राम हैं तो रामसेतु भी है

जरा इस भारत नामक अपने देश को तो देखिए। जिस देश की 85 प्रतिशत आबादी हिंदू हो, यानी जिस देश में हिंदू जबर्दस्त बहुसंख्यक हों और जिस देश में वयस्क वोट आधारित लोकतांत्रिक शासन होने का ढोल सारी दुनिया में पीटा जा चुका हो, ठीक उसी देश में हिंदू के साथ उसकी सामाजिक मान्यताओं और आस्थाओं के साथ कैसा-कैसा खिलवाड़ कर दिया जा सकता है? देश में और विदेशों में बसे करोड़ों-करोड़ हिंदू राम को, कृष्ण को अपना आराध्य मानते हैं, आपस में मिलने पर राम-राम और जय श्रीकृष्ण का अभिवादन करते हैं, उनमें से जो भक्त हो गए, और ऐसे लोग भी असंख्य हैं, दिन रात चौबीसों घंटे उठते-बैठते, सोते-जागते राम का नाम जपते रहते हैं, उस देश के वे बुद्धिजीवी जिन्होंने प्रगतिशीलता को अपना धंधा बना लिया है, इतिहास और समाज पर शोध का नाटक करने वाली वे संस्थाएं जो इन्हीं धंधई प्रगतिशीलों के लोहे के पंजों में कैद हैं और वे विचार संवाहक जो प्रगतिशीलता का दंभ भरने वालों के काडर के रूप में बमुलाहिजा काम करते हैं, राम के ऐतिहासिक अस्तित्व पर ही सवालिया निशान उठाने की हिम्मत जुटा लेते हैं? आप भारत के किसी भी प्रदेश और कोने में चले जाइए (और हम अविभाजित भारत की ही बात कर रहे हैं), आपको वहां राम और कृष्ण के पदचाप के, कर्म और साधना के, वरदान और अभिशाप के, संतों के प्रति करूणा और दुष्टों के प्रति क्रोध के अमिट चिह्न मिल ही जाएंगे। राम और कृष्ण की ऐतिहासिक उपस्थिति के इन असंख्य प्रमाणों के बीचों-बीच अपने ही देश की सरकार उच्चतम न्यायालय में शपथपूर्वक कहती है कि राम इस देश में हुए या इस धरती पर कभी उनका जन्म हुआ था, इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सबूत नहीं मिलते। और इसकी प्रतिक्रिया में जब हिंदू भावनाओं की एक जबर्दस्त अभिव्यक्ति दिल्ली और बाकी देश के चौराहों पर नजर आती है तो आशंकित चुनावी पराजय के डर के मारे वही सरकार और उसके कृपापात्र कहने लग जाते हैं कि राम तो हुए पर रामसेतु नहीं था।
अर्थात पानी तो बरसा पर जमीन गीली नहीं हुई। आग तो जली पर तपिश महसूस नहीं हुई। हवा तो बही पर स्पर्श का अनुभव नहीं हुआ। रामसेतु का, जिसका दूसरा नाम नलसेतु भी है, क्योंकि उस सेतु का निर्माण राम के अपने विश्वेश्वरैया नल और उनके भाई नील के नेतृत्व में हनुमान सहित पूरी वानर सेना ने किया था, ऐसे रामसेतु का आज के आंखों देखे विवरण जैसा विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है। और वाल्मीकि वह महाकवि है जो पूरी रामकथा में स्वयं एक पात्र हैं। राम को जब प्रजा के दबाव में आकर सीता का निर्वासन करना पड़ा, तब निर्वासित सीता को इन्हीं आदि कवि वाल्मीकि ने ही अपने आश्रम में अपनी पुत्री की तरह रखा था। तब तक वाल्मीकि रामायण लिखकर अपनी आ॓र से उसकी फलश्रुति भी लिख कर समाप्त कर चुके थे। अर्थात वे राम के अयोध्या लौटने और उनके राज्याभिषेक तक की घटनाओं पर अपना प्रबंध काव्य लिखकर युद्धकांड पर ही रामायण को संपूर्ण कर चुके थे। पर सीता निर्वासन, फिर वाल्मीकि के आश्रम में सीता का रहना, वहीं पर लव-कुश का पैदा होना, बड़ा होना और फिर स्वयं वाल्मीकि की आंखों के सामने सीता का पृथ्वी प्रवेश और उसके कुछ समय बाद संतप्त राम की जल समाधि, इतने महत्वपूर्ण घटनाचक्र को देख वाल्मीकि को लगा कि इन सबको काव्यरूप देने के लिए उसी रामायण में एक कांड और जोड़ना जरूरी है। उन्होंने फिर अपनी पोथी खोली, उत्तरकांड लिखा और फिर से लिखी एक और समाप्ति सूचक फलश्रुति। यह सब रामायण की भूमिका में ही लिखा है। अब खबरें सामने आ चुकी है, उच्चतम न्यायालय में दाखिल किया गया शपथ पत्र केंद्र सरकार की, उसके संस्कृति, विधि और गृह मंत्रालयों की पूरी जानकारी और स्वीकृति के बाद ही दाखिल किया गया था। पर जब लगा कि करोड़ों वोट हाथ से खिसक रहे हैं तो सरकार के और सरकार में बैठी पार्टी के नेता अनजान होने का अभिनय करते हुए तलवारें भांजने लगे कि किसने ऐसा शपथ पत्र लिखा, राम तो हमारे आराध्य हैं, अब नया हलफनामा दाखिल होगा, सब ठीक कर दिया जाएगा, वगैरह। पर सचाई सामने आ गई। तो क्या वाल्मीकि भी अपनी रामायण में ऐसा ही कुछ लिख रहे थे? राम जन्मभूमि (अयोध्या) का वर्णन, राम वनवास, सीता हरण, रामसेतु का निर्माण, राम-रावण युद्ध, राम का लौटना और राज्याभिषेक और फिर अगली किस्त में सीता निर्वासन, सीता का पृथ्वी प्रवेश- यह सब झूठ उन्हें लिखने की क्या जरूरत थी? उनके हाथ से कौन से वोट खिसके जा रहे थे? किस सरकार में उन्हें शामिल होना था या उसे बचाना था? हमें तो वाल्मीकि कहीं से झूठ बोलते नजर नहीं आ रहे, क्योंकि हमने ऐसा झूठ आज तक नहीं पढ़ा या सुना जिसे हजारों सालों से किसी देश के करोड़ों-अरबों लोग बार-बार दोहराते रहे हों और उस झूठ के महानायक की आराधना करते रहे हों यानी आप तो हजारों सालों से इस देश में राम की पूजा कर रहे करोड़ों हिंदुओं को बेवकूफ और जाहिल साबित करने में उतारू हैं?
और अगर आज आप कहने को मजबूर हैं कि राम तो हुए, तो कल तो आप यह कहने को भी मजबूर होंगे कि राम हुए थे और उन्होंने रामसेतु भी बनवाया था। जो जरूरत से ज्यादा अक्लमंद लोग लेफ्ट के काडर की तरह इस कुप्रचार में लगे हैं कि राम का जल्वा सिर्फ उत्तर में है, दक्षिण में नहीं है, विंध्य के उस पार नहीं है तो उनसे भी हमारा निवेदन है कि हे मित्र, आप कृपया तमिल में लिखी कंबन की रामकथा और उसमें वर्णित नलसेतु पढ़ जाइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण में राम का जल्वा क्या और कैसा रहा है। अगर लेफ्ट को अहंकार हो कि उसके भारत यानी बंगाल में राम का कोई जल्वा ही नहीं था तो वे भी अगर बंगाली में लिखी कृतिवास रामायण पढ़ जाएंगे तो अपनी हीनता और दीनता में अपने बाल नोचते रह जाएंगे। पश्चिमी भारत वाले भावार्थ रामायण पढ़ लें, कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी रामायण पढ़ लें। या तो ये सभी रामकथाएं, जो तीन सौ से भी ऊपर हैं, सत्ता के लालच में झूठ बोल रही हैं, या फिर उनके द्वारा वर्णित राम थे, तो उन्हीं के द्वारा वर्णित रामसेतु भी राम ने ही बनाया था।
दुनिया का हर देश अपने यहां की पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों को ढूंढने और उन्हें बचाने में लगा रहता है और एक हम हैं कि रामसेतु जैसी स्वत: उपलब्ध ऐतिहासिक धरोहर को पर्यटन का महत्वपूर्ण केंद्र बनाने के बजाय उसे तोड़ने पर आमादा हैं।
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