नवभारतटाइम्स
आतंक का सामना करने की बात जब आती है तो भारत की तस्वीर एक नपुंसक राष्ट्र के रूप में उभरती है। पुलिस और नेता पुराना राग अलापते हैं लेकिन वास्तव में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होता। मुंबई बार-बार आतंकवादियों के निशाने पर चढ़ता है और सीरियल बम ब्लास्ट होते है। दिल्ली का भी बार-बार आतंकवादी चीर-हरण करते रहे हैं। चार माह में हैदराबाद को भी आतंकवादियों ने दो बार तार-तार करने का दुस्साहस किया है , बेंगलुरू में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस पर भी हमला किया गया। आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं और एक एक करके नए शहर उनके निशाने पर चढ़ते जा रहे हैं और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
स्थितियां भयावह हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि हमारा तंत्र आतंकवादी हमलों को रोकने में तो नाकाम है ही साथ में कसूरवार को पकड़कर अंजाम तक पहुंचाने में भी उसका रेकॉर्ड अच्छा नहीं है। 1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट के मामले में अभियुक्तों को अंजाम तक पहुंचाने में 14 साल लग गए। अभी तक उसके असली षडयंत्रकारी खुलेआम घूम रहे हैं। हमारे तंत्र में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति की कमी सदैव खलती है। और इससे भी खतरनाक है , ऐसे तत्वों के बारे में राजनीतिक प्रटेक्शन की कहानियों का बाजार में होना।
9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई की चौतरफा निंदा भले ही हो रही हो लेकिन दुनिया के सामने आज यह एक सच्चाई है कि 2001 के बाद से अमेरिका की ओर आतंकवादियों ने आंख उठाकर भी नहीं देखा है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि आतंकवाद के प्रति अमेरिका के अप्रोच का हम समर्थन कर रहे हैं। लेकिन कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और निर्दोष लोगों को आतंकवादियों के हाथों मरते देखते रहेंगे ? वक्त आ गया है कि हम आतंकवाद पर जवाबी हमला बोलें।
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