कोई इन्हें बचाओ

हिन्दुस्तान में मुस्लमानों को हर तरह कि सुख सुविधा सरकार के द्वारा दिया जा रहा है यहा तक कि मुस्लिम आतकवादियों भी सरकार फाँसी पर लटकाने से गुरेज कर रही है। आतंकवाद कि पाढ़शाला मदरसा को दिल खोल कर सरकारी सुविधा मील रहा है जिसका नतीजा है कि हिन्दुस्तान में आये दिन कही न कही बम विस्फोट या फिर दंगा फसाद होते रहता है लेकिन इसके ठीक उलट पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं की हालत चिंता का विषय है और सरकार इस ओर से आँख बन्द कर रखा है।

पाकिस्तान के हिंदुऒं ने अपने समुदाय के खिलाफ जानमाल को लक्ष्य बनाकर हो रही घटनाऒं के प्रति चिंता जताई है। गौरतलब है कि देश में हिंदुऒं के धार्मिक स्थलों को भी निशाना बनाया जा रहा है।

अल्पसंख्यक हिंदु समुदाय की पाकिस्तान हिंदू परिषद् (पीएचसी) के प्रतिनिधिमंडल ने चिंता जताई है कि सिंध प्रांत में हिंदुऒं को लगातार लूट और डकैती का निशाना बनाया जा रहा है। उनके खिलाफ इस तरह की घटनाऒं में वृद्धि हो रही है। परिषद ने मांग की है कि इस्लामाबाद की संघीय सरकार इन घटनाऒं को रोकने के तुरंत कोई कदम उठाए और देश में अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा करे।

जाकोकाबाद में हाल ही में हुई लूट की घटना के विरोध प्रदर्शन में कराची में बड़ी संख्या में हिंदुऒं ने भाग लिया। जाकोकाबाद में कुछ हथियारबंद लोगों ने मंदिर में घुस कर करीब ३५० हिंदू महिलाऒं से लाखों रूपये की नगदी तथा जेवरात लूट लिए थे। सिंघ के पूर्व सांसद डा. रमेश लाल ने पुलिस और अन्य कानूनी एजेंसियों पर आरोप लगाया है कि वह नागरिकों खासतौर पर अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में नाकाम रही हैं।

पीएचसी के सचिव हरी मोटवानी ने डेली टाइम्स अखबार को बताया कि डाकुऒं ने करीब सात करोड़ की लूट की है और जाकोकाबाद की हाल ही की घटना के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के लोग खासतौर पर महिलाएं धार्मिक स्थानों पर जाने में डरने लगे हैं। मोटवानी ने कहा कि इसलिए हम मांग करते हैं कि सरकार डकैतों को तुरंत गिरफ्तार करे और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्र्चित करे। उन्होंने कहा कि यह घटना दिन के समय हुई है बावजूद इसके पुलिस इसे रोक नहीं पाई।

पीएचसी के अध्यक्ष राजा असेरमल मांगलानी ने कहा कि सिंध के उत्तरी जिलों में हिंदुऒं के साथ लूट और अपहरण की घटनाएं हो रही हैं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में डर और असुरक्षा की भावना घर कर गई है। सरकार को चाहिए कि वह लोगों में व्याप्त इस इस डर की भावना को दूर करे।
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आतंकवादीयों को दमाद क्यों नही बना लेते

बेंगलूर के बाद अहमदाबाद भी सीरियल बम धमाकों से दहल उठा हिन्दुस्तान। 24 घंटे में दुसरा हमला । देश में जब कभी कोई आतंकवादी हमला होता है, तो हमले के लिए जिम्मेदार लोगों या उनके संगठनों अथवा हमलावरों को पनाह देने वाले मुल्क या मुल्कों के नाम रेडिमेड तरीके से सामने आ जाते हैं। आतंकवादियों को कायर, पीठ में छुरा घोंपने वाले या बेगुनाहों का हत्यारा कहकर केंद्र और राज्य सरकारें तयशुदा प्रतिक्रिया व्यक्त कर देती हैं। हमारे नेता भी ऊंची आवाज में चीखकर कहते हैं कि आतंकवाद के साथ सख्ती से निपटा जाएगा। कुत्ता को घुमाने और ई-मेल कहा से आया बस यही तक खबर आती है। फिर मुआवजा देने का दौर चलता है अगर हिन्दु मरा है तो 1 लाख और मुस्लमान मरा है तो 5 से 10 लाख तक का मुआवजा मिलता है। सरकार के किसी मंत्री घटनास्थल के दौरे के साथ ही सभी बड़ी-बड़ी बातें खत्म हो जाया करती हैं और यह श्रंखला आतंकवादियों की अगली करतूत होने पर फिर शुरू हो जाती है, यही सिलसिला चलता रहता है। लोगों ने अब यह भी कहना शुरू कर दिया है कि बढ़-चढ़कर किए गए ऐसे दावों में कोई दम नहीं होता। कुछ लोगों ने मुझसे यहां तक कहा कि अखबारों में छपे ऐसे सियासी बयानों को हम पढ़ते तक नहीं।

आखीर कब रुकेगा आतंकवादियों का हमला। हिन्दुस्तान में आतंकवाद को सदैव वोट बैंक और मुस्लिम तुस्टीकरण की राजनीति से जोड्कर देखा जाता है और इसी का परिणाम है कि पहले 1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार के मुसलमानों के दबाव में आकर टाडा कानून वापस ले लिया और उसके बाद 2004 में सरकार में आते ही एक बार फिर कांग्रेस ने पोटा कानून वापस ले लिया। उच्चतम न्यायालय ने जब संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का आदेश दिया था तो तमाम 'सेकुलरवादी दलों' का राष्ट्रविरोधी चेहरा भी सामने आ गया था। जम्मू-कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद सहित पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती उसके बचाव में आ खड़ी हुई थीं। यहा तक कह दिया कि अफजल को फांसी देने पर इस देश में दंगा भरक सकता है कांग्रेसी आजाद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर फांसी की सजा नहीं दिए जाने की अपील की थी। अलगाववादी संगठनों के नेतृत्व में घाटी में व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया। इन सबका ही परिणाम है कि आज भी अफजल सरकारी दमाद बना हुआ है और सेकुलर संप्रग सरकार फांसी की सजा माफ करने की जुगत में लगी है। क्या एक आतंकवादी को फांसी देने से दंगा भरक सकता है तो इसमें हमे कहने से कोई गुरेज नही है कि दंगाई का राष्टृभक्ति कभी भी हिन्दुस्तान के साथ नही है और इसमें भी कांग्रेसी ही दोषी है जब देश आजाद हूआ था तभी कांग्रेसी जन यैसे देशद्रेही को गले लगा-लगा कर इस देश में रहने के लिये रोक रहे थे जो आज हमारे लिये नासूर बन गये हैं।
हिन्दुस्तान यैसा देश है जहा आतंकवादि सरकारी नैकरी करते हैं सरकार उन्हें पैसा भी देती है और आतंकवाद फैलाने के सहायता। "भारत बहुत बुरा देश है और हम भारत से घृणा करते है। हम भारत को नष्ट करना चाहते है और अल्लाह के फजल से हम ऐसा करेगे। अल्लाह हमारे साथ है और हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेगे।" गिलानी के ताजा बयान के बाद भी यदि सेकुलर खेमा गिलानी और अफजल जैसे देशद्रोहियों की वकालत करता है तो उनकी राष्ट्र निष्ठा पर संदेह स्वाभाविक है। गिलानी दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी और फारसी पढ़ाता है। उसके नियुक्ति पत्रों की जांच होनी चाहिए और यदि उसने अपनी नागरिकता भारतीय बताई है तो उसे अविलंब बर्खास्त कर देना चाहिए। क्या यही है आतंकवादियों से लड़ने क माद्दा, शायद नही।

आज भारत में एक भी ऐसा कानून नहीं है जो आतंकवाद की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए और आतंकवादियों के विशेष चरित्र को देखते हुए उन्हें तत्काल और प्रभावी प्रकार से दण्डित करने के लिये प्रयोग में आ सके। आज सभी राजनीतिक दलों के नेता केवल भाजपा को छोड्कर इस बात पर सहमत दिखते हैं कि सामान्य आपराधिक कानूनों के सहारे आतंकवाद से निपटा जा सकता है। हमारे सामने एक नवीनतम उदाहरण है कि किस प्रकार टाडा के विशेष न्यायालय में मुकदमा होते हुए भी मुम्बई बम काण्ड के अपराधियों को सजा मिलने में कुल 15 वर्ष लग गये और सजा मिलने के बाद भी एक के बाद एक आतंकवादियों जमानत पर छूटते जा रहे हैं। आखिर जब हमारी न्याय व्यवस्था जटिल तकनीकी खामियों का शिकार हो गयी है जो आतंकवादियों को बच निकलने का रास्ता देती है तो फिर कडे और ऐसे कानूनों के आवश्यकता और भी तीव्र हो जाती है जो तत्काल जमानत या फिर आतंकवाद के मामले में जमानत के व्यवस्था को ही समाप्त कर दे। यह कोई नयी बात नहीं है। पश्चिम के अनेक देशों ने ऐसे कठोर कानून बना रखे हैं और इसके परिणामस्वरूप वे अपने यहाँ आतंकवादी घटनायें रोकने में सफल भी रहे हैं। परंतु भारत के सम्बन्ध में हम ऐसी अपेक्षा नहीं कर सकते। अगर हिन्दुस्तान की सरकार आतंकवादियों से लड़ नही सकती है तो उसे अपना दमाद बना ले लफडा खत्म हो जायेगा। हम मुर्ख जनता जात-पात उँच-नीच के नाम पर दुबारा नपुसंको के हाथ में इस देश की बागडोर दे देंगे।
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सरकार का एक और झुठ

रामसेतु मसला एक बार फिर केंद्र मे आ गया है। केंद्र सरकार पहले राम और उसके अस्तित्व को नकारते-नकारते आखिरकार यह स्वीकार करने लगी है कि राम पौराणिक काल में थे। कंब रामायण का सहारा लेकर सरकार यह बताने में लगी थी कि भगवान राम स्वयं इस पुल को तोड़ दिया था, केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, ' रामसेतु के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। भगवान राम ने लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद रामसेतु को ध्वस्त कर दिया था।' जो कि सरकार द्वारा झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, यह बात हिन्दुस्तान का बच्चा बच्चा जानता है सो वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था। कालिदास सरीखे कवि को गलत मानकर कम्ब रामायण जैसे अविश्वसनीय स्त्रोत पर कैसे विश्वास कर किया जा सकता है? यह सर्वविदित है कि वाल्मिकी रामायण तक में इस तरह के प्रमाण नहीं दिए गए हैं। इसका मतलब साफ है कि सरकार इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए हर वह कदम उठाना चाहती है, जिससे इस विवादास्पद मुद्दे पर कहीं से कोई शोर नहीं सुनाए पड़े। सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट पर बनी १९ सदस्यीय समिति में से १८ ने इस प्रोजेक्ट के लिए दूसरे मार्ग अपनाने की सलाह दी थी। केवल एक ने यह सुझाव दिया है कि मार्ग छह का इस्तेमाल किया जाए। मार्ग छह के अपनाने से सेतु का तोड़ा जाना जरूरी हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को यह सलाह दी है कि वह मार्ग चार को अपनाए, जिससे यह पौराणिक तथ्य और विरासत को बचाया जा सके और करोड़ों लोगों के धार्मिक आस्था की रक्षा की जा सके।
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भारत की संसद भ्रष्ट नेता का अड्डा

न्यूक्लीयर डील पर विश्वास मत हासिल करने की कवायद और उस पर हुए ड्रॉमे ने देश को काफी कुछ बता दिया है। संसद में सरकार ने विश्वास मत तो हासिल कर लिया, लेकिन इस हासिल में बहुतों ने बहुत कुछ खोया है। भारतीय संसद जिस तरह से शर्मसार हुई, उसका उल्लेख बार-बार होगा। जब भी संसद की चर्चा होगी इस बात का उदाहरण दिया जाएगा कि संसद की गरिमा को कैसे धूमिल किया गया। यह उन नेताओं द्वारा किया जिसकी जमीर में हया का वास नहीं है। जिसने भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का बाजार में बदल दिया है। सरे आम जहां खरीद-फरोख्त की जा रही है। उन लाखों-करोड़ों जनता जिसने उन नेताओं को चुनकर अपने प्रतिनिधित्व के रूप में संसद की नुमाइंदगी करने के लिए भेजा आज वह बेचे और खरीदे जा रहे हैं। यह भारत के संसदीय इतिहास में सचमुच एक इतिहास बना गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही संख्या बल पर विश्वास मत हासिल कर लिया, लेकिन नैतिकता के चश्मे से देखे तो यह उनके लिए दागदार वाला दिन रहा। मनमोहन सिंह की अपनी छवि भले ही एक साफ सुथरे नेता की रही हो, लेकिन अपने को संसद में जीता देखने के लिए जिस नेता का दामन पकड़े हुए थे वो दागदार हैं। इससे पहले १९९३ में नरसिंहा राव की सरकार ने अपनी सरकार बचाने के लिए उसी शिबू सोरेने का सहारा लिया था, जिसके लिए मनमोहन सिंह भी बेकरार दिखें। आखिर परमाणु डील इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उन्होंने भारतीय संसद की गरिमा, भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का ताक पर रखकर ऐसे समझौते किए जो उनके लिए तो नहीं, लेकिन देश में टीस पैदा करेंगे। आज भारतीय राजनीति अपने सफर में सबसे नीचे वाले पायदान पर खड़ी नजर आ रही है। अब तक जो ढंके छुपे होता आ रहा था, वह अब बिल्कुल खुला हुआ हमारे समक्ष है। जनता ये जानती थी कि नेता भ्रष्ट होते हैं, लेकिन वे यह भी कहेंगे कि नेता बिकाऊ होते हैं। और इस बात का सारा दारोमदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जाता है। उन्होंने भारतीय राजनीति में यह बात साफ तौर पर जाहिर कर दी कि संख्या बल का जुटाना हो तो जोड़-तोड़ की राजनीति के साथ करोड़ों की डील भी करनी पड़ती है। एक स्वच्छ नेता जिस पर यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राजनीति से गंदगी को साफ कर राजनीति को आम आदमी के बीच पॉपुलर बनाए बजाय उसके उन्होंने इसकी गरिमा को मटियामेट कर दिया। सरकार भले ही अपना पीठ थपथपा रही हो, लेकिन अंदर से उसे भी पता है कि इस संख्या बल जुटाने के लिए उसे कितने रहस्यों पर पर्दा डालना पड़ा है। इस जीत को यूपीए चुनाव में भुनाने की कोशिश करेगी, लेकिन वह जनता को इस बात का जवाब कैसे देगी कि संख्या बल उन्होंने कैसे और किस तरह से जुटाए। देश की जनता ने संसद का पूरा हाल अपनी आंखों से देखा है और वह इतनी आसानी से भूलने वाली नहीं। अगर जनता भूलती है तो यह संसद के अंदर जो कुछ भी हुआ उससे बढ़कर शर्मनाक होगा। लोकसभा में मंगलवार को सांसद राहुल गांधी के भाषण में निरन्तर व्यवधान पर अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि भारत की संसद अपने –अधोबिंदु— पर पहुंच गई है। इसके बावजूद विश्वासमत प्रस्ताव के पक्ष- विपक्ष में दबाव और प्रलोभनों के आरोपों के बाद जिस तरह सदन में नोटों की गड्डियों का प्रदर्शन हुआ, उसे तो –पतन की पराकाष्ठा— ही कहा जाएगा। दरअसल सरकार का बनना और गिरना यदि जनादेश, नीतियों और कार्यक्रमों पर आधारित विशुद्ध लोकतांत्रिक प्रक्रिया हो, तो ऐसी नौबत ही नहीं आए। इसके विपरीत आज तो निजी स्वार्थों, आपसी सौदेबाजी और विचारधारा के विरुद्ध भी गठबंधन हो रहे हैं। ऐसी हालत में ये गठजोड़ कब टूट जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। यही चार साल पुरानी मनमोहन सरकार के साथ हुआ और वामपंथी दल उसे मझधार में डुबोने के लिए अपने धुर विरोधियों भाजपा और उसके सहयोगी दलों से जा मिले। आश्चर्य की बात यह है कि वामपंथी दलों ने तो गत ८ जुलाई को समर्थन- वापसी की घोषणा कर दी थी, फिर सांसदों को घूस देने का –भंडाफोड़— विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान के ही दिन क्यों हुआ?
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सरकार को हलाल नहीं होने देगा ये दलाल

परमाणु करार पर देश में घमासान मचा हुआ है। देश में जो वातावरण तैयार हो रहा है वो साठ साला लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतने का प्रयास मात्र है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि देश को गिरवी रखने की एक डील पर डील हो रही है। अभी तक बडे पूंजीपति पर्दे के पीछे से सरकार से सम्फ किया करते थे और लाभ कमाते थे। लेकिन अब खुल्लमखुल्ला ये धनपशु न केवल अपने व्यावसायिक हित साध रहे हैं बल्कि देश की राजनीति की दिशा और दशा भी तय कर रहे हैं। तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया भी इन व्यावसायिक घरानों और सरकार के प्रवक्ता की भूमिका अदा कर रहा है। सरकार रहे या जाये लेकिन इस बहाने देश के राजनीति के चरित्र पर बहस करने का एक अवसर देश की जनता को नसीब हुआ है ।
एक समाचार पत्र की सुर्खी थी कि ‘सरकार को हलाल नहीं होने देगा ये दलाल’। बहुत तथ्यपरक और विचारणीय सुर्खी थी यह। इसे सिर्फ एक सुर्खी मात्र कहकर खारिज नहीं किया जा सकता बल्कि यह एक चिन्तन का अवसर है कि देश की राजनीति किधर जा रही है। क्या इसका जवाब यह है कि-’’यह दलाल सरकार को हराम कर देगा?‘‘
बार-बार बहस की जा रही है कि डील देशहित में है। सरकार और सपा का दावा सही माना जा सकता है। लेकिन सपा से एक प्रश्न तो पूछा जा सकता है कि अगर यह डील इतनी ही देशभक्तिपूर्ण थी तो उस समय जब जॉर्ज बुश भारत आये थे तब विरोध प्रदर्शन में सपा क्यों शरीक हुई?
सरकार से भी तो प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब वामपंथी दलों ने सेफगार्ड और १२३ करार का मसौदा मॉगा तो सरकार ने कहा था कि यह गोपनीय दस्तावेज हैं और तीसरे पक्ष को नहीं बताये जा सकते हैं। सरकार अगर सच बोल रही थी तो महत्वपूर्ण सवाल है कि अमर सिंह और मुलायम सिंह ने बयान दिया कि उन्हें पूर्व राष्ट्रपति ए०पी०जे० अब्दुल कलाम और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम० के० नारयणन ने डील का मसौदा बताया और आश्वस्त किया कि डील देशहित में हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि जो दस्तावेज सरकार को समर्थन दे रहे दलों को गोपनीय बताकर नहीं बताये गये वो बाहरी व्यक्ति अमर सिंह और मुलायम सिंह को क्यों दिखा दिये गये?
क्या कलाम और नारायणन को यह दस्तावेज इसलिये मालूम थे कि वो राष्ट्रपति रह चुके थे और राष्टीय सुरक्षा सलाहकार हैं? तब तो यह देश की सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा है, चकि कलाम कों तो देश के पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते और नारायनन को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होने के नाते बहुत से गम्भीर राज मालूम होंगे और क्या यह दोनों किसी सरकार को बचाने के लिये किसी को देश के राज बता देंगे?
सरकार से यह भी पूछा जा सकता है कि जब बुश ४ नवम्बर को रिटायर हो रहे हैं और व्हाइट हाउस स्पष्ट कह चुका है कि डील को अमरीकी संसद से मंजूरी मिलने की कोई गारन्टी नहीं है। तथा आई ए ई ए के प्रवक्ता ने स्पष्ट कहा है कि उनकी तरफ से ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी कि डील का खुलासा नहीं किया जाये तब वो कौन सा कारण था कि डील देश से छुपाई गई? मनमोहन सरकार को बुश से किया वायदा याद है लेकिन देश की जनता से किया एक भी वायदा याद नहीं हैं।
सरकार ने डील पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिये एक विज्ञापन जारी किया जिसमें वैज्ञानिक अनिल काकेादकर केबयान को दोहराया गया है कि देश की ऊर्जा जरुरतों के साथ अगर समझौता किया गया तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। बेहतर होता काकोदकर इतिहास पढाने से बचकर विज्ञान में कोई नया आविष्कार करते।
अब मुलायम सिंह और अमर सिंह कह रहे हैं कि अगर डील न हुई तो भाजपा आ जायेगी। यह गजब का तर्क है। यही समाजवादी नेता पहले कह रहे थे कि सोनिया आ गईं तो देश को विदेशी हाथों बेच देंगी। अब समझ में नहीं आता है कि इनका कौन सा बयान सही है? अमर सिंह जी कह रहे हैं कि मायावती उनके सॉसदों को धन देकर तोड रही हैं। गजब मायावती ने अमर सिंह का हुनर सीख लिया? लोगों को आश्चर्य है कि सपा ने यू टर्न ले लिया है। लेकिन यह झूठा सच है। मुलायम सिंह तो नरसिंहाराव की सरकार भी बचा चुके हैं। फिर यू टर्न कैसा ?करार हो या ना हो, सरकार रहे या जाये लेकिन एक नई बात हो रही है, अब भारतीयता का पाठ सोनिया पढायेंगी, देशभक्ति का पाठ मनमोहन सिंह पढायेंगे, इतिहास अनिल काकोदकर पढायेंगे, धर्मनिरपेक्षता का पाठ अमर सिंह पढायेंगे, मुलायम सिंह राजनीतिक सदाचार पढायेंगे और वेश्याऍ सतीत्व का पाठ पढायेंगी ? क्या देश की राजनीति इसी मुहान पर आ पहॅची है ?
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राजनैतिक दलों का सच हुआ उजागर

रामसेतु का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है जहां कांग्रेसी के पुरातत्वविदों ने भगवान राम के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाकर हिन्दू भावनाओं को चोट पहुंचाई है। अभी इस प्रकरण पर अंतिम सुनवाई होनी बाकी ही थी कि एक बार फिर अमरनाथ यात्रा से जुड़े प्रसंग न केवल हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं वरन् वर्तमान सत्ताधीश अलगाववादियों के समक्ष आत्मसमर्पण को भी उजागर कर रहे हैं। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा ४९.८८ एकड़ की जमीन आवंटित करने के निर्णय पर जम्मू कश्मीर के मुस्लिम नेताओं ने जिस तरह की अलगाववादी स्थितियां बनायी और जहर भरे वक्तव्य दिये उससे उनकी असलियत पूरे राष्ट्र के समक्ष आ गयी, जम्मू कश्मीर में सत्ता सुख भोग रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का छद्म पंथनिरपेक्षता का मुखौटा भी उतर गया है। इस्लाम की दुहाई देने वाली आल इंडिया हुर्रियत कांफे्रस व उसके सहयोगी दलों ने जिस प्रकार पूरी श्रीनगर घाटी व जम्मू में अमरनाथ यात्रा श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के विरोध में जोरदार हिंसक प्रदर्शन किया उसमें पाकिस्तान समर्थक नारे लगवाए, पाकिस्तान झण्डे फहराए, सी.आर.पी.एफ. वे सेना के जवानों पर हमले किए उससे यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि ये सभी राष्ट्रविरोधी आतंकवाद समर्थक हैं। आश्चर्य है कि कांग्रेस ने इनके समक्ष आत्मसमर्ण किया हुआ है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में भारत सरकार जहां अल्पसंख्यकों के विकास व उनकी धार्मिक सुरक्षा के नाम पर उनके धामिक क्रिया-कलापों को पूर्ण कराने के लिए बिजली, पानी, सड़क, आवास, खाने-पीने, चिकित्सा जैसी सुविधाओं की पूर्ति करवाने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं व हज यात्रा पर जाने वाले हजियों के साथ अपने दो-दो मंत्रियो तक को उनके साथ भेजती है। इतनी सारी सुविधाओं व सब्सिडी का असीम सुख भोगने के बाद भी इन कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने पाकिस्तानी आतंकियों का साथ लेकर अमरनाथ यात्रियों पर हमले करके अपनी गहरी बेशर्मी का प्रदर्शन किया है । इसे अच्छा ही कहेंगे कि मुस्लिमों और उसके तुष्टिकारकों दोनों का बदनुमा चेहरा एक साथ देश के सामने उजागर हो गया। जम्मू कश्मीर के मुख्य मंत्री गुलाम नवी आजाद ने पी.डी.पी. द्वारा समर्थन वापस लेने की घोषणा के बाद जहां राज्य की विस्फोटक होती स्थिति को सुधारने की दृष्टि से अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा व सुविधा का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया वहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड के अधिकार केवल पूजा तक ही सीमित कर दिया।
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कश्मीर में हिंदू विरोधी मानसिकता

कश्मीरी मुस्लिम नेता कश्मीरी हिंदुओं को मार भगाने संबंधी अपना पाप छिपाने तथा शेष भारत के हिंदुओं को बरगलाने के लिए कश्मीरियत का हवाला देते है, लेकिन असंख्य बार धोखा खाकर भी हिंदू वर्ग कुछ नहीं समझता। अभी-अभी मुफ्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर सरकार को गिराया वह कश्मीरियत की असलियत का नवीनतम उदाहरण है। प्रांत में तीसरे-चौथे स्थान की हस्ती होकर भी मुफ्ती और उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री पद रखा। विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 13 सीटे और तीसरा स्थान मिला था, जबकि पहले स्थान पर रही कांग्रेस को 20 सीटे मिली थीं, फिर भी कांग्रेस ने पीडीपी को पहला अवसर दे दिया। कांग्रेस ने आधी-आधी अवधि के लिए दोनों पार्टियों का मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला माना था। जब आधी अवधि पूरी हुई तब पहले तो मुफ्ती ने समझौते का पालन करने के बजाय मुख्यमंत्री बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकड़में कीं। अंतत: जब कांग्रेस ने अपनी बारी में अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया तो मुफ्ती ने 'नाराज न होने' का बयान दिया। तभी से वह किसी न किसी बहाने सरकार से हटने या उसे गिराने का मौका ढूंढ रहे थे। अमरनाथ यात्रा के यात्रियों के लिए विश्राम-स्थल बनाने के लिए भूमि देने से उन्हें बहाना मिल गया। इसीलिए उस निर्णय को वापस ले लेने के बाद भी मुफ्ती और उनकी बेटी ने सरकार गिरा दी। भारत का हिंदू कश्मीरी मुसलमानों से यह पूछने की ताब नहीं रखता कि जब देश भर में मुस्लिमों के लिए बड़े-बड़े और पक्के हज हाउस बनते रहे है, यहां तक कि हवाई अड्डों पर हज यात्रियों की सुविधा के लिए 'हज टर्मिनल' बन रहे है और सालाना सैकड़ों करोड़ रुपये की हज सब्सिडी दी जा रही है तब अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं के लिए अपने ही देश में अस्थाई विश्राम-स्थल भी न बनने देना क्या इस्लामी अहंकार, जबर्दस्ती और अलगाववाद का प्रमाण नहीं है?

चूंकि कांग्रेस और बुद्धिजीवी वर्ग के हिंदू यह प्रश्न नहीं पूछते इसलिए कश्मीरी मुसलमान शेष भारत पर धौंस जमाना अपना अधिकार मानते है। वस्तुत: इसमें इस्लामी अहंकारियों से अधिक घातक भूमिका सेकुलर-वामपंथी हिंदुओं की है। कई समाचार चैनलों ने अमरनाथ यात्रियों के विरुद्ध कश्मीरी मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा पर सहानुभूतिपूर्वक दिखाया कि 'कश्मीर जल रहा है'। मानों मुसलमानों का रोष स्वाभाविक है, जबकि यात्री पड़ाव के लिए दी गई भूमि वापस ले लेने के बाद जम्मू में हुए आंदोलन पर एक चैनल ने कहा कि यह बीजेपी की गुंडागर्दी है। भारत के ऐसे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने ही अलगावपरस्त और विशेषाधिकार की चाह रखने वाले मुस्लिम नेताओं की भूख बढ़ाई है। इसीलिए कश्मीरी मुसलमानों ने भारत के ऊपर धीरे-धीरे एक औपनिवेशिक धौंस कायम कर ली है। वे उदार हिंदू समाज का शुक्रगुजार होने के बजाय उसी पर अहसान जताने की भंगिमा दिखाते है। पीडीपी ने कांग्रेस के प्रति ठीक यही किया है। इस अहंकारी भंगिमा और विशेषाधिकारी मानसिकता को समझना चाहिए। यही कश्मीरी मुसलमानों की 'कश्मीरियत' है। यह मानसिकता शेष भारत अर्थात हिंदुओं का मनमाना शोषण करते हुए भी उल्टे सदैव शिकायती अंदाज रखती है। जो अंदाज छह वर्षो से मुफ्ती और महबूबा ने दिखाया वही फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर का भी था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी पार्टी ने लोकसभा में वाजपेयी सरकार के विश्वास मत के पक्ष में वोट नहीं दिया था। वह मंत्री पद का सुख भी ले रहे थे और उस पद को देने वाले के विरोध का अंदाज भी रखते थे। जैसे अभी मुफ्ती ने कांग्रेस का दोहन किया उसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा का दोहन किया। पूरे पांच वर्ष वह प्रधानमंत्री वाजपेयी से मनमानी इच्छाएं पूरी कराते रहे। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र कश्मीरी मुसलमानों की अहमन्यता और शोषण का शिकार रहा है।

जम्मू और लद्दाख भारत का पूर्ण अंग बनकर रहना चाहते है। इन क्षेत्रों को स्वायत्त क्षेत्र या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे समय से स्वयं भाजपा करती रही। फिर भी केंद्र में छह साल शासन में रहकर भी उसने फारुक अब्दुल्ला को खुश रखने के लिए जम्मू और लद्दाख की पूरी उपेक्षा कर दी। यहां तक कि पिछले विधानसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला को जिताने की खातिर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा। बावजूद इसके जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन पराजित हुआ, फारुख ने उससे तुरंत पल्ला झाड़ लिया। इस मानसिकता को समझे बिना कश्मीरी मुसलमानों को समझना असंभव है। वाजपेयी सरकार के दौरान एक तरफ फारुख अब्दुल्ला ने तरह-तरह की योजनाओं के लिए केंद्र से भरपूर सहायता ली, जबकि उसी बीच जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राज्य की 'और अधिक स्वायत्तता' के लिए प्रस्ताव पारित कराया। एक तरह से यह वाजपेयी के साथ विश्वासघात जैसा ही था। यदि वह प्रस्ताव लागू हो तो जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री होगा। साथ ही वे तमाम चीजें होंगी जो उसे लगभग एक स्वतंत्र देश बना देंगी,मगर उसके सारे तामझाम, ठाट-बाट, सुरक्षा से लेकर विकास तक का पूरा खर्चा शेष भारत को उठाते रहना होगा। इस तरह कश्मीरी मुसलमान एक ओर भारत से अलग भी रहना चाहते है और दूसरी तरफ इसी भारत के गृहमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और मौका मिले तो प्रधानमंत्री भी होना चाहते है। मुफ्ती मुहम्मद सईद, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अन्य कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के तमाम राजनीतिक लटके-झटके केवल एक भाव दर्शाते है कि वे भारत से खुश नहीं है। यही कश्मीरियत की असलियत है। कश्मीरी मुस्लिम नेतै, चाहे वे किसी भी राजनीतिक धारा के हों, शेष भारतवासियों को बिना कुछ दिए उनसे सिर्फ लेते रहना चाहते है। इस मनोविज्ञान को समझना और इसका इलाज करना बहुत जरूरी है, अन्यथा विस्थापित कश्मीरी हिंदू लेखिका क्षमा कौल के अनुसार पूरे भारत का हश्र कश्मीर जैसा हो जाएगा।
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