कर्नाटक जनादेश के मायने

कर्नाटक की स्थिति अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है और इस राज्य में पहली बार भाजपा अपने बलबूते पर सरकार बनाने जा रही है। चुनाव से पूर्व के तमाम अनुमानों को भी इस चुनाव परिणाम ने ध्वस्त कर दिया है और जो लोग किंगमेकर बनने का या राज्य में सरकार की चाभी अपने हाथ में रखने का स्वप्न संजोये थे जनता ने उन्हें ऐसा कोई अवसर नहीं दिया। इस चुनाव परिणाम को लेकर अनेक प्रकार के विश्लेषण और व्याख्यायें हो रही हैं। इन सभी विश्लेषणों में एक बात सामान्य है कि इन परिणामों से भाजपा का मनोबल काफी बढ जायेगा और इसके विपरीत कांग्रेस कुछ हद तक हताश हो जायेगी। इसके अतिरिक्त सभी विश्लेषक इस बात से भी सहमत हैं कि वर्तमान केन्द्र सरकार की स्थिति अब और भी कमजोर हो जायेगी और उसे कोई भी निर्णय लेने में कठिनाई का सामना करना पडेगा विशेष रूप से अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि के सम्बन्ध में। इसी के साथ अब सरकार पर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव भी बढेगा जैसे कीमतों पर तत्काल नियंत्रण, किसानों की कर्ज माफी में किसानों की भूमि को लेकर नया नजरिया अपनाना। लेकिन ये तो तात्कालिक असर हैं। इसके अतिरिक्त कर्नाटक चुनाव परिणाम के कुछ दूरगामी प्रभाव भी होने वाले हैं।

कर्नाटक में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर भाजपा ने अपने ऊपर लगे उस धब्बे को काफी हद तक धुल दिया है जिसके अनुसार उसे उत्तर भारत की पार्टी कहा जाता था। हालांकि इससे पूर्व भाजपा ने गुजरात और उडीसा जैसे गैर हिन्दी भाषी प्रांतों में भी अपनी सरकार बनाई थी परंतु दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश अभी शेष था। यह एक बडा घटनाक्रम है जिसका आने वाले दिनों में व्यापक प्रभाव हो सकता है क्योंकि अब भाजपा को आन्ध्र प्रदेश में अपनी पैठ बनाने में अधिक समस्या नहीं होगी। कर्नाटक चुनाव अनेक सन्दर्भों में निर्णायक था। इस बार भाजपा इस प्रांत में अपने निरंतर बढ रहे ग्राफ के चरम पर थी और उसे स्वयं को एक ऐसे राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करना था जो कांग्रेस का विकल्प अपने दम पर बन सकने को तैयार है। यह भाजपा के लिये अंतिम अवसर था और यदि इस बार वह असफल हो जाती तो प्रदेश की राजनीति पुनः कांग्रेस केन्द्रित हो जाती। भाजपा ने स्वयं को सशक्त विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर राज्य की राजनीति में द्विदलीय व्यवस्था को स्थापित कर दिया है और 1980 से राज्य में कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित जनता परिवार को स्थानांतरित कर दिया है। अब भाजपा जनता दल सेकुलर के बचे खुचे जनाधार को भी अपने अन्दर समेटने में सफल हो जायेगी। इसका परिणाम यह होगा कि यहाँ दीर्घगामी स्तर पर भाजपा एक शक्तिशाली राजनीतिक दल के रूप में स्थापित हो जायेगी। इस चुनाव परिणाम के एक संकेत की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि भाजपा को समस्त राज्य में मिश्रित सफलता मिली है और उसकी विजय का आधार कोई विशेष क्षेत्र भर ही नहीं रहा है। इसका अर्थ है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने विचारधारा के साथ सामाजिक समीकरणों का संतुलन बैठाना सीख लिया है। यही बात गुजरात के सन्दर्भ में भी देखने को मिली थी जब विचारधारा, सामाजिक संतुलन और विकास ने एक साथ मिलकर काम किया था। यह रूझान निश्चित ही कांग्रेस और देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी के लिये चिंता का विषय होना चाहिये।

भाजपा को विचारधारा और सामाजिक संतुलन स्थापित करने में मिलने वाली सफलता का सबसे बडा कारण भाजपा की हिन्दुत्व की अपील है। यद्यपि इस चुनाव में स्पष्ट रूप से हिन्दुत्व को मुद्दा नहीं बनाया गया था परंतु आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार की नरम नीति को चर्चा के केन्द्र में लाकर भाजपा इस हिन्दुत्व का ध्रुवीकरण करने में सफल रही। यदि इस चुनाव के परिणामों को 1990 में उत्तर भारत में हिन्दुत्व आनदोलन के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि में उत्तर भारतीय राज्यों में मिली सफलता के सन्दर्भ में देखें तो हमें एक समानता देखने को मिलती है कि 1990 के दशक में भी उत्तर प्रदेश में भाजपा को नेता की जाति, हिन्दुत्व की अपील के कारण अनुसूचित जाति-जनजाति और अधिक पिछडा वर्ग का भारी समर्थन मिला था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, लोध के साथ अनुसूचित जातियाँ भी बडी मात्रा में भाजपा के साथ थीं। कर्नाटक चुनाव परिणाम 1990 के उत्तर भारत के समीकरणों की याद दिलाते हैं तो क्या माना जाये कि कर्नाटक में केवल भाजपा की ही विजय नहीं हुई है वरन हिन्दुत्व की भी विजय हुई है।

कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहाँ पिछ्ले कुछ वर्षों से हिन्दुत्व का उफान स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। 2000 से लेकर आजतक जब भी विश्व हिन्दू परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोई जनसभा या हिन्दू सम्मेलन होता था तो लाखों की संख्या में लोग आते थे। इसी प्रकार इस राज्य में उडुपी मठ के संत विश्वेशतीर्थ जी महाराज का प्रभाव क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक है और उन्होंने इस राज्य में हिन्दुत्व जागरण में काफी बडा योगदान किया है। भाजपा की इस विजय में हिन्दुत्व के इस आन्दोलन की अंतर्निहित भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह इस सन्दर्भ में अधिक मह्त्वपूर्ण है कि जो दल भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर उसे किनारे लगाने का प्रयास करते आये हैं उन्हें अवश्य यह सोचना चाहिये कि सेकुलरिज्म के नाम पर अन्धाधुन्ध मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दुओं की अवहेलना की प्रतिक्रिया भी हो सकती है। यहाँ तक कि कांग्रेस के कुछ लोग भी मान रहे हैं कि जयपुर विस्फोट के समय ने उन्हें काफी क्षति पहुँचायी स्पष्ट है कि विस्फोट से तो कांग्रेस का कोई लेना देना नहीं था तो भी जनता का आक्रोश कांग्रेस पर क्यों फूटा जबकि कांग्रेस ने आतंकवाद का उत्तरदायी भाजपा को ठहराते हुए कहा था कि भाजपा के शासनकाल में विमान अपहरण के बदले आतंकवादियों को छोडा गया और उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस तर्क के बाद भी जनता का कांग्रेस के प्रति आक्रोश दर्शाता है कि आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार और कांग्रेस के रवैये से जनता संतुष्ट नहीं है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम एक ऐसा संकेत है जो कांग्रेस को मिला है परन्तु इस मामले में कांग्रेस अपनी भूल सुधार कर पायेगी इसकी सम्भावना नहीं है। कांग्रेस 1992 के बाद अपने से नाराज हुए मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिये अनेक विषयों पर समझौते कर रही है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और संकेत आया है और वह भी कांग्रेस के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। कर्नाटक में चुनाव प्रबन्धन कांग्रेस ने उसी अन्दाज में किया था जब कि देश में नेहरू परिवार का जादू चलता था और चुनाव कार्यकर्ता नहीं गान्धी उपाधि जिताया करता था। देश में पिछ्ले कुछ वर्षों में आये परिवर्तनों से कांग्रेस बेपरवाह पुराने ढर्रे पर चली जा रही है। वैसे तो पिछ्ले अनेक चुनाव परिणामों से कांग्रेस की यह रणनीति धराशायी हो रही है परन्तु इस चुनाव का अलग महत्व है। कांग्रेस द्वारा किसी भी चुनाव में मुख्यमंत्री घोषित न करना उसकी उसी नीति का अंग है कि यह निर्णय हाईकमान करेगा। अब स्थितियों में ऐसा क्या अंतर आ गया है कि कांग्रेस की यह नीति काम नहीं करती। विशेष अंतर यह आया है कि अब देश में 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या उनकी है जो तीस या तीस वर्ष से ऊपर हैं। यह वह पीढी है जिसने अपनी आंखों के सामने न तो स्वाधीनता संग्राम देखा है और न महात्मा गान्धी और जवाहरलाल नेहरू का जादू। इस पीढी का इन पात्रों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। यही कारण है कि जब कांग्रेस अपने पुराने अन्दाज में नीतियों को निर्धारित कर चलती है तो इस आत्मसम्मोहन से बाहर नहीं आ पाती कि आज राहुल गान्धी का आकलन युवा उनके कौशल के आधार पर उनकी योग्यता के आधार पर करता है न कि किसी खानदान के वारिस के तौर पर। यही सूक्ष्म कारण है कि जब कांग्रेस चुनावों में अपना नेता नहीं घोषित करती तो उसे क्षति होती है और लोग नेहरू परिवार के प्रतिनिधि के तौर पर किसी को भी नहीं चुन लेते।

पिछ्ले अनेक चुनावों में पराजय का सामना कर रही कांग्रेस को अपने अन्दर कुछ मूलभूत परिवर्तन करना होगा। उसे एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का स्वरूप त्याग कर सही अर्थों में लोकतांत्रिक होना होगा तभी आगे उसका विस्तार सम्भव है। यही बात सेकुलरिज्म के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक समय था कि देश में सूचनाओं का प्रवाह सीमित था और कोई भी तथ्य या विचार कुछ लोगों तक सीमित था और वे शेष जनता को जैसा समझाते थे जनता मानती थी। आज परिस्थितियों में अंतर आ गया है। आज सूचनाओं का प्रवाह असीमित हो गया है और किसी भी तथ्य के सम्बन्ध में स्पष्ट स्थिति जानने के अनेक साधन हैं इस कारण जनता और विशेषकर युवा वर्ग को प्रोपगेण्डा और विचार के मध्य अन्तर समझ में आता है तभी जिस मोदी को मौत का सौदागर कहकर सम्बोधित किया जाता है उसी मोदी को गुजरात की जनता अपना रक्षक मानकर चलती है। इस अंतर को न समझने के कारण कांग्रेस साम्प्रदायिकता और सेकुलरिज्म की बहस में भी भोथरी सिद्ध हो रही है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से संकेत मिलता है कि आने वाले दिन केन्द्र सरकार के लिये भारी पड्ने वाले हैं और निर्णय लेने की उसकी क्षमता और भी मद्धिम पड जायेगी। इसका तात्कालिक परिणाम तो यह होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि प्रायः समाप्त हो जायेगी और इससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की निर्णय न ले पाने वाले प्रधानमंत्री की छवि का आरोप और सही सिद्ध होगा और कांग्रेस के पास ऐसा कोई बडा मुद्दा हाथ में नहीं होगा जिसके सहारे वह जनता के बीच आम चुनाव में जाये। जिस प्रकार कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लडा गया और मँहगाई तथा आतंकवाद पर कांग्रेस पिट गयी वह रूझान आम चुनावों तक चलने वाला है क्योंकि दोनों ही मोर्चों पर कांग्रेस कुछ विशेष कर पाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन इससे यह अर्थ भी कदापि नहीं लगाया जा सकता कि आम चुनावों में भाजपा फ्रण्ट रनर है जैसा भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा। वैसे इसमें राजनीतिक बडबोलापन भी नहीं है। जिस प्रकार कांग्रेस अपनी भूलों से सीख नहीं ले पा रही है और भाजपा एक के बाद एक प्रदेश जीतती जा रही है उससे देश में वातावरण बदलते देर भी नहीं लगेगी।


कर्नाटक चुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ये चुनाव राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेंगे और इन चुनावों में भाजपा के विजयी होने से आम चुनाव नियत समय पर ही होंगे। यह बात पूरी तरह सत्य है। अब चुनाव नियत समय पर ही होंगे और उससे पहले अग्नि परीक्षा भाजपा की है जिसे अपने तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ को बचाने की चुनौती है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से यूपीए के गणित पर भी असर पड सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी के करिश्मे की आस लगाये कुछ घटक अवश्य चिंतित और घबराहट अनुभव कर रहे होंगे।
कर्नाटक चुनाव परिणाम का एक प्रभाव यह भी होगा कि भाजपा छोडकर गये अनेक लोग समाज में अपना बचा खुचा आधार भी खो देंगे और भटकी भाजपा के नाम पर उनकी आलोचना की प्रामाणिकता पर असर पडेगा इसी के साथ पार्टी से उनके मोलतोल में उनका पक्ष कमजोर हो जायेगा। उदाहरण के लिये भाजपा से बाहर हुई उमा भारती जिन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी भी बना ली अब तक कोई भी परिणाम देने में या भाजपा को रोकने में सफल नहीं रही हैं। भाजपा के निरंतर विजय अभियान से उनकी स्थिति कमजोर हो जायेगी और असंतुष्ट भाजपाईयों में समर्थन प्राप्त करने का उनका अभियान अवश्य प्रभावित होगा।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी नहीं होगी कि पिछ्ले दो वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और अब कर्नाटक में जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है और यह रूझान इंगित करता है कि देश के मतदाताओं की प्राथमिकतायें बदल रही हैं और उनके लिये स्थिर सरकार, विकास, सुरक्षा प्राथमिकता है। ऐसे में यदि आम चुनावों में कुछ आश्चर्यजनक परिणाम भी हमारे सामने आयें तो हमें चौंकना नहीं चाहिये। कुल मिलाकर कर्नाटक चुनावों ने राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय कर दी है। आने वाले दिनों में जो पक्ष नेतृत्व, कार्यक्रम, विचारधारा और सामाजिक समीकरणों में सामंजस्य स्थापित कर सकेगा वही देश पर शासन करेगा।
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आरुषि के बहाने मीडिया का पलायनवाद

पिछले चार पाँच दिन से समाचार माध्यमों में नोएडा की रहने वाली आरुषि की रहस्यमय हत्या का मामला छाया है। मीडिया द्वारा इस विषय को महत्व देना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है, इससे पूर्व भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हुई हत्याओं को काफी महत्व मिलता रहा है। परंतु इस घटना के समय को लेकर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि जब इसी समय अभी कोई दस दिन पहले राजस्थान की राजधानी जयपुर में आतंकवादी आक्रमण हुआ है और उस सम्बन्ध में भी जाँच चल रही है तो हमारे समाचार माध्यमों का ध्यान उस ओर क्यों नहीं जा रहा है या फिर यूँ कहें कि उनका ध्यान उस ओर से पूरी तरह हट गया है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर गम्भीरतापूर्वक सोचने की आवश्यकता है।

आरुषि हत्याकाण्ड में जिस प्रकार समाचार माध्यमों ने रुचि दिखाई और पुलिस प्रशासन को दबाव में लिया कि नोएडा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को बकायदा प्रेस कांफ्रेस करनी पडी और इस मामले में जाँच में हो रही प्रगति के सम्बन्ध में मीडिया को बताना पडा। यह मीडिया की शक्ति की ओर संकेत करता है पर वहीं एक प्रश्न यह भी उठता है कि आरुषि के मामले को इतना तूल देकर कहीं मीडिया ने जयपुर मामले में बहस से लोगों का ध्यान हटाने का शुभ कार्य तो नहीं किया है। निश्चय ही मीडिया के इस कार्य से सरकार काफी राहत मिली है और उसी राहत का अनुभव करते हुए भारत के गृहमंत्री ने बयान दे डाला कि मोहम्मद अफजल को फांसी की पैरवी नहीं करनी चाहिये।

आरुषि मामले को मीडिया द्वारा तूल देने के पीछे कोई षडयंत्रकारी पक्ष देखना तो उचित तो नहीं होगा पर इससे कुछ प्रश्न अवश्य उठते है। क्या मीडिया जयपुर जैसी घटनाओं को नजरअन्दाज करने की रणनीति अपना रहा है। इस बात के संकेत मिलते भी हैं। पिछले तीन वर्षों में यदि इस्लामी आतंकवाद के सम्बन्ध में मीडिया की रिपोर्टिंग पर नजर डाली जाये तो कुछ स्थिति स्पष्ट होती है। 11 जुलाई 2006 को देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में लोकल रेल व्यवस्था पर आक्रमण हुआ और उस समय की रिपोर्टिंग और अब जयपुर में हुए आक्रमण की प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया की रिपोर्टिंग में कुछ गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यह गुणात्मक परिवर्तन इस सन्दर्भ में है कि ऐसी घटनाओं की क्षति, लोगों पर इसके प्रभाव और इस आतंकवाद में लिप्त लोगों पर चर्चा को उतना ही रखा जाये जितना पत्रकारिता धर्म के विरुद्ध नहीं है। इस नजरिये से घटना की रिपोर्टिंग तो होती है परंतु घटना के बाद इस विषय से बचने का प्रयास किया जाता है। यह बात 2006 से आज तक हुए प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के सम्बन्ध में क्रमशः होती रही है। यदि जयपुर आक्रमण के बाद विभिन्न समाचार पत्रों में सम्पादकीय या उससे सम्बन्धित लेखों की संख्या देखी जाये तो ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में खाना पूरी की जा रही है और जोर इस बात पर अधिक है कि यह घटना लोगों के स्मरण से कितनी जल्दी दूर हो जाये या इसे लोग भूल जायें।

मीडिया के इस व्यवहार की समीक्षा इस पृष्टभूमि में भी की जा सकती है कि कहीं आतंकवादी घटनाओं की अधिक रिपोर्टिंग और उस पर अधिक चर्चा नहीं करने को भी इस आतंकवाद से निपटने का एक तरीका माना जा रहा है जैसा कि प्रसिद्ध आतंकवाद प्रतिरोध विशेषज्ञ बी रमन ने हाल के अपने एक लेख में सुझाव दिया है। उनका मानना है कि आतंकवादी आक्रमणों के बाद ऐसा प्रदर्शन नहीं करना चाहिये कि हमारे जीवन पर इसका कोई प्रभाव हो रहा है क्योंकि इससे आतंकवादियों को लगता है कि वे अपने उद्देश्य में सफल हैं। बी रमन मानते हैं कि आतंकवादी न तो साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड पाये हैं और न ही पर्यटन स्थलों पर आक्रमण कर लोगों को ऐसे स्थलों पर जाने से रोक सके हैं।

इसी प्रकार का सुझाव जुलाई 2006 में मुम्बई में स्थानीय रेल व्यवस्था पर हुए आक्रमण के पश्चात संसद एनेक्सी में कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा बुलाए गये आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में प्रधानमंत्री और सूचना प्रसारण मंत्री की उपस्थिति में दिया गया था और मीडिया को अमेरिका और यहूदियों का एजेंट बताकर उनपर आरोप लगाया गया था कि वे आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे सुझाव अब असर करने लगे हैं और इस्लामी आतंकवाद को लेकर मीडिया ने अपने ऊपर एक सेंसरशिप थोप ली है और इस सम्बन्ध में क्षमाप्रार्थना का भाव व्याप्त कर लिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस रूख से किसे लाभ होने जा रहा है और क्या इस रूख से आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के इस युग में हम आतंकवाद पर विजय प्राप्त कर सकेंगे? निश्चित रूप से इससे आतंकवाद के युद्ध में आतंकवादियों को ही लाभ होने जा रहा है और उन राजनीतिक दलों को लाभ होने जा रहा जो इस्लामी आतंकवाद से मुस्लिम समुदाय के जुडाव के कारण इस विषय में न कोई चर्चा करना चाहते हैं और न ही कोई कार्रवाई।

जयपुर पर हुए आक्रमण के बाद जिस प्रकार आक्रमण में घायल हुए लोगों, जाँच की प्रगति और आतंकवाद के मोर्चे पर पूरी तरह असफल केन्द्र सरकार की कोई खबर मीडिया ने नहीं ली उससे एक बात स्पष्ट है कि आज लोकतंत्र के सभी स्तम्भ यहाँ तक कि पाँचवा स्तम्भ माना जाने वाला मीडिया भी शुतुरमुर्गी रवैया अपना रहा है और इन सबकी स्थिति उस कबूतर की भाँति है जो बिल्ली के सामने अपनी आंखें बन्द कर सोचता है कि बिल्ली भाग जायेगी। लोकतंत्र में मीडिया की अपनी भूमिका होती है लेकिन जिस प्रकार मीडिया बहस से भाग रहा है उससे इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वालों को यही सन्देश जा रहा है कि हमारे अन्दर इच्छाशक्ति नहीं है और मुकाबले के स्थान पर पलायन का रूख अपना रहे हैं।

आखिर यह अंतर क्यों आया है। जयपुर के सम्बन्ध में अंतर यह आया है कि अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में स्थानीय मुसलमानों का एक वर्ग इस्लाम के नाम पर पूरे विश्व में चल रहे जिहाद के साथ जुड चुका है और वह देश में आतंकवादियों के लिये हर प्रकार का वातावरण निर्माण कर रहा है। इसी कारण इस मामले से हर कोई बचना चाहता है।

इस प्रकार का रवैया अपना कर हम पहले दो बार जिहादवाद के विस्तार को रोकने का अवसर खो चुके हैं और तीसरी बार वही भूल करने जा रहे हैं। पहली बार जब 1989 में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद ने प्रवेश किया तो हमारे नेताओं, पत्रकारो और बुद्धिजीवियों ने उसे कुछ गुमराह और बेरोजगार युवकों का काम बताया और बाद में इन्हीं गुमराह युवकों ने हिन्दुओं को घाटी से निकाल दिया और डंके की चोट पर घोषित किया कि यह जिहाद है। इसी प्रकार जब भारत में कश्मीर से बाहर पहली जिहादी घटना 1993 में मुम्बई में श्रृखलाबद्ध बम विस्फोटों के रूप में हुई तो भी इसे जिहाद के स्थान पर बाबरी ढाँचे के 1992 में ध्वस्त होने की प्रतिक्रिया माना गया। वह अवसर था जब जिहादवाद भारत में विस्तार कर रहा था पर उस ओर ध्यान नहीं दिया गया। आज हम तीसरा अवसर खो रहे हैं जब हमें पता चल चुका है कि भारत में मुस्लिम जनसंख्या का एक बडा वर्ग वैश्विक जिहाद के उद्देश्य से सहानुभूति रखता है तो उस वर्ग का विस्तार रोकने के लिये कठोर कानूनी और विचारधारागत कदम उठाने के स्थान पर हम इस पर बहस ही नहीं करने को इसका समाधान मानकर चल रहे हैं।

जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद जिस प्रकार इस मामले को मीडिया ने ठण्डे बस्ते में डाला है वह सराहनीय नहीं है। इस सम्बन्ध में लोगों की सहनशीलता को असीमित मानकर चलने की यह भावना खतरनाक है। ऐसे आक्रमणों का सामना इनकी अवहेलना कर नहीं इस पर बहस कर किया जा सकता है। क्योंकि बहस न होने से यह पता लगा पाना कदापि सम्भव नहीं होगा इस विषय पर देश में क्या भाव है और लोग इसके मूलभूत कारणों के बारे में क्या सोचते हैं। कहीं ऐसा न हो कि इस विषय में संवादहीनता का परिणाम आगे चलकर भयावह हो जाये जैसा कि पहले कई अवसरों पर हम देख भी चुके हैं।
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जयपुर विस्फोट के सन्देश

13 मई को राजस्थान की राजधानी जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण के तत्काल बाद इसके मूल कारणों पर विचार करते हुए लोकमंच ने एक लेख प्रकाशित किया था और इस समस्या के मूल में जाकर इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया था। जयपुर विस्फोट के बाद जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं और सुरक्षा एजेंसियों को इस सम्बन्ध में नये सुराग मिल रहे हैं, वैसे- वैसे यह बात पुष्ट होती जा रही है कि इस्लामी आतंकवाद की इस समस्या को व्यापक सन्दर्भ में सम्पूर्ण समग्रता में देखने की आवश्यकता है।
विस्फोट के एक दिन बाद इण्डियन मुजाहिदीन नामक एक अप्रचलित इस्लामी संगठन ने इस आक्रमण का उत्तरदायित्व लेते हुये करीब 1800 शब्दों का एक बडा ई-मेल विभिन्न समाचार पत्रों और टीवी चैनलों को भेजा। देश के प्रसिद्ध अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दू ने इस ई-मेल के प्रमुख बिन्दुओं को अपने समाचार पत्र में स्थान दिया। वास्तव में यह ई-मेल केवल विस्फोट का दायित्व लेने तक सीमित नहीं था वरन यह भारत में हो रहे जिहाद का एक घोषणा पत्र था। इस ई-मेल में इण्डियन मुजाहिदीन ने जो प्रमुख बिन्दु उठाये हैं उसके अनुसार इस विस्फोट का उद्देश्य काफी व्यापक है।


इस संगठन के अनुसार जयपुर को निशाना बनाकर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि भारत का मुसलमान वैश्विक जिहाद के साथ एकज़ुट है। दूसरा सन्देश हिन्दुओं को दिया गया है कि वे राम, सीता और हनुमान जैसे गन्दे ईश्वरों की उपासना बन्द कर दें अन्यथा उन्हें ऐसे ही आक्रमणों का सामना करना होगा। इन दो सन्देशों के बाद यह संगठन सीधे भारत में मुसलमानों के उत्पीडन की बात करता है और उसके अनुसार पिछ्ले 60 वर्षों से भारत में मुसलमानों को प्रताडित किया जा रहा है। सन्देश में 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराये जाने और 2002 में गुजरात में हुए दंगों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मस्जिद गिरने के बाद जब नरमपंथी मुसलमानों ने अयोध्या जाकर विरोध करने का प्रयास किया गया तो उन्हें गिरफ्तार कर उनका उत्पीडन किया गया। जयपुर में विस्फोट के पीछे इस संगठन ने मुख्य कारण यह बताया है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी को दो बार भारी बहुमत से विधानसभा में पहुँचा कर हिन्दुओं ने स्वयं को ऐसे आक्रमणों का निशाना बना लिया है। साथ ही सन्देश में कहा गया है कि भारत में हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों को आर्थिक सहायता देते हैं। इसके साथ ही कहा गया है भारत के सभी नागरिक मुजाहिदीनों के निशाने पर हैं क्योंकि वे भारत की संसद में उन नेताओं को चुनकर भेजते हैं जो मुसलमानों के उत्पीडन का समर्थन करते हैं।
इण्डियन मुजाहिदीन ने भारत को सन्देश में कुफ्रे हिन्द ( काफिरों का स्थान) कहकर सम्बोधित किया है और कहा है कि यदि इस देश में इस्लाम और मुसलमान सुरक्षित नहीं है तो इस देश के लोगों के घर में भी जल्द ही अन्धेरा हो जायेगा।


इस सन्देश के अपने मायने हैं। देश के एक अन्य अंग्रेजी समाचार पत्र मेल टुडे में इण्डियन मुजाहिदीन के इस ई-मेल पर सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह की प्रतिक्रिया प्रकाशित की गयी है। श्री सिंह के अनुसार ऐसे मेल भेजकर इस्लामी संगठन शेष मुसलमानों को एक सन्देश देते हैं और उन्हें अपने विचारों से अवगत कराते हैं। श्री सिंह 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने या गुजरात में हुए दंगों के आधार पर ऐसे विस्फोटों को न्यायसंगत ठहराने की इस्लामी संगठनों की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए कहते हैं कि अतीत में घटी घटनाओं को आधार बनाकर ऐसे आक्रमणों को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। श्री सिंह मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा को भी खारिज करते हुए कह्ते हैं कि देश के राजनीतिक दल इसी दबाव में आ जाते हैं और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिराते हैं उनके अनुसार यह बकवास है कि अपराध या आतंकवाद को अंजाम देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करते समय सेकुलर सिद्धांत का पालन किया जाये और अपराधी मुसलमान हो तो उसके बराबर ही हिन्दुओं को भी गिरफ्तार किया जाये। सीमा सुरक्षा बल का पूर्व महानिदेशक यदि ऐसे निष्कर्ष निकालता है तो और कुछ कहने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती।

जयपुर विस्फोटों के सम्बन्ध में एक और रोचक खोज प्रसिद्ध हिन्दी समाचार चैनल जी न्यूज ने की। 17 मई को रात 10 बजे इनसाइड स्टोरी नामक अपने कार्यक्रम में चैनल ने पूरी उत्तरदायित्व से उन चार प्रमुख चेहरों की विस्तार से जानकारी दी जिनका स्केच राजस्थान पुलिस ने तैयार किया है। इनमें प्रमुख शमीम है और शेष तीन के नाम अबू फजल, इमरान उर्फ अमजद और मुख्तार इलियास हैं। इनमें से केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और शेष तीनों भारत के मुसलमान है। इनमें से एक शमीम तो जयपुर से 60 किलोमीटर दूर सीकर नामक स्थान पर नगीना मस्जिद में एक मदरसे में पढाता भी था। समाचार चैनल को एक लैण्ड लाइन दूरभाष नम्बर भी मिला जिसपर शमीम बात करता था और इस चैनल के संवाददाता ने जब इस नम्बर पर बात की तो पता चला कि यह नम्बर काम करता है और दशकों से अस्तित्व में है और इस घर में रहने वाला 16-17 वर्ष का बालक शमीम का विद्यार्थी भी रहा है। अब यदि शमीम मदरसे और मस्जिद में रह कर जयपुर से 60 किलोमीटर दूर किसी के घर के फोन का प्रयोग कर सारी रणनीति बना सकता है तो फिर सुरक्षा एजेंसियों को दोष कैसे दिया जाये। शमीम उसी वलीउल्लाह का राजस्थान का प्रभारी है जिसे उत्तर प्रदेश में हुए बम धमाकों का मास्टर माइण्ड माना गया है। इसी प्रकार अबू फजल मध्य प्रदेश में सिमी का कार्यकर्ता है और 2007 से इन्दौर से फरार है। इमरान उर्फ अमजद का पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्ध है केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और भारत में हूजी के लिये काम करता है।


इन तथ्यों को देखकर क्या निष्कर्ष निकाला जाये कि गडबड कहाँ है। वास्तव में इस्लामी आतंकवाद के प्रति हमारा दृष्टिकोण इस समस्या के लिये उत्तरदायी है। इस समस्या को हम 1990 के दशक के चश्मे से देख रहे हैं और उसी अवधारणा के आधार पर आगे बढ रहे हैं कि हमारा पडोसी पाकिस्तान ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहा है। यह बात कुछ अंशों में सत्य है पर अब यह पूरी तरह सत्य नहीं है। इस अवधारणा पर जब सख्त कदम उठाये जाने चाहिये थे तब उठाये नहीं गये और जब पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी शिविर ध्वस्त करने से इस समस्या का समाधान निकल सकता था तब हमने अवसर गँवा दिया और अब स्थिति वहीं तक सीमित नहीं है। आज भारत में इस्लामी आतंकवादी संगठनों का व्यापक नेटवर्क फैल चुका है और यदि इण्डियन मुजाहिदीन के सन्देश को हम अधिक ध्यान से देखें तो स्पष्ट होता है कि पिछ्ले डेढ दशक में आतंकवाद की इस लडाई में कुछ गुणात्मक परिवर्तन आया है। एक 1993 के आसपास भारत के जिहादी गुटों की शक्ति और उनका विस्तार सीमित था और बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने के बाद बदले की कार्रवाई में वे मुम्बई को ही निशाना बना सके। आज 15 वर्षों के बाद भारत में उनका नेटवर्क इतना व्यापक हो गया है कि वे अब महानगरों तक सीमित नहीं रह गये हैं वरन राज्यों की राजधानियों या छोटे-छोटे नगरों में भी आतंकी आक्रमण करने की उनकी क्षमता हो गयी है। 2005 से लेकर अब तक कुल 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट देश में हो चुके हैं और इनमें 500 से अधिक लोग मौत की नींद सो चुके हैं।


इन 15 वर्षों में ऐसा क्या परिवर्तन हुआ कि हम जिहाद की इस भावना को समझने में असफल रहे हैं। वास्तव में जिहादवाद ने एक वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर लिया है और इस्लामी आतंकवादियों का उद्देश्य इस्लामी उम्मा के साथ एकाकार हो चुका है। अब देश की विदेश नीति, अमेरिका के साथ उसके सम्बन्ध, ईरान के सम्बन्ध में उसकी नीति, इजरायल के साथ सम्बन्धों का स्वरूप इस्लामी आतंकवादियों की रणनीति का आधार बनता है। जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण की निन्दा कुछ इस्लामी संगठनों ने की है परंतु उन्होंने फिर सरकार को सावधान किया है कि यदि मुसलमानों की शिकायतों पर उचित ध्यान नहीं दिया गया और सुरक्षा एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को निशाना बनाती रहीं तो ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकेगा। यह सशर्त निन्दा एक व्यापक वैश्विक रूझान की ओर संकेत करती है। आज समस्त विश्व में इस्लामी संगठन आतंकवाद की निन्दा भी करते हैं और मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा को प्रश्रय भी देते हैं। विश्व के जिन भी देशों में आतंकवाद प्रभावी है वहाँ की सरकार की मुस्लिम और इस्लाम विरोधी नीतियों को इसका उत्तरदायी बताया जाता है। परंतु यह कितना वास्तविक है इसकी जाँच कभी नहीं की गयी।


इण्डियन मुजाहिदीन ने अपने सन्देश में जिस प्रकार गुजरात में मोदी की दूसरी बार विजय और भारतीय संसद में उन नेताओं की विजय जो मुस्लिम उत्पीडन में सहायक हैं उसको आक्रमण का कारण बताया गया है वह भी वैश्विक जिहाद की ही एक प्रवृत्ति का संकेत है। अमेरिका ने जब इराक पर आक्रमण किया और वहाँ बहुराष्ट्रीय सेनायें तैनात कर दीं तो अनेक देशों के जनमत को प्रभावित करने के लिये और देशों को अपनी नीतियाँ बदलवाने के लिये इस्लामी आतंकवादियों ने विस्फोटों का सहारा लिया। स्पेन में मैड्रिड में रेल विस्फ़ोट के बाद हुए चुनावों में तत्कालीन सरकार पराजित हुई और जनता ने मतदान उस दल के पक्ष में किया जो इराक से स्पेन के सैनिकों को वापस बुलाने की पक्षधर थी। इसी प्रकार अनेक देशों के पत्रकारों का अपहरण करके भी इस्लामी आतंकवादी देशों की नीतियों को प्रभावित करने में सफल रहे हैं। यह नजारा हम 1999-2000 में देश ही चुके हैं जब भारत के एक विमान का अपहरण कर कुछ दुर्दांत आतंकवादियों को छुडा लिया गया था। उसमें से एक आतंकवादी मसूद अजहर ने छूटने के बाद पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद का निर्माण किया और उसी संगठन ने 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण किया। ये तथ्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि आज इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हो गया है और इस समस्या को उसी परिदृश्य में देखने की आवश्यकता है।


लेकिन भारत में क्या हो रहा है। आज यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जिहादी एक इस्लामी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं और उनका उद्देश्य कुरान और शरियत के आधार पर एक नयी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है और इसके लिये उन्होंने वैश्विक आधार पर मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा का सृजन किया है और इस अवधारणा ने बडी मात्रा में ऐसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी आकर्षित किया है जो इस्लाम की हिंसक व्याख्या से सहमत न होते हुए भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का समर्थन करते हैं और इस्लामी आतंकवाद की निन्दा सशर्त करते हैं। भारत में प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और वामपंथी इसी धारणा के शिकार हैं और भारत में इस्लामी आतंकवाद को हिन्दू कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया मानते हैं। इस धारणा के चलते दोनों ही दल समस्या के मूल को समझने में असफल हैं। जुलाई 2005 को जब मुम्बई में लोकल रेल में धमाके हुए और 187 लोग मारे गये और इससे भी अधिक लोग घायल हुए तो कांग्रेस के अनेक नेताओं ने खुलेआम कहा कि ऐसे घटनायें इसलिये हुई हैं कि पिछ्ले कुछ वर्षों में देश में एक समुदाय विशेष की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ नेताओं ने तो टीवी चैनल पर आकर कहा कि जब आप किसी की मस्जिद गिरायेंगे और उनकी महिलाओं और बच्चों का कत्ल करेंगे तो क्या आपके विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं होगी। इसी प्रकार जयपुर में हुए विस्फोटों के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने आतंकवाद के विषय में चर्चा करते हुए भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की तुलना आतंकवादियों से कर दी और कहा कि वे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का वातावरण बिगाड कर वही काम कर रहे हैं जो आतंकवादी चाहते हैं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अनुरोध किया कि राजनीतिक दल आतंकवाद को साम्प्रदायिक रंग न दें। अब ऐसी प्रतिक्रिया से क्या लगता है कि सरकार और कांग्रेस इस्लामी आतंकवाद को युद्ध मानने को तैयार ही नहीं है। क्योंकि यदि इसे युद्ध माना जाता तो शत्रु को पहचान कर उसे नाम दिया जाता और उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा की जाती। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में लिया जा रहा है।


2005 से लेकर अब तक हुए 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट एक ही कहानी कहते हैं कि भारत में मुसलमानों का एक वर्ग वैश्विक जिहाद की विचारधारा और उसके नेटवर्क से गहराई से जुड गया है और वह इस बात का संकेत भी दे रहा है कि अब ऐसे आक्रमणों के लिये पडोसी देशों को दोष देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने के छोटे रास्ते से बचा जाये और भारत के देशी मुसलमानों के बीच पल रही इस नयी विचारधारा को पर प्रहार किया जाये। देश में एक समुदाय विशेष के तुष्टीकरण की नीतियों के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जो समझौते किये गये हैं उसका परिणाम हमारे सामने है। जब बांग्लादेशी घुसपैठी भारत की सीमा में प्रवेश कर रहे थे उन्हें वोट बैंक माना गया, जब पाकिस्तान के आईएसआई एजेण्ट खुलेआम भारत में आकर अपनी अगली रणनीति पर काम कर रहे थे तो उन पर लगाम नहीं लगाई गयी। आज जब विश्व की परिस्थितियों में परिवर्तन आ गया और जिहाद एक वैश्विक स्वरूप धारण कर विचार के स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या को प्रभावित और प्रेरित कर रहा है तो हम फिर भूल कर रहे हैं और डेढ दशक पुरानी भाषा में पाकिस्तान को दोष दे रहे हैं। जिस प्रकार इस्लामी आतंकवादी देश में अपना विस्तार करने में सफल हो रहे हैं और धार्मिक राजनीतिक अपील से देश में मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं वह एक खतरनाक संकेत है। जिस प्रकार पिछ्ले तीन वर्षों में वे अपने मन मुताबिक विभिन्न स्थानों पर आक्रमण करने में सफल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वे दिनोंदिन अपना नेटवर्क व्यापक ही करते जायेंगे और देश के छोटे कस्बों को भी शीघ्र ही अपना निशाना बनायेंगे।
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अफजल पर कुत्ते छुड़वा देते

अमेरिका के दो टावरों टूटे तो उसने दो मुल्को को तहस-नहस कर दिया. आप अभी भी मौन हैं. प्रश्न करती हैं उन बेवाओ की आँखें जिन्होंने जयपुर के आतंकवादी हमले में अपने पति खोये हैं, बच्चे खोये हैं. प्रश्न है की आखिर सर्वोच्च-न्यायालय के आदेश के बाद भी संसद भवन पर हमला करने वाले अफजल को फाँसी क्यों नहीं दी गई. जयपुर काण्ड के बाद क्या जयपुर के हवा-महल में सार्वजनिक तौर पर अफजल जैसे आतंकवादी को फाँसी नहीं होना चाहिए? जिससे एक बार तो कम से कम आतंकी सोचे की भारत में आतंक फैलाने का प्रतिफल क्या हो सकता है.

अब तो करलो बुद्धि मित्र ठिकाने पर,
संसद भी रखी है आज निशाने पर.
नौ-नौ सिंहों को खोकर भी खामोशी,
कब टूटेगी सिंघासन की बेहोशी?
अंधे लालच का सिंधु भर के चित में.
धृतराष्ट्र हैं मौन स्वयम सुत के हित में.
वरना वो खूनी पंजे तुड़वा देते.
अब तक अफजल पर कुत्ते छुड़वा देते.

-कवि सौरभ सुमन
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जयपुर विस्फोट उत्तरदायी कौन

भारत का एक और सुन्दर व अपेक्षाकृत शांत समझा जाने वाले जयपुर शहर आतंकवादियों का निशाना बना। आज सायंकाल कोई सात बजकर 15 मिनट पर बम विस्फोटों की श्रृंखला आरम्भ हुई और 20 मिनट के अन्दर कुल 8 विस्फोट हुए। इन विस्फोटकों को नयी साइकिलों पर रखा गया था। आरम्भ में तो इस सम्बन्ध में अलग-अलग समाचार आ रहे थे और विभिन्न समाचार चैनलों द्वारा कहा गया कि विस्फोटकों को रिक्शे और होण्डा सिटी कार में भी रखा गया था। बाद में राज्य के गृहमंत्री गुलाब चन्द कटारिया ने विभिन्न टीवी चैनलों को स्पष्ट किया कि विस्फोटक नयी साइकिलों पर ही रखे गये थे। इन विस्फोटों के लिये शहर के व्यस्ततम क्षेत्रों को चुना गया था। परंतु विस्फोटों के सम्बन्ध में चर्चा करते समय एक तथ्य को यथासम्भव दूर रखने का प्रयास विभिन्न टीवी चैनलों ने किया और वह यह कि विस्फोटों का निशाना एक बार फिर हनुमान मन्दिर को बनाया गया और विस्फोट के लिये दिन भी एक बार फिर मंगलवार का चुना गया। इससे पूर्व 2006 मार्च में जब वाराणसी के प्रसिद्ध हनुमान मन्दिर संकटमोचन मन्दिर को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था तो भी मंगलवार के दिन को चुना गया था। आखिर साम्य का कारण क्या है और इस तथ्य से बचने का प्रयास क्योंकर हो रहा है। मंगलवार के दिन अधिकाँश हिन्दू हनुमान जी को प्रसाद चढाने और उनका प्रसाद लेने मन्दिर में जाते हैं। इस दिन को निशाना बनाकर आतंकवादी कुछ संकेत देना चाहते हैं परंतु हम उस संकेत को समझने के स्थान पर उससे बचने का प्रयास कर रहे हैं।


इसी प्रकार जयपुर में हुए विस्फोट के बाद सरकार और विपक्ष की ओर से आने वाली प्रतिक्रिया भी अपेक्षित ढंग से ही रही है। एक ओर केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री ने शांति बनाये रखने की अपील करते हुए घटना की निन्दा की है तो विपक्षी दल भाजपा ने वर्तमान केन्द्र सरकार की आतंकवाद के प्रति नरम नीति को इस विस्फोट का उत्तरदायी ठहराया है। कुछ हद तक यह बात ठीक है पर समस्या का मूल इससे भी कहीं अधिक व्यापक है जिसके सम्बन्द्ध में चर्चा करने का साहस भाजपा में भी नहीं है।

भारत का इस्लामी आतंकवाद नामक चीज से पहली बार पाला 1989 में पडा था जब जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद ने कश्मीर को भारत से स्वतंत्र कराने के अभियान से व्यापक वैश्विक जिहाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया था और वहीं से जिहाद के नाम पर इस्लामी आतंकवाद का आधारभूत संगठन अस्तित्व में आने लगा। 1989 में जब इस्लामी आतंकवाद अपना विस्तार कर रहा था और जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान में रूस के विरुद्ध लडने वाले लडाके भारत में कश्मीर को भी इस्लामी राज्य बनाने के संकल्प के साथ कश्मीर में जिहाद आरम्भ कर रहे थे तो भारत में इस समस्या को पूरी तरह दूसरे सन्दर्भ में देखा जा रहा था। इस समस्या को कश्मीर की जनता की बेरोजगारी और कुछ नवयुवकों के भटकाव से जोडकर देखा जा रहा था। अपनी पीठों पर एके 47 लादे अल्लाहो अकबर का नारा लगाने वाले नवयुवक भारत के राजनेताओं को बेरोजगारी और भटकाव का परिणाम दिखाई दे रहे थे। ऐसा नहीं है कि उस समय स्थिति को समझा नहीं जा रहा था परंतु समस्या के वास्तविक स्वरूप से जनता को अनभिज्ञ रखा जा रहा था।

1989 के ये बेरोजगार और भटके हुए नवयुवक कब कश्मीर की सीमाओं से बाहर आ गये और शापिंग काम्प्लेक्स और हिन्दुओं के मन्दिरों को निशाना बनाने लगे पता भी नहीं चला। 1990 के दशक में ऐसा क्या परिवर्तन आ गया कि जिस विषय को हमारे राजनेता और बुद्धिजीवी केवल कश्मीर की सीमाओं तक सीमित मान रहे थे वह कश्मीर की सीमाओं तक सीमित न रह सका और यह जिहाद एक वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर भारत में हिन्दुओं को निशाना बनाने लगा।

इसके कारण में यदि हम जायें तो हमें कुछ कारण दिखाई पडते हैं। फरवरी 1998 को ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में इण्टरनेशनल इस्लामिक फ्रण्ट की ओर से पहली बार यहूदियों और ईसाइयों के विरुद्ध जिहाद का आह्वान विश्व भर के मुसलमानों से किया गया था। जिहाद के इस आह्वान के बाद विश्व में अल कायदा द्वारा स्वयं और उसके फ्रण्ट में सम्मिलित विभिन्न इस्लामी आतंकवादी संगठनों की ओर से पश्चिमी देशों और यहूदियों को निशाना बनाया जाने लगा। 1998 में जिहाद के इस वैश्विक आह्वान के बाद भारत स्थित इस्लामी अतिवादी संगठनों में इसे लेकर उहापोह की स्थिति रही और लगभग तीन वर्षों तक अर्थात 11 सितम्बर 2001 तक भारत स्थित आतंकवादी संगठन कश्मीर केन्द्रित होने के कारण अमेरिका और ब्रिटेन के विरुद्ध खडे अल कायदा का साथ देना नहीं चाह्ते थे। 11 सितम्बर 2001 के बाद विश्व स्तर पर जिहाद की परिभाषा पूरी तरह बदल गयी और विश्व में स्थानीय आधार पर विभिन्न देशों में अलग इस्लामी राज्य के लिये उग्रवाद के रास्ते पर चल रहे इन संगठनों ने विश्व स्तर पर खिलाफत और शरियत व कुरान आधारित विश्व की संस्थापना का उद्देश्य अपना लिया नये। परिवेश में अल कायदा उन सभी संगठनों को एक छतरी के नीचे लाने में सफल रहा जो विभिन्न देशों में अलग इस्लामी राज्य के लिये संघर्ष कर रहे थे फिर वह फिलीपींस, दक्षिणी थाईलैण्ड, कश्मीर, चेचन्या या विश्व के अन्य भाग हों। इन सभी अलगाववादी उग्रवादी आन्दोलनों ने स्थानीय स्तर पर अलग इस्लामी राज्य की स्थापना के स्थान पर विश्व स्तर पर एक ऐसी व्यवस्था निर्माण को अपना लक्ष्य बना लिया जो कुरान और शरियत पर आधारित हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये जिहाद को भी व्यापक रूप दिया गया और एक उद्देश्य से कार्य करने वाले विभिन्न संगठन विभिन्न देशों में सक्रिय हो गये।


पिछ्ले 50 से अधिक वर्षों से इस्लामी आतंकवाद की त्रासदी झेल रहे मध्य पूर्व से इस समस्या का गुरुत्व केन्द्र दक्षिण एशिया की ओर आ गया। यदि 2001 के बाद दक्षिण एशिया की ओर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस उप महाद्वीप में इस्लामी आतंकवाद की दशा और दिशा दोनों में व्यापक परिवर्तन आया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में इस्लामी आतंकवादी संगठन सशक्त हुए हैं और इन सभी देशों में कार्यरत इस्लामी संगठन कहीं अधिक कट्टरता से शरियत आधारित विश्व व्यवस्था के निर्माण के लक्ष्य की ओर उद्यत हैं। भारत में सिमी, पाकिस्तान में लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद तथा बांग्लादेश में हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी ऐसे संगठन हैं जो स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि इनका उद्देश्य कुरान और शरियत आधारित विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है। ये संगठन अपने देशों की व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं और प्रशासन के लिये सिरदर्द बन चुके हैं।

आज जिहादवाद एक खतरनाक स्थिति में पहुँच गया है जहाँ विश्व के अनेक कट्टर इस्लामी आतंकवादी संगठन केन्द्रीय रूप से न सही तो भी वैचारिक आधार पर अल कायदा से अवश्य जुड गये हैं और ये सभी संगठन अपनी स्थानीय इकाइयों के सहारे आतंकवाद की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। वास्तव में मूल समस्या यही है कि जिसे कानून व्यवस्था की समस्या माना जा रहा है वह सभ्यता और बर्बरता का संघर्ष है। ये बर्बर शक्तियाँ यदि पूरी तरह इस्लामी शक्तियाँ नहीं हैं तो भी इस्लाम धर्म से प्रेरणा ग्रहण कर रही हैं और इस्लामी धर्मगुरु और बुद्धिजीवी इस सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि वे इस इस्लामवादी आन्दोलन के साथ है या नहीं जो विश्व व्यवस्था बदलने के लिये हिंसा का सहारा ले रहा है।

वैसे तो पिछ्ले कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध इस्लामी मदरसा दारूल-उलूम-देवबन्द ने एक बडा सम्मेलन आयोजित कर इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद से इस्लाम को असम्पृक्त करने का प्रयास किया परंतु उस सम्मेलन में कुछ प्रश्नों को अनछुआ ही रहने दिया कि कुरान और शरियत के आधार पर विश्व व्यवस्था के निर्माण को लेकर उन लोगों का दृष्टिकोण क्या है? भारत में सक्रिय उन इस्लामी आतंकवादी संगठनों को लेकर उनका दृष्टिकोण क्या है जिनका उद्देश्य कुरान और शरियत आधारित विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है और इसके लिये वे हिंसा का सहारा ले रहे हैं और ऐसे संगठन में सर्वप्रथम नाम सिमी का आता है। इसके साथ ही ऐसे सम्मेलनों की नीयत पर बडा सवाल तब खडा हुआ जब इस सम्म्मेलन में सुरक्षा एजेंसियों और सरकार को निशाना बनाते हुए कहा गया कि आतंकवाद के नाम पर मदरसों और बेगुनाह मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे प्रस्तावों से स्पष्ट है कि पहले से ही मुस्लिम तुष्टीकरण में लिप्त सरकारों और राजनीतिक दलों के ऊपर इस बात के लिये मनोवैज्ञानिक दबाव डालना कि वे समस्या के पीछे के मूल तत्वों पर विचार न करें और प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों पर दबाव डालें कि वे आतंकवाद को देश में सहयोग देने वाले तत्वों को खुली छूट दें। निश्चित रूप से इस्लामी धर्मगुरुओं और बुद्धिजीवियों की यह रणनीति सफल रही है और मार्च माह में सिमी के अनेक बडे आतंकवादियों की गिरफ्तारी और मध्यप्रदेश के एक गाँव में सिमी के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर होने के खुलासे के बाद कुछ ही महीनों में जयपुर में हुआ विस्फोट प्रमाणित करता है कि देश में सुरक्षा एजेंसियों पर दबाव है और इसी का परिणाम है कि इस विस्फोट का कोई सुराग खुफिया एजेंसियों के पास भी नहीं था।

जयपुर में विस्फोट होने के बाद केन्द्र और राज्य सरकारें खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों को दोष दे रही हैं इससे स्पष्ट है कि साँप गुजरने के बाद लाठी पीटने का खिसियाहट भरा खेल खेला जा रहा है। जब खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव बना कर उनका मनोबल कमजोर किया जा रहा है तो क्या अपेक्षा की जानी चाहिये कि ऐसी घटनाओं पर वे रोक लगा सकेंगे। 2001 में देश में सिमी पर प्रतिबन्ध लगाया गया था और उसके बाद इस संगठन का विस्तार देश के अनेक राज्यों में हुआ है। यह तथ्य इस बात तो पुष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि यह प्रतिबन्ध बिलकुल अप्रभावी है। प्रतिबन्ध के बाद भी इस संगठन का फलना फूलना और पिछ्ले दो वर्षों मे प्रायः सभी बडी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना इस बात को प्रमाणित करता है कि सरकारें इस्लामी आतंकवाद के इस्लामी स्वरूप के कारण इससे निपटने में हिचक रही हैं और इस समस्या के मूल में स्थित विचारधारा के बारे में देश में कोई बहस न होने से इस्लामी धर्मगुरु और बुद्धिजीवी लोगों का ध्यान हटाने में सफल हो रहे हैं जिसका सीधा लाभ ये इस्लामी संगठन अपने संगठन और प्रसार के लिये उठा रहे हैं।


पिछ्ले सात- आठ वर्षों में इस्लामी आतंकवादियों ने एक से एक दुस्साहसिक घटनाओं को अंजाम दिया है परंतु उसका प्रतिरोध या उनकी पुनरावृत्ति रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। 1999-2000 में इस्लामी आतंकवादियों ने कुछ खूँखार आतंकवादियों को छुडाने के उद्देश्य से भारत के एक विमान का अपहरण किया और भारत सरकार को इन आतंकवादियों के आगे झुकने को विवश होना पडा। आज इस घटना के आठ वर्षों बाद भी सरकार ने कुछ नहीं सीखा है और 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण के लिये मृत्युदण्ड प्राप्त आतंकवादी मोहम्मद अफजल को क्षमादान के प्रयासों के तहत जेल में सुरक्षित रखा है। सरकार के ऐसे निर्णय न केवल आतंकवादियों के मनोबल को बढाते हैं वरन उनके समक्ष भारत को एक आतंकवाद समर्थक राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करते है जो अपनी गलतियों से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं करता।

भारत में अनेक प्रमुख पत्रकार और बुध्दिजीवी इस बात के लिये भारत की प्रशंसा करते नहीं थकते कि इस देश में आतंकवाद की समस्या को पश्चिम से भिन्न स्वरूप में लिया गया है और उसके प्रति दृष्टिकोण भी पश्चिम से भिन्न है। उनका संकेत इस बात की ओर रहता है कि जहाँ पश्चिम में आतंकवाद के बाद इस्लाम धर्म और मुसलमानों के प्रति एक विशेष प्रकार का भाव व्याप्त हुआ है उससे भारत बिलकुल मुक्त है। यह स्थिति कुछ मात्रा में प्रशंसनीय हो सकती है परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पश्चिम की सरकार और वहाँ के समाज ने जिस प्रकार इस समस्या को गम्भीरता से लिया है और उस पर चिंतन आरम्भ किया है उसी का परिणाम है कि अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, एक-एक बडे आक्रमण का सामना करने के उपरांत अनेक वर्षों से किसी भी आक्रमण को रोकने में सफल रहे हैं। इसके विपरीत भारत में औसतन प्रत्येक तीसरे चौथे माह बडा आतंकवादी आक्रमण होता है जिसमें 20 से 25 लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। आज हमें इस बारे में गम्भीरता से विचार करना होगा कि पश्चिम का इस सम्बन्ध में आत्मरक्षा की सतर्कता अच्छी है या हमारी आक्रमण सहन करने की उदारता। अब वह समय आ गया है कि इस्लामी आतंकवाद के मूल में छिपी विचारधारा, इसके सहयोगियों और इसका पोषण करने वालों के सम्बन्ध में हम खुलकर विचार करें। वास्तव में यह एक युद्ध की घोषणा है और अब हमें अपने शत्रुओं को पहचान लेना चाहिये।
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कांग्रेस का देशभक्त चेहरा

कांग्रेस के सहयोगी और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा संसद पर हमले के षड्यंत्र के दोषी एसआर गिलानी का भारत विरोधी रवैया क्या रेखांकित करता है? विडंबना यह है कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बावजूद तथाकथित सेकुलर खेमा और देशभक्त काग्रेस ऐसी अलगाववादी मानसिकता का समर्थन करता है। क्यों? पिछले दिनों जम्मू के रियासी जिले के महोर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जम्मू-कश्मीर में भारतीय और पाकिस्तानी मुद्राओं का चलन मान्य कर देने की सिफारिश की। इससे पूर्व पिछले साल जम्मू-कश्मीर सरकार के वित्तमंत्री तारीक हमीद कर्रा (पीडीपी नेता) ने प्रदेश के लिए अलग मुद्रा बनाने की बात उठाई थी। सईद का तर्क है कि जिस तरह यूरोपीय संघ के देशों में व्यापार आदि के लिए एक ही मुद्रा का चलन है उसी तरह घाटी में भी पाकिस्तानी मुद्रा का चलन हो ताकि दोनों देशों के बीच व्यापार के साथ आपसी रिश्ते भी बढ़ें। मुफ्ती मोहम्मद सईद के कुतर्को को आगे बढ़ाते हुए पीडीपी के महासचिव निजामुद्दीन भट्ट ने कहा है कि कश्मीर के स्थाई निदान के लिए पीडीपी का जो स्व-शासन का फार्मूला है, दो मुद्राओं के चलन की बात उसी फार्मूले का आर्थिक पहलू है।

यूरोपीय संघ का उदाहरण देते हुए सईद यह भूल गए कि संघ के सभी सदस्य देशों में एक-दूसरे की मुद्रा आपसी रजामंदी से चलती है और यह व्यवस्था किसी एक राज्य या देश के लिए नहीं है। कश्मीर में पाकिस्तानी मुद्रा का चलना जम्मू-कश्मीर पर भारत के दावे को कमजोर करेगा। मुफ्ती का पाकिस्तान प्रेम छिपा नहीं है। कुछ समय पूर्व उनकी पुत्री और पीडीपी अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण प्राप्त युवाओं को भारत आने की छूट देने की मांग की थी। स्वयं मुफ्ती मोहम्मद सईद समय-समय पर घाटी से भारतीय फौज हटाने की मांग भी करते रहे हैं-अर्थात घाटी में आतंकवादियों का स्वागत और सेना का विरोध। कभी सेना हटाने तो कभी सीमाओं को खोल देने की वकालत करने वाले सईद पिछले साठ सालों से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भारत में मिलाने की मांग क्यों नहीं करते? पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकवादी शिविरों को बंद करने की बात क्यों नहीं उठाते? क्या पीडीपी कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानती? क्या दो मुद्राओं के चलन की बात 'दो प्रधान, दो विधान, दो निशान' की अलगाववादी मानसिकता का अंग नहीं है?

यदि मुफ्ती मोहम्मद सईद अपने बयान को अलगाववादी मानसिकता का पोषक नहीं मानते तो उनकी भारतीयता संदिग्ध है। देश का एक बड़ा जनमानस मुफ्ती मोहम्मद सईद को कश्मीरी आतंकवाद का जन्मदाता मानता है। केंद्रीय गृहमंत्री रहते हुए मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री रूबिया का अपहरण और रिहाई के बदले बर्बर आतंकवादियों को छोड़ा जाना इस आशंका के पुख्ता आधार है। संसद पर हमले के आरोप में जब गिलानी को गिरफ्तार किया गया था तब सेकुलर बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उनके समर्थन में आ खड़ा हुआ था। जांच एजेंसियों और न्यायपालिका पर कीचड़ उछाला गया और गिलानी की राष्ट्रभक्ति के कसीदे काढ़े गए, किंतु पिछले दिनों बरेली की एक संस्था 'पैगामे अमन' द्वारा आयोजित एक सेमिनार में गिलानी ने जो कहा उससे प्रत्येक राष्ट्रभक्त मुसलमान को भी पीड़ा हुई होगी और इसलिए आयोजकों को गिलानी के विचारों से अंतत: असहमति व्यक्त करनी पड़ी। गिलानी ने कहा था, ''मैं भारतीय नहीं हूं। न ही भारत से मेरा कोई ताल्लुक है। मैं कश्मीरी हूं और कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। कश्मीर में जो लोग लड़ रहे है वे आतंकवादी नहीं है। कश्मीर के लोगों की नजर में वे जननायक है।''
गिलानी ने आतंकवादियों की तुलना भगत सिंह से कर डाली। आगे उन्होंने भारत की न्याय व्यवस्था को कोसते हुए आरोप लगाया कि अफजल गुरू के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं होने के बावजूद न्यायपालिका केवल जनभावनाओं को ध्यान में रखकर उसे फांसी पर लटकाना चाहती है। उच्चतम न्यायालय ने जब संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का आदेश दिया था तो तमाम 'सेकुलरवादी दलों' का राष्ट्रविरोधी चेहरा भी सामने आ गया था। जम्मू-कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद सहित पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती उसके बचाव में आ खड़ी हुई थीं। यहा तक कह दिया कि अफजल को फांसी देने पर इस देश में दंगा भरक सकता है। कांग्रेसी आजाद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर फांसी की सजा नहीं दिए जाने की अपील की थी। अलगाववादी संगठनों के नेतृत्व में घाटी में व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया। इन सबका ही परिणाम है कि आज भी अफजल सरकारी मेहमान बना हुआ है और सेकुलर संप्रग सरकार फांसी की सजा माफ करने की जुगत में लगी है।

संसद पर हमला करने आए आतंकवादियों की कार में लगे गृह मंत्रालय के जाली स्टीकर पर यह वाक्यांश लिखा मिला थे-''भारत बहुत बुरा देश है और हम भारत से घृणा करते है। हम भारत को नष्ट करना चाहते है और अल्लाह के फजल से हम ऐसा करेगे। अल्लाह हमारे साथ है और हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेगे।'' गिलानी के ताजा बयान के बाद भी यदि सेकुलर खेमा गिलानी और अफजल जैसे देशद्रोहियों की वकालत करता है तो उनकी राष्ट्र निष्ठा पर संदेह स्वाभाविक है। गिलानी दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी और फारसी पढ़ाता है। उसके नियुक्ति पत्रों की जांच होनी चाहिए और यदि उसने अपनी नागरिकता भारतीय बताई है तो उसे अविलंब बर्खास्त कर देना चाहिए। ऐसे देश द्रोही बतौर अध्यापक नवयुवकों को नफरत और अलगाववाद के सिवा और क्या शिक्षा दे पाएंगे? जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और पीडीपी की गठबंधन वाली सरकार है। विधानसभा चुनाव निकट आते देख पीडीपी का पाकिस्तान प्रेम और अलगाववादी ताकतों को समर्थन देना आश्चर्यजनक नहीं है। अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान की निंदा करने से कतराती कांग्रेस भी वस्तुत: चुनाव को देखते हुए अलगाववादी ताकतों को नाराज नहीं करना चाहती। आखिरकार धारा 370 कांग्रेस की ही तो देन है। पीडीपी का उद्देश्य वस्तुत: 'स्थायी निवासी विधेयक' जैसे कानूनों से धारा 370 की और अधिक किलेबंदी कर जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से हमेशा के लिए अलग कर देना है।

कांग्रेस अपना पक्ष साफ करे और बताये आखिर कांग्रेस इस देश को तोड़ना चाहता क्यों है।
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नपुंसक राष्ट्र हिन्दुस्तान

दुनिया भर की आतंकी गतिविधियों को लेकर अमेरिकी संसद में पेश एक रपट के इस निष्कर्ष पर शायद ही कोई चकित हो कि भारत आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देशों में से एक है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की उक्त रपट के अनुसार पिछले वर्ष भारत में 2300 से अधिक लोग आतंकी वारदातों का शिकार बनें। इराक, अफगानिस्तान सरीखे चंद देशों को छोड़ दें तो भारत शीर्ष पर ही खड़ा दिखाई देगा। एक समय था जब हम अपने को आतंकवाद से पीड़ित देश बताकर विश्व समुदाय की सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश करते थे और उसमें एक हद तक सफल भी रहते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होने वाला। इसलिए नहीं होने वाला, क्योंकि दुनिया इससे अच्छी तरह अवगत हो चुकी है कि भारत अपनी कमजोरियों के कारण आतंकवाद का सामना नहीं कर पा रहा है। इनमें से कुछ कमजोरियों की ओर अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से संकेत भी किया है। उसने खास तौर पर भारत को एक ऐसे देश के रूप में रेखांकित किया है जहां न्याय प्रक्रिया सुस्त है, विधि का शासन स्थापित करने वाली एजेंसियां काम के बोझ से दबी हैं और पुलिस का ढांचा गया-गुजरा है। क्या ये सब वही बातें नहीं जिन पर देश में आए दिन चर्चा होती रहती है? अमेरिकी विदेश विभाग का आकलन दुनिया के सामने हमारी पोल खोलने और हमारे नीति-नियंताओं को शर्मिदा करने वाला है। उक्त रपट में पूर्वोत्तर के उग्रवाद और बेकाबू होते जा रहे नक्सलवाद का भी विस्तार से जिक्र है। भारत अब ऐसी स्थिति में नहीं कि आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद आदि के लिए विदेशी ताकतों की ओर संकेत करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले। ऐसा करना तथ्यात्मक रूप से सही भी नहीं होगा, क्योंकि देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता को चुनौती दे रहे अनेक हथियारबंद संगठनों का उभार हमारी अपनी नीतियों का दुष्परिणाम है।

यह किसी से छिपा नहीं कि केंद्र और राज्य सरकारों को यह समझ नहीं आ रहा कि वे नक्सली संगठनों पर अंकुश कैसे लगाएं? उन्हे यह भी नहीं सूझ रहा कि नक्सलियों से बातचीत की जाए या फिर उनके साथ सख्ती से पेश आया जाए? कुछ ऐसी ही स्थिति पूर्वोत्तर में सक्रिय उग्रवादी एवं अलगाववादी संगठनों के संदर्भ में भी है। भले ही पाकिस्तान के अंदरूनी हालात के चलते सीमा पार से आतंकियों की घुसपैठ कम हुई हो, लेकिन उसमें कभी भी तेजी आ सकती है। वैसे इसमें संदेह नहीं कि बांग्लादेश और नेपाल के रास्ते आतंकियों का भारत में प्रवेश लगभग बेरोक-टोक जारी है। पहले भारत केवल पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों से त्रस्त था अब वह बांग्लादेश आधारित संगठनों से भी परेशान है। भारत सरकार आतंकवाद से अपने बलबूते लड़ने और उसे परास्त करने की बातें तो खूब करती है, लेकिन आवश्यक रणनीति बनाने से बच रही है। इसके दुष्परिणाम सामने है। आतंकी तत्वों और उनके समर्थकों का दुस्साहस लगातार बढ़ रहा है। इसी के साथ दुनिया में भारत की गिनती एक नरम एवं ढुलमुल राष्ट्र के रूप में होने लगी है।
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सरबजीत एक मोहरा तो नहीं

पाकिस्तान की जेल में पिछ्ले 18 वर्षों से बन्द भारतीय मूल के व्यक्ति सरबजीत को जब पहली बार पाकिस्तान सरकार की ओर से फांसी देने की बात की गयी तभी ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह किसी गहरी साजिश का आरम्भ है। फिर जिस प्रकार से सरबजीत की फांसी टाली जाती रही और पाकिस्तान के एक पूर्व मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी ने मानवता के नाम पर इस विषय में रूचि दिखाई उससे यह विषय अधिक उलझता ही प्रतीत हुआ।


सरबजीत के परिवार को जिस प्रकार पाकिस्तान की सरकार ने पहले वीजा देने में आनाकानी की और फिर कुछ देर के लिये सरबजीत को मिलने की अनुमति दी वह भी इस विषय को चर्चा में लाने में काफी सफल रहा। पहली बार जब सरबजीत को फांसी की तिथि निर्धारित हो गयी तो कुछ हल्कों में खुसफुसाहट होने लगी कि इस मामले में पाकिस्तान सरकार मोलतोल के विचार में है और भारत सरकार की ओर से सफाई आई कि सरबजीत के बदले में किसी पाकिस्तानी कैदी को नहीं छोडा जायेगा। ऐसा ही बयान सरबजीत की पुत्री की ओर से भी आया और उसने स्पष्ट कहा कि वह कभी नहीं चाहेगी कि उसके पिता के बदले किसी आतंकवादी को छोडा जाये।

आज उन परिस्थितियों में कुछ अंतर आ गया है। पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की फांसी पर अगला निर्णय आने तक रोक लगा दी है। अब ऐसी आशा की जा रही है कि सरबजीत को संभवतः पाकिस्तान सरकार रिहा कर देगी। यह सम्भावना काफी हर्ष की बात है परंतु जिस प्रकार पाकिस्तान से वापस आने के बाद सरबजीत की बहन दलजीत कौर ने कहा है कि भारत सरकार को पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध मजबूत बनाने की दिशा में कदम उठाते हुए संसद पर आक्रमण के दोषी मोहम्मद अफजल को भी रिहा कर देना चाहिये। सरबजीत की बहन ने पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठन के किसी व्यक्ति को भी उद्धृत किया है कि “ जो दूसरों को झुकाना चाहते हैं उन्हें स्वयं भी झुकना पडता है”। संकेत स्पष्ट है कि भारत सरकार से अपेक्षा की जा रही है कि वह मोहम्मद अफजल को रिहा कर दे।


पाकिस्तान की ओर से जिस प्रकार बिना किसी भूमिका के सरबजीत को पहले फांसी घोषित करना और फिर पाकिस्तान के ही एक पूर्व मंत्री का इस मामले में हस्तक्षेप करना और उनके हस्तक्षेप से सरबजीत की फांसी को टालते जाना किसी मैच फिक्सिंग की तरह लग रहा था।


वास्तव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा जिन परिस्थितियों में सरबजीत को फांसी देने का निर्णय किया गया था उस समय पर ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह समय वह था जब पाकिस्तान में मुशर्रफ़ विरोधी दल चुनाव जीत चुके थे और मुशर्रफ़ के सामने अपने अस्तित्व का संकट था। जनसम्पर्क और मीडिया में चर्चा में रहकर अपने विरोधियों को चित करने की कुशलता मुशर्रफ़ से अधिक किसी में नहीं है। हाशिये पर जा रहे मुशर्रफ ने एक दाँव फिर खेला और पाकिस्तान में अपने ऊपर अमेरिका परस्त होने और मुजाहिदीनों के प्रति कडा रूख अपनाने के आरोपों को हटाने के लिये मुशर्रफ़ ने सरबजीत को अपना मोहरा बनाया है।

यह बात और स्पष्ट रूप से समझने के लिये हमें पाकिस्तान में अमेरिका के समर्थन से चल रही आतंकवाद के विरुद्ध लडाई को भी निकट से देखना होगा। वास्तव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अपने देश में पश्चिमोत्तर प्रांत और वजीरिस्तान में स्थानीय कबायलियों द्वारा सेना के विरुद्ध चल रही लडाई को जीतने के नाम पर फूट डालो और राज करो की नीति पर काम किया है और आतंकवादियों को नस्ल के आधार पर बांट दिया है। आज पाकिस्तान की सेना वजीरिस्तान और पश्चिमोत्तर प्रांत में पश्तून आतंकवादियों से दोस्ती कर रही है और उसके निशाने पर केवल अरब नस्ल के अल कायदा के लडाके हैं। यही कारण है कि 2007 में पाकिस्तान सरकार ने वजीरिस्तान में कबायलियों से समझौता कर लिया था कि सरकार न तो उन पर खुफिया आधार पर नजर रखेगी और न ही सेना उन पर कोई कार्रवाई करेगी लेकिन इसके बदले में ये लडाके सेना पर आक्रमण नहीं करेंगे। ऐसा समझौता करने के पीछे पाकिस्तान की सोच यह थी कि सेना के पश्तून सैनिक कभी भी पश्तून विद्रोहियों को नहीं मारेंगे और यदि पंजाबी सैनिकों को इस मोर्चे पर लगाया जाता है तो सेना में पंजाबी और पश्तूनी लाबी में तनाव और टकराव बढ सकता था। इसी कारण पाकिस्तान ने रणनीति अपनाई कि अरब नस्ल के आतंकवादियों को निशाना बनाया जाये जिससे अमेरिका भी प्रसन्न रहे और देश में रह रहे विद्रोहियों से सेना को युद्ध न करना पडे।


इसी नीति के सन्दर्भ में यदि मुशर्रफ की उस शतरंज की चाल को समझने का प्रयास किया जाये जिसमें सरबजीत को एक मोहरा बनाया गया है तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। आज यदि पाकिस्तान सरबजीत के बदले जैशे मोहम्मद के आतंकवादी मोहम्मद अफजल को छुडाने में सफल हो जाता है तो इसका श्रेय पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को जायेगा और देश के कट्टरपंथियों के बीच वे अपनी छवि सुधार सकेंगे। परवेज मुशर्रफ राजनीति के एक मंजे हुए खिलाडी हैं और उन्हें पता है कि दो ध्रुवों पर टिकी यह सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल सकेगी और ऐसे में उनका दाँव मुल्ला मिलिट्री गठबन्धन पर ही निर्भर करेगा। इस दाँव के सफल होने के लिये जरूरी है कि वे सेना को खुश रखें और सेना की खुशी इसी में है कि पाकिस्तान में भारत विरोधी जिहादी गुट सशक्त और सक्रिय रहें। जिस प्रकार पाकिस्तान ने 2000 में कन्धार विमान के अपहरण में सक्रिय भूमिका निभाकर मसूद अजहर को छुड्वाया था जिसने बाद में जैशे मोहम्मद की स्थापना की और उसी संगठन ने 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण किया और उसी आक्रमण में दोषी सिद्ध किये गये आतंकवादी को पाकिस्तान एक बार फिर पिछ्ले दरवाजे से रिहा कराना चाहता है।


सरबजीत की बहन द्वारा मोहम्मद अफजल की रिहाई के लिये भारत सरकार से की जा रही सिफारिश से स्पष्ट है कि पाकिस्तान में अधिकारियों ने दलजीत कौर को ऐसे किसी फार्मूले के बारे में कोई संकेत अवश्य दिया है। अब देखना यह है कि भारत सरकार इसे किस रूप में लेती है। वैसे भारत सरकार मोहम्मद अफजल की फांसी को ठण्डॆ बस्ते में डालकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर चुकी है।


पाकिस्तान के इस नये दाँव से एक प्रश्न यह भी उठता है कि पाकिस्तान में नयी सरकार आने के बाद क्या भारत विरोधी आतंकवाद में कमी आयेगी। ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता। जिस प्रकार इसी लेख में ऊपर कहा गया है कि पाकिस्तान अब आतंकवादियों को नस्ल और देशी विदेशी आधार पर देख रहा है। इस कारण नयी सरकार ने अपने देश के आतंकवादियों या पश्चिमोत्तर और वजीरिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों से बातचीत करने का निर्णय लिया है। इसका सीधा परिणाम आतंकवादी संगठनों को पुनः शक्तिशाली होने के रूप में सामने आयेगा। 2007 में कबायली क्षेत्रों में आतंकवादियों से पाकिस्तान सरकार के किये गये समझौते का परिणाम यह हुआ कि यहाँ अल कायदा के शीर्ष नेतृत्व को शरण दी गयी जिसने अपने संगठन को नये सिरे से संगठित कर लिया है और नयी पीढी का नेतृत्व भी तैयार कर लिया है जिसके सहारे आने वाले वर्षों में वह पूरी दुनिया में तबाही मचाने में सक्षम हैं।


पाकिस्तान भले ही आतंकवादियों को नस्ल या भौगोलिक सीमाओं में बाँधकर अपना पराया बताये परंतु उनका उद्देश्य सामान्य है और वह है कुरान और शरियत आधारित विश्व व्यवस्था की स्थापना। भारत के लिये ये संकेत किसी भी प्रकार शुभ नहीं है और जो लोग पाकिस्तान में नयी सरकार की स्थापना पर नये लोकतांत्रिक पाकिस्तान के निर्माण का स्वप्न देख रहे हैं उन्हें कल्पना लोक से वापस आकर वास्तविक लोक में जीना चाहिये जहाँ पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद अब भी भारत के लिये सबसे बडी चुनौती है।
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आतंकवाद से कब लडेगा भारत

अमेरिका के राज्य विभाग की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार भारत उन देशों में है जो आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत में जम्मू कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलवादियों द्वारा किये गये आतंकवादी आक्रमणों में वर्ष 2007 में कुल 2,300 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडा है।
राज्य विभाग ने आतंकवाद से सम्बन्धित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर आतंकवादी घटनाओं में कमी आयी है परंतु पकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन जैसे लश्कर-ए-तोएबा सहित अनेक आतंकवादी गुट अभी भी घाटी में आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तोएबा तथा अन्य कश्मीर केन्द्रित आतंकवादी संगठन क्षेत्रीय आक्रमण की योजना बना रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में कश्मीर केन्द्रित आतंकवादी गुटों ने अफगानिस्तान में आक्रमणों को सहायता देनी जारी रखी और इन गुटों द्वारा प्रशिक्षित सदस्य अल-कायदा के अंतरराष्ट्रीय आक्रमणों की योजना में भी दिखते रहे।


रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरकार के आतंकवाद प्रतिरोध प्रयास कालातीत कानून व्यवस्था और बहुतायत में मामलों के न निपटने से न्यायपालिका पर बोझ के चलते प्रभावित हो रहे हैं।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में न्यायालय की व्यवस्था काफी धीमी और जटिल है और इसमें भ्रष्टाचार की सम्भावनायें हैं।भारत में बहुत से पुलिस दल का स्टाफ दयनीय है, उनमें प्रशिक्षण का अभाव है और उन्हें आतंकवाद से लड्ने के लिये पर्याप्त शस्त्र भी उपलब्ध नहीं कराये गये हैं।


पिछ्ले वर्ष फरवरी में समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फ़ोट की चर्चा करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है यह अतिवादियों द्वारा हिन्दू और मुसलमान दोनों मे आक्रोश भरने के लिये किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार ऐसे आक्रमण जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मारे जाते हैं उसका उद्देश्य अतिवादियों द्वारा हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के मध्य आक्रोश पैदा करना होता है।


रिपोर्ट के अनुसार भारत के अधिकारियों का दावा है कि इन आक्रमणों का सम्बन्ध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तोएबा, जैशे मोहम्मद और हरकत उल जिहाद इस्लामी से है। रिपोर्ट के अनुसार इन गुटों का सम्बन्ध जम्मू कश्मीर में होने वाली आतंकवादी घटनाओं से भी है। आतंकवादी घटनाओं में मारे गये नागरिकों की संख्या पिछ्ले वर्ष के मुकाबले लगभग आधा है।रिपोर्ट के अनुसार मई में भारत सरकार ने माना कि नियंत्रण रेखा के उस पार से घुसपैठ में कमी आयी है परंतु रिपोर्ट ने यह भी कहा है कि कुछ मामलों में आतंकवादियों ने घुसपैठ का अपना मार्ग बदल दिया है और वे बांग्लादेश और नेपाल के रास्ते भारत में प्रवेश कर रहे हैं।

रिपोर्ट में भारत और पाकिस्तान के मध्य आतंकवाद विरोधी प्रणाली पर सहमति की बात भी की गयी है जहाँ दोनों देश एक दूसरे के मध्य समन्वय स्थापित कर आतंकवाद के सम्बन्ध में परस्पर सूचनाओं का आदान-प्रदान करेंगे।

रिपोर्ट में भारत सरकार के रक्षा मंत्री के सार्वजनिक बयान की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पाकिस्तान के नेताओं ने कश्मीरी आतंकवाद को सहयोग में कमी की है और इसके परिणामस्वरूप 2006 के मुकाबले 2007 में कश्मीर में हिंसक घटनाओं में 50 प्रतिशत की कमी आयी है।
रिपोर्ट में भारत और अमेरिका के आतंकवाद के सम्बन्ध में संयुक्त कार्य बल की भी चर्चा की गयी है जो 2000 में स्थापित हुआ था और अब तक नौ बार बैठ चुका है।


भारत ने इस संयुक्त कार्यबल में 15 अन्य देशों के साथ भाग लिया है और बहुपक्षीय कार्यबल में यूरोपीय संघ के साथ शामिल है। यह संगठन भारत , बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैण्ड, भूटान और नेपाल के मध्य आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहन देता है। रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख भी किया गया है कि भारत सरकार ने पाकिस्तान के साथ अक्टूबर में आतंकवाद प्रतिरोध के सम्बन्ध में संयुक्त प्रणाली के अंतर्गत द्विपक्षीय बात की और आतंकवाद प्रतिरोध के सम्बन्ध में मंत्री स्तर की बैठक भी आयोजित की।
अमेरिका के राज्य विभाग की आतंकवाद सम्बन्धी इस रिपोर्ट के अपने मायने हैं और इससे अनेक बातों की पुष्टि भी होती है। ऐसे अनेक तथ्य जो इस रिपोर्ट में दिये गये हैं उन तर्कों को प्रमाणित करते है जो तर्क समय समय पर आतंकवाद प्रतिरोधी नीति के सम्बन्ध में सरकार को दिये जाते हैं। अमेरिका की राज्य विभाग की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि भारत कि न्याय व्यवस्था नयी परिस्थितियों में उस स्तर की नहीं रह गयी है जहाँ से आतंकवादियों को तत्काल दण्डित किया जा सके या उन्हें जमानत जैसी सुविधायें तत्काल न मिल सकें। इसी के साथ पुलिस बल की ओर की जा रही उपेक्षा भी आतंकवाद प्रतिरोध की दिशा में बडी बाधा हैं। विशेषकर नक्सली आक्रमणों में पुलिस बल में इस दक्षता का अभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है।


परंतु आतंकवाद से लड्ने में केवल यही बाधायें हैं क्या? इसके अतिरिक्त भी अनेक विषय हैं जिनकी चर्चा राज्य विभाग की इस रिपोर्ट में हो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह भारत का आंतरिक मामला है और उस पर बोलने का अधिकार किसी बाहरी संस्था को है भी नहीं। परंतु आपसी तौर पर इस चर्चा से हम मुँह नहीं मोड सकते और वह है भारत सरकार का आतंकवाद को वोट बैंक की राजनीति से जोडकर देखना। इस सम्बन्ध में नवीनतम उदाहरण हमारे समक्ष 13 दिसम्बर 2001 को संसद पर हुए आक्रमण के दोषी अफजल गुरू का है। भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद पर आक्रमण के लिये दोषी पाये जाने पर अफजल गुरू को मृत्युदण्ड दिये जाने के बाद भी यह निर्णय अभी तक क्रियान्वित नहीं किया गया है और यही नहीं तो भारत सरकार की ओर से विषय को टाला जा रहा है। जबकि हमारे सामने 2000 का एक दुखद प्रसंग है जब एक खूँखार आतंकवादी को लम्बे समय तक जेल में रखने के कारण ही भारतीय विमान अपहरण काण्ड हुआ और मसूद अजहर को छोड्ना पडा और वहाँ से आतंकवाद ने नया आयाम ग्रहण किया। भारत सरकार जैश के ही एक और मृत्युदण्ड प्राप्त आतंकवादी अफजल गुरू को राष्ट्रपति द्वारा क्षमायाचना के नाम पर जेल में रखकर आतंकवादियों को न केवल एक और कन्धार करने का आमंत्रण दे रही है वरन आतंकवादियों को सन्देश दे रही है कि वह उनके एक समुदाय विशेष के होने के कारण उनसे पूरी सहानुभूति रखती है।


भारत में आतंकवाद को सदैव वोट बैंक की राजनीति से जोड्कर देखा जाता है और इसी का परिणाम है कि पहले 1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार के मुसलमानों के दबाव में आकर टाडा कानून वापस ले लिया और उसके बाद 2004 में सरकार में आते ही एक बार फिर कांग्रेस ने पोटा कानून वापस ले लिया। आज भारत में एक भी ऐसा कानून नहीं है जो आतंकवाद की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए और आतंकवादियों के विशेष चरित्र को देखते हुए उन्हें तत्काल और प्रभावी प्रकार से दण्डित करने के लिये प्रयोग में आ सके। आज सभी राजनीतिक दलों के नेता केवल भाजपा को छोड्कर इस बात पर सहमत दिखते हैं कि सामान्य आपराधिक कानूनों के सहारे आतंकवाद से निपटा जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि यह एक बहुत बडा झूठ है। हमारे सामने एक नवीनतम उदाहरण है कि किस प्रकार टाडा के विशेष न्यायालय में मुकदमा होते हुए भी मुम्बई बम काण्ड के अपराधियों को सजा मिलने में कुल 15 वर्ष लग गये और सजा मिलने के बाद भी एक के बाद एक अपराधी जमानत पर छूटते जा रहे हैं। आखिर जब हमारी न्याय व्यवस्था जटिल तकनीकी खामियों का शिकार हो गयी है जो आतंकवादियों को बच निकलने का रास्ता देती है तो फिर कडे और ऐसे कानूनों के आवश्यकता और भी तीव्र हो जाती है जो तत्काल जमानत या फिर आतंकवाद के मामले में जमानत के व्यवस्था को ही समाप्त कर दे। यह कोई नयी बात नहीं है। पश्चिम के अनेक देशों ने ऐसे कठोर कानून बना रखे हैं और इसके परिणामस्वरूप वे अपने यहाँ आतंकवादी घटनायें रोकने में सफल भी रहे हैं। परंतु भारत के सम्बन्ध में हम ऐसी अपेक्षा नहीं कर सकते।


इसी प्रकार एक और आतंकवाद भारत में तेजी से पाँव पसार रहा है और वह है नक्सली आतंकवाद। इस विषय को भी भारत में पूरी तरह राजनीतिक ढंग से लिया गया है। केन्द्र सरकार पूरी तरह वामपंथियों के समर्थन पर निर्भर है और कांग्रेस इस गठबन्धन को आगे कई वर्षों तक जारी रखना चाहती है। जैसा कि कुछ दिनों पहले प्रसिद्ध राजनीतिक टीकाकार अमूल्य गांगुली ने टाइम्स आफ इण्डिया में लिखा था कि कांग्रेस 2010- 11 में राहुल गान्धी को प्रधानमंत्री बनाने की योजना पर कार्य कर रही है और इस योजना की पूर्ति के लिये कांग्रेस को वामपंथियों का सहयोग अत्यंत आवश्यक है। इस कारण कांग्रेस वर्तमान व्यवस्था को किसी भी प्रकार छेड्ना नहीं चाह्ती और इसलिये वामपंथी आतंकवाद की ओर से न केवल आंखे मूँदे हुए है वरन उसे राजनीतिक विचारधारा मानकर हरसम्भव उसका सहयोग कर रही है। जैसा उसने नेपाल में किया और माओवादियों के नेतृत्व को नेपाल में आने का अवसर दिया।


नेपाल में माओवादियों की विजय के बाद भारत सरकार के विदेश मंत्री और पश्चिम बंगाल से कांग्रेस के नेता प्रणव मुखर्जी ने इस विजय का स्वागत किया। अब ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी नेपाल में नयी सरकार के निर्माण को सुनिश्चित करने के लिये मध्यस्था की भूमिका एक बार फिर निभा रहे हैं। जिस प्रकास नेपाल के मामले में वामपंथी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं और कांग्रेस हरसम्भव उनका सहयोग कर रही है उससे साफ है कि अब अगले कदम के रूप में भारत के नक्सलियों और माओवादियों को मुख्यधारा में लाने के रूप में ऐसे कदम उठाये जायेंगे जो नक्सलियों या माओवादियों को अपनी शक्ति और प्रभाव बढाने में सहायक होंगे। निश्चय ही आने वाले समय में ऐसी कोई सम्भावना नहीं दिखती कि भारत सरकार आतंकवाद का प्रतिरोध करने के लिये तत्पर होगी। ऐसा सम्भव भी कैसे है जब सरकार का अस्तित्व उन तत्वों पर निर्भर है जो स्वयं आतंकवाद को प्रोत्साहन देते हैं।
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राष्ट्रद्रोही नेता कांग्रेस चुप क्यों है

पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद के हाल ही में दिए गए एक बयान को लेकर इन दिनों पूरे देश में माहौल गरमाया हुआ है। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर में जनसभाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार को चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए रियासत में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की करंसी को मान्य बनाए। जाहिर है, ऐसे अलगाववादी बयान से तूफान खड़ा होना ही था और वह हो भी गया। राजनीतिक पार्टियों की खेमेबाजी की बात छोड़ दी जाए तो भी पूरे भारत का एक भी राष्ट्रवादी व्यक्ति सईद की इस बात को पचा नहीं पाया है। भले ही इसका कारण कुछ भी हो, पर अलगाववादी भी उनकी बात से सहमत नहीं हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस जरूर अभी तक इस गंभीर मसले पर चुप्पी साधे हुए है। भाजपा और विभिन्न संगठन तो पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में मुफ्ती के पुतले जलाने में जुट गए हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पैंथर्स पार्टी के अलावा कई गैर राजनीतिक संगठनों ने भी इस बयान का पुरजोर विरोध किया है।

वैसे मुफ्ती मोहम्मद सईद का तर्क यह है कि चूंकि एलओसी के दोनों तरफ बसे कश्मीर के बीच जल्द ही व्यापार शुरू होने वाला है, अत: यह आम जनता की सुविधा के लिए जरूरी है। वह यह भी तर्क दे रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान समेत सभी दक्षेस देशों के बीच आपस में मुक्त व्यापार तथा एक मुद्रा की व्यवस्था 2014 तक लागू करने पर भी चर्चा चल रही है, इसलिए इस व्यवस्था को सबसे पहले कश्मीर में लागू किया जाना चाहिए। अब सवाल यह है कि क्या सभी दक्षेस देशों के लिए एक मुद्रा और पाकिस्तानी मुद्रा के बीच कोई फर्क नहीं है? या फिर मुफ्ती यह मानकर चल रहे हैं कि पाकिस्तान की मुद्रा ही सभी दक्षेस देशों की मुद्रा हो जाएगी? या फिर भारतीय रुपये को वह भविष्य में सभी दक्षेस देशों के लिए सर्वमान्य मुद्रा बनते देख रहे हैं? क्या कई देशों के बीच चलन के लिए एक सर्वमान्य संघीय मुद्रा और किसी एक देश की मुद्रा या दो देशों की मुद्राओं के बीच का फर्क वह नहीं जानते? यह सवाल भी कम गंभीर नहीं है कि भविष्य में अगर कोई संघीय मुद्रा आएगी तो सभी दक्षेस देशों में एक साथ लागू की जाएगी या केवल जम्मू-कश्मीर में? अकेले जम्मू-कश्मीर को इसके लिए प्रयोगशाला बनाने का क्या तुक है? यह गंभीरतापूर्वक सोचने का विषय है कि इसे वास्तव में राजनीतिक व कूटनीतिक भोलापन माना जा सकता है, या फिर यह किसी अलगाववादी साजिश का हिस्सा है।

इसे समझने के लिए मुफ्ती और उनकी पार्टी के दूसरे लोगों के दूसरे बयानों से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए तथा साथ ही उनके राजनीतिक इतिहास पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए। न केवल जम्मू-कश्मीर बल्कि दूसरे राज्यों में भी पिछले दो दशकों के राजनीतिक इतिहास के प्रत्यक्षदर्शी इस बयान पर बात करते हुए उस दौर को याद कर रहे हैं जब वीपी सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे और सईद केंद्रीय गृहमंत्री। यह बात कोई कैसे भूल सकता है कि इन्होंने अपनी बेटी को आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए कई खूंखार आतंकवादियों को छुड़वा दिया था। उस एक गलती की बेइंतहा कीमत देश आज तक चुका रहा है और शायद भविष्य में भी लंबे समय तक चुकाता रहेगा। हैरत की बात है कि उनकी सांसद बेटी महबूबा मुफ्ती अपने पिता का समर्थन करते हुए यह भी कह चुकी हैं कि हम कोई आजादी तो नहीं मांग रहे हैं। उनकी इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? आखिर वह चाहती क्या हैं?

उनकी इच्छाओं को स्पष्ट रूप से समझने में शायद उनकी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता तारिक हमीद करा की बात से कुछ मदद मिले। करा फिलहाल जम्मू-कश्मीर राज्य के वित्त मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं। दिसंबर के अंत में एक बैंक के कैलेंडर के विमोचन समारोह में उन्होंने राज्य के लिए अलग करंसी की मांग उठाई थी। अपनी इस मांग के पक्ष में उन्होंने बहुत ही कमजोर और लिजलिजे किस्म के तर्क भी दिए थे। तब भी बड़ा बवेला उठा था। हालांकि तब पीडीपी ने इस मांग से खुद को अलग करते हुए कहा था कि यह करा की निजी राय हो सकती है। लेकिन मुफ्ती और महबूबा की बातों से क्या ऐसा जाहिर नहीं होता कि इसके पीछे पीडीपी का कोई एजेंडा है? अपने उस छिपे हुए एजेंडे को वह धीरे-धीरे, राज्य के हालात की नब्ज टटोल-टटोल कर खोल और आगे बढ़ा रही है? यही वजह है जो केवल भाजपा ही नहीं, राज्य में सक्रिय दूसरी पार्टियां और यहां तक कि गैर राजनीतिक संगठन भी उनके खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं।

पैंथर्स पार्टी के संरक्षक प्रो. भीम सिंह ने तो बाकायदा कानून की तमाम धाराओं तक का उल्लेख करते हुए कहा है कि इनके तहत पीडीपी नेताओं के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया जाए। इस मसले पर अगर कोई चुप है तो वह है कांग्रेस और क्यों चुप है इसकी वजह तो साफ जाहिर है, लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है। मुख्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की चुप्पी तो इसलिए है कि राज्य में उनकी सरकार पीडीपी की बैसाखियों पर टिकी हुई है, पर केंद्र सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह अलगाववादी और राष्ट्रविरोधी तत्वों को पनपने से रोक नहीं पा रही है? इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि हमारे नेता राष्ट्रविरोधी और अलगाववादी बातें तो सुन सकते हैं, पर एक राज्य में अपनी सरकार गंवाना उन्हें मंजूर नहीं है? यह सवाल विपक्ष के लिए भी उतना ही गंभीर है। राज्य के मुख्य और ताकतवर विपक्षी दल के नेता सईद की बात को शिगूफा तो करार दे रहे हैं, पर दो कदम आगे बढ़कर कांग्रेस को उसकी सरकार बचाए रखने का आश्वासन नहीं दे सकते। यह आखिर कैसी राजनीति है, जिसमें राज्य की चिंता छोड़कर जाने कौन सी नीति की जा रही है?

सच तो यह है कि इस गंभीर मसले पर भी सभी राजनेता केवल अपने-अपने स्वार्थो की रोटी सेंक रहे हैं। जहां तक सवाल विरोध का है तो मुफ्ती की बात का विरोध तो अलगाववादी भी कर रहे हैं। उनके विरोध की वजह यह है कि मुफ्ती ने उनका एक मुद्दा हाईजैक कर लिया है। दूसरी तरफ, वे भीतर-भीतर खुश भी हैं कि उनका एजेंडा किसी तरह से लागू करवाने की बात पीडीपी नेता उठा रहे हैं। फिलहाल, निर्णायक तौर पर परिदृश्य जो भी बने लेकिन इतना तो है ही कि सईद ने अलगाववादियों को दोहरी करंसी की इस मांग के रूप में एक और हथियार थमा दिया है। यह कोई मामूली मसला नहीं है। राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को इस मसले को गंभीरता से लेना चाहिए। साथ ही उन्हें आम जनता की भावनाओं तथा देशहित को समझते हुए इस सिलसिले मे तुरंत जरूरी कदम उठाने चाहिए।
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