दोहरे मानदंड का दुर्लभ नमूना

किसी शपथपत्र और कार्टून में समानता खोजना मुश्किल कार्य है, लेकिन ये दोनों बिलकुल अलग-अलग चीजें किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम किस तरह लगभग समान रूप से कर सकती हैं, इसका उदाहरण है कुछ समय पहले डेनमार्क के समाचार पत्र में छपा एक कार्टून और पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से पेश किया गया शपथपत्र। डेनमार्क के अखबार में छपे कार्टून ने जहां दुनिया भर के मुसलिम समुदाय को नाराज किया था वहीं पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के शपथपत्र ने हिंदू समुदाय को क्षुब्ध किया। संभवत: इससे सभी अवगत हैं कि उस विवादास्पद कार्टून के छपने के बाद भारत समेत दुनिया भर के अन्य देशों में क्या हुआ था, लेकिन शपथपत्र के सिलसिले में सरकार द्वारा माफी मांगने से इनकार किए जाने के बाद यह स्मरण करना जरूरी हो जाता है कि उस समय हमारी सरकार की क्या प्रतिक्रिया थी? यह जानने के लिए सबसे पहले पढ़ते हैं 11 फरवरी 2006 का एक समाचार। नई दिल्ली,11 फरवरी। पैगंबर मुहम्मद के कार्टूनों को लेकर दुनिया भर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच भारत ने आज इस पूरे घटनाक्रम पर चिंता व्यक्त करते हुए आधिकारिक रूप से कहा कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली गतिविधियों से परहेज किया जाना चाहिए। सरकार के एक प्रवक्ता ने यहां कहा कि भारत सरकार मुस्लिम समुदाय को आहत करने वाले कार्टूनों के कारण गहराते विवाद से बहुत चिंतित है। उन्होंने कहा कि जब ये कार्टून अक्टूबर 2005 में पहली बार प्रकाशित किए गए थे तभी भारत ने इन पर आपत्ति का इजहार डेनमार्क सरकार के सामने कर दिया था। सरकार ने कोपेनहेगेन को सुझाव दिया था कि इन कार्टूनों को प्रकाशित करनेवाले अखबार से माफी मांगने के लिए कहा जाए और वह अखबार आश्वासन दे कि उनका पुन‌र्प्रकाशन नहीं किया जाएगा। इस समाचार में यह स्पष्ट नहीं कि प्रवक्ता की भूमिका में कौन था, लेकिन प्रवक्ता का नाम जानने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि संप्रग सरकार ने इस मामले को कितनी गंभीरता से लिया? इसी सिलसिले में एक अन्य समाचार का संज्ञान लेना भी आवश्यक है। यह समाचार 22 फरवरी का है। यद्यपि इस समाचार की कुछ बातें वही हैं जो सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता ने कही थीं, फिर भी पूरा समाचार पढ़ने में हर्ज नहीं। नई दिल्ली, 22 फरवरी।
डेनमार्क के एक अखबार में प्रकाशित पैगंबर मुहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून को लेकर दुनिया भर में चल रहे विवाद के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज कहा कि सरकार इस प्रकार की घटनाओं की घोर निंदा करती है। उन्होंने सामाजिक तथा धार्मिक नेताओं से इस मामले में संयमित व्यवहार करने की अपील की। राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का समापन करते हुए प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में कहा कि सरकार ने पिछले साल अक्टूबर माह में ही डेनमार्क सरकार के समक्ष नई दिल्ली और कोपेनहेगन, दोनों जगह अपना विरोध दर्ज करा दिया था। उन्होंने कहा कि भारत ने डेनमार्क सरकार से कहा कि वह संबद्घ अखबार से माफी मांगने के लिए कहे। श्री सिंह ने कहा कि सरकार ऐसे सभी कृत्यों की भ‌र्त्सना करती है जिससे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगे। उन्होंने सभी सामाजिक और धार्मिक नेताओं से अपील की कि वे इस प्रकार के संवेदनशील मुद्दों पर लोकतंत्र की सीमा के भीतर संयमित व्यवहार करें। यदि प्रधानमंत्री को अपनी सरकार के प्रवक्ता की कुछ बातें राज्यसभा में भी दोहरानी पड़ें तो इसका मतलब है कि उनकी नजर में वह मामला बहुत गंभीर रहा होगा। खास बात यह है कि 23 फरवरी को उन्होंने लोकसभा में भी कार्टून विवाद पर अपनी सरकार के रवैये और अपनी चिंता का इजहार किया था। क्या किसी ने रामसेतु पर पेश किए गए शपथपत्र के संदर्भ में सरकार के किसी व्यक्ति-यहां तक कि अनाम प्रवक्ता के मुख से भी, यह सुना कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली गतिविधियों से परहेज किया जाना चाहिए? क्या सरकार और उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के किसी प्रवक्ता- यहां तक कि अनाम प्रवक्ता ही सही-ने घोर निंदा, भ‌र्त्सना या माफी जैसा शब्द इस्तेमाल किया? नि:संदेह विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने शपथपत्र मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की गलती मानी, लेकिन क्या गलती के बाद क्षमा मांगना जरूरी नहीं? क्या यह ऐसी गलती है जिस पर क्षमा की जरूरत नहीं? हमारे देश का सामान्य शिष्टाचार तो यह कहता है कि तनिक सी भी गलती पर माफी मांग ली जाए, लेकिन भारत सरकार का एक विभाग और एक मंत्रालय भयानक गलती शपथपत्र देकर करता है और फिर भी माफी मांगने से परहेज किया जाता है।
आखिर क्यों? चूंकि कोई भी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार नहीं इसलिए जनता के पास अनुमान लगाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता? एक अनुमान तो यह कहता है कि सरकार की नजर में यह ऐसी मामूली गलती रही होगी जिस पर क्षमा मांगने की कोई जरूरत ही नहीं। दूसरा अनुमान यह कहता है कि मामला हिंदू समुदाय से संबंधित होने के नाते सरकार को शायद यह महसूस हो रहा होगा कि माफी मांगने से कहीं उसकी पंथनिरपेक्ष छवि न धूमिल हो जाए या फिर कोई ऐसा संदेश न चला जाए कि वह बहुसंख्यक समुदाय के समक्ष झुक गई। तीसरा अनुमान यह इंगित करता है कि सरकार करुणानिधि के कोप का भाजन नहीं बनना चाहती होगी, जिन्होंने शपथपत्र की वापसी के बाद यह कहा कि वह तो सही था और हम ऐसी कहानियां नहीं चलने देंगे। करुणानिधि के इस बयान पर केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी ने फरमाया है कि लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है। ठीक इसी तर्ज पर जनता को अनुमान के मुताबिक निष्कर्ष निकालने का अधिकार तो दिया ही जाना चाहिए और यदि वह यह मानती है कि संप्रग सरकार बहुसंख्यक समाज की अनदेखी करती है तो क्या उसे दोष दिया जा सकता है?
Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

0 comments: on "दोहरे मानदंड का दुर्लभ नमूना"