राम के नाम पर

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता करूणानिधि को यह अधिकार किसी ने नहीं दिया कि वे राम के बारे में वैसी भाषा और फिकरेबाजी का प्रयोग करें जैसा करने की आदत उनकी जैसी सोच वालों को अपनी विचारधारा के गुरू रामस्वामी नायकर पेरियार के आंदोलन के जमाने से रही है। अगर रामस्वामी पेरियार अपने आंदोलन को विज्ञानवादी और तर्कसम्मत साबित करने के अति उत्साह में राम का उस हद तक घोर अपमान करने में सफल हो पाए कि जिसका शब्दों में बखान करना भी आज के वैज्ञानिक युग में असभ्यतापूर्ण लगता है, तो इसलिए कि उस समय भारत में साम्राज्यवादकालीन सोच का ही देश के जनमानस पर असर था, और पेरियार जो चाहते थे, वे कर गुजरे। पर आज भारत लोकतंत्री सोच और लोकतंत्री सक्रियता से एकाकार हो चुका है। एक जिम्मेदार नेता होने के नाते करूणानिधि को इस बात का अहसास होना चाहिए कि उनके लिए क्या बोलना ठीक है और क्या नहीं। क्या राम एक सिविल इंजीनियर थे, और थे तो किस कॉलेज से पढ़कर आए थे, रामसेतु के संदर्भ में जो तिरस्कारपूर्ण सवाल उन्होंने पूछे हैं, तो वही पलटकर उनसे भी पूछ सकता है कि अपने मुख्यमंत्री काल में आपने जो सड़कें बनवाईं, पुल बनवाए, नई बस्तियां बसाई, तो क्या उसके लिए आपको किसी कॉलेज से सिविल इंजीनियर होना जरूरी था? यानी ऐसे सवाल बेमतलब के तो हैं ही, उस वितृष्णा की अभिव्यक्ति भी हैं जो करूणानिधि के मन में राम और रामकथा को लेकर बनी हुई है। एक भारतीय नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी हर वितृष्णा को पालने-पोसने का संवैधानिक अधिकार हासिल है। पर दूसरे की आस्था को हानि पहुंचाने में समर्थ इन वितृष्णाजनित तिरस्कार भरी अभिव्यक्तियों का अधिकार नहीं है। वे एक प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और केंद्र की यूपीए सरकार का एक महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए खुद को संयत करने का जितना दायित्व उनका है, उतना ही दायित्व प्रधानमंत्री का भी है कि वे देखें कि उनकी सरकार का कोई घटक धार्मिक विद्वेष फैलाने का दोषी न बनने पाए।
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