चर्च का फरेब ! धर्मान्तरण कैसे कैसे !

1. मानविहिर की शातू बेन गुलाब भाई पवार बतातीं है कि असका पति गुलाब भाई बिमार रहता था। दवाई आदि कराई पर कोई लाभ नहीं हुआ। गांव के पास्टर के कहने पर कि ख्रिस्ती बनने पर ठीक हो जायेगा, गुलाब भाई ने अपना धर्म बदल लिया। असके बावजूद भी उसका स्वास्थ ठीक नहीं हुआ तो पास्टर ने कहा कि शीतू बेन अभी भी भूत, बंदरों की पूजा करती है, वह भी ईसाई हो जायेगी तो ठीक हो जाओगे। शीतू बेन और बाद में उसका पूरा परिवार ईसाई हो गया परन्तु गुलाब भाई ठिक होने की बजाए मर गया ।अब शीतू बेन और उसका पूरा परिवार वास्तविकता को समझ गया है और उनई माता के कुंड में स्नान कर पुन: हिन्दू हो गया है ।

2. जामनविहिर की ही अरूणा चंदू पवार आज से दो वर्ष पूर्व जब 7 साल की थी तो आने गांव में बपतिस्मा क्या होता है - यह तमाशा देखने गयी थी । पादरी ने इस नाबालिग लड़की को भी बपतिस्मा का पानी दे दिया । यह ध्यान रहे कि नाबालिग व्यक्ति का धर्म बदलना कानूनन अपराध है ।

3. धांगड़ी फादर पाड़ा के सुरेश ने बताया कि उसके पेट में हर समय दर्द रहता था। चर्च वाले पास्टर ने कहा कि तुन ख्रिस्ती बन जाओगे तो मैं तुम्हारे लिये प्रार्थना करूंगा और उसने धर्म बदल लिया ।

5. दिनांक 3/1/99 को सूरत जिला के तालुका सोनगढ़ के राशमाटी गांव में रमेशभाई माकड़ियाभाई गामित जो कि खेतों में मजदूरी करता है, को लीमजीभाई छीड़ीयाभाई गांमित (पास्टर) रमेशभाई गामित और पांच अन्य लोंगो ने रास्ते चलते मारा पीटा, फिर चर्च में ले जा कर खंभे से बांध दिया और रात भर इसलिये पीटते रहे क्योंकि वह ईसाई बनने को तैयार नहीं हो रहा था ।रड़तियाभाई बुधियाभाई पवार ने उसे अगले दिन खोल कर छोड़ा । मामले की 7 जनवरी को सोनगढ़ थाने में नामजद प्राथमिकी दर्ज कराई गयी ।(दैनिक संदेश सूरत 7/1/99)

6. उधना डिंडोलीरोड़ पर सीतारामनगर सोसायटी सूरत के प्लाट नं. 11 मे मूल उत्तरप्रदेश की रहने वाली उर्मिलाबेन लौजारी विश्वकर्मा नामक एक महिला रहती है, उसकी हिनलबेल नामक बच्ची पोलियो से ग्रस्त है । पहले इस लड़की को ठीक करने के नाम पर चर्च ने इस गरीब परिवार पर डोरा डाला । लड़की न तो ठीक हुई न होनी थी बाद में मजदूरी करके जोड़े गये पैसे से जब उसने अपना छोटा सा मकान बनना शुरू किया तो राजू नामक पास्टर ने उसे धमकाया कि पहले ईसाई बनो फिर मकान बनने दूंगा । लोगों को पता लगने पर इस क्षेत्र में हंगामा हुआ ।(गुजरात समाचार 18-1-99)

7. डांग में इस क्षेत्र के एक पास्टर जल्दूभाई और दूसरे जामनविहिर के पास्टर यशवंत भाई बताते है कि बीमारी और खराब आर्थिक स्थिति के कारण वे चर्च के चंगुल में फँस गये, उनके उपकार से बने होने के कारण वे ईसाई फादर की ईसाई बन जाने की मांग को ठुकरा नहीं सके ।इन दोनो के साक्षात्कार इंडिया टुडे जनवरी 99 में भी छपे है । बाद में ये दोनो और कई अन्य पास्टर अपनी भूल और चर्च की ठगी को समझ कर पुन: अपने मूल धर्म में वापस आ गये ।

8. पीपलवाड़ा तालुका व्यारा जिला सुरत के नानूभाई दिवालूभाई कोंकणी चर्च और उसके ईशारे पर हो रहे अत्याचारों को याद कर आज भी अपनी हँसी भूल जाते हैं । 28 जनवरी 99 को पीपलवाड़ा में उसने बताया कि हम लोग जब पांडर देव की पूजा करते है तो हम पर गुलेलां से हमला और पीटायी होती थी । 17 वर्ष पूर्व शंकर भगवान के मंदिर पर नलिया डाल रहे थे तो ईसाइयों ने हम लोगों की बहुत पिटाई की । तब से मंदिर की मरम्मत करने की भी हम लोग हिम्मत नहीं करते थे । अब दो वर्ष से अम लोग जैसे नरक से मुक्त हुए है, 15 वर्ष बाद इस गांव में गणपति उत्सव मनाया गया है । स्वामी असीमानंदजी के इस क्षेत्र में आने और वनवासी कल्याण परिषद् के कार्यकर्ताओं के कारण ही हिन्दू समाज में फिर से बसंत आया है ।

9.. डांग मे मंदिरो पर हमले और मूर्तियों को खंडित करने का क्रम अब भी जारी है । 19-20 जनवरी 99 की रात को पादलखड़ी के हनुमानजी के मंदिर में आग लगायी गयी । वहां गाय बैल का पूरा अस्थी पंजर डाला गया । मंदिर के प्रांगण में क्रास गाडा गया और मंदिर में लगे देवी देवताओं के फोटो में से 20-25 फाटो जलाये गये । 29-30 जनवरी 99 की रात को धुमकल के मंदिर में स्थापित शिवजी के लिंग को तोड़कर दो टुकड़े कर दिये गये ।दोनों ही घटनाओं की प्राथमिकी दर्ज करने से पुलिस ने पहले तो आना कानी की फिर लोगों के दबाव को दखकर वाद तो दर्ज किया परन्तु नामजद रिपोर्ट होने के बावजूद अभी तक किसी को भी नहीं पकड़ा गया है। अवैध एवं अनैतिक रूप से चारेी छिपे बनाये गये कथिन प्रार्थनाघरों में से कुछ को जलाये जाने की निन्दनीय घटना को पूरी दुनिया में हिन्दू धर्म और देश की बदनामी के लिये प्रचारित किया गया परन्तु मंदिरों पर हुए, हो रहे हमले, मुर्तियों को खंडित करने, मरे हुए गाय बैल की हड्डियां डालकर मंदिरों को अपवित्र करने और संपूर्ण हिन्दू समाज को अपमानित करने की और न तो अंग्रेजी अखबार और न ही वोटों के सौदागर ध्यान दे रहे है ।

10. डांग और उसके आस पास रहते वाला अपना वनवासी समाज चर्च की समाज को तोड़ने वाली और राष्ट्रघाती प्रवृति को समझ चुका है । अज्ञान, लोभ और दबाव में आकर पुर्वजों के हिन्दू धर्म को छोडकर उसने गलती की है, यह महसूस कर अब वह अपने मूल धर्म में वापस आरहा है ताकि घर परिवार, गांव और संपूर्ण समाज में वह शांति से रह सके, अपनी अमूल्ल्य सांस्कृतिक धरोहर को बचा कर रख सके । इसके लिये उनई माता के पुराण प्रसिध्द गर्म पानी के कुंड में डुबकी लगा कर प्रायश्चित करके उनई माता, अंबा माता और भगवान राम के दर्शन करे सैकड़ो लोग प्रतिदिन अपने धर्म में वापस आरहे है ।

ऐसे वापस आरहे बंधुओं पर भी चर्च के ईशारे पर हमले हो रहे हैं । सुडीयाबरडा के लक्ष्मणभाई कनु भाई वाघमारे आयु 35 वर्ष ने 1/1/99 को आहवा पुलिस थाने में मामला दर्ज कराया कि वह और उसका परिवार 5 वर्ष पूर्ण ईसाई हुआ था । 29/12/98 को अपपनी मर्जी से पुन: हिंन्दू बन गया है इसके कारण गांव के सावलू, गुलाब, चारसू बेन, सीताराम वगैरह 12 लोग एक राय होकर उसके घर पर हमला करने आये और मारपीट की ।(गुजरात मित्र, नव गुजरात सूरत दिनांक 2/1/99)
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हिन्दु एक मरता हुआ धर्म

हिंदू धर्म, विश्व का सबसे प्राचीन धर्म, जो कब और कैसे शुरू हुआ किसी को नहीं पता. ये अनादि काल से चला आ रहा है. ये विश्व का एकमात्र ऐसा धर्म है जो किसी एक व्यक्ति ने नहीं बनाया. विश्व के सभी धर्मो के बारे में प्रमाण उपलब्ध हैं की किस धर्म को किस व्यक्ति ने बनाया|
हिंदू धर्म के बारे में जो सबसे पुराना प्रमाण उपलब्ध है उसके अनुसार "इन्दुस" नदी (वर्तमान में सिंधु जो की पाकिस्तान में है) की घाटी में रहने वाले लोगों को हिंदू कहा गया। इससे पुराना प्रमाण किसी धर्म के बारे में प्राप्त नहीं हुआ है. ऋग वेद, हिंदू धर्म का सबसे प्राचीन वेद। अगर इसको विश्व की सबसे पुरानी किताब कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.ज्योतिष शास्त्र, आकाश के ग्रहों, नक्षत्रों और तारामंडलों के अध्यन की कला समूचे विश्व को हिंदू धर्म से ही मिली.विक्रमी संवत, दुनिया को दिन, महीने और साल की जानकारी देने वाला पहला पंचांग (calendar) हिन्दुओं ने ही बनाया।
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध हिंदू थे।
जैन धर्म के संस्थापक महावीर जैन भी हिंदू थे।
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव भी हिंदू ही थे।

उपरोक्त तो बस कुछ ही बिन्दु हैं। हिंदू धर्म कितना महान है ये किसी की कल्पना के भी परे है। इतने महान धर्म पर सदियों से प्रहार होते आए हैं इसको नष्ट करने के लिए। मुसलमानों ने सन् 712 में सिंध का छेत्र जीत कर वहाँ अपने इस्लाम धर्म की नींव रखी और सन् 875 तक सिंधु नदी के छेत्र में उन्होंने अपना पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया। सन् 1017 में मुहम्मद गजनी ने मथुरा और गोकुल को लूटा और वहाँ एक मस्जिद बनाईं।
सन् 1024 में मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण कर मन्दिर को नष्ट करा। वहाँ शिवलिंग को खंडित कर दिया और करीब 50,000 से ज्यादा हिन्दुओ का कत्ल किया। वहाँ भी उसने एक मस्जिद बनाईं। सोमनाथ के मन्दिर पर उसने इस प्रकार से 17 बार आक्रमण करा। सन् 1197 में मुस्लिम इख्तियार उददीन ने नालंदा विश्वविध्यालय (बिहार में) को नष्ट किया जो उस समय का विश्व का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था। सन् 1528 में बाबर ने अयोध्या का राम मन्दिर तोड़ कर वहाँ बाबरी मस्जिद बनाईं। सन् 1658 में औरंगजेब ने जबरन हिन्दुओं को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर करा। जिन्होंने इस्लाम कबूल नहीं करा उन पर ज़ुल्म किए गए और मार दिया गया। सन् 1688 में औरंगजेब ने मथुरा और आस पास के करीब 1000 मन्दिर तुड़वा दिए। मुगलों के कुल शासनकाल में करीब 60,000 मन्दिर तोडे गए। सन् 1761 में अहमद शाह दुर्रानी ने उत्तर भारत में 2,00,000 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद हिन्दुस्तान पर अंग्रेजो का आधिपत्य हो गया और फिर उन्होंने अपने इसाई धर्म को बढावा दिया। अंग्रेजों के अत्याचार की कहानी तो जलियाँ वाला बाग़ सुनाता है।

इस प्रकार से हमारी हिंदू सभ्यता और संस्कृति को कई बार पैरों तले रौंदा गया। कभी मुसलमानों ने और कभी इसाईओं ने. बहुत सह चुके हम और बहुत सह चुका हिंदू धर्म। अब हम और नहीं सहेंगे।
"त्रेता युग और द्वापर युग की तरह इस युग में भी भगवान धर्म की रक्षा के लिए और अधर्म के विनाश के लिए धरती पर अवतार लेंगे." ऐसा सोच कर हम कब तक भगवान के अवतरण की प्रतीक्षा करेंगे? और वैसे भी कहा गया है की "जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं, भगवान भी उन्हीं की सहायता करते हैं।" इसीलिए भगवान से सहायता लेने के लिए पहले हमें स्वयं ही कदम उठाना होगा, शंखनाद करना होगा दुनिया को बताने के लिए कि हिंदू धर्म में दया और करुणा तभी तक दिखाई जाती है जब तक पापी अपनी सीमा में रहे।
तो आइये, हिंदू धर्म की रक्षा और उत्थान के लिए हम सभी एकजुट होकर आह्वान करते हैं।

मयंक कुमार

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बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिस्पर्धी विज्ञापनों का भारतीय और हिंदू संस्कृति पर दुष्प्रभाव:

पिछले कुछ दिनों से टीवी पर एक विदेशी मोबाइल कंपनी का विज्ञापन आ रहा है जिसमे दिखाते हैं की एक बाप अपने बेटे को समान सही से न रखने पर डांट रहा है. बेटा डांट सुन रहा है कि अचानक उसको अपना मोबाइल याद आता है और फिर बेटा अपने मोबाइल का FM radio चालू कर के कान मे earphone घुसा लेता है और बाप की बात पर कोई ध्यान नही देता. इस विज्ञापन मे ये दिखाया है की बाप कुछ भी बोलता रहे तुम बस कान मे earphone लगा कर FM radio सुनो और ऐसा करने के लिए उनकी कंपनी का नया मोबाइल खरीदो.
क्या मोबाइल कम्पनियाँ अपने मोबाइल बेचने की होड़ में यह भूल गयीं हैं की भारतीय संस्कृति में माता-पिता को भगवान के बराबर का दर्जा दिया गया है. हमारे नैतिक मूल्य हमें माता-पिता का अपमान करना नहीं सिखाते. इस प्रकार के विज्ञापनों से वो हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करके हमें भी पश्चिमी सभ्यता के उस अंधकारमयी पथ पर प्रदर्शित करना चाहते हैं जहाँ बच्चे माता-पिता की इज्ज़त नहीं करते? ऐसे विज्ञापन भारतीय और हिंदू संस्कृति का पतन कर रहे हैं. आज की नन्ही पीढ़ी इन विज्ञापनों से क्या सीख लेगी? आज के युग मे नई पीढ़ी पर सबसे ज्यादा असर टीवी के विज्ञापनों का ही होता है.हमें इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए. इस प्रकार के विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए अन्यथा नई पीढ़ी इन्हीं विज्ञापनों का अनुसरण करना शुरू कर देगी और इसके लिए हम उन्हें दोष नहीं दे सकते, इसके जिम्मेदार हम स्वयं ही होंगे.

लेखक
मयंक कुमार
Software Engineer
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कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराध

दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है। इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है। आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें। कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है-
• सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी।
• कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया।
• 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया। चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।
• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया।
• भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।
• कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी।
ये कुछ बानगी भर है। आगे हम और विस्तार से बताएंगे। भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करनेवाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी। इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया। 1928 से 1956 तक सोवियत इन्साइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा। परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए। साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा- 'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है। वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।'

गोपाल कुमार आजाद
http://yugkipukar.blogspot.com/2008/02/blog-post.html
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Dogs and Indian are Not Allowed

Dogs and Indian are Not Allowed शायद हम हिन्दुस्तानी इस वाक्य को भुल गये या फिर हमारे पुर्वंज हमें बता कर नही गये हिन्दुस्तानी और कुत्ते क्या एक हैं। आज हिन्दुस्तानी फिर से वही जा रहा जहाँ उनहें कुत्ता होने का ऎहसास कराया जाता था। अंग्रेज हमारे देश में व्यापारी बन कर आये थे और हम पर राज करने के साथ हमे हर तरह से नीचा दिखाने का कार्य उन्होने किया। कारण था उनका संस्कार और संस्कृति। पाश्चात्य के देशों में अपने आपको मनुष्य और दुसरे आदमी को बजार माना जाता है और उनका सारा का सारा काम इसी पद्धति पर चलता है। लेकिन हिन्दुस्तान में इससे बिलकुल भिन्न हम सभी को एक इन्सान मानते हैं।
वैलेंटाइन डे भी इसी व्यापार पद्धती के तहत मनाने वाला एक प्रेम पर्व है जिसका हिन्दुस्तान से न कोई लेना देना है और ना ही यहाँ की ये संस्कृती का हिस्सा है। यह तो सिर्फ Dogs and Indian are Not Allowed कहने वालो के द्वारा धोपा गया एक विक्रय कला है जिसके तहत हम हिन्दुस्तानी इस वर्ष 300 हजार करोड़ रुपये विदेश भेज दिया। सोचने का विषय है। प्रेम कोई कथा नहीं कि उसे कथावाचक की जरुरत पड़े। किसी को भाष्य करना पडे़। समझाने की नैबत आए। वह तो स्वत: काव्य है। तरल और सरल । निश्छल, अविरल बिना उलझाव। प्रकृति ने उसे अनगढ़ ही बनाया। प्रेम अनंत है। उसके लिये साल में बस एक दिन। शायद नही प्रेम तो हृदय में उठने बाला तंरग है जो साल के 365 दिन उठता है।लेकिन बाजारु सभ्यता के चलते हमरा इतना पतन हो गया हैं कि हम अपनी सभ्यता को भुल कर इन्सान को एक उपभोग या बजारु चीज समझ लिये हैं। आज एक माल का उपभोग करो अगले साल कोई नया माल का इन्तजाम करो। क्यों कि हम एक इन्सान नही एक बजार समझा जा रहा है और बजार में सब चलता है। माल को खाओ और आगे बढो़।
साल में एक दिन अपने प्यार का प्रर्दशन करो। जैसे साल के किसी एक मौसम में जानवर किया करते हैं। हम इन्सान हैं या जानवर। आज समाज का एक तबका पश्चिमी देशों के द्वारा फैलाये जा रहे व्यापार पद्धति जाल में बुरी तरह फंस गया है उसे न तो अपना संस्कृति को बचाना चाहता है और उसे अपने संस्कृति का ज्ञान है।वही एक तबका वैलेंटाइन डे को गले लगा लिया है और अपने आपको बजार का एक अंग बना लिया है। खुद भी उपभोग कर रहा है और अपना भी उपभोग करवा रहा है। इस समाज के रहनुमा हिन्दुस्तान की महिलायें को सिर्फ एक उपभोग की वस्तु मानता है जैसा कि पश्चिमी देशों में होता है। जहाँ नारी को सिर्फ एक उपभोग की वस्तु माना जाता है। अगर नारी एक उपभोग कि वस्तु है तो शायद ऎसा सोचने वालो के घर में भी कोई न कोई उपभोग की वस्तु होगा ही और उसका भी कोई ना कोई उपभोग कर रहा होगा। क्या हमारे देश में प्रेम को बेचने का जरुरत पर गया है। आज हमें किसी संत वैलेंटाइन की जरुरत नही है हमारी सभ्यता की जड़ इतनी मजबुत है कि संत वैलेंटाइन जैसे कामवसना के पुजारी की जरुरत हमें नही है। हम तो सच्चे प्रेम की पुजा करते हैं। कीसी कामवासना या बजारु सभ्यता के अन्तर्गत साल में एक दिन जानवरो की तरह प्रेम का प्रर्दशन नही किया करते है। यह हिन्दुस्तान है यहाँ 33 करोड़ देवि-देवता का वास होता है किसी कामवासना के द्वारा उन्मत इन्सान को हम पुजना तो दुर देखना भी पसंद नही करते है। यह हिन्दुस्तान है कोई बजार नही। हमे इस बजारु सभ्यता को नकारने की जरुरत है नही तो Dogs and Indian are Not Allowed कहने बालो कही दुबारा अपना साम्राज्य ना फैला ले।

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तसलीमा बनाम मकबूल

'आमी बाड़ी जाबो, आमी बाड़ी जेते चाई,' कोलकाता से वामपंथी सरकार द्वारा निकाल बाहर किए जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल लौटने की लगातार गुहार लगा रहीं बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन इन पंक्तियों के लिखते समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सा केंद्र में अपना उपचार करा रही है। मानसिक यंत्रणा से जूझ रही तसलीमा को देश निकाले की धमकी और चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को महिमामंडित करने का क्या अर्थ है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत माता और हिंदू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्र बनाने वाले को 'भारत रत्न' से सम्मानित करने की मांग का क्या औचित्य है? आखिर तसलीमा का अपराध क्या है कि उन्हे जान की सुरक्षा और रहने के ठिकाने की चिंता के साये में जीवन गुजारना पड़ रहा है? हिंदू भावनाओं को आघात पहुंचाने के कारण अदालती कार्रवाइयों से बचने के लिए विदेश में छिपे मकबूल के पक्ष में तो सारे सेकुलरिस्ट खड़े है, किंतु तसलीमा को शरण दिए जाने पर वही खेमा आपे से बाहर क्यों है?
तसलीमा और मकबूल के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया जा रहा है वह वस्तुत: पंथनिरपेक्षता के विकृत पक्ष को ही उजागर करता है। बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार पर आधारित तसलीमा की पुस्तक 'लज्जा' के प्रकाशन के बाद बांग्लादेश सरकार ने उन्हे देश छोड़ने का फरमान जारी किया। उसके बाद से ही वह निर्वासित जिंदगी गुजार रही है। कुछ समय से तसलीमा ने भारत में शरण ले रखी है। लंबे समय से वह भारत सरकार से भारतीय नागरिकता प्रदान करने की गुहार कर रही है। भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के खंड 6 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को भारतीय नागरिकता के योग्य बताया गया है, जिसने विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, विश्व शांति और मानव कल्याण के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया हो। संवैधानिक पंथनिरपेक्षता के संदर्भ में तसलीमा के विचारों को कई पश्चिमी देश सम्मान भाव से देखते है, किंतु 'सेकुलर' भारत उन्हे तिरस्कार का पात्र समझता है। क्यों? तसलीमा नसरीन की पुस्तक 'लज्जा' सेकुलर भारत के लिए सचमुच लज्जा की बात साबित हो रही है। 1993 में लिखी इस पुस्तक ने मानवीय संवेदनाओं को झकझोर दिया था। उन्हे बांग्लादेशी कठमुल्लों के फतवे से जान बचाकर देश छोड़ भागना पड़ा। 1971 में बांग्लादेश को एक 'पंथनिरपेक्ष राष्ट्र' के रूप में मुक्त कराया गया था, किंतु सच यह है कि वह आज इस्लामी जेहादियों का दूसरा सबसे बड़ा गढ़ है। 1988 में उसने पंथनिरपेक्षता को तिलांजलि दे खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर लिया।
बांग्लादेश में तसलीमा का दमन आश्चर्य की बात नहीं, किंतु पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की क्या मजबूरी है? सेकुलरवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मकबूल का समर्थन करने वाले सेकुलरिस्ट और कम्युनिस्ट तसलीमा का विरोध क्यों कर रहे है? क्या सेकुलरवाद हिंदू मान्यताओं और प्रतीकों को कलंकित करने का साधन है? क्या ऐसा इसलिए कि हिंदुओं में प्रतिरोध करने की क्षमता कम है या वे आवेश में आकर विवेक का त्याग नहीं करते? पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाने वाले के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक निंदा करने वाले सेकुलरिस्ट मकबूल के मामले में क्यों मौन रह जाते है? किसी भी मजहब की आस्था पर आघात करना यदि उचित नहीं है तो हिंदुओं की आस्था पर आघात करने वाले कलाकारों-संगठनों को संरक्षण किस तर्क पर दिया जाता है? मकबूल फिदा हुसैन के जीवन को कोई खतरा नहीं है। संपूर्ण सेकुलर सत्ता अधिष्ठान उनके स्वागत में तत्पर है। सेकुलरिस्ट उन्हे 'भारत रत्न' से सम्मानित करने की मांग करते है, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय उन्हे पीएचडी की उपाधि से सम्मानित करता है और इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह उपस्थित रहते है।
न्यायपालिका की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित है। संसद पर हमला करने के आरोप में एहसान गुरु का बरी होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि मकबूल को अपने देश की न्यायपालिका पर विश्वास है और अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को न्यायोचित ठहराने की क्षमता है तो उन्हे भारत आकर अदालत में अपना पक्ष रखना चाहिए। किंतु मदर टेरेसा, मरियम, अपनी मां-बेटी को वस्त्राभूषण के साथ सम्मानजनक ढंग से चित्रित करने और हिंदू देवी-देवताओं को अपमानजनक और नग्न चित्रित करने वाले मकबूल आखिर किस तर्क पर 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का लाभ उठा पाएंगे?
संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, किंतु इसमें कुछ निषेध भी है। जनहित में मर्यादा और सदाचरण की रक्षा के लिए सरकार इस पर प्रतिबंध भी लगा सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हुए समाज के किसी वर्ग की आस्था, उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के आरोप में भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए के अंतर्गत सजा का प्रावधान भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का जो तर्क तसलीमा पर लागू होता है वह मकबूल पर लागू क्यों नहीं होता? तसलीमा को देश से निकालने पर आमादा सेकुलरिस्ट उसी आरोप में मकबूल को यहां की कानून-व्यवस्था के दायरे में लाने की मांग क्यों नहीं करते? वस्तुत: तसलीमा के भारत में रहने से सेकुलरिस्टों को दो तरह के डर ज्यादा सताते है। एक तो उन्हे यह डर है कि उनका थोक वोट बैंक उनसे बिदक जाएगा और दूसरा, चूंकि मुसलमानों के कट्टरवादी वर्ग में हिंसात्मक प्रतिक्रिया करने की क्षमता ज्यादा है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनकी 'ब्लैकमेलिंग ताकत' भी ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में इस वर्ष पंचायत चुनाव होने है। नंदीग्राम हिंसा को लेकर जिस तरह जमायते हिंद के बैनर तले मुसलमानों ने वर्तमान वाममोर्चा सरकार के खिलाफ सड़कों पर उग्र आंदोलन किया उससे माकपाइयों का घबराना स्वाभाविक है। इस आक्रोश को दबाने के लिए ही तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला गया और अब उन्हे देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
भारत ने शरणार्थियों को शरण देने में कभी कंजूसी नहीं की। पारसी आए, हमने गले लगाया। केरल के तट पर व्यापारी रूप में इस्लाम के अनुयायी आए तो हमने उन्हे 'मोपला' (स्थानीय भाषा में दामाद) कहकर सम्मानित किया। हालांकि इसका पारितोषिक हमें 'मोपला दंगों' के रूप में मिला, किंतु हमारे आतिथ्य संस्कार में कमी नहीं आई। यहूदी हमारी बहुलावादी संस्कृति व सर्वधर्मसमभाव के सबसे बड़े साक्षी है। शेष दुनिया में जब उनका उत्पीड़न हो रहा था तब हमने उन्हे शरण दी। दलाई लामा भारत की इस परंपरा को कैसे भूल सकते है? उन्हे शरण देने के कारण जब-तब चीन के साथ हमारे संबंध कटु हो उठते है, किंतु क्या हमने कभी उन्हें निकालने की बात भी सोची? यदि कम्युनिस्टों के दबाव में संप्रग सरकार तसलीमा को देश से निकालती है तो यह न केवल भारतीय परंपराओं के प्रतिकूल होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पंथनिरपेक्षता की विकृति को भी रेखांकित करेगा।
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