कर्ण सिंह
हमारे राष्ट्र की झोली में मानो पहले ही विवादों की कोई कमी थी, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने एक और मुद्दा जोड़ दिया। हमारे चारों ओर मौजूद भ्रम एवं तनाव इससे और भी बढ़ गया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इस बारे में अपनी राय कायम कर सकता था कि राम सेतु या आदम पुल बालू तथा मूंगे से बनी एक कुदरती संरचना है, जिसे ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक महत्व का नहीं कहा जा सकता। यह एक तार्किक नजरिया है, जिसे केवल इतने ही मजबूत पेशेवर जवाबी तर्क से निरस्त किया जा सकता है। लेकिन पुरातत्व विभाग ने तो इससे परे जाकर राष्ट्र को स्तब्ध कर दिया। उसने ऐतिहासिक विभूति के रूप में श्रीराम के अस्तित्व पर ही संदेह प्रकट कर दिया। इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग के बाद सत्य की प्रतिष्ठा के लिए कई तर्क दिए जाने की आवश्यकता है।
पहला, संसार की ज्यादातर महान धार्मिक विभूतियों के 'ऐतिहासिक' साक्ष्यों को खोजना बेहद मुश्किल है, खासतौर से उनके जो प्राचीनता के कुहासे में विलीन हो चुकी हैं। यह कोई पीएचडी के शोध प्रबंध का विषय नहीं है। यह ऐसा मामला है जो संसार भर के करोड़ों लोगों के विश्वासों और मनोभावों का विषय है। इसके अलावा अयोध्या, जनकपुरी, रामेश्वरम और धनुष्कोटि सहित भारत और श्रीलंका में ऐसे बहुत से स्थान हैं जो श्रीराम के जीवन के घटनाक्रम के साथ अंतरंग रूप से जुड़े हैं। इतिहासकार अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि ऐसे 'मिथकों तथा आख्यानों' और वास्तविक घटनाओं के बीच अक्सर बहुत गहरा रिश्ता होता है। यानी मिथक सिर्फ कल्पना की उपज नहीं होते, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। ये वास्तविक प्रसंगों से ही जुड़े हैं, चाहे उसके स्पष्ट सबूत न मिलें।
दूसरा, महर्षि वाल्मीकि की मूल रामायण से लेकर कंब की महान तमिल कृति और तुलसीदास के अमर काव्य रामचरितमानस तक संसार की लगभग सभी भाषाओं में रामकथा सैकड़ों बार कही और दोहराई गई है। श्रीराम के जन्म से शुरू होकर सीता से विवाह, चौदह वर्ष के वनवास, लंका के राजा रावण के साथ उनके निर्णायक युद्ध और विजय के बाद अयोध्या लौटने तक की यह अत्यंत मनमोहक कथा दुनिया भर के असंख्य हिन्दुओं के मानस पटल पर अमिट रूप से अंकित है। यह उनके लिए उतनी ही सच्ची और वास्तविक है जितना कोई भी तथाकथित ऐतिहासिक प्रसंग हो सकता है। रामायण और महाभारत के बारे में 'भारत एक खोज' में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, 'मैं इन ग्रंथों के सिवाय कहीं भी किसी ग्रंथ को नहीं जानता, जिसने जनमानस पर इतना अविराम और व्यापक प्रभाव डाला हो। दूरस्थ इतिहास से चले आ रहे ये ग्रंथ अब भी भारतीय जनमानस की जीवनी शक्ति हैं। चंद बुद्धि विलासों को छोड़कर ये न केवल संस्कृत, बल्कि अनुवादों एवं रूपांतरों तथा असंख्य प्रथाओं की भी जीवन शक्ति हैं, जिनमें स्मृति, हिन्दू धर्मशास्त्र और आख्यान विस्तीर्ण हुए। ये ग्रंथ सांस्कृतिक विकास के विविध सोपानों के लिए श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से साधारण अनपढ़ और निरक्षर ग्रामवासियों तक सबको एक साथ पोषित करने वाली विशुद्ध भारतीय पद्धति का निरूपण करते हैं। ये हमें बहुविध विभाजित और जातियों में वर्गीकृत बहुरंगी समाज को एकजुट रखने, उनके बिखरे स्वरों को समस्वर करने का रहस्य बताते हैं और उन्हें उदात्त परंपरा तथा नीतिपरक जीवन-यापन की एक साझी पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं। जनसाधारण के बीच इन्होंने वैचारिक रूप से दृष्टिकोण का सामंजस्य कायम करने का यत्न किया, जिसे वर्तमान रहना ही था और भिन्नता को बेअसर करना ही था।'
तीसरा, सिर्फ भगवान श्रीराम ही नहीं, बल्कि महासती सीता, आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण और आकाश विचरण करने वाले महावीर हनुमान सहित रामकथा के कितने ही पात्र समय के आरपार जनसाधारण की चेतना में गहराई तक रचे-बसे हैं। हर वर्ष विजयादशमी पर्व में रामकथा का अभिनय तथा प्रदर्शन हजारों जगहों पर रामलीलाओं के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। दक्षिण भारत की तुलना में यह भले ही उत्तर भारत में अधिक प्रचलित हो, लेकिन इस बात से इसका महत्व कम नहीं हो जाता। दक्षिण भारत में कार्तिकेय, अयप्पा और शिव-नटराज की आराधना ज्यादा प्रचलन में है। इसी तरह पूर्व में भगवान जगन्नाथ की आराधना और दुर्गा पूजा का जोर रहता है, लेकिन ये क्षेत्रवार या भौगोलिक फर्क कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि इन सभी देवों में हिन्दुओं की गहरी आस्था कायम रहती है। श्रीराम हम सबके आराध्य हैं।
विलक्षण बात यह है कि रामकथा सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। इसकी सुगंध सुदूर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैली हुई है। दुनिया में धार्मिक उपासना का सबसे विशाल स्थान है कंबोडिया स्थित अंकोरवाट का भव्य मंदिर। इसकी भित्तियों पर जो शानदार मूर्तिकला उकेरी गई है, उसमें पूरी रामकथा और महाभारत समाई हुई है। इंडोनेशिया में आमतौर पर मुस्लिम कलाकार रामलीलाओं का बड़ी शालीनता और भावुकता के साथ प्रदर्शन करते हैं, जो मन को छू लेता है। हमारे यहां की रामलीलाओं से ये ज्यादा भव्य और श्रेष्ठ होती हैं। थाइलैंड का राज परिवार अपने आप को राम-वंश कहता है। यहां अयोध्या नामक एक तीर्थ स्थल भी है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, क्योंकि रामकथा कई महाद्वीपों तक फैली है। कई संस्कृतियों में इसके असर मौजूद हैं और गैर हिंदू भी इससे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। ब्रिटिशों ने पृथ्वी के सुदूर छोरों पर बंधुआ मजदूर भेजे, जिनके वंशज अब फीजी, मॉरीशस, गुयाना और सूरीनाम में बसे हुए हैं। इन लोगों के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सहारे का एकमात्र स्त्रोत रामचरितमानस ही है। पूरी पृथ्वी पर इन देशों तथा अन्य देशों के हिन्दू, मर्यादा पुरुषोत्तम आदर्श मानव के रूप में भगवान के अवतार श्रीराम का ही ध्यान करते हैं। जब गांधीजी ने आदर्श समाज की परिकल्पना की थी, तब उन्होंने रामराज्य का ही आह्वान किया था और अंतिम समय उनके मुख से 'हे राम' ही निकला था। इन उदाहरणों से हमें पता चलता है कि राम हमारे जीवन में किस तरह समाए हुए हैं कि उनके बिना भारतीय जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। श्रीराम को हम भारतीय मानस के प्रतीक पुरुष कह सकते हैं।
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का वह हलफनामा न केवल पूरी दुनिया के हिन्दुओं, बल्कि हमारी विलक्षण बहुलतावादी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण, अनुचित और अपमानजनक था।
0 comments: on "किसी भी इतिहास से बड़े हैं श्रीराम"
Post a Comment