिलकुल संभव नहीं है।
न्यायालय की टिप्पणी इस बात को दर्शाती है कि राज्य की कानून व्यवस्था किस कदर लचर हो गयी है। अगर वक्त रहते सरकार नहीं चेती तो कुन्नूर अगले नंदीग्राम में तब्दील हो जाएगा। नंदीग्राम में जमीन की लड़ाई थी तो कुन्नूर में विचारों की लड़ाई है, दोनों जगह दमनकारी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी है।
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माकपा को करारा जवाब देगा संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने केरल में माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा संघ और भाजपा के कुछ कार्यकर्ताओं पर किए गए जानलेवा हमले की कड़ी निन्दा करते हुए कहा कि माकपा के अलोकतांत्रिक और फासिस्ट तरीकों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा तथा इसका कड़ा मुकाबला किया जाएगा।
आरएसएस के कार्यकारी मंडल के वरिष्ठ सदस्य राम माधव ने रविवार को कहा कि पिछले सप्ताह केरल में संघ के पाँच कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्या कर दी गई तथा 12 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए और 200 से अधिक मकानों में तोड़फोड़ की गई।

उन्होंने कहा कि केरल में संघ तथा कुछ राष्ट्रवादी ताकतों के बढ़ते प्रभाव के कारण माकपा ने राज्य सरकार के परोक्ष समर्थन से संघ कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले किए हैं। माधव ने कहा कि संघ माकपा की अलोकतांत्रिक और फासिस्ट कारवाई का कड़ा जवाब देगी।

माधव ने कहा कि केरल में शांति की बहाली के लिए वहाँ की राज्य सरकार अपनी ओर से कोई प्रयास करेगी तो संघ सहयोग दे सकता है, लेकिन संघ माकपा से कोई बातचीत नहीं करेगा क्योंकि अब तक का संघ का पिछला अनुभव इसके ठीक विपरीत है क्योंकि माकपा शांति प्रयासों में विश्वास ही नहीं करता है। उन्होने कहा कि संघ माकपा के आतंक के सामने कभी झुकनेवाला नहीं है और उसका कड़ा प्रतिरोध करेगा।

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महाराष्ट्र प्रकरण - हमेशा हिंदू ही क्यों?

महाराष्ट्र में इन दिनों उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने के लिए हर संभव कोशिश की जा रही है. शुरूवात की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे जी ने. राज ठाकरे जी को महाराष्ट्र में शिवसेना तथा अन्य पार्टीयों के सामने अपनी नई पार्टी को जनाधार देने के लिए कुछ और मुद्दा नहीं मिला तो उन्होंने उत्तर भारतीयों को ही महाराष्ट्र से बाहर निकालने की मुहिम छेड़ दी. उनके चाचा बाल ठाकरे जी से अपनी पार्टी का वोट बैंक टूटना देखा नहीं गया. उन्होंने तो भी भतीजे से ज्यादा बढ़-चढ़ कर भड़काऊ बयान दे डाले उत्तर भारतीयों के बारे में.
अभी तक जात-पात के कारण बँटे हुए और लड़ते हुए हम हिंदू, हिंदू धर्म के प्रति क्या कुछ कम काम कर रहे थे जो अचानक इन कथित बुद्धिजीवियों ने हमें दिशाओं और क्षेत्रों के हिसाब से भी बांटना शुरू कर दिया?
और हम हिंदू भी सत्ता लोलुप नेताओं द्वारा दिए गए फालतू के क्षेत्रवाद के लिए आपस में लड़ सकते हैं, हिन्दुओं ही को मार सकते हैं लेकिन अपनी मातृभूमि भारत माता, अपने हिंदू धर्म और अपनी सदियों पुरानी दैव संस्कृति की रक्षा के लिए दूसरे धर्म के लोगों से नहीं लड़ सकते.मैं राज ठाकरे जी से कहना चाहूँगा की अगर कोई मुहिम चलानी ही थी तो मुसलमानों को इस देश से बाहर निकालने की मुहिम चलाते! अरे देश से ना सही महाराष्ट्र से ही निकालने की कवायद करते. अपने ही भाई बंधुओ का गला काटने की क्या ज़रूरत थी? मुगलों से प्रेरित हो गए हैं क्या, जो सत्ता के लिए अपने पिता और भाईयों को मार दिया करते थे.
छत्रपति शिवाजी मराठी ही थे लेकिन उन्होंने कभी भी हिन्दुओं को बांटा नहीं. वो हमेशा मुगलों को अपने क्षेत्र से भगाते रहे और उनको नाको चने चबवाते रहे. आज उन्हीं छत्रपति शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र में हिंदू ही हिंदू को मार रहा है.
ऐसी घटनाएं छत्रपति शिवाजी के उसूलों को, मराठीयों के नाम को, महाराष्ट्र के गौरव को, हिन्दुओं के सम्मान को और देश के संविधान को शर्मसार करती हैं.

लेखक
मयंक कुमार
Software Engineer
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पाकिस्तान राष्ट्र नहीं है।

पाकिस्तान राष्ट्र नहीं है। यह कट्टरपंथी जेहादी और विश्व आतंकवाद की प्रापर्टी है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का मालिकाना मसला वसीयत से सुलट गया। 'प्रापर्टी पाकिस्तान' को लेकर मुसलसल जंग है। यहां कोई संप्रभु संवैधानिक सत्ता भी नहीं है। सिर्फ 60 साल की उम्र के इस मुल्क ने 4 संविधान बनाए। 32 साल तक सेना का राज रहा। इसके अलावा भी 10 साल तक सेना ने ही परोक्ष हुकूमत की, सिर्फ 18 साल ही अप्रत्यक्ष लोकतंत्र रहा। अभी भी सेना का ही राज है। बेनजीर भुट्टो की हत्या कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। पांच माह पहले ही लाल मस्जिद में कार्रवाई हुई थी। इसके पहले न्यायपालिका का सरेआम कत्ल हुआ। पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद की विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी है। {येही है इसलाम और इस्लामी सल्तनत }
रक्त पिपासु जेहादी आतंकियों पर आईएसआई और सेना का कवच है। आईएसआई और जेहादी आतंकियों के साथ कट्टरपंथी मौलानाओं की दुआएं है। भारत सबका दुश्मन नंबर एक है, लेकिन भारतीय हुक्मरान इससे बेखबर है। पाकिस्तान के जन्म का आधार मजहबी अलगाववाद था। राष्ट्र मजहब से नहीं बनते। राष्ट्र निर्माण का आधार संस्कृति होती है। मजहबी अलगाववादियों ने अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को नहीं स्वीकारा। नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं पाए। उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को भी खारिज किया। नया झूठा इतिहास लिखा गया। नई पीढ़ी ने भारत को शत्रु पढ़ा। मदरसे जेहाद सिखाने का केंद्र बने। मदरसा तालीम का विरोध बेनजीर ने किया था। अमेरिकी दबाव में मुशर्रफ ने भी किया था, लेकिन जहर मदरसों के आगे भी था। प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के सलाहकार रहे इतिहासकार केके अजीज ने 'द पाकिस्तानी हिस्टोरियन' नामक शोध में पाकिस्तानी पाठ्य पुस्तकों के जहर की शिनाख्त की है। अजीज की किताब के मुताबिक कक्षा 2 की पाठ्य पुस्तक में उल्लेख है-''पं. नेहरू ने कहा कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में हिंदुओं की सरकार होगी। कायदे आजम जिन्ना ने कहा कि यहां मुसलमान भी रहते हैं। मुसलमानों को अलग हुकूमत चाहिए।'' हिंदू विरोध के ही नजरिए से तैयार कक्षा 3 की पाठ्य पुस्तक में लिखा है, ''राजा जयपाल ने महमूद गजनवी के मुल्क में घुसने की कोशिश की। महमूद ने राजा को हरा दिया, लाहौर को हथिया लिया और इस्लामी हुकूमत कायम की।'' सच बात यह है कि पंजाब कभी इस्लाम राज्य नहीं था। महमूद आक्रांता और लुटेरा था। पाकिस्तान की नई पीढ़ी उसे हीरो पढ़ रही है। कक्षा 4 की किताब के अनुसार ''जब अंग्रेज ने इलाके पर हमला किया तो मुसलमानों के खिलाफ गैर मुसलमानों ने उनका साथ दिया। अंग्रेजों ने सारा मुल्क फतेह किया।'' कक्षा 5 की किताब में उल्लेख है-''मुस्लिम और हिंदू सभ्यताओं में विवाद हुआ। आजाद मुल्क (पाकिस्तान) की जरूरत हुई। पाकिस्तान का सिद्धांत आया। भारत (हिंदुओं) की दुष्टता थी। सर सैय्यद अहमद खां ने ऐलान किया कि मुसलमानों को एक अलग राष्ट्र के रूप में संगठित करना चाहिए।'' किताबों में 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को विजयी बताया गया। जेहाद और इसी किस्म के इतिहास को पढ़कर औसत पाकिस्तानी नौजवान आतंकी बनता है। कट्टरपंथी 'मौत के बाद जन्नत' की गारंटी देते है। कुछ बरस पहले 'जंग' ने लाहौर के करीब स्थित मरकज अलदावत अलअरशद नाम की इस्लामी यूनिवर्सिटी के मुख्य कर्ता-धर्ता और लश्करे तैयबा के प्रमुख प्रो. हाफिज सईद का इंटरव्यू छापा था। उसने भारतीय मुसलमानों से भारत के खिलाफ जेहाद अपील की थी-इसलिए कि हिंदुओं ने मुसलमानों का जीना हराम कर दिया है। 'जंग' ने पूछा कि मुसलमान निकलकर कहां जाएं? क्या पाकिस्तान उन्हे संभाल लेगा? सईद ने जवाब दिया, ''इसका जवाब सरकार दे। 1948, 1965 और 1971 में हमने संधि की, गलती की। यह न करते तो दिल्ली और कलकत्ता पर हमारा कब्जा होता।'' सईद जैसे लोग जो कुछ बोलते है वही वहां के बच्चों को पढ़ाया जाता है। सईद ने 'जंग' से कहा कि हमारे पैगंबर के मुताबिक अधिक बच्चे देने वाली बीबी से निकाह करना चाहिए। बड़ी आबादी वाली कौम ही दूसरों पर छा जाती है। भारत के तमाम हिस्सों में बढ़ी मुस्लिम आबादी से जनसंख्या संतुलन गड़बड़ाया है। तिस पर भी 11वीं योजना के मसौदे में मजहब आधारित 15 सूत्रीय तुष्टीकरण प्रोग्राम नत्थी किया गया। डा.अंबेडकर भारत की हिंदू-मुस्लिम साझा राष्ट्रीयता को असंभव मानते थे। उन्होंने तीखे सवाल उठाए, ''क्या भारत के राजनीतिक विकास के लिए हिंदू, मुस्लिम एकता जरूरी है? यदि तुष्टीकरण से तो कौन सी नई सुविधाएं उन्हें दी जाएं? अगर समझौते से तो शर्तें क्या होंगी?''
सभी पाकिस्तानी हुक्मरान भारत विरोधी थे। भुट्टो भी, बेनजीर भी, नवाज शरीफ भी और परवेज मुशर्रफ भी। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। भारत विरोधी जेहादी जज्बा है। फिलहाल वहां गृहयुद्ध के हाल हैं, लेकिन विरोधी पड़ोसी के घर गृहयुद्ध का भी असर पड़ोस पर पड़ता है। पाकिस्तान का भूगोल भारत-पाक सीमाओं पर जरूर खत्म होता है, लेकिन पाकिस्तान एक विचारधारा भी है। पाकिस्तान जैसा उग्र कट्टरपंथ भारत में भी है। इसीलिए आतंकवादी अपने इसी देश में भी मदद पाते हैं। पाकिस्तान की आग का धुंआ भारत में भी है। राष्ट्र इसी धुंए से बेचैन है। पशु-पक्षी भी पड़ोसी धमक सुनकर चौकन्ने होते हैं। अपने ऊपर आती है तो पलटवार भी करते हैं, लेकिन भारतीय राजनीतिज्ञ सिर्फ सेंसेक्स उछाल देखकर ही उछल रहे हैं।
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काश मैं भारत में न पैदा हुआ होता।

मैं कई दिनों से यह सोच रहा हूं कि काश मैं भारत में न पैदा हुआ होता।
यह विचार मेरे मन में इसलिये आता है क्यों कि हम भारतवासी किस चीज पर गर्व कर सकते हैं। हमको बचपन से यह सिखाया जाता है कि हम लुटे पिटे हुये लोग हैं। पहले हमको तुर्कों ने पीटा फ़िर मुगलों ने और फिर अंग्रेजों ने और आज करोडों भारतीयों पर काले अंग्रेज दिखने में भारतीय पर आत्मा से अंग्रेजी मोह से ग्रस्तहृ राज कर रहे हैं जो कि बाहर से तो देखने में तो भूरे हैं लेकिन अंदर से एकदम अंग्रेज।
कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है लेकिन न्यायालय का एक निर्णय सुनने के लिये पूरा जीवन भी कम पड ज़ाता है। हमको यह नहीं सिखाया गया कि हमारी सभ्यता 5000 हजार सालों से भी पुरानी है। हमारे यहां वेद उपनिषद पुराण ग़ीता महाभारत जैसे महान ग्रंथों की महानता एवं उनका आध्यात्म नहीं सिखाया जाता । हमारे यहां अपनी भाषा का सम्मान करना नहीं सिखाया जाता है बल्कि हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढने वाले को पिछडा हुआ या बैकवर्ड समझा जाता है। हमको यह सिखाया जाता है कि शिवाजी, गुरू तेगबहादुर जी जैसे महावीर लोग लुटेरे थे। हमारा सबकुछ आक्रमणकारियों या हमलावरों की देन है चाहे वो भाषा हो या संस्कृति या और कुछ।

हमारे घरों में अंग्रेजी में पारंगत होने पर बल दिया जाता है क्योंकि संस्कृत या हिन्दी या अन्य भारतीय भाषायें तो पुरातन और पिछडी हुई हैं। लोग अपने बच्चों को अंग्रजी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिये हजारों लाखों कुर्बान करने को तैयार हैं। बच्चों को शायद वन्दे मातरम न आता हो लेकिन ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार जरूर आता होगा।

जयशंकर प्रसाद के नाम का तो पता नहीं लेकिन सिडनी शेल्डन का नाम अवश्य पता रहता है। हम जो इतिहास पडते हैं वो अंग्रेजों या अंग्रजी विचारधारा के लोगों द्वारा लिखा गया है ज़ो कि हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता हमारे आचार विचार हमारे धर्म को ठीक तरह से जानते तक नहीं हैं। ऐसे में हम कैसे सही बिना किसी द्वेष भावना के लिखा गये एवं सच्चाई से अवगत कराने वाले इतिहास की उम्मीद कर सकते हैं? क्या कारण है कि हम इनके द्वारा लिखे गये इतिहास को सच समझ लें। और यही कारण हो सकता है कि हम अपना इतिहास ठीक से न जानते हैं और न ही समझते हैं।

इतिहास एक ऐसी चीज है जो कि भावी पीढी क़े मन में अपनी संस्कृति का सम्मान उत्पन्न करता है जो कि हमसे छीन लिया गया है। हम हजारों लाखों की तादाद में सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनाते हैं और अपने को गर्व से सूचना क्षेत्र की महाशक्ति कहते हैं परन्तु आजतक हम अपनी भाषाओं में काम करने वाले सॉफ्टवेयर एवं कम्प्यूट्र नहीं बना पाये हैं। हमारा काम लगता है कि हम पैसा खर्च करके इन इंजीनियरों को बनायें और पश्चिमी देशों को उपलब्ध कराना है जिनमे से ज्यादातर भारत नहीं लौटना चाहते हैं।

पहले हमको अंग्रजों ने गुलाम किया अब हम अंग्रेजियत के गुलाम हैं। लगता है कि हमारा कोई अस्तित्व है ही नहीं। क्या हम इसीलिये आजाद हुये थे? पता नहीं हम भारतवासियों की आत्मा कब जागेगी?

बाद में और लिखा गया

कुछ को ये बाते सही नही लग रही है कारण कुछ भी हो लेकिन इतना तो जरुर है कि हमें तलवे चाट ने कि आदत पर चुकी है। हम अभी भी मानसिक रुप से गुलाम हैं और पढें लिखे मुर्ख आदमी इसके लिये जिम्मेंदार है जो अपना जिम्मेदारी सें बचता है और तर्क के द्वारा हर झुठी और गलत बात को सच्च सिद्द करने कि कोशीश करता है
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हिंदुत्व

वीर सावरकर ने हिन्दुत्व और हिन्दूशब्दों की एक परिभाषा दी थी जो हिन्दुत्ववादियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है उन्होंने कहा कि हिन्दू वो व्यक्ति है जो भारत को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनो मानता है । हिन्दुत्व शब्द फ़ारसी शब्द हिन्दू और संस्कृत प्रत्यय -त्व से बना है ।

  • हिन्दुत्ववादी कहते हैं कि हिन्दू शब्द के साथ जितनी भी भावनाएं और पद्धतियाँ, ऐतिहासिक तथ्य, सामाजिक आचार-विचार तथा वैज्ञानिक व आध्यात्मिक अन्वेषण जुड़े हैं, वे सभी हिन्दुत्व में समाहित हैं।हिन्दुत्व शब्द केवल मात्र हिन्दू जाति के कोरे धार्मिक और आध्यात्मिक इतिहास को ही अभिव्यक्त नहीं करता। हिन्दू जाति के लोग विभिन्न मत मतान्तरों का अनुसरण करते हैं। इन मत मतान्तरों व पंथों को सामूहिक रूप से हिन्दूमत अथवा हिन्दूवाद नाम दिया जा सकता है । आज भ्रान्तिवश हिन्दुत्व व हिन्दूवाद को एक दूसरे के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। यह चेष्टा हिन्दुत्व शब्द का बहुत ही संकीर्ण प्रयोग है ।
  • हिन्दुत्ववादियों के अनुसार हिन्दुत्व किसी भी धर्म या उपासना पद्धति के ख़िलाफ़ नहीं है ।वो तो भारत में सुदृढ़ राष्ट्रवाद और नवजागरण लाना चाहता है । उसके लिये हिन्दू संस्कृति वापिस लाना ज़रूरी है ।अगर समृद्ध हिन्दू संस्कृति का संरक्षण न किया गया तो विश्व से ये धरोहरें मिट जायेंगी । आज भोगवादी पश्चिमी संस्कृति से हिन्दू संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है ।
  • हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त में विश्मास रखता है । (ईसाई और मुसलमान ये नहीं मानते)हिन्दुत्व गाय जैसे मातासमान पशु का संरक्षण करता है ।
  • ईसाई और इस्लाम धर्म हिन्दू धर्म को पाप और शैतानी धर्म मानता है । इस्लाम के अनुसार हिन्दू लोग क़ाफ़िर हैं ।मुसलमान हिन्दू बहुल देशों में रहाना ही नहीं चाहते । वो एक वृहत्-इस्लामी उम्मा में विश्वास रखते हैं और भारत को दारुल-हर्ब (विधर्मियों का राज्य) मानते हैं । वो भारत को इस्लामी राज्य बनाना चाहते हैं ।
  • मुसलमान हिंसा से और ईसाई लालच देकर हिन्दुओं (ख़ास तौर पर अनपढ़ दलितों को) अपने धर्म में धर्मान्तरित करने में लगे रहते हैं ।
  • इतिहास गवाह है कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने मध्य-युगों में भारत में भारी मार-काट मचायी थी । उन्होंने हज़ारों मन्दिर तोड़े और लाखों हिन्दुओं का नरसंहार किया था । हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिये ।
  • इस्लामी बहुमत पाकिस्तान (अखण्ड भारत का हिस्सा) भारत को कभी चैन से जीने नहीं देगा । आज सारी दुनिया को इस्लामी आतंकवाद से ख़तरा है । अगर आतंकवाद को न रोका गया तो पहले कश्मीर और फिर पूरा भारत पाकिस्तान के पास चला जायेगा ।
  • कम्युनिस्ट इस देश के दुश्मन हैं । वो धर्म को अफ़ीम समझते हैं । उनके हिसाब से तो भारत एक राष्ट्र है ही नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों की अजीब मिलावट है । रूस और चीन में सभी धर्मों पर भारी ज़ुल्मो-सितम ढहाने वाले अब भारत में इस्लाम के रक्षक होने का ढोंग करने के लिये प्रकट हुए हैं ।
  • अयोध्या का राम मंदिर हिन्दुओं के लिये वैसा ही महत्त्व रखता है जैसे काबा शरीफ़ मुसलमानों के लिए या रोम और येरुशलम के चर्च ईसाइयों के लिये । फिर क्यों एक ऐसी बाबरी मस्जिद के पीछे मुसलमान पड़े हैं जहाँ नमाज़ तक नहीं पढ़ी जाती, और जो एक हिन्दू मन्दिर को तोड़ कर बनायी गयी है ?
  • भारत में मुसल्मन संगठित हैं--एक समुदाय के रूप में । हिन्दू जात-पात, साम्प्रदाय, भाषा आदि में बँटे हैं । हिन्दुत्व सभी हिन्दुओं को संगठित करता है ।
  • आधुनिक भारत में नकली धर्मनिर्पेक्षता चल रही है । बाकी लोकतान्त्रिक देशों की तरह यहाँ सभी धर्मावलम्बियों के लिये समानाचार संहिता नहीं है । यहाँ मुसलमानों के अपने व्यक्तिगत कानून हैं जिसमें औरत के दोयम दर्ज़े, ज़बानी तलाक़, चार-चार शादियों जैसी घटिया चीज़ों जो कानूनी मान्यता दी गयी है ।
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