मुस्लिम-तुष्टीकरण की हार है ये

गुजरात और हिमाचल मे कौन जीता क्या साम्प्रदायिक शक्तियां जीतीं ?वस्तुतः जीत तो मुस्लिम-तुष्टीकरण के खिलाफ
उन आम जनता की जीत हुई है। जिन्हें मुस्लिम-तुष्टीकरण के आक्र्रमण से अपनी रक्षा हेतु संगठित होना पडा। यह मुस्लिम-तुष्टीकरण की हार है तालिबानी मिडीया कि हार है जो अपना धर्म को भुल कर चुनाव प्रचार में लगा हुआ था। यह हार उन आतंकवादियों का है जो मुस्लमानो को भडक़ाकर हिंसा फैलाना चाहती हैं। और उन्होंने हिंसा फैलाई। यह भी प्रमाणित तथ्य है कि भारत में अधिकांश हिंदू-मुस्लिम दंगे मुस्लिम ही शुरू करते हैं, तथा इन दंगों में जान-माल का अधिक नुकसान हिन्दुओं का ही होता है। लेकिन तथाकथित सैक्युलर सरकारें तथा राजनैतिक दल मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिये तत्पर रहते हैं क्योंकि उनकी एक मान्यता जो कि 'जनतंत्र में बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों की रक्षा करना आवश्यक ।' यह सर्वविदित है कि आतंकवाद फैलाने में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियां ही दोषी रही हैं । आतंकवादी हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे हैं, उन्हें तो मौत के सौदागर नहीं कहा या, उनके साथ तो नरम रुख अख्तियार करते हुए उन्हें फांसी के फंदे से बचाये जाने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है। सोनिया गांधी के दिशा निर्देश पर केन्द्र की यूपीए सरकार पोटा कानून निरस्त कर, आतंकवादी अफजल की फांसी की माफी की वकालत कर और प्रधानमंत्री एक आतंकवादी परिवार के लिए आंखों में आंसू लाकर अपने आतंकवाद के पोषण करने का रवैया पहले ही जग-जाहिर कर चुकी है। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गृहमंत्री शिवराज पाटिल और गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल शांति भाषण दे रहे हैं । उनके बयान में आतंकवादियों के डर के कारण आतंकवादियों खिलाफ कड़ी कार्रवाई का एक भी शब्द नहीं फूटा। इतने डरे लोगों को सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश के भाग्य का फैसला करने का हक कैसे दिया जा सकता है। । कांग्रेस और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति खेलने वाली पार्टियों ने संसद में पोटा कानून का विरोध इस तरह से किया था जैसे वो उनकी राजनीति ही खत्म कर दगा। मुस्लिम-तुष्टीकरण का ही एक नतीजा है कि मदरसा में आतंकवाद की पढाई के लिये सरकार करोड़ रुपय दिये गये। आज तक सरकार के द्वार हिन्दु गरीब बच्चो के लिये किसी तरह का कोई पौकेज के लिये पौसा तो दुर कोई सरकारी वायदा तक नही किया गया।
वे जनसंख्या उपायों का पालन नहीं करेंगे और जनसंख्या बढ़ायेंगे , देश के किसी कानून का पालन नहीं करेंगें और ऊपर देश में बम विस्फोट कर आरक्षण तथा विशेषाधिकार भी प्राप्त करेंगे. यह फैसला हिन्दुओं को करना है कि उन्हें धिम्मी बनकर शरियत के अधीन जजिया देकर रहना है या फिर ऋषियों की परम्परा जीवित रखकर इसे देवभूमि बने रहने देना है।
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अमरीकन ईसाइ मिशनरी का कुचक्र

हिन्दु चेतना के जागरुक पाठक ने अमेरिका से ई-पत्र के द्वार हिन्दु चेतना को सुचना दी है कि किस तरह अमेरिका के चर्च हिन्दुस्तान मे रह रहे हिन्दु को धर्मांतरण कराने साजिस रची जा रही है और चर्च के द्वार हिन्दुस्तान को चुनने का कारण भी हिन्दुओ के द्वार किसी भी तरह का कोई प्रतिशोध का ना होना कहा गया है।
हिन्दु चेतना के जागरुक पाठक को हिन्दु चेतना के ओर से हिन्दुस्तान से दूर रह कर भी हिन्दुस्तान एवंम हिन्दुओ के बारे मे हमेसा चिन्ता में रहने बाले पाठक को धन्यवाद। हिन्दुस्तान मे रह रहे तथाकथीत अपने आप को धर्मनिरपेक्ष कहने बाले हिन्दु को चेतावनी देना चाहता हू कि इनका जाल गरीब और वनवासी क्षेत्र में हि नही फैला है ये शहर की ओर अपना नजर लगाये हुये है एवंम शहरी क्षेत्र में भी भोले भाले हिन्दुओ को पैसा और विदेश में नौकरी के लालच दे कर धर्मांतरण करना आरम्भ कर दिया है। ईसाइ मिशनरी हिन्दु देवी देवता के बारे मे अपशब्द का प्रयोग भी करने से नही चुकते है

जागरुक पाठक का पत्र

Dear Sir,

I am writing form Memphis, Tennessee, USA. A few days ago a local church sent their missionaries to Hyderabad to convert people and they converted about 600 people. I don’t know the exact place in Hyderabad where these happened. Since I am so far I am not able to do anything very effective for my country and for my religion. i am sending you an address where they have given all the pictures. They have also vilified goddess kali in the worst possible way. Since I have come to Tennessee for holiday from Provo, Utah, USA the only thing i can do is to try to find the church bishop who has published this and talk to him. By the way, those missionaries are still in Hyderabad.
This is something that i got ----
It is shocking to learn that Commercial Appeal publishes such a
derogatory epithet on Hinduism. If these are the views of Bellevue Church then
let them publish it in their private communications but not in a
public newspaper. I really feel that we all Hindus should march to the
Bellevue Church in the protest. Other religion practitioners have taken
Hinduism on ride because of its non-aggressive nature. This is a blatant
attempt to deface Hindus in front of American populace. These so-called self proclaimed messiahs’s have entered into India incognito using tourist visa to achieve their unscrupulous goals. Can I AM and ICCT take any action against this illiterate, fanatic, arrogant Bellevue church goers? Can we all draft a protest letter to Commercial Appeal as well?

Best regards,
************

Although Hinduism has its fringe sects -- some, for example, worship
Kali, a violent deity with a blood-soaked tongue -- many of its believers
consider Hinduism more of a way of life than a religion.

However, Gaines sees Hinduism as nothing more than idol-worship. "It's
sad, actually, because we were and are created in the image of God,"
she says.

"God placed, Ecclesiastes said, eternity in our hearts. So we have that
longing. I call it the God-shaped vacuum, the hole in our heart. We're
searching and we try to fill it. Every other religion is simply man's
attempt to work his way up to God, and it's only in Christianity that
God came down to man, through his son Jesus Christ."
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मौत का सौदागर

गुजरात मे चुनाव खत्म हो गया है नरेन्द्र भाई मोदी का किस्मत का फैसला कुछ दिन मे आ जयेगा और तालिबानी मीडिया कलन्क को धो देगे। इस चुनाव मे नया तमाशा देख्नने को मिला इसे हम मौत का सौदागर कह सकते है। इस चुनाव के खत्म होने पर आम जनता के दिल और दिमाग मे एक प्रश्न बार-बार घुम रहा है कि कौन है इस देश मै का मौत का सौदागर नरेन्द्र मोदी या सोनिया गांधी, क्रांग्रेस, यूपीए सरकार।
सोहरा बुद्दीन मुठभेड़ का जायजा ठहराकर और गुजरात की धरती को आतंकवाद से मुक्त कराने की बात कहकर नरेन्द्र मोदी ने मानो कोई जद्यन्य अपराध कर दिया है और वे देश के छदम धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलो, बुद्धिजीवियों, मीडिया और चुनाव आयोग की आंख की किरकिरी बन गए है। यह और बात है कि वे उसने प्रखर राष्ट्रवाद और गुजरात के विकास पुरुष होने के कारण गुजरात वासियों की आंखों का तारा बने हुए है। चुनाव आयोग ने अपनी सजगता और तत्परता दिखाते हुए तुरन्त-फुरन्त मोदी को नोटिस जारी कर दिया। सारा देश जानता है कि देश में आतंकवाद को लेकर छिड़ी इस बहसको कांग्रेस सोनिया गांधी ने प्रारंभ किया था। उन्होने अपनी चुनावी सभा में नरेन्द्र मोदी को आतंकवाद का युवराज और मौत का सौदागर कहा था। सोनिया गांधी के दिशा निर्देश पर केन्द्र की यूपीए सरकार पोटा कानून निरस्त कर, आतंकवादी अफजल की फांसी की माफी की वकालत कर और प्रधानमंत्री एक आतंकवादी परिवार के लिए आंखों में आंसू लाकर अपने आतंकवाद के पोषण करने का रवैया पहले ही जग-जाहिर कर चुकी है। चुनाव आयोग को कांगे्रस का यह राष्ट्रवादी रवैया और नरेन्द्र मोदी पर सोनिया गांधी का अमर्यादित व्यक्तिगत आरोप जरा नही अखरा। किन्तु उसे जिस पर आतंकवादी हिंसा के अनेक मामले थे ए.के.४७ जैसा खतरनाक हथियार था उसकी पुलिस मुठभेड़ में हुई का जायजा कहना बेहद नागवार गुजारा। इसके लिए चुनाव आयोग ने मोदी को एक नोटिस भी जारी किया है।
वोट की इस लड़ाई मे जनता फैसला करेगी कि आखीर कौन है मौत का सौदागर।
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फतवा और मुस्लीम औरत


बलात्कार की शिकार लड़की को 200 कोड़े मारने की सजा
जेद्दाह : जेद्दाह में एक सऊदी अदालत ने पिछले साल सामूहिक बलात्कार की शिकार लड़की को 90 कोड़े मारने की सजा दी थी। उसके वकील ने इस सजा के खिलाफ अपील की तो अदालत ने सजा बढ़ा दी और हुक्म दिया: '200 कोड़े मारे जाएं।' लड़की को 6 महीने कैद की सजा भी सुना दी। अदालत का कहना है कि उसने अपनी बात मीडिया तक पहुंचाकर न्याय की प्रक्रिया पर असर डालने की कोशिश की। कोर्ट ने अभियुक्तों की सजा भी दुगनी कर दी।
इस फैसले से वकील भी हैरान हैं। बहस छिड़ गई है कि 21वीं सदी में सऊदी अरब में औरतों का दर्जा क्या है? उस पर जुल्म तो करता है मर्द, लेकिन सबसे ज्यादा सजा भी औरत को ही दी जाती है।

बेटी से निकाह कर उसे गर्भवती किया
जलपाईगुड़ी : पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में एक व्यक्ति ने सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए अपनी सगी बेटी से ही शादी कर ली और उसे गर्भवती भी कर दिया है। यही नहीं , वह इसे सही ठहराने के लिए कहा रहा है कि इस रिश्ते को खुदा की मंजूरी है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस निकाह का गवाह कोई और नहीं खुद लड़की की मां और उस शख्स की बीवी थी।
जलपाईगुड़ी के कसाईझोरा गांव के रहने वाले अफज़ुद्दीन अली ने गांव वालों से छिपाकर अपनी बेटी से निकाह किया था इसलिए उस समय किसी को इस बारे में पता नहीं चला। अब छह महीने बाद लड़की गर्भवती हो गई है ।

मस्जिद में नमाज अदा करने पर महिलाओं को मिला फतवा
गुवाहाटी (टीएनएन) : असम के हाउली टाउन में कुछ महिलाओं के खिलाफ फतवा जारी किया गया क्योंकि उन्होंने एक मस्जिद के भीतर जाकर नमाज अदा की थी।
असम के इस मुस्लिम बाहुल्य इलाके की शांति उस समय भंग हो गई , जब 29 जून शुक्रवार को यहां की एक मस्जिद में औरतों के एक समूह ने अलग से बनी एक जगह पर बैठकर जुमे की नमाज अदा की। राज्य भर से आई इन महिलाओं ने मॉडरेट्स के नेतृत्व में मस्जिद में प्रवेश किया। इस मामले में जमाते इस्लामी ने कहा कि कुरान में महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने की मनाही नहीं है।
जिले के दीनी तालीम बोर्ड ऑफ द कम्युनिटी ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि इस तरीके की हरकत गैरइस्लामी है। बोर्ड ने मस्जिद में महिलाओं द्वारा नमाज करने को रोकने के लिए फतवा भी जारी किया।

कम कपड़े वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह: मौलवी
मेलबर्न (एएनआई) : एक मौलवी के महिलाओं के लिबास पर दिए गए बयान से ऑस्ट्रेलिया में अच्छा खासा विवाद उठ खड़ा हुआ है। मौलवी ने कहा है कि कम कपड़े पहनने वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह होती हैं , जो ' भूखे जानवरों ' को अपनी ओर खींचता है।
रमजान के महीने में सिडनी के शेख ताजदीन अल-हिलाली की तकरीर ने ऑस्ट्रेलिया में महिला लीडर्स का पारा चढ़ा दिया। शेख ने अपनी तकरीर में कहा कि सिडनी में होने वाले गैंग रेप की वारदातों के लिए के लिए पूरी तरह से रेप करने वालों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
500 लोगों की धार्मिक सभा को संबोधित करते हुए शेख हिलाली ने कहा , ' अगर आप खुला हुआ गोश्त गली या पार्क या किसी और खुले हुए स्थान पर रख देते हैं और बिल्लियां आकर उसे खा जाएं तो गलती किसकी है , बिल्लियों की या खुले हुए गोश्त की ?'

कामकाजी महिलाएं पुरुषों को दूध पिलाएं : फतवा
काहिरा : मिस्र में पिछले दिनों आए दो अजीबोगरीब फतवों ने अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है। ये फतवे किसी ऐरे-गैरे की ओर से नहीं बल्कि देश के टॉप मौलवियों की ओर से जारी किए जा रहे हैं।
देश के बड़े मुफ्तियों में से एक इज्ज़ात आतियाह ने कुछ ही दिन पहले नौकरीपेशा महिलाओं द्वारा अपने कुंआरे पुरुष को-वर्करों को कम से कम 5 बार अपनी छाती का दूध पिलाने का फतवा जारी किया। तर्क यह दिया गया कि इससे उनमें मां-बेटों की रिलेशनशिप बनेगी और अकेलेपन के दौरान वे किसी भी इस्लामिक मान्यता को तोड़ने से बचेंगे।

गले लगाना बना फतवे का कारण
इस्लामाबाद (भाषा) : इस्लामाबाद की लाल मस्जिद के धर्मगुरुओं ने पर्यटन मंत्री नीलोफर बख्तियार के खिलाफ तालिबानी शैली में एक फतवा जारी किया है और उन्हें तुरंत हटाने की मांग की है।
बख्तियार पर आरोप है कि उन्होंने फ्रांस में पैराग्लाइडिंग के दौरान अपने इंस्ट्रक्टर को गले लगाया। इसकी वजह से इस्लाम बदनाम हुआ है।

फतवा: ससुर को पति पति को बेटा
एक फतवा की शिकार मुजफरनगर की ईमराना भी हुई। जो अपने ससुर के हवश का शिकार होने के बाद उसे आपने ससुर को पति ओर पति को बेटा मानने को कहा ओर ऐसा ना करने पे उसे भी फतवा जारी करने की धमकी मिली।

फतवा क्या है
जो लोग फतवों के बारे में नहीं जानते, उन्‍हें लगेगा कि यह कैसा समुदाय है, जो ऐसे फतवों पर जीता है। फतवा अरबी का लफ्ज़ है। इसका मायने होता है- किसी मामले में आलिम ए दीन की शरीअत के मुताबिक दी गयी राय। ये राय जिंदगी से जुड़े किसी भी मामले पर दी जा सकती है। फतवा यूँ ही नहीं दे दिया जाता है। फतवा कोई मांगता है तो दिया जाता है, फतवा जारी नहीं होता है। हर उलमा जो भी कहता है, वह भी फतवा नहीं हो सकता है। फतवे के साथ एक और बात ध्‍यान देने वाली है कि हिन्‍दुस्‍तान में फतवा मानने की कोई बाध्‍यता नहीं है। फतवा महज़ एक राय है। मानना न मानना, मांगने वाले की नीयत पर निर्भर करता है।
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हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दु राष्ट्र

हिन्दुत्व हिन्दू धर्म के अनुयायियों को एक और अकेले राष्ट्र में देखने की अवधारणा है । हिन्दूओ के अनुसार हिन्दुत्व कोई उपासना पद्धति नहीं, बल्कि हिन्दू लोगों द्वारा बना एक राष्ट्र है । वीर सावरकर ने हिन्दुत्व और हिन्दूशब्दों की एक परिभाषा दी थी जो हिन्दूओ के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है उन्होंने कहा कि हिन्दू वो व्यक्ति है जो भारत को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनो मानता है ।

हिन्दुत्व और हिन्दु


हिन्दू शब्द के साथ जितनी भी भावनाएं और पद्धतियाँ, ऐतिहासिक तथ्य, सामाजिक आचार-विचार तथा वैज्ञानिक व आध्यात्मिक अन्वेषण जुड़े हैं, वे सभी हिन्दुत्व में समाहित हैं। हिन्दुत्व शब्द केवल मात्र हिन्दू जाति के कोरे धार्मिक और आध्यात्मिक इतिहास को ही अभिव्यक्त नहीं करता। हिन्दू जाति के लोग विभिन्न मत मतान्तरों का अनुसरण करते हैं। इन मत मतान्तरों व पंथों को सामूहिक रूप से हिन्दूमत अथवा हिन्दूवाद नाम दिया जा सकता है । आज भ्रान्तिवश हिन्दुत्व व हिन्दूवाद को एक दूसरे के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। यह चेष्टा हिन्दुत्व शब्द का बहुत ही संकीर्ण प्रयोग है ।

ईसाई और इस्लाम धर्म हिन्दू धर्म को पाप और शैतानी धर्म मानता है । इस्लाम के अनुसार हिन्दू लोग क़ाफ़िर हैं ।

मुसलमान हिन्दू बहुल देशों में रहाना ही नहीं चाहते । वो एक वृहत्-इस्लामी उम्मा में विश्वास रखते हैं और भारत को दारुल-हर्ब (विधर्मियों का राज्य) मानते हैं । वो भारत को इस्लामी राज्य बनाना चाहते हैं ।

मुसलमान हिंसा से और ईसाई लालच देकर हिन्दुओं (ख़ास तौर पर अनपढ़ दलितों को) अपने धर्म में धर्मान्तरित करने में लगे रहते हैं ।

हिन्दुत्व किसी भी धर्म या उपासना पद्धति के ख़िलाफ़ नहीं है ।वो तो भारत में सुदृढ़ राष्ट्रवाद और नवजागरण लाना चाहता है । उसके लिये हिन्दू संस्कृति वापिस लाना ज़रूरी है ।

अगर समृद्ध हिन्दू संस्कृति का संरक्षण न किया गया तो विश्व से ये धरोहरें मिट जायेंगी । आज भोगवादी पश्चिमी संस्कृति से हिन्दू संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है ।

इतिहास गवाह है कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने मध्य-युगों में भारत में भारी मार-काट मचायी थी । उन्होंने हज़ारों मन्दिर तोड़े और लाखों हिन्दुओं का नरसंहार किया था । हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिये ।

इस्लामी बहुमत पाकिस्तान (अखण्ड भारत का हिस्सा) भारत को कभी चैन से जीने नहीं देगा । आज सारी दुनिया को इस्लामी आतंकवाद से ख़तरा है । अगर आतंकवाद को न रोका गया तो पहले कश्मीर और फिर पूरा भारत पाकिस्तान के पास चला जायेगा ।

कम्युनिस्ट इस देश के दुश्मन हैं । वो धर्म को अफ़ीम समझते हैं । उनके हिसाब से तो भारत एक राष्ट्र है ही नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों की अजीब मिलावट है । रूस और चीन में सभी धर्मों पर भारी ज़ुल्मो-सितम ढहाने वाले अब भारत में इस्लाम के रक्षक होने का ढोंग करने के लिये प्रकट हुए हैं ।

अयोध्या का राम मंदिर हिन्दुओं के लिये वैसा ही महत्त्व रखता है जैसे काबा शरीफ़ मुसलमानों के लिए या रोम और येरुशलम के चर्च ईसाइयों के लिये । फिर क्यों एक ऐसी बाबरी मस्जिद के पीछे मुसलमान पड़े हैं जहाँ नमाज़ तक नहीं पढ़ी जाती, और जो एक हिन्दू मन्दिर को तोड़ कर बनायी गयी है ?

आधुनिक भारत में नकली धर्मनिर्पेक्षता चल रही है । बाकी लोकतान्त्रिक देशों की तरह यहाँ सभी धर्मावलम्बियों के लिये समानाचार संहिता नहीं है । यहाँ मुसलमानों के अपने व्यक्तिगत कानून हैं जिसमें औरत के दोयम दर्ज़े, ज़बानी तलाक़, चार-चार शादियों जैसी घटिया चीज़ों जो कानूनी मान्यता दी गयी है ।

हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त में विश्वास रखता है । (ईसाई और मुसलमान ये नहीं मानते)

हिन्दुत्व गाय जैसे मातासमान पशु का संरक्षण करता है ।

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धन्यवाद भाषण

अंतिम अधिवेशन में भाषण
विश्वधर्म महासभा एक मूर्तिमानतथ्य सिद्ध हो गयी हैं और दयामय प्रभु ने उन लोगों की सहायता की हैं, तथा उनके परम निःस्वार्थ श्रम को सफलता से विभूषित किया हैं, जिन्होंने इसका आयोजन किया।
उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद हैं, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग ने पहले इस अद्भुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्यरुप में परिणत किया । उन उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होता रहा हैं । इस प्रबुद्ध श्रोतृमण्डली को मेरा धन्यवाद जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी हैं और जिसने मत-मतान्तरों के मनोमालिन्य को हलका करने का प्रयत्न करने वाले हर विचार का सत्कार किया । इस समसुरता में कुछ बेसुरे स्वर भी बीच बीच में सुने गये हैं । उन्हे मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरवैचिञ्य से इस समरसता को और भी मधुर बना दिया हैं ।
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बौद्ध धर्म

मैं बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना हैं, पर फिर भी मैं बौद्ध हूँ । यदि दीन, जापान अथवा सीलोन उस महान् तथागत के उपदेशों का अनुसरण करते हैं, तो भारत वर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता हैं । आपने अभी अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करनेवाला हूँ , परन्तु उससे आपको केवल इतना ही समझना चाहिए । जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता हूँ, उनकी आलोचना ! मुझसे यह सम्भव नहीं । परन्तु वुद्ध के विषय में हमारी धारणा यह हैं कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक ठीक नहीं समझा । हिन्दू धर्म (हिन्दू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म हैं ) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता हैं, उनमें आपस में वैसा ही सम्बन्ध हैं , जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मों में । ईसा मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिन्दू । यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया, हिन्दूओं नें शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप में ग्रहण किया हैं और उनकी पूजा करते हैं । किन्तु प्रचलित हौद्ध धर्म नें तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में जो वास्तविक भेद हम हिन्दू लोग दिखलाना चाहते हैं, वह विशेषतःयह हैं कि शाक्य मुनि कोई नयी शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं हुए थे । वे भी ईसा के समान धर्म की सम्पूर्ति के लिए आये थे , उसका विनाश करने नहीं । अन्तर इतना हैं कि जहाँ ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाये । जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार बऔद्ध भी हिन्दू धर्म के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाये । मैं यह वात फिर से दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वरन् वे हिन्दू धर्म की निष्पत्ति थे, उसकी तार्किक परिणति और उसके युक्तिसंगत विकास थे ।
हिन्दी धर्म के दो भाग हैं -- कर्मकाणड और ज्ञानकाणड । ज्ञानकाण्ढ का विशेष अध्ययन संन्यासी लोग करते हैं ।
ज्ञानकाण्ड में जाति भेद नहीं हैं । भारतवर्ष में उच्च अथवा नीच जाति के लोग संन्यासी हो सकते हैं, और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं । धर्म में जाति भेद नहीं हैं ; जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र हैं । शाक्य मुनि स्वमं संन्यासी थे , और यह उनकी ही गरिमा हैं कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने अप्राप्य वेदों से सत्यों को निकाल कर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया । इस जगत् में सब से पहते वे ही ऐसे हुए, जिन्होंमे धर्मप्रचार की प्रथा चलायी -- इतना ही नहीं , वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षीत करने का विचार भी सब से पहले उन्हीं के मन में उदित हुआ ।
सर्वभूतों के प्रति , और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति मेंं ही तथागत ता महान् गौरव सन्निहित हैं । उनके कुछ श्ष्य ब्राह्मण थे । बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गयी थी । वह उस समय केवल पण्डितों के ग्रन्थों की ही भाषा थी । बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों मे उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा था , पर बुद्धदेव उनसे सदा यही कहते -- ' में दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ , अतः जनभाषा में ही मुझे बोलने दो। ' और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तत्कालीन लोकभाषा में पायें जाते हैं ।
दर्शनशास्त्र का स्थान चाहे जो भी दो, तत्त्वज्ञान का स्थान चाहे जो भी हो, पर जब तक इस लोक में मृत्यु मान की वस्तु हैं, जब तक मानवहृदय में दुर्वलता जैसी वस्तु हैं , जव तक मनुष्य के अन्तःकरण से उसका दुर्बलताजनित करूण क्रन्दन बाहर निकलता हैं, तव तक इस सेसार में ईश्वर में विश्वास कायम रहेगा ।
जहाँ तक दर्शन की बात हैं , तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर बहुत हाथ-पैर पटके , पर वे उसे तोड न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमे हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता हैं । फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत में अपने को बौद्ध कहनेवाली एक भी स्त्री या पुरुष नहीं हैं ।
किन्तु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया -- समाजसुधार का वह उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति वब आश्चर्यजनक सहानुभूति और करूणा , तथा वह अद्भुत रसायन, जिसे हौद्ध धर्म ने जन जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतिय समाज इतना महान् हो गया कि तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में लिखनेवाले एक यूनानी इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिन्दू नहीं दिखाई देता , जो मिथ्याभाषण करता हो ; एक भी ऐसी हिन्दू नारी नहीं हैं , जो पतिव्रता न हो । हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बीना ही । तब यह देख्ए कि हमारे पारस्परिक पार्थक्य ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्षन और मस्तिष्क के बिना नहीं ठहर सकते, और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय क बिना । बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह पार्थक्य भारतवर्ष के पतन का कारण हैं । यही कारण हैं कि आज भारत में तीस करोड़ भिखमंगे निवास करते हैं , और वह एक सहस्र वर्षों से विजेताओं का दास बना हुआ हैं । अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय, महानुभावता और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिला दें ।
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धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं

ईसाइयों को सत् आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, और मुझे विश्वास हैं कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे । आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने की निमित्त अपने धर्मप्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते ? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्रों और लाखों हिन्दू क्षुधा से पीडित होकर मर गये; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया । आप लोग सारे हिन्दुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं हैं, उसके पास धर्म पर्याप्त हैं -- जलते हुए हिन्दुस्तान के लाखों दुःखार्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं । वे हम से रोटी माँगते हैं, और हम उन्हे देते हैं पत्थर ! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना हैं , भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना हैं । भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्यप्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे । मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाईयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह से समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई-धर्मालम्बियों से, और विशेषकर उन्ही के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन हैं ।
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हिन्दू धर्म

प्रागैतिहासिक युग से चले आने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं - हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म । उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैं, किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्वविजयिनी दुहिता - ईसाई धर्म - द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान् धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशिष्ट हैं, - वबाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला दिया ; किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्रतट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया ; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता ( हिन्दू धर्म ) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात् कर लिया और अपने में पचा डाला ।
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर -- आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजा के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दन्तकथाओं तक, और बौद्धौं के अज्ञेयवाद तथा जैमों के निरीश्वरवाद -- इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान हैं ।
तब यह प्रश्न उठता हैं कि वह कौन सा सामान्य बिन्दु हैं, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएँ केन्द्रस्थ होती हैं ? वह कौन सा एक सामान्य आधार हैं जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित हैं? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा ।
हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति -- वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनन्त हैं ः श्रोताओ को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं । किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष । जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वब न्यम अपना काम करता रहेगा , ठीक वबी बात आध्यात्मिक जगत् का शालन करनेवाले नियमों के सम्बन्ध में भी हैं । एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे ।
इव नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं । श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं ।
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था , उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी । तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं । अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
मैं एक उपमा दूँ; स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं , न अन्त, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं । ' सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ' अर्थात इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया हैं -- इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्तिदिन करता हैं ।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँकें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व -- 'मैं', 'मैं', 'मैं' को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं -- 'नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।' आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए । कुछ लोग जन्म से ही सुखी होता हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर , उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्रप्त रहती हैं । दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोऊ मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवनदुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन मे भी दुःखी क्यों रहे ?
दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि - उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या महीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्नशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो पिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती । पर यह सिद्ध महीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं; परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं हैं ।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता हैं ; किन्तुु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति सहैं, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता हैं । आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रकृत्तियाँ होती हैं, जिसकी उत्पत्ति अतीत के ॉह०९१५र्म से होती हैं । एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ' योग्यं योग्येन युज्यते ' इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती हैं, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो । यह विज्ञानसंगत हैं, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करमा चाहता हैं , और आदत आवृत्तियों से वनती हैं । अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती हैं । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।
एक और दृष्टिकोण हैं । ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें , तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हीँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लोने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता बैं कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।
यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं । सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं -- उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे ।
अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं । ' उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ' -- गीता ॥२.२३॥ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।
अब दूसरा प्रश्न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं ? स्वमं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होनें का भ्रम कैसे हो जाता हैं? हनें यह बताया जाता हैं कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते हैं ऐर कह देते क् ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता । कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े हड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं । परन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं हैं । प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता हैं । पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता हैं ; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं ? पर हिन्दू ईमानदार हैं । वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्न का उत्तर देता हैं , "मैं नहीं जानता । मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी। " पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं , वही रहेगा । यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता हैं । हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं । ' यह ईश्वर की इच्छा हैे ', यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं । यह उत्तर हिन्दू के 'मैं नहीं जानता' के सिवा और कुछ नहीं हैं ।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं -- एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं । पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं -- क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ? -- यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की , और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्दसन्देश की घोषणा की : ' हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८ ॥ 'अमृत के पुत्रो ' -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम - अमृत के अधिकारी से - आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि - व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, ' जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ' -- कठोपनिषद् ॥२.३.३॥
और उस पुरुषव का स्वरूप क्या हैं ? वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । 'तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे । तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे ।' वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।' ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।'
वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं । अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं ।
उन्होेंने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए -- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सब से अच्छा हैं , और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं , ' हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहीए, न सन्तति , न विद्या । यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो , केवल इतना ही दे क् मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।' -- शिक्षाष्टक ॥४॥ श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्टर इस समय सम्राट् थे । उनके शत्रुओं ने उन्हें राजस्ंहासन से च्युत कर दीया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था । वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया , "मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते पुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं ?" युधिष्टर ने उत्तर दिया, "महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर हैं। मैं इससे प्रेम करताहूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता ; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य , समस्त सुषमा का मूल हैं । वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए । उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ । मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता । उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें । मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता ।" --महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता -- अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा ।
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं । 'तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती हैं, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं ।' --मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता । यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं -- यही उसका अत्सन्त मार्मिक भाव हैं । हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं । यदि उसमें कोई आत्मा हैं , जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं , तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी । अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : ' मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं ।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधनाप्रणाली का लक्ष्य हैं -- सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना , उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण जाना -- हिन्दूओं का धर्म हैं । और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना ताहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता हैं और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता हैं ।
यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं । भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं । परन्तु पूर्ण निररेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में -- परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती हैं । इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं ।
'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती । यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं । विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव मेंमेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड हैं , और मेरे दूसरे पक्ष -- आत्मा -- के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं ।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं । ज्यों हि कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूलतत्तव का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं , तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के उस लोक में अकमात्र जीवन हैं, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हिए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं । धर्म इससे आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं ।
समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति हैं, सृष्टि नहीं; और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही हैं । अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं । यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं हैं । प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने , तो यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं । ' गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा ।' नाम ही व्याख्या नहीं होती ।
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती हैं । एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोंपदेश कर रहा था । वहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया , "अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं ?" एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, "अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं ?" पादरी बोला, "मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा ।" हिन्दू भी तनकर बोल उठा, " तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी ।"
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता हैं । जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ -- 'क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं ?'
अन्धविश्वास मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर हैं । ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं ? क्रूस क्यों पवित्र हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं ? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के आए कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव हैं, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना । साहचर्य के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता हैं , अथवा मन में भावविश्ष का उद्दीपन होमे से तदनुरुप मूर्तिविशेष का भी आविर्भाव होता हैं । इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं । वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं । वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । और सच पूछिए तो दुनिया के लोग 'सर्वव्यापीत्व' का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शव्द या प्रतीक मात्र हैं । क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर या मसजिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं । हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं ? अन्तर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते , क्योकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही हैं कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीक-त कर लें और अपने मानववन्धुओं की भलाई करते रहें -- वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती हैं । मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं । मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्नजीवन में केवल आघार या सहायकमात्र हैं; पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए ।
मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए । शास्त्र का वाक्य हैं कि 'बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बड़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए ।' -- महानिर्वाणतन्त्र ॥४.१२ ॥ देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा हैं -- 'सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्िन की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं ।' -- कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ पर वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं । वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता हैं । 'बालक ही मनुष्य का जनक हैं ।' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का वचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा ?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहाहता से अनुभव कर सकता हैं , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं , तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं । हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं । हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहर्चय की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवत्मा के विविध प्रयत्न हैं ,और यह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं । प्रत्येक जीव उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं , जो धीरे धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त नें उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता हैं ।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान हैं और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया हैं । अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं । वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जाँन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए । यदि जाँन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा । हिन्दुओं मे यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार , चिन्तन या वर्णन सापेक्ष के सहारे ही हो सकता हैं , और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं , जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं । ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो , किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं । हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं ।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ । भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जधन्य बात नहीं हैं । वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं । वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं । अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं , उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं , वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते । एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले , पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए 'इन्क्विजिशन ' की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा । और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं ।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं । प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा हैं, और वबी ईश्वर उन सब का प्रेरक हैं । तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हुन्दुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरुप अपना समायोजन करते समय होती हैं ।
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती हैं । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं । परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज हैं । ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदश दिया हैं , 'प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।' -- गीता ॥७.७॥ 'जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।' --गीता ॥१०.४१॥ और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी चुनौती हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्ुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं । व्यास कहते हैं, 'हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।' --वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥ एक बात और हैं । ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता हैं ?
यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते. तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रिय सत्य -- मनुष्य में ईश्वरत्व -- के विकास की ओर उन्मुख हैं । उन्हौंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं । और जिसने पुत्र को देख लिया , उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों ! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं । हो सकता हैं कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं की कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा , जो न तो ब्रह्माण होगा , न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम , वरन् इन सब की समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धामत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके । धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता का स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्श्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा ।
आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे । सम्राट् अशोक की परिषद् बोद्ध परिषज् थी । अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी , केवल बैठक की ही गोष्ठी थी । किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि 'प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं ।'
वह, जो हिन्दुओं का बह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं , आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यन्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं !
ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया , तू धन्य हैं ! यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं हिगोये , तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हर्ण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होमे की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।
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हमारे मतभेद का कारण

मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी वक्तामहोदय ने व्याख्यान समाप्त किया हैं, उनके इस वचन को आप ने सुना हैं कि ' आओ, हम लोग एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें', और उन्हे इस बात का बड़ा खेद हैं कि लोगों में सदा इतना मतभेद क्यों रहता हैं ।
परन्तु मैं समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनाने वाला हूँ, उससे आप लोगों को इस मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाएगा । एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढ़क रहता था । वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढ़क छोटा ही था । धीरे- धीरे यह मेढ़क उसी कुएँ में रहते रहते मोटा और चिकना हो गया । अब एक दिन एक दूसरा मेढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा ।
"तुम कहाँ से आये हो?"
"मैं समुद्र से आया हूँ।" "समुद्र! भला कितना बड़ा हैं वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा हैं, जितना मेरा यह कुआँ?" और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, "मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?" तब उस कुएँ वाले मेढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, "तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?" समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती हैं?" अब तो कुएँवाले मेढ़क ने कहा, "जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं हैं! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।"
यही कठिनाई सदैव रही हैं।
मैं हिन्दू हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार हैं। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता हूँ कि सारा संसार उसी के कुएँ में हैं। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा हुए उसी को सारा ब्रह्माण्डमानता हैं। मैं आप अमेरिकावालों को धन्य कहता हूँ, क्योकि आप हम लोगों के इनछोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान् प्रयत्न कर रहे हैं, और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस उद्योग में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे ।
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धर्म महासभा: स्वागत भाषण का उत्तर

अमेरिकावासी बहनो तथा भाईयो,

आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- ' जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।'
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
- ' जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।'
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
"http://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE_%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A4%BE:_%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%A4_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%A3_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0" से लिया गया
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धर्मान्तरण किया या कराया गया ?

सैंकड़ों दलितों ने धर्मांतरण कियाभारतीय संविधान के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले दलित नेता भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के 50 साल पूरे होने के मौके पर नागपुर में धर्मांतरण समारोह आयोजित किया गया.आयोजकों का कहना है कि वे भारत के अन्य शहरों में भी इस तरह के धर्मांतरण समारोहों का आयोजन करेंगे.
धर्मांतरणऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के एल्बर्ट लायल ने बीबीसी को बताया कि रैली में छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से हज़ारों लोग पहुँचे. अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के परिसंघ के नेता उदित राज ने दावा किया कि धर्मांतरण सभा में दो से ढ़ाई हज़ार लोगों ने ईसाई और बौद्ध धर्म को अपना लिया. उन्होंने कहा, "हमनें गुजरात की मोदी सरकार को इसके ज़रिए बताने की कोशिश की है कि ईसाई और बौद्ध धर्म हिंदू धर्म से बेहतर हैं." इसका आयोजन ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल और अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के परिसंघ ने संयुक्त रूप से किया था. एल्बर्ट लायल ने बताया कि नागपुर की रैली में 500 से अधिक लोगों ने ईसाई धर्म को और एक हज़ार से अधिक लोगों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया. धर्मांतरण समारोह शुरू होने से पहले ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के अध्यक्ष जोसेफ़ डिसूजा ने डॉ. अंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि उन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता का रास्ता दिखाया था. इस समारोह में अमरीका और ब्रिटेन के 30 से अधिक प्रतिनिधिमंडल ने शिरकत की

सौजन्य बी बी सी :

धर्मान्तरण के कुछ पहलू

१ रैली का आयोजक ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल था
२ जबकि दलित भीमराव अम्बेडकर के बौद्ध बनने का ५०वां साल मना रहा था
३ अगर दलित अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन करते हैं तो उन्हें बौद्ध धर्म अपनानी चाहिए थी

आखीर ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल का ये रैली किस बात को साबित करता है, क्या ये यह साबित नहीं करता की ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल एक पूरी साजिस के तहत ये धर्मान्तरण का कार्य करवा रही है? हर रोज कोई न कोई मारपीट या बहलाफुसला कर या फिर लालच दे कर धर्मान्तरण की खबरें आती रहती है उदाहरण के तौर पर :

ईसाई धर्म नहीं अपनाने पर दलित दंपत्ति को पीटा
जालौन। उत्तरप्रदेश के जालौन जिले में ईसाई धर्म अपनाने से मना करने पर पादरी ने एक दलित दंपत्ति की बेहरमी से पिटाई की। जिले के उरई शहर के मोहल्ला शांतिनगर के निवासी देवेंद्र अहिरवार एवं उसकी पत्नी सुनीता ने बुधवार को कोतवाली पुलिस को दिए प्रार्थना पत्र में आरोप लगाया कि नौकरी का लालच दिए जाने पर उन्होंने मिजपा क्रिश्चियन स्कूल जाकर प्रार्थना सभा में भाग लेना शुरू किया था। छह माह बीत जाने के बाद भी जब उन्हें नौकरी नहीं मिली तो इस संबंध में उन्होंने पादरी डेनियल से शिकायत की जिस पर पादरी ने कहा कि हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने पर ही नौकरी मिलेगी। आरोप पत्र में कहा गया है कि दलित दंपत्ति ने धर्म परिवर्तन करने से मना करते हुए प्रार्थना सभा में भाग लेना बंद कर दिया। इससे गुस्साए पादरी डेनियल एवं धर्म प्रचारक रोशन ने आज दलित दंपत्ति के घर जाकर गाली-गलौज की और पति-पत्नी की जमकर पिटाई कर दी। कोतवाली पुलिस ने पिटायी के दौरान घायल हुई महिला को उपचार के लिए जिला अस्पताल में भर्ती करा दिया है। खबर लिखे जाने तक मामले की प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है। इस बीच, पीड़ित महिला के परिजनों ने पुलिस एवं प्रशासन से इस घटना के लिए दोषी पादरी एवं धर्म प्रचारक के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराए जाने के साथ उनकी जानमाल की सुरक्षा किए जाने की गुहार की है। आखिर ये सब क्या है ? फिर भी हमारा हिन्दू समाज सेकुलर होने का डंका पिट रहा है हमारा समाज बिलकुल अँधा हो गया है इसे कुछ नहीं दिखता दिखाने की कोशिश करो तो भी नहीं देखना चाहते अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू हिन्दुस्तान में ही अल्पसंख्यक हो जायेंगे और बिधर्मियो की साजिस सफल हो जायेगी.
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नंदीग्राम के हिटलर

आज नंदीग्राम में सत्तारूढ़ माकपा कार्यकर्ता के द्वारा जो कुछ हो रहा है 23 साल पूर्व कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रायोजित देशव्यापी सिख नरसंहार जिसमे में तीन हजार से अधिक सिख मारे गए थे घटना कि याद तजा हो गई।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सत्तारूढ़ सीपीएम के नंदीग्राम पर हमले को सही ठहराया है। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ माकपा पर नंदीग्राम में अपनी नीतियों के जरिये भारतीय राज्य पर युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया। मनमोहन-सोनिया पर इस मामले में 'धृतराष्ट्र' की तरह आंखें बंद करने का आरोप लगाया। माकपा ने इलाके को प्रवेश निषेध क्षेत्र बना रखा है और 'रेड रिपब्लिक' की स्थापना कर दी है जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। माकपा नंदीग्राम में निजी सेना की मदद ले रही है जिसमें कुख्यात बदमाश शामिल हैं। अमानुल्ला (पत्रकार) ने कहा, "बुद्धदेब भट्टाचार्य मुख्यमंत्री की तरह नहीं बोल रहे थे उनके भीतर सियासी अहम पैदा हो गया है और उनकी भाषा इसी को दर्शाती है इसमें तानाशाही की भी झलक मिलती है पुलिस बाले भी सीपीएम में शामिल हो गए हैं और सत्ता एवम माकपा कार्यकर्ता से साथ मिलकर कार्य कर रहे हैं
नंदीग्राम के किसानों के लिए ये अस्तित्व कि लड़ाई है। उसके लिए पिछले कुछ महीनों में उन्होने न जाने कितनी जाने गवाईं हैं। जाने अब भी जा रही है। कोर्ट तक को कहना पड़ा कि पानी सर के ऊपर जा रहा है। बंगाल में उन्ही वामदलों कि सरकार है, जिन्होनें गुजरात दंगों के खिलाफ जमकर बवाल काटा था। मोदी को हिटलर और ना जाने क्या-क्या कहा था। आज वामपंथी धरे के वो सारे बुध्धि भी चुप हैं जो गुजरात दंगों पर खुद आगे आकार बवाल कट रहे थे। कोर्ट और ना जाने कहाँ-कहाँ तक गए थे। आज उनको कोई मौत विचलित नहीं करती। क्युकी नंदीग्राम में बह रहे खून से उनकी राजनीति नहीं चमकती। यहाँ लड़ाई का न तो कोई जातिया आधार है, और ना ही सांप्रदायिक। यहाँ कि लड़ाई किसानों कि है। जो अपने अस्तित्व कि लडाई लड़ रहे हैं।'जैसा किया वैसा ही पाया' नंदीग्राम में हो रही हिंसा पर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब साहब का यही ताजा बयान है। याद करिये गुजरात दंगे का वक्त जब मोदी ने यही कहा था, सारे देश के तथाकथित विद्वानों ने मोदी को हिटलर कहा । कहाँ है आज वो सारे दिग्गज, आज बुद्धदेब को हिटलर के खिताब से क्यों नहीं नवाजते।नंदीग्राम में सरकार की प्रायोजित हिंसा और बंद के बाद पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की जो छवि दुनिया के सामने आई है उसने पूरे कम्युनिस्ट सिध्दांतों को सत्तालोलुपता के हाथों गिरवी रख दिया है। गरीबों, मजदूरों और किसानों के हक के लिए सत्ता को दरकिनार करके न्याय की लड़ाई लड़ने की छवि वाले क्या यही कम्युनिस्ट हैं?
आज समूचा देश नंदीग्राम की घटना से चिंतित है। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में हालात दिनोंदिन और बिगड़ते जा रहे हैं। सोमवार को माकपा समर्थकों द्वारा गोलाबारी और आगजनी की घटना के बाद इलाके में तनाव फैल गया है। माकपा समर्थकों द्वारा फायरिंग और घरों को आग लगाने का आरोप लगाया है। इलाके से करीब 200 लोग गायब हैं, जिनका बीती रात से कुछ पता नहीं चल सका है। मामले की गंभीरता को देखते हुए यहां सीआरपीएफ की पांच कंपनियां तैनात की गई हैं।गर्चाक्रोबेरिया, सोनाचुरा और गोकुलनगर आदि इलाकों को कब्‍जे में लेकर माकपा समर्थकों ने गोलीबारी की। उन्होंने घरों को आग लगा दी। नंदीग्राम और आसपास से मिल रही जानकारी के मुताबिक सशस्त्र मार्क्सवादी समर्थकों ने नंदीग्राम की ओर जाने वाले लगभग सभी रास्तों पर नाकेबंदी कर रखी है. यहाँ तक कि मीडियाकर्मियों को भी वहाँ नहीं जाने दिया जा रहा है
इस बीच, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मुद्दे पर पश्चिम बंगाल सरकार को नोटिस जारी कर वहां जांच टीम भेजने के लिए कहा है। यहां प्रश्न यह उठना काफी लाजमी लगता है कि क्या इसतरह के वामपंथ पार्टी वाली सरकार की जरूरत आज है या नहीं। ये वामपंथ सत्ता लेने के समय आमजन के हितों व जानमाल की रक्षा की बात तो करती है, मगर सरकार में रहकर वह पूंजीपतियों के हित के लिए आम जन पर प्रहार कर रही है और जब राज्यपाल इस पर चिंता व्यक्त करते है तो वामपंथियों को यह बात खटकने लगती है।
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यह कैसी पंथनिरपेक्षता है?

वह दिन अब दुर नही जब हिन्दुस्तान मे रहने बाले मुस्लमान मुस्लिमों लिये अलग सविधान का मांग रख दे और हमारे देश की सोनिया सरकार उनकी हर एक वेहुदा मांग कि तरह इस मांग को भी मान ले। मुस्लिम धर्मगुरुओं और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को विरोध करने का एक नया मुद्दा मिल गया है। मुस्लिमों का ताजा विरोध उस निर्देश के खिलाफ है जो उच्चतम न्यायालय ने शादियों के अनिवार्य पंजीकरण के संदर्भ में हाल में दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने शादियों के अनिवार्य पंजीकरण का आदेश 14 फरवरी 2006 को दिया था और इस संदर्भ में पिछले दिनों उसने सभी राज्यों को इस पर प्रभावशाली तरीके से अमल सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। उच्चतम न्यायालय का यह आदेश महिलाओं के अधिकारों की हिफाजत के लिए है, साथ ही इससे बाल विवाह जैसी बुराइयों पर भी अंकुश लगेगा। शीर्षस्थ अदालत द्वारा इस संदर्भ में दिए गए स्पष्ट आदेश के बाद बीस माह बीत जाने के बावजूद यह सामने आया कि बहुत सारे राज्यों ने इस पर अमल ही सुनिश्चित नहीं किया। केवल पांच राज्यों में ही शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन का कानून है, जबकि कुछ अन्य ने इस व्यवस्था को मुस्लिमों के लिए वैकल्पिक घोषित करते हुए कानून का निर्माण किया। इस स्थिति पर नाराजगी जताते हुए अदालत ने पिछले दिनों फिर से आदेश जारी कर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा कि वे 90 दिनों के भीतर सभी नागरिकों, चाहे वे किसी भी मजहब के हों, के लिए शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन का कानून बनाएं।
सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का कहना है कि शादियों का रजिस्ट्रेशन मुस्लिमों के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि मुस्लिमों के विवाह गवाहों की मौजूदगी में संपन्न होते हैं और स्थानीय काजी उनका रिकार्ड रखते हैं। लिहाजा किसी कानून के जरिए मुस्लिमों के लिए शादियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाना उचित नहीं है। पर्सनल ला बोर्ड के इस तर्क में कोई वजन नहीं हैं। क्या मुस्लिम पसर्नल ला बोर्ड के सदस्यों ने हिदुओं में होने वाले विवाह नहीं देखे? अक्सर हिंदुओं में शादियां हजारों लोगों की मौजूदगी में होती हैं और हिंदुओं में कई वर्गो, धार्मिक प्रथाओं तथा मंदिरों में शादियों का रिकार्ड भी रखा जाता है। इसी तरह देश के सबसे छोटे मजहबी समूह पारसियों तथा ईसाइयों में ऐसी पद्धतियां हैं जिसके तहत मजहबी स्थलों में संपन्न होने वाली शादियों का पंजीकरण किया जाता है। लिहाजा मुस्लिमों में ही स्थानीय काजियों द्वारा शादियों का रिकार्ड रखने में क्या विशेषता है जिससे उन्हें इस कानून से अलग रखा जाए? क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य खुद को इतना असहाय महसूस करेगा कि वह मुस्लिमों की एक गैर-जरूरी मांग को पूरा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का उल्लंघन कर दे? क्या हम यह मान लें कि भारतीय राष्ट्र-राज्य ने शासन करने की क्षमता खो दी है और वह उस अनुच्छेद 14 पर अमल सुनिश्चित नहीं कर सकता जो कानून के सामने सभी नागरिकों की समानता रेखांकित करता है?

दरअसल आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने सामाजिक क्षेत्र में किसी भी प्रगतिशील कानून का विरोध करने की आदत डाल ली है। हर बार जब महिलाओं और बच्चों के हित संव‌र्द्धन के लिए कोई राष्ट्रीय कानून बनाने की कोशिश की जाती है तो मुस्लिम धर्मगुरुओं और पर्सनल ला बोर्ड की ओर से तीव्र विरोध के स्वर सुनाई देने लगते हैं। उन्होंने ऐसा ही तब किया था जब इंदिरा गांधी ने 1972 में बच्चों को गोद लेने के संदर्भ में संसद में बिल पेश किया था। इस बिल का मकसद बच्चों को गोद लेने के संदर्भ में एकसमान कानून का निर्माण करना था। सरकार ने यह कदम उठाने की इसलिए जरूरत महसूस की, क्योंकि हिंदू एडाप्शन एंड मेंटिनेंस एक्ट 1956 के अनुसार केवल हिंदुओं को बच्चों को गोद लेने का अधिकार है। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस कानून के संदर्भ में यह दलील दी कि इस्लाम में बच्चों को गोद लेना प्रतिबंधित है, इसलिए सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जिससे मुस्लिमों समेत सभी नागरिकों को गोद लेने का अधिकार मिले।

पर्सनल ला बोर्ड उक्त कानून के विरोध पर अडिग था। उसके प्रतिनिधियों ने इस बिल का परीक्षण करने वाली संसद की एक संयुक्त समिति को बता दिया कि यद्यपि यह बिल किसी को बच्चे गोद देने के लिए मजबूर नहीं करता, लेकिन इसे सभी पर लागू करने का मतलब है मुस्लिमों को बच्चे गोद लेने के लिए लालच देना और यह उनकी मजहबी मान्यताओं का उल्लंघन है। अनेक बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने मुस्लिमों को मनाने के प्रयास किए कि वे अपनी आपत्तियां छोड़ दें। मुस्लिमों को बताया गया कि एडाप्शन ला एक विधायी व्यवस्था भर है। यदि मुस्लिमों के लिए गोद लेना हराम है तो उन्हें इस कानून का इस्तेमाल करने के लिए कोई जरूरत नहीं है, लेकिन मुस्लिमों ने एक न सुनी। यहां तक कि जाने माने इस्लामिक विद्वान डा. ताहिर महमूद ने भी समिति से कहा कि उनके विचार से इस्लाम में गोद लेने पर पाबंदी नहीं है, बल्कि इस्लाम गोद लेने के मामले में उदासीन है। इससे भी अधिक यह बिल किसी से बच्चों को गोद लेने के लिए नहीं कह रहा है। ऐसे सभी विचार पर्सनल ला बोर्ड की समझ में नहीं आए। अंतत: सरकार ने मुस्लिमों के दबाव के आगे घुटने टेक दिए और बिल वापस ले लिया गया।
1980 के दशक में भी मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को राहत उपलब्ध कराने से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों को धता बता दी थी। जब अदालत ने यह फैसला दिया कि तलाकशुदा महिलाएं संसद द्वारा बनाए गए कानून के मुताबिक गुजारा-भत्ता पाने की अधिकारी हैं तो मुस्लिमों ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ दिया, जिसके दबाव में आकर राजीव गांधी सरकार ने कानून में संशोधन ही कर डाला। हाल के समय में मुस्लिम समुदाय ने ऐसे प्रयासों के खिलाफ भी अभियान छेड़ा है जिनका संबंध उनके ही समाज के बच्चों के स्वास्थ्य से है। पल्स पोलियो अभियान को ही लें। सरकार देश को पोलियो से मुक्त बनाने के लिए अरबों रुपए व्यय कर रही है और अभिभावकों को इसके प्रति जागरूक किया जा रहा है कि वे अपने बच्चों को समय पर पोलियो की दवा दिलवाएं, लेकिन देश के कुछ हिस्सों में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने पोलियो की दवा के खिलाफ एक व्यापक दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया और मुस्लिमों को अपने बच्चों को इस दवा से दूर रखने की सलाह दी। आश्चर्य नहीं कि देश में हाल के समय में पोलियो के जो मामले सामने आए उनमें 90 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों के हैं।

देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो धार्मिक नेताओं को जिम्मेदाराना आचरण से विशेष छूट प्रदान करे। राष्ट्र-राज्य को ऐसे धार्मिक नेताओं का संज्ञान लेना चाहिए जो अपनी बेजा मांगों से लोक व्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। इस तरह के आचरण का ताजा उदाहरण है एक लोकतांत्रिक और सेकुलर देश में शादियों के पंजीकरण से संबंधित आदेश के खिलाफ उठे स्वर। विचित्र यह है कि ऐसी व्यवस्थाओं का विरोध करने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट से भी दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। यह दु:खद है कि उनके इस आचरण की सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा अनदेखी कर दी जाती है। आखिर यह कैसी पंथनिरपेक्षता है? यदि कुछ राज्य मुस्लिमों के विरोध के डर से सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर अमल करने से बच रहे हैं तो फिर हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हमारे राष्ट्र-राज्य में पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक वातावरण को संरक्षित करने की प्रेरणा का घोर अभाव है।
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कम्युनिस्टो की देशभक्ती

हर्षवर्धन त्रिपाठी
प्रोड्यूसर, सीएनबीसी आवाज़
अमेरिका के साथ भारत के परमाणु समझौते के विरोध की असली वजह करात ने बता ही दी।
सीपीएम महासचिव प्रकाश करात इसलिए नहीं चिंतित हैं कि उन्हें भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से भारते के हितों को नुकसान होता दिख रहा है। वो, परेशान इसलिए हैं कि भारत-अमेरिका के साथ समझौता करके चीन को कमजोर कर देगा।
कोलकाता में कल सोवियत क्रांति की 90वीं वर्षगांठ पर सारे कॉमरेडों के बीच में ये करात की स्वीकारोक्ति थी (देश की आजादी के कितने कार्यक्रम वामपंथियों को उत्साह से मनाते देख जाता है)। खैर, सोवियत क्रांति की 90वीं वर्षगांठ पर करात ने कहा कि हम तब तक आराम से नहीं बैठने वाले जब तक कि अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी को पूरी तरह खत्म नहीं कर देते। करात की दलील मानें तो, अमेरिका की नजर भारत के बाजार पर है। और, वो भी इसलिए कि अमेरिका भारत के बाजार में हिस्सा लेकर चीन से बढ़त बनाए रखना चाहता है। करात कहते हैं कि इसकी वजह साफ है कि चीन अकेला देश है जो, अर्थव्यवस्था के मामले में अमेरिका से आगे निकल सकता है।
करात को भरोसा है कि 2050 तक चीन अमेरिका से आगे निकल जाएगा। बस यही चिंता करात को खाए जा रही है कि भारत-अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी से उनके सपनों का देश चीन कहीं पीछे न रह जाए। करात के पूरे भाषण में कहीं भी ये चिंता या खुशी नहीं दिखी कि अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी से भारत को कितना नुकसान या फायदा होगा। कॉमरेड करात को ये भी लगता है कि लाल सलाम करने वाला चीन अकेला सबसे ताकतवर कम्युनिस्ट देश है जो, अमेरिका को चुनौती दे सकता है। करात को कभी ये सपने में भी नहीं आता होगा कि भारत चीन को या अमेरिका को चुनौती देने लायक कैसे बन सकता है।
परमाणु समझौते पर लाल हो रहे करात ने एक और तथ्य का खुलासा किया कि अमेरिका ने पाकिस्तान को इसलिए छोड़ा क्योंकि, भारत उसे बड़ा बाजार दिख रहा है। अब साफ भारत की ताकत को अमेरिका क्या दुनिया पूज रही है। लेकिन, करात को इससे एशिया में चीन को नुकसान होता दिख रहा है। इसलिए वो भारत के नुकसान पर भी समझौता करने के लिए तैयार हैं।
करात ने कॉमरेडों को भरोसा दिलाया कि पश्चिम बंगाल पूंजीवाद से मुकाबला करता रहा है (बुद्धदेव बाबू सुन रहे हैं) और आगे भी करता रहेगा। बूढ़े कॉमरेड ज्योति बसु ने महिला कैडर को यूपीए सरकार की ‘जनविरोधी’ (वो, हर बात जो कॉमरेडों को पसंद न आए) नीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने को कहा। साथ ही बसु ने मजबूरी भी जताई कि विकल्पहीनता की वजह से वो कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं। मजबूरी सिर्फ बीजेपी के विरोध की है (पता नहीं वामपंथियों को ये भ्रम क्यों है कि चीन की वकालत करने वालों को देश के लोग देश अकेले चलाने का विकल्प दे देंगे)।
ये वही बसु हैं जो, सरकार गिरने की नौबत पर सरकार बचाने के लिए लाल कॉमरेडों को मनाने में जी जान से जुटे हुए थे। अब ये कांग्रेस को मजबूरी का समर्थन दे रहे हैं। कोलकाता में पोलित ब्यूरो और कॉमरेड मीटिंग के बाद दिल्ली आते-आते वामपंथियों का चरित्र इतना क्यों बदल जाता है, ये सोचने वाली बात है। अब तक मेरे जैसे देश के बहुत से लोगों को ये लगता था कि वामपंथी भारत के हितों के लिए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का विरोध कर रहे हैं। अच्छा हुआ उनका दोगला चरित्र फिर से सामने आ गया। वैसे तो, अब ये चीन की भी हैसियत नहीं है। लेकिन, अब आप समझ सकते हैं कि अगर गलती से भी ऐसी संभावना बनी और चीन ने दुबारा हमारे देश पर हमला किया तो, वामपंथी किसके पक्ष में खड़े रहेंगे।
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माकपा का चेहरा और काग्रेस का मौन समर्थन

आज कल नंदीग्राम माकपा काडर के द्वरा जो कुछ हो रहा है उसके बारे मे ना तो आज तक कोई तालीबानी मीडिया बालो ने कहा और न इस देश के प्रधानमन्त्री मनमोहन जी , सोनिया गान्धी या काग्रेस के द्वारा ही कुछ कहा गया हो। आखीर क्या है
उनका मजबुरी, क्या सत्ता का मोह इतना सता रहा है कि इन नेताओ को सच्चाई बोलने मे भी शर्म महसुस हो रही है। गुजरात के बारे मे देर सबेर मुह खोल कर चिल्लाने बाले नेता को आज साप क्यो सुन्घ गया है। शायद सत्ता की दलाली इन्हे रास आ रही है और आम नागरीक मौत पर इन्हे मजा आ रहा है। क्या सिंगूर और नंदीग्राम में जो किसानों का लहू बहा उसका कोई मोल नहीं है ?
14 मार्च को हुई घटना और उसके बाद सीपीएम के बंद के दौरान गायब हुए दो सौ लोगों का अब तक कोई अता-पता नहीं है्. हां। कुछ लाशें हैं जो इलाके में इस हालत में पायी गयी हैं| नंदीग्राम में गैर सरकारी स्रोत बताते हैं कि डेढ़ सौ से ज़्यादा लोग मारे गये. लाशें नदी में बहा दी गयीं. दो सौ लोग अब भी लापता हैं.

एक सच्चाई
18 दिसंबर 2006 को मुंह अंधेरे तापसी मलिक रोज की भांति घर से निकली थी ताकि उजाला होने से पहले वह दिशा मैदान से निपट ले. तापसी निकली ही थी कि कुछ लोगों ने उसे घेर लिया. उसका हाथ-पैर-मुंह बांध दिया गया. वामपंथी गुंडों ने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया. फिर उसे एक जलती भट्टी में डाल दिया गया. तापसी मलिक का अंत हो गया लेकिन उसके इस दुखद अंत से बंगाल में वह गुस्सा नहीं फूटा जिसे माकपा गंभीरता से लेती. इसलिए नतीजा हुआ नंदीग्राम.
नंदीग्राम में राहत कार्य में लगी डॉ शर्मिष्ठा राय कहती हैं कि नंदीग्राम में हिंसा के दौरान औरतों की योनि को खासकर निशाना बनाया गया है.



तापसी मलिक का जला हुआ शव




औरतों की योनि में गोली मारी गयी और कई मौकों पर उनकी योनि में माकपा काडर ने लोहे की छड़ घुसा दी. एक 35 वर्षीय महिला कविता दास को दो खंबों से बांधकर सामूहिक बलात्कार किया गया. उसके पति ने उसे बचाने की कोशिश की तो माकपा काडर ने उसके बच्चे को रौंदकर मार देने की धमकी दी. अपने बच्चे की खातिर उस व्यक्ति को अपनी पत्नी का बलात्कार सहना पड़ा. 20 मार्च को एक 20 वर्षीय माकपा कार्यकर्ता को सोनचुरा में गिरफ्तार किया गया. उसने स्वीकार किया कि 14 मार्च 2007 को हुए नंदीग्राम गोलीकांड के दौरान उसने एक 13 वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार किया था.
14 मार्च की गोलीबारी एक पुल के पास हुई थी. सीबीआई को शिकायत की गयी थी कि इस पुल के पास शंकर सामंत के घर में 14 औरतों को उठाकर ले जाया गया था. सीबीआई ने अपनी जांच में उस खाली पड़े घर से औरतों के आंतरिक कपड़ों के टुकड़े मिले जिसमें खून के धब्बे लगे हुए थे. गांव के लोगों ने बताया कि उन्होंने उस दिन कई घंटे इस घर में चीख-पुकार सुनी थी. लेकिन घर के चारों ओर माकपा काडरों का मुस्तैद काडर मौजूद था. इसलिए वे लोग वहां नहीं जा सके.
उसके साथ पुलिस की मौजूदगी में बलात्कार किया गया. माकपा काडर ने उसके ब्लाउज फाड़ डाले और उसके निप्पल काट लिये. उसके साथ एक दूसरी औरत जो अस्पताल में इलाज करा रही थी उसका एक गाल माकपा काडर ने काट खाया था. बाद में डोला सेन ने राज्यपाल को जो शिकायत की थी उसमें उन्होंने कहा था कि माकपाई गुण्डों द्वारा इस तरह क्षत-विक्षत की गयी औरतों की संख्या सैकड़ों में है.


माकपा काडर के द्वारा आग मे जलाये गये बच्चे









दूसरी बार नंदीग्राम में जब झड़प हुई तो माकपा कैडर ने एक बच्चे को गोली मार दी. एक महिला उसको बचाने के लिए दौड़ी तो उसको लाठियों से पीटा गया. महिला भाग गयी. इसके बाद माकपा कॉडर ने यह मानकर कि बच्चा उनकी गोली से मर चुका है उन्होंने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया. ऐसा उन्होंने लाश को हटाने के लिए किया या फिर अपनी मौज के लिए, पता नहीं. ऐसी कुछ लाशों को उन्होंने वहां दफना दिया और कंक्रीट के स्लैब से ढंक दिया. अन्य लाशों के पेट फाड़ डाले गये ताकि उन्हें पानी में फेंकने पर वे पानी पर तैरने न लगें. काटे गये सिरों को बोरियों में भरा और ले जाकर नहर में फेंक दिया.
यह कहना कि सरकार को कुछ पता नहीं था, ठीक नहीं है. नंदीग्राम का पूरा आपरेशन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और निरूपम सेन की दिमाग की उपज थी. और लक्ष्मण सेन, विनय कोनार, विमान बोस जैसे मंत्रियों और नेताओं ने पार्टी मशीनरी के स्तर पर उन्हें मदद भी मुहैया कराई थी. मुख्यमंत्री भले ही झूठ बोले कि उन्हें इसका तनिक अंदेशा नहीं था लेकिन गृहसचिव प्रसार रंजन रे ने कहा है कि "हमने खुफिया रपटों के आधार पर ही पुलिस बल तैनात किये थे. बेशक मुख्यमंत्री को इसकी पूरी जानकारी थी." वैसे भी मुख्यमंत्री के खिलाफ यह आरोप लगता रहा है कि वे "आदतन पक्के झूठे" हैं. आरएसपी की एक नेता क्षिति गोस्वामी ने सार्वजनिक तौर कहा था कि बुद्धदेव के दो चेहरे हैं, उसमें एक मुखौटा है.
लेकिन बुद्धदेव की सरकार रहते नंदीग्राम का पूरा सच कभी सामने नहीं आ पायेगा. तभी विमान बोस को लगता है कि लोग नंदीग्राम की बातों को जल्दी भूल जाएंगे. लेकिन नंदीग्राम में हत्या, बलात्कार, आगजनी का जो सिलसिला अभी भी छुटपुट चल रहा है उसे वहां के बच्चे भी देख रहे हैं. क्या समय के साथ उनकी स्मृति से भी यह बात मिट जाएगी कि बंगाल का समाज लुटेरों, पेशेवर हत्यारों और बलात्कारियों से भरा पड़ा है.


माकपा काडर के द्वारा बर्बर हिंसा







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मोदी सरकार बनाम माकपा सरकार

45 मिनट में गुजरात की सम्पन्नता और गुजराती स्वाभिमान की बाबत अगर आपको कुछ जानना है तो अमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट आदि-आदि पर इंटरनेट खंगालना छोड़िए, तालीबानी मिडीया जो विदेशी धन पर अपना भरन पोसन करती है और अपने सरकारी आका को खुश करने के लीये चुनाव के समय ओपरेसन कलन्क लेकर आती है। मयंक जैन का बनाया वृत्तचित्र 'इंडिया टुमोरो' यानी 'कल का भारत' देख लीजिए। गुजरात में विकास के सोपान किस खूबी से तय किए जा रहे हैं और औद्योगिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्रांति जन-जन को स्वाभिमान के भाव से कैसे भर रही है,वहीं अपने-अपने क्षेत्र की प्रमुख विभूतियों ने गुजरात सरकार की दूरदृष्टिपूर्ण सोच की तारीफ की है। तत्कालीन राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम, प्रतिपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी, वाणिज्य मंत्री श्री कमलनाथ, शीर्ष उद्योगपति रतन टाटा, मुकेश अंबानी और कुमारमंगलम बिरला ने गुजरात में पूंजी निवेश को समझदारी भरा कदम कहा है और यह भी कि खुशहाल वातावरण देने में गुजरात का कोई सानी नहीं है।
जिस तरह का वातावरण तलीबानी सेकुलरों, विदेशी समाचार चैनले के पत्रकार ने मोदी शासन के विरुध्द अल्पसंख्यकों के मन में बनाया था वह इसके जरिए तार-तार हो गया है। गुजरात के ही अनेक आम मुस्लिमों ने इस वृत्तचित्र में कहा है कि वे खुद को गुजरात में सुरक्षित महसूस करते हैं और राज्य की प्रगति में हिस्सेदारी कर रहे हैं।
गुजरात राज्य में तेजी से हो रहे ग्रामीण और औद्योगिक विकास की झलक है कैसे मोदी शासन ने इसे आतंक रहित राज्य बनाया है। पिछले कुछ वर्षों से आतंक की कोई बड़ी घटना नहीं घटने दी गई है (भारत सरकार को कुछ सीखना चाहीय)। इसमें गुजरात की तुलना उन राज्यों, खासकर मार्क्सवादियों के शासन वाले बंगाल से की गई है जहां स्थितियां काबू से बाहर होती रही हैं। सिंगूर और नंदीग्राम जहा पर कामरेड हाथ मे बन्दुक और बम लेकर आम नागरीको डराते और मारते है।
बताया गया है कि कैसे साल के 60 प्रतिशत मानव श्रम दिवस बंगाल में हड़तालों के कारण काम के बगैर गुजरे हैं जबकि, मुकेश अंबानी के शब्दों में, 'गुजरात में पिछले एक साल में रिलायंस ने एक भी मानव श्रम दिवस का घंटा गंवाया नहीं है।' रतन टाटा कहते हैं, 'गुजरात सबसे अधिक प्रगतिशील राज्य है।' कुमारमंगलम बिरला तो मोदी के दमदार नेतृत्व से अभिभूत हैं जबकि केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री कमलनाथ कहते हैं, 'गुजरात को सामने रखकर हम भारत को प्रस्तुत करते हैं।' कुछ समय पहले अमदाबाद में देश-विदेश के शीर्ष उद्योगपति, पूंजी निवेशक और व्यवसायी वायब्रेन्ट गुजरात सम्मेलन में एकत्र हुए थे। इस सम्मेलन के पीछे मुख्यमंत्री मोदी की यही दूरदर्शी सोच थी कि प्रदेश सरकार ओद्यौगिक विकास के लिए जो प्रयास कर रही है उसकी पूरी जानकारी संबंधित वर्ग के लोगों को होनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने सबको गुजरात बुलाया था और उनके सामने पूंजी निवेश की असीम संभावनाएं दर्शाई थीं। उद्यमियों ने प्रभावित होकर अरबों रुपए के निवेश की घोषणा की थी और गुजरात को निवेशकों की पहली पसंद बताया था।
हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने एक अध्ययन किया है जिसका निष्कर्ष यह है कि 2007 के दौरान सीधे विदेशी निवेश के जरिए भारत को कुल 69 अरब डॉलर पूंजी मिलेगी। यह आंकड़ा करीब 380 लाख करोड़ रुपए के बराबर है। उसमें से 25.8 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश अकेले गुजरात राज्य में आया। यानि एक चौथाई से ज्यादा। इससे कम, घटते हुए क्रम में, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में विदेशी पूंजी निवेश हुआ। बाकी राज्यों में तो और भी कम। गुजरात में भारत के पांच प्रतिशत लोग हैं और 6 प्रतिशत भूमि इसका क्षेत्रफल है। गुजरात का निर्यात देश का 12 प्रतिशत है। भारत के शेयर बाजार में इस राज्य की भागीदारी 30 प्रतिशत है। गुजरात में गरीबी रेखा के नीचे की आबादी लगभग 15 प्रतिशत है। करीब 40 प्रतिशत लोग शहरों में रहते हैं।
''सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी'' के अनुसार आद्योगीकरण के क्षेत्र में गुजरात अन्य राज्यों से कहीं आगे प्रथम स्थान पर है। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाले राजीव गांधी फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला था कि गुजरात में सर्वाधिक आर्थिक स्वतंत्रता है। गुजरात की शिक्षा दर 70 प्रतिशत से ज्यादा है। 2003, 2005 और 2007 में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'वाइबंरेट गुजरात' महासम्मेलन का आयोजन किया था। विश्व भर से उद्योगपति और निवेशक वहां आए। रतन टाटा, मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला जैसे उद्योगपतियों ने गुजरात की आर्थिक गतिविधियों और चौमुखी विकास की जबरदस्त सराहना की। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के मामले में भी गुजरात देश में प्रथम स्थान पर है। गुजरात में इस समय 51 से अधिक एसईजेड (विशेष आर्थिक क्षेत्र) कार्य कर रहे हैं। आर्थिक क्षेत्र के मामले में महाराष्ट्र को गुजरात ने पीछे छोड़ दिया है। गुजरात के लगभग 19000 गांवों में तीन फेज बिजली की आपूर्ति 24 घंटे होती है।इंग्लैण्ड में रहने वाले कपैरो ग्रुप के लॉर्ड स्वराज पाल ने कहा है कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य में उच्च कोटि का बुनियादी ढांचा खड़ा किया है। गुजरात में उत्कृष्ट सड़कें हैं।गुजरात में अब पानी का संकट नहीं है। वनवासियों को भी दूर गांव से पानी लाने की जरूरत नहीं है। उच्च शिक्षा और कम्प्यूटरीकरण के मामले में गुजरात तीव्रतर विकास करने वाला राज्य है। ई-गवर्नेन्स से अर्थात कम्प्यूटर के जरिए प्रशासन संभालने का सफल प्रयोग गुजरात में हुआ है। नतीजा यह है कि पिछड़े से पिछड़े गांव के गरीब से गरीब परिवार के खतरनाक बीमारियों से जूझ रहे रोगियों को सर्वोत्तम स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ दिया गया है। आवश्यकता होने पर वह श्रेष्ठतम चुनिन्दा अस्पतालों में इलाज करवा सकते हैं। गर्ववती महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं का विशेष ध्यान रखा गया है।
'इण्डिया टुडे' ने पिछले पांच वर्षों में गुजरात को दो बार सर्वोत्तम शासन मुहैया कराने वाला राज्य कहा है। भाजपा और नरेन्द्र मोदी के कट्टर से कट्टर विरोधी भी विकास के सवाल पर नरेन्द्र मोदी का लोहा मानते हैं। प्रशासन में शुचिता और मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी के सवाल पर प्राय: उनका लोहा माना जाता है। प्रसिध्द अन्तर्राष्ट्रीय कंसलटेंसी कम्पनी 'अर्नस्ट एण्ड यंग' ने अपने विशद अध्ययन पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। उसमें गुजरात को भारत की विकास यात्रा और आत्म निर्भरता के मामले में एक सुनहरा उदाहरण बताया है। कहा है कि गुजरात सरकार ने 72 अभिनव पहल किए हैं और उन प्रायोगों की उपलब्धियों का व्योरा दिया है।
वैसे प्रचार की आंधी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आज भी है। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी को प्रसिध्द भेंटवार्ताकार करन थापर ने अपने साप्ताहिक कार्यक्रम में बुलाया। उनकी कोशिश यही थी कि घूम-फिर कर गुजरात दंगों के लिए बदनाम किए गए नरेन्द्र मोदी को इस पुरानी जमीन पर खड़ा कर दिया जाए। मोदी उनके सवालों के जवाब, बिना राजनीतिक मात खाए हुए, टालू मुद्रा में दिया। मगर करन थापर भी कुछ कम नहीं थे। वह छवि के सवाल पर घूम-फिर कर गुजरात के दंगों पर आ जाते थे। अंतत: यह हुआ कि सिर्फ चार मिनट बाद ही नरेन्द्र मोदी ने एक गिलास पानी पिया और भेंटवार्ता का बहिर्गमन कर दिया। पश्चिम बंगाल की प्रसिध्द लेखिका महाश्वेता देवी का मानना है कि बुध्दिजीवियों के बीच वामपंथी मोर्चा जिस प्रकार से अलग-थलग पड़ता जा रहा है, उससे पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में अपने 30 वर्ष के शासन के बाद भी उसने वहां कुछ भी तो नहीं किया है।नई दिल्ली में आयोजित नौंवे डी.एस. बोर्कर स्मृति व्याख्यान में 'माई विजन ऑफ इण्डिया: 2047 एडी' विषय पर भाषण देते हुए महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार को विकास का कोई भी कार्य न कर पाने के लिए निकम्मा ठहराया और नरेन्द्र मोदी की गुजरात सरकार द्वारा जमीनी स्तर से विकास कार्य को बहुत ऊंचाई तक ले जाने के लिए प्रशंसा की।उन्होंने कहा कि मैं इस बात से अत्यंत प्रभावित हुई हूं कि गुजरात में कार्य-संस्कृति अत्यंत सुदृढ अवस्था में पहुंच गई है। शहरी और गांव की सड़कें बहुत अच्छी बनी हुई हैं, यहां तक कि दूर-दराज के गांवों तक में भी बिजली और पेयजल उपलब्ध है। मैं विशेष रूप से पंचायतों और स्थानीय स्तर पर बने स्वास्थ्य केन्द्रों में प्राप्त डाक्टरी सुविधाओं से बहुत प्रभावित हुई हूं। यहां की स्थिति पश्चिम बंगाल जैसी नहीं है, जहां अब तक भी गांवों और पंचायती क्षेत्रों में कहीं भी बिजली के दर्शन तक नहीं हो पाते है और सरकार की तथाकथित स्वास्थ्य परिसेवा कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। महाश्वेता देवी ने आगे कहा कि पश्चिम बंगाल में 30 वर्षों से सीपीआई(एम) की वामपंथी सरकार का शासन चल रहा है, फिर भी वहां कोई उपलब्धि दिखाई नहीं पड़ती है। उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल में भूखमरी से होने वाली मौतें और बाल मृत्यु दर का दौर-दौरा है।महाश्वेता देवी ने कहा कि मैंने इतिहास, लोक-संगीत और लोक-कहावतों की पुस्तकें पढ़ी है। जरूरत इस बात की है कि गांवों का दौरा किया जाए और ग्रामवासियों से मिला जाए। शायद मैंने इसी प्रकार भारत को जानना शुरू किया। आज 82 वर्ष की आयु में भी नन्दीग्राम का दौरा कर मैं यही कर रही हूं।
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अमेरीका से कुछ सीख ले भारत

भारत हमेसा से आतकवाद के विरुद्द लड़ने मे अमेरीका का मुह देखता है और कहता है कि अमेरीका भारत का सर्मथन नही करता है क्या भारत सरकार इस लायक है कि उसका कोई सर्मथन करे क्या इसमे इतना ताकत है कि ये आतकवाद को समाप्त कर सके शायद नही । भारत और अमेरीका मे आतकवाद के विरुद्द लड़ने का कितना दम है मद्दा है इसके लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है। अनीति के पृथकतावादी नेता सैय्यद अलीशाह गिलानी जब तक स्वस्थ था भारतीय तन्त्र के विरुध और जम्मू कश्मीर मे सशस्त्र आतकवाद को बढावा देने मे कभी भी पीछे नही हटे और जब मुम्बई मे उसका इलाज चल रहा था तो उसको यही चिन्ता सता रही थी कि क्या कश्मीर मे उसका विक्लप मैजुद है? उसकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियो के बावजूद भारत सरकार ने अमरीका मे उपचार हेतु भारत सरकार ने उसे पासपोर्ट जारी किया, प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिह ने हर सभव चिकित्सकीय सहयता देने का आश्वासन दिया, दूसरी और यह अमरीका ही है जिसने गिलानी को वीजा देने से मना कर दिया। उसी गिलानी की भारत विरोधी गतिविधियो को नजरअन्दाज करने का ही दुष्परिणाम है कि पाव पर खड़ होते ही श्रीनगर मे भारत विरोधी रैली का आयोजन किया जिसमे कई आतन्कवादी गुट के बैनर तथा नकाबपोश आतन्कवादी शामिल हुए बाद मे उसी गिलानी ने कश्मीर मे गैर कश्मीर मजदूरो को घाटी से बाहर जाने का फ़तवा जारी किया।
यह हम सब के लिया चिन्ता क विषय है कि एक ओर आतन्कवादी के प्रति नरम रवैया है, कातिल से हाथ मिलाने का दस्तूर है, अलगावादियो एव आतन्कवादी के बिना पासपोर्ट के भी पाकिस्तान की सीमा लाघने पर कुछ नही कहा जाता, सन्सद के हमलावर को मौत की सजा तक रोक दी जाती है, भारतीय सम्प्रभुता की रक्षा के लिए प्राण - न्योछावर करने वालो ससद के रणबाकुरो के परिजनो द्वारा शहादत के सम्मान मे दिये गये शोर्य पदक लौटाए जाने पर भी राष्ट्र आतन्कवाद के प्रति मौन है।
दूसरी ओर अमरीका अन्तराष्टीय आतन्कवादी गुट अलकायदा से लोहा लेने के लिये हजारो मील का सफर तय कर अफगानिस्तान पर चठाई कर देता है। वह ओसामाविन लादेन के गढ मे जाकर आतन्कवादीयो को मारता है, ईराक मे सद्दाम हुसौन की तानाशाही मे सेध लगा देता है और आतन्कवाद से लड़ने मे तुष्टीकरण की राजनीति का शिकार हुये भारत के लिए भी यह आदर्श प्रस्तुत करता है कि मानवता के दुश्मनो को कैसे सबक सिखाया जाता है और भारत की नपुसक सरकार है जो आतन्कवाद को खात्मे के लिए ठोस कदम नही उठा रही है।
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कलयुगी रावण

रामायण जैसे पवित्र ग्रंथ में जब राम ने रावण को परास्त कर दिया था तब राम ने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान लेने के लिए भेजा था। लक्ष्मण ने रावण से ज्ञान देने के लिए आग्रह तो किया लेकिन मरे मन से। लेकिन फिर भी रावण ने लक्ष्मण को ज्ञान दिया। साथ ही रावण ने एक बात और भी कही कि हे राम! इस धरती पर जब भी कोई तुम्हारा नाम लेगा तो उसका विषय मेरे नाम लिये बिना खत्म नहीं होगा। ऐसा ही होता भी है, कोई भी मनुष्य जब राम का जिक्र करता है तो वह रावण का नाम भी अवश्य ही लेता है। कहने का आशय रावण ने सतयुग के दौर में भले ही अपनी शक्तियों के बल पर तीनों लोकों में हाहाकार क्यों ना मचाया हो लेकिन उसके सरीखा विद्वान ब्राह्मण आज तक मनुष्य जाति में नहीं हुआ। अपने उसी ज्ञान के चलते कई स्थानों में रावण का मंदिर भी स्थापित भी है। लेकिन आज के समाज में कई स्थितियां बदल चुकी हैं, जहां एक ओर सतयुग से कलयुग हो चुका है तो वहीं आज राम का पता ही नहीं है सभी स्थानों पर रावण ही रावण नजर आते हैं। विशेष बात तो यह है कि उनके लिए रावण का नाम इस्तेमाल किया जाता है वह असली रावण भी नहीं है। क्योंकि रावण जो पाप कर रहा था उसके विषय में वह भली भांति जानता भी था। लेकिन जैसे भी हो आज समाज में कई प्रकार के रावण मौजूद हैं। जो समाज को लगातार खोखला कर रहे हैं। लेकिन आज सोचने की बात यह है कि उस दौर में रावण को समाप्त करने के उद्देश्य से उतरे राम कहीं नहीं दिख रहे हैं। ना ही दूर तक किन्हीं मर्यादा पुरुषोत्तम के आने की कोई उम्मीद नहीं है। क्या इस परिप्रेक्ष्य में जिस दशहरे को मनाने की तैयारी हम कर रहे हैं उसे उचित कहा जा सकता है? यह अपने आप में सोचने का प्रश्न है कि हम लगातार रावण पर रावण जला रहे हैं लेकिन ना तो हमने कभी राम के गुणों को अपनाने की कोशिश की और ना ही कभी रावण के अवगुणों को त्यागने की।
लगातार विकास की सीढ़ियां चढ़ता मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के देश में आज दशमुखी नहीं वरन बहुमुखी रावण सामने आ रहे हैं। गौर करें तो तो दस ऐसी समस्यायें हैं जो रावण बने हमारे सामने हैं। जिसमें प्रमुख तौर पर मुस्लीम आतंकवाद, भ्रष्टाचार, साम्राज्यवाद, लालफीताशाही, अपराधीकरण, बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, मुस्लीम साम्प्रदायिकता, सामाजिक शोषण ( बाल श्रम, महिला, निम्न वर्ग) जैसे दस रावण हमारे सामने हैं, जो हमारे समाज पर अपनी अलग-अलग समस्यायें छोड़ रहे हैं। यदि विस्तृत तौर पर इन समस्याओं का प्रभाव देखें तो वह बड़ा ही व्यापक है।
सर्वप्रथम यदि आतंकवाद की बात करें इस समस्या ने आज समूचे विश्व को अपने पाश में कैद कर लिया है। यूरोप से लेकर एशिया तक आज यह समस्या वृहद आकार ले चुकी है। वर्तमान उदाहरण ले लें तो लुधियाना के श्रृगांर सिनेमा में हुआ धमाका। इस समस्या ने निश्चित ही आज देश में सोचने पर मजबूर कर दिया है।वहीं दूसरे स्थान पर भ्रष्टाचार अपना स्थान रखता है। आज यह हमारी व्यवस्थाओं पर घुन की तरह लग चुका है। सभी इसके दायरे में आ चुकी हैं। नगर पालिकाओं से लेकर संसद तक में ये घुन पहुंच चुके हैं। आम आदमी इससे त्रस्त है। आज की तिथि में कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो बिना इन घुनों को चारा दिये संपन्न हो सके। इस रावण ने भी देश में पाप का साम्राज्य फैलाया हुआ है। इसके बाद आती है साम्राज्यवाद की समस्या। अपनी नीतियों के माध्यम से दूसरे देशों पर राज करने का नाम आज साम्राज्यवाद बन चुका है। कभी किसी दौर में इससे लड़ने वाला अमेरिका आज स्वयं एक साम्राज्यवादी ताकत ब चुका है। उसकी कोशिश यही है कि जो वह कर रहा है बस वही करे और कोई ना। विशेष तौर पर अब वह आथिक नीतियों के रुप में हो या सामरिक नीतियों के रुप में। वाम दलों के अनुसार भारत पर यह समस्या परमाणु करार के उपहार स्वरूप आ रही है। जिसे ना लेना ही बेहतर होगा। उसी पर विवाद चल रहा है।
समाज में जो रावण के चौथे मुख के रूप में मौजूद है वह है लालफीताशाही। हमारे सभी नौकरशाहों पर जिन आकाओं के हाथ के चलते आज वह महज पैसे वालों के होकर रह गये हैं। आम आदमी उनके लिए कुछ मायने नहीं रखता। जो पैसे दिखाता है उसी की फाइल आगे बढ़ती है। राम का देश आज इस समस्या से बूरी तरह से जूझ रहा है। यही नहीं रावण का पांचवा मुंह आज समाज में अपराधिकरण का है। यह वही राम का देश है जहां किसी दौर में घर में ताले नहीं लगते थे लेकिन आज ताले तोड़ना तो दूर घर में घुसकर हत्यायें हो रही हैं। अपराध का स्तर लगातार बढ़ रहा है।रावण का छठा मुंह ताने बेरोजगारी हमारे सामने है। पढ़े लिखे नौजवान आज बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं। बेरोजगारी का आलम क्या है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज ग्रामीण भारत का ५० फीसदी से ज्यादा युवा शहरों की ओर पलायन कर चुका है। लेकिन रोजगार रूपी राम अभी भी बहुत दूर लगते हैं।यही नहीं इस देश का सातवां रावण आज गरीबी है। जिसका प्रभाव महानगरों से लेकर ग्रामीण भारत तक स्पष्ट दिखाई देता है। एक अरब की जनसंख्या में यदि आंकड़ों की बात करें तो २६ करोड़ से ज्यादा हिंदुस्तानी आज गरीबी रेखा से नीचे का जीवन व्यापन करने को मजबूर हैं।सातवां मुंह ताने मुस्लीम साम्प्रदायिकता का रावण हमे गाहे-बगाहे परेशान करता ही रहता है। आजादी के मुस्लीम प्रायोजित दगा हो या गोधरा मे जलाये गये राम भक्त सभी में हमें अपने ही भाई-बहनो को खोना पड़ा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इतिहास की इतनी भयावहताओं के बाद भी हम संभल रहे हों। मुस्लीम कठमूल्ले आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं। जो समय-समय पर धार्मिक मान्यताओं को भड़का कर तनाव फैलाने की कोशिश करते हैं। सामाजिक शोषण रूपी दशवा रावण जो एक साथ कई समस्यायों को लिए हुए है हमारे बीच में मौजूद है। बाल श्रम, नारी हिंसा, निम्न वर्ग की बदहाल हाालात सभी अपना मुंह ताने खड़ी हैं। संपूर्ण देश की बात को यदि क्षण भर के लिए भूल जाये और देश की राजधानी की बात करें, तो महिला हिंसा का प्रतिशत यहां लगातार बढ़ता ही जा रहा है। दिल्ली में उस तबके को भी देखा जा सकता है जिसे निम्न वर्ग कहा जाता है। उसकी हालत और भी खराब है। कुल मिलाकर इस देश में हम इस वर्ष भी दशहरा मनाने जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी तीन पुतले जलेंगें। यदि हम चाहते हैं कि वास्तव में रावण के दुगुणों को हटायें तो उसके लिए जरुरी है कि हम उस जलते हुए रावण के अपने अंदर के रावण को मारे। क्योंकि अगर इस देश में वास्तव में रावण को जलाना है तो इस बार भी वार नाभि में करना होगा।
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मुसलमानों का तालिबानी संस्कृति और हिन्दुस्तान

क्या भारत के मुसलमानों का रवैया लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और नागरिक अधिकारों जैसे शाश्वत मूल्यों के बारे में शेष विश्व के मुसलमानों से भिन्न है? क्या हमारे देश में पंथनिरपेक्षता के मापदंड अलग-अलग समुदाय के लिए भिन्न-भिन्न है? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तार हाल की कुछ घटनाओं में निहित है। जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते है तो साधारणतया वे पंथनिरपेक्षता का समर्थन करते है, किंतु जैसे ही उनकी संख्या एक सीमा से बढ़ जाती है तो लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जैसे मूल्य 'कुफ्र' हो जाते है। इस्लाम सर्वोपरि हो जाता है एवं गैर मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बन जाते है। बांग्लादेश और पाकिस्तान इसके उदाहरण है। इसका छोटा रूप हम हरियाणा में करनाल से सटे मुंडोरगारी गांव में देख सकते है। यहां मुसलमानों की आबादी पांच हजार है और गांव में केवल एक ही गैर-मुसलमान दलित परिवार है। यहां कठमुल्लों का इतना दबदबा है कि गांव में एक भी टेलीविजन नहीं है। बाहरी दुनिया का हाल जानने के लिए केवल रेडियो सुनने की अनुमति है। फोटो खिंचवाने पर प्रतिबंध है। उच्च शिक्षा पर मनाही है। महाभारत कालीन सभ्यता का केंद्र रहे और आज एक प्रगतिशील राज्य के रूप में पहचान बनाने वाले हरियाणा में यह तालिबानी संस्कृति का एक द्वीप कैसे और क्यों विकसित हुआ?
दूसरा उदाहरण पिछले सप्ताह का है। हैदराबाद के मेहदीपट्टनम स्थित नारायण जूनियर कालेज के मुसलमान छात्र भड़क उठे। देर से आए दो छात्रों ने जब रमजान का महीना होने और सहरी के कारण थक जाने को देरी का कारण बताया तो प्रोफेसर ने कथित तौर पर इसे 'सिली एक्स्क्यूज' कहा। इस बात पर मुसलमान छात्रों ने कालेज में हंगामा खड़ा किया और भवन को भारी नुकसान पहुंचाया। ंप्रोफेसर द्वारा माफी मांगने के बावजूद छात्रों का आक्रोश थमा नहीं। इस घटना से पूर्व विगत 13 जुलाई को हैदराबाद के ही सेंट एन महिला कालेज में छात्राओं ने भी खासा बवाल मचाया था। राजनीति शास्त्र की शिक्षिका प्रशांति ने सलमान रुश्दी की चर्चा करते वक्त कथित तौर पर इस्लाम की आलोचना की थी। इसके विरोध में मुसलमान छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन किया और शिक्षिका को गिरफ्तार करने की मांग की। मजलिस-ए-इत्तोहादुल मुस्लमीन, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तेलगुदेशम जैसे कथित सेकुलर दल छात्राओं के समर्थन में फौरन आ खड़े हुए। शिक्षिका ने क्षमायाचना की, फिर भी उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। अब वह जमानत पर रिहा है।
गांधी जयंती अब दुनिया में इस वर्ष से अहिंसा दिवस के रूप में मनाई जाएगी, किंतु कश्मीर में हालात कुछ और ही है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने गांधी जयंती के अवसर पर एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ''..गांधी दर्शन ही प्रगति का मार्ग है।'' यह बात वहां के मुसलमानों को रास नहीं आई। कश्मीर के मुफ्ती बशीरुद्दीन ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ''गांधी अपने समुदाय के लिए प्रासंगिक हो सकते है, किंतु मुसलमानों के लिए केवल पैगंबर साहब ही अनुकरणीय है।'' मुफ्ती ने आजाद से 'इस्लाम विरोधी' टिप्पणी के लिए प्रायश्चित करने को कहा है। गांधी जी ने मुस्लिमों की हर उचित-अनुचित मांगों का समर्थन किया। कठमुल्लों से प्रभावित मुस्लिम समाज को संतुष्ट करने के लिए खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस को भी घसीट ले गए, किंतु वह जीवनपर्यत मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत पाए। स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भागीदारी नाम मात्र की थी। पाकिस्तान के निर्माण तक अधिकांश मुसलमानों ने अपना समर्थन अपने दीन की पार्टी-मुस्लिम लीग को ही दिया। विभाजन के साथ खंडित भारत में तमाम लीगी नेताओं ने रातोंरात कांग्रेस का पंथनिरपेक्षता का चोला पहन लिया, क्योंकि विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों का जनसंख्या अनुपात आधे से भी कम रह गया था। कश्मीर में मुसलमानों ने गांधी जी के बारे में जो कहा उसमें कुछ नया नहीं है।
लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में सन 1924 में मुस्लिम नेता मोहम्मद अली ने कहा था, ''मिस्टर गांधी का चरित्र कितना भी पाक क्यों नहीं हो, मेरे लिए मजहबी दृष्टि से वह किसी भी मुसलमान से हेय है।. हां, मेरे मजहब के अनुसार मिस्टर गांधी को किसी भी दुराचारी और पतित मुसलमान से हेय मानता हूं।'' आज शेष भारत में तो गांधी जी मुसलमानों और 'सेकुलरिस्टों' के लिए आदर्श है,परंतु जम्मू-कश्मीर में केवल 'काफिर' मात्र। क्यों? इस बात में दो राय नहीं कि किसी भी समुदाय की आस्था पर आघात सभ्य समाज में स्वीकार नहीं होना चाहिए।
यदि पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बर्दाश्त नहीं है तो हिंदू देवी-देवताओं और भारत माता का अश्लील चित्रण करने वाले एफएम हुसैन सेकुलर बिरादरी के हीरो क्यों है? क्यों जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय उन्हे सम्मानित करने की घोषणा करता है? किस नैतिकता से प्रेरित होकर मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह इस जलसे में मुख्य अतिथि होने की सहमति देते है? इससे पूर्व केरल की सेकुलर सरकार ने विगत 17 सितंबर को हुसैन को 'राजा रवि वर्मा' सम्मान देने की घोषणा की थी। केरल उच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए हुसैन को सम्मानित करने पर रोक लगा दी। क्या कोई पैगंबर साहब का अपमान करने वाले डच कार्टूनिस्ट को भारत में सम्मानित करने का दुस्साहस कर सकता है? करोड़ों हिंदुओं की आस्था से जुड़े श्रीराम के विषय में द्रमुक नेता करुणानिधि निरंतर विषवमन कर रहे है, किंतु क्या किसी सेकुलरिस्ट ने उनकी आलोचना की?
भारत के प्रधानमंत्री डच कार्टूनिस्ट की तो संसद में निंदा करते है। भारत सरकार प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से इस घटना पर अपना खेद प्रकट करती है, पर भगवान राम के अपमान पर मौन क्यों? करुणानिधि का बचाव करते हुए माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का संकेत देते हुए यह कहा कि उन्हे भी आस्तिकों की तरह अपना विचार रखने का अधिकार है। स्वाभाविक प्रश्न है कि यह अधिकार केवल हिंदुओं से जुड़े मामलों में ही क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है? यदि प्रकाश करात नास्तिक है तो वह मुस्लिम जमात के साथ डच कार्टूनिस्ट के खिलाफ सड़कों पर क्यों उतरे थे? विगत आठ मई को एक प्रतिष्ठित ईरानी विश्वविद्यालय के कला विभाग के प्रोफेसर को निलंबित कर दिया गया था। उन्होंने एक बुर्कानशीं छात्रा के पूर्णत: ढके होने पर टिप्पणी कर दी थी। इससे पूर्व अरब के जायद विश्वविद्यालय की प्रोफेसर क्लाडिया कोबोर्स को ईशनिंदा वाले कार्टून का प्रदर्शन करने के कारण निलंबित कर दिया गया था।
सऊदी अरब के शिक्षामंत्री शेख नाहयान बिन मुबारक ने अरब में 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' होने की बात तो की, किंतु साथ ही यह भी कहा कि इस स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम, इस्लाम की शिक्षाओं और परंपराओं की निंदा अथवा आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाएगी। सऊदी अरब, ईरान आदि इस्लामी देश है, इसलिए उनके द्वारा अपने मजहब और संस्कृति का सम्मान करना स्वाभाविक है, किंतु आखिर पंथनिरपेक्षता का उद्घोष करने वाले भारत के सेकुलरिस्टों की चाल और चरित्र समुदायों के आधार पर क्यों बदलती है?
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