नेपाल में माओवादियों की राह आसान नहीं

अपने पिछ्ले लेख वामपंथी इस्लामवादी गठजोड में मैने आशंका व्यक्त की थी कि जिस प्रकार भारत में कुछ प्रमुख समाचार पत्र नेपाल में माओवादियों की विजय को लेकर भारत में एक बौद्धिक वातावरण बनाकर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं उससे यह आभास होता है कि यह एक सुनियोजित प्रयास है। इस आशंका को बल तब और मिला जब अंग्रेजी के एक अग्रणी समाचार पत्र ने नेपाल में माओवादियों के नेता प्रचण्ड का एक लम्बा साक्षात्कार दो दिनों की श्रृखला में प्रकाशित हुआ। इसी समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय और लेखों द्वारा देश के बौद्धिक और राजनेता वर्ग को समझाने का प्रयास किया था कि नेपाल में माओवादियों की विजय से भारत में नक्सलवादियों और माओवादियों को भी लोकतंत्र के मार्ग पर लाना सरल होगा और इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए नेपाल में माओवादियों की नयी सरकार का हरसम्भव सहयोग भारत को करना चाहिये। जिस प्रकार इस समाचार पत्र के संवाददाता ने प्रचण्ड के साथ पूरे साक्षात्कार में समस्त स्थितियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है उससे तो यह साक्षात्कार कम प्रचण्ड के लिये अपनी ओर से किया गया जनसम्पर्क का प्रयास अधिक लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समाचार पत्र को या इसके कुछ लोगों को माओवादियों की छवि भारत में ठीक करने की बहुत शीघ्रता है। वैसे इस समाचार पत्र के प्रचण्ड से अच्छे सम्बन्ध काफी पहले से दिखते हैं क्योंकि इसी समाचार पत्र के इसी संवाददाता ने नेपाल में माओवादियों के आन्दोलन के समय भी 2006 में प्रचण्ड का साक्षात्कार लिया था जिसकी काफी चर्चा हुई थी।


यह तथ्य इस कारण महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी आन्दोलनकारी या भूमिगत उग्रवादी का साक्षात्कार लेने का अर्थ उससे सहानुभूति रखना होता है परंतु भारत में एक ऐसी विचारधारा अवश्य है जो माओवाद और नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति रखती है और उसे कानून व्यवस्था के स्तर से हल करने के स्थान पर आन्दोलन के रूप में देखने का आग्रह करती है। प्रचण्ड का साक्षात्कार लेने वाले समाचारपत्र ने अपनी सम्पादकीय और लेखों द्वारा छ्त्तीसगढ में सल्वा जुदूम अभियान को जमकर कोसा और अपने तर्क की पुष्टि में रा के एक पूर्व अधिकारी को भी उतार दिया। इन घटनाक्रमों को आपस में जोड्ने से ऐसा लगता है कि निश्चय ही यह पत्रकारिता से अधिक विचारधारा के प्रति निष्ठा है। क्योंकि यह तथ्य नहीं भूला जा सकता कि भारत में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय अब भी चरमपंथी वामपंथियों का गढ है और प्रचण्ड ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूरी की थी तो निश्चय ही उस समय के कामरेड आज भी समाज में तो होंगे ही।

माओवादियों का विषय उठाने के पीछे एक प्रमुख कारण यह भी है कि भारत के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया में जहाँ नेपाल में माओवादियों की विजय का उल्लास मनाया जा रहा है या उसके पक्ष में देश में अनुकूल वातावरण बनाने का प्रयास किया जा रहा है तो वहीं माओवादियों के विरुद्ध नेपाल और भारत के हिन्दू संगठनों द्वारा नेपाल में राजा की शक्तियों को क्षीण न होने देने और माओवादियों के उत्पात को रोकने के संकल्प को स्थान ही नहीं दिया जा रहा है। समाचारों के प्रति यह चयनित रवैया हमारी इस धारणा को पुष्ट करता है कि भारत के मीडिया में भी अब भी वामपंथियों का वर्चस्व है जो नेपाल में माओवादियों की विजय में वामपंथ का उत्थान देख रहे हैं और ऐसा प्रदर्शित करना चाहते हैं कि मानों नेपाल में माओवादियों की विजय नेपाल की जनता का जनादेश है। नेपाल में माओवादियों की विजय को लेकर भारत में मीडिया ने पूरे तथ्य सामने नहीं आने दिये कि माओवादियों की विजय का एक बडा कारण यंग कम्युनिष्ट मूवमेंट नामक माओवदियों की व्यक्तिगत सेना के आतंक का भी रहा। इसके आतंक की स्वीकारोक्ति प्रचण्ड ने अपने साक्षात्कार में भी की है।

अभी पिछ्ले रविवार को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद में देवीपाटन नामक स्थान पर विश्व हिन्दू महासंघ नामक संगठन का तीन दिवसीय अधिवेशन समाप्त हुआ। इस सम्मेलन में विश्व हिन्दू महासंघ के नेपाल के प्रतिनिधि और भारत में विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने भाग लिया। विश्व हिन्दू महासंघ की स्थापना 1981 में नेपाल के दिवंगत राजा बीरेन्द्र ने की थी और यह संगठन तब से भारत और नेपाल के मध्य हिन्दुत्व के विषय पर परस्पर सहमति से कार्यरत है। इस अधिवेशन की समाप्ति पर प्रस्ताव पारित किया गया कि नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत भी यह संगठन राजा को किनारे लगाकर माओवादियों के देश पर शासन के किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देगा। इस अधिवेशन में विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल ने कहा कि यदि माओवादियों को ऐसा करने की छूट दी गयी तो वे और शक्ति एकत्र कर लेंगे और फिर भारत में प्रवेश कर हिन्दू संस्कृति को सदा सर्वदा के लिये नष्ट कर देंगे। सिंहल ने कहा कि तराई क्षेत्र में सशस्त्र गुट बनाने वाले मधेशियों ने बडे पैमाने पर विश्व हिन्दू महासंघ और विश्व हिन्दू परिषद को समर्थन दिया है। यह अधिवेशन गोरखपुर के गोरक्षनाथ मन्दिर में आयिजित हुआ था जिसमें भारत और नेपाल के 200 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। नेपाल में राजशाही के पतन के बाद से विश्व हिन्दू महासंघ के अध्यक्ष भारत केशर सिम्हा ने भारत और काठमाण्डू के मध्य अनेक दौरे कर राजा के पक्ष में समर्थन जुटाने का प्रयास किया।

इस अधिवेशन में राजा ज्ञानेन्द्र के विश्वासपात्र रायल नेपाल आर्मी के सेवानिवृत्त अधिकारी 72 वर्षीय हेम बहादुर कार्की को विश्व हिन्दू महासंघ का नया अध्यक्ष बनाया गया। कार्की ने कहा कि अब भी रायल आर्मी के सदस्य बडी मात्रा में राजा के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि इन अधिनायकवादियों और हिन्दू विरोधी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध कर सकें। इस अधिवेशन में राजा ज्ञानेन्द्र को भी आना था परंतु नेपाल की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए वे नहीं आये परंतु इस अधिवेशन के लिये उन्होंने अपना सन्देश भेजा और कहा कि वे अधिवेशन के प्रस्तावों का पालन करेंगे। अधिवेशन में पूर्व अध्यक्ष सिम्हा ने नेपाल में माओवादियों की सहायता के लिये भारत सरकार की आलोचना की और कहा कि सात दलों का गठ्बन्धन भारत सरकार के सहयोग से ही सम्भव हो सका। इस अवसर पर विश्व हिन्दू महासंघ के भारत के अध्यक्ष योगी आदित्यनाथ ने कहा कि वे सदैव से माओवादियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की बात करते रहे हैं।


इस अधिवेशन के सम्बन्ध में भारत में मीडिया में कोई बात न तो प्रकाशित हुई और न ही इसका कोई उल्लेख हुआ जबकि अधिवेशन की उपस्थिति और इसके प्रस्तावों के अपने निहितार्थ हैं। अधिवेशन में हुई चर्चा स्पष्ट रूप से संकेत देती है कि नेपाल में राजा के प्रति ऐसा वातावरण नहीं है जैसा माओवादी समस्त विश्व को प्रदर्शित कर रहे हैं। यदि माओवादी अब भी राजा को अपमानित करने या उन्हें देश से बाहर निकालने का यत्न करते हैं तो इसका उल्टा परिणाम होगा। यह बात माओवादियों को भी पता लग चुकी है और यही कारण है कि चुनाव से पहले बढ चढ कर बातें करने वाले माओवादी अब राजा के साथ किसी फार्मूले की तलाश में जुट गये हैं।



भारत में मीडिया में बैठे वामपंथी विचारों के चिंतक और लेखक नेपाल में माओवादियों की विजय को भले ही स्थायी मानकर चल रहे हों परंतु भारत सरकार को अपने देश की सुरक्षा की दृष्टि से नेपाल में माओवादी उग्रवाद की समाप्ति और नेपाल में राजा की शक्ति के विकल्प पर विचार करना चाहिये।


वैसे नेपाल में संवैधानिक सभा के पूरे परिणाम आने के बाद पूरी संविधान सभा में माओवादियों को बहुमत नहीं मिला है और उन्हें नेपाली कांग्रेस, यूएमएल और उपेन्द्र यादव की मधेशी जनाधिकार मोर्चा पर भी निर्भर होना पडेगा। उधर विश्व बाजार में तेल की बढ्ती कीमतों, मंहगाई के चलते भी माओवादी सरकार के सामने चुनौती है जिसके चलते उनका तेवर नरम पडा है पर उनकी बात पर भरोसा करना मुश्किल है विशेषकर तब जबकि अपने साक्षात्कार में प्रचण्ड ने भारत और ब्रिटेन जैसे लोकतंत्र को औपचारिक लोकतंत्र बताया है जो सभी वर्गों के लिये प्रतिनिधित्वकारी नहीं है और इस कारण माओवादी नेपाल में बहुदलीय व्यवस्था रखते हुए भी किसी अन्य विकल्प पर विचार करेंगे अर्थात पिछ्ले दरवाजे से अपना एजेण्डा लागू करने की सम्भावना दिखती है। दूसरा खतरनाक पक्ष है कि नेपाल की सेना में माओवादी लडाकों को समायोजित किया जायेगा और इसका आधार केवल प्रचण्ड का केवल यह आश्वासन होगा कि इन लडाकों को पेशेवर बना दिया जायेगा। यह कितना अस्पष्ट आधार है और इसका परिणाम कितना घातक है। जब नेपाल की सेना माओवादी विचार की होगी तो अपने पडोसी पर भारत कितना भरोसा कर सकता है कि वह कब चीन के हाथ का खिलोना न बन जाये। प्रचण्ड यह भी कह्ते हैं कि नेपाल की सेना का आकार भी कम किया जायेगा अर्थात नेपाल के सुरक्षा पूरी तरह माओवादियों के हाथ में होगी।

पहले लोकतंत्र के बने स्वरूप में परिवर्तन फिर सेना में माओवादी लडाकों के भर्ती फिर सेना का स्वरूप छोटा किया जाना अर्थात अधिनायकवादी शासन की पूरी तैयारी। इसके अतिरिक्त प्रचण्ड ने इस बात की गारण्टी भी नहीं दी है कि वे भारत के माओवादियों या नक्सलियों को उनका रास्ता अपनाने की सलाह देंगे उनके अनुसार भारत में नक्सलियों और माओवादियों के लक्ष्य अलग है इसलिये यदि वे उनसे प्रेरित होकर बुलेट छोड्कर बैलेट के रास्ते पर आते हैं तो अच्छा है। इससे साफ जाहिर है कि नेपाल में माओवादियों को समर्थन का असर भारत में नक्सलियों या माओवादियों पर नहीं पड्ने वाला है लेकिन इस बात के पैरवी करने वालों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती। कुलमिलाकर नेपाल में स्थिति अब भी साफ नहीं है और माओवादियों को भी अनेक चुनौतियों का सामना करना बाकी है ऐसे में भारत के पास अब भी अवसर है कि वह नेपाल में अपने हित पहचान ले और जो भूल पिछ्ले तीन चार वर्षों में की है उसे सुधार कर नेपाल में माओवादियों की शक्ति कम करने का प्रयास करे। भारत के सहयोग के बिना माओवादियों का नेपाल में शासन करना सम्भव नहीं है इसी कारण प्रचण्ड भारत सरकार को सन्देश दे रहे है कि वह अमेरिका के साथ अपने सम्बन्धों का उपयोग कर नेपाल माओवादियों को आतंकवादी सूची से हटवा दे। लेकिन भारत सरकार को ऐसा कोई कदम उठाने से पहले इसके हानि लाभ पर विचार कर लेना चाहिये।
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आतंक और हम

देश में जब कभी कोई आतंकवादी हमला होता है, तो हमले के लिए जिम्मेदार लोगों या उनके संगठनों अथवा हमलावरों को पनाह देने वाले मुल्क या मुल्कों के नाम रेडिमेड तरीके से सामने आ जाते हैं। आतंकवादियों को कायर, पीठ में छुरा घोंपने वाले या बेगुनाहों का हत्यारा कहकर केंद्र और राज्य सरकारें तयशुदा प्रतिक्रिया व्यक्त कर देती हैं। हमारे नेता भी ऊंची आवाज में चीखकर कहते हैं कि आतंकवाद के साथ सख्ती से निपटा जाएगा।

घटनास्थल के दौरे के साथ ही सभी बड़ी-बड़ी बातें खत्म हो जाया करती हैं, और यह श्रंखला आतंकवादियों की अगली करतूत होने पर फिर शुरू हो जाती है, यही सिलसिला चलता रहता है। लोगों ने अब यह भी कहना शुरू कर दिया है कि बढ़-चढ़कर किए गए ऐसे दावों में कोई दम नहीं होता। कुछ लोगों ने मुझसे यहां तक कहा कि अखबारों में छपे ऐसे सियासी बयानों को हम पढ़ते तक नहीं।

25 अगस्त को हैदराबाद के एक एम्यूजमेंट पार्क और फिर एक मशहूर चाट की दुकान पर कुछ ही मिनट के अंतर से एक के बाद एक हुए दो विस्फोटों में पचास से अधिक लोग मारे गए और 75 घायल हो गए। राज्य व केंद्र सरकार ने इस हादसे के लिए भी, हर बार की तरह सरहद पार से आए आतंकियों को जिम्मेदार ठहराया। हालांकि इन विस्फोटों के पीछे इस्लामाबाद का हाथ होने संबंधी भारत के आरोप को नकारते हुए पाकिस्तान ने कहा है कि यह आतंकवादियों का कृत्य है और हम इसकी निंदा करते हैं। हम खुद आतंकवाद के शिकार हैं और इसके खिलाफ लड़ने के लिए वचनबद्ध हैं। पाक के मुताबिक अटकलें लगाने की बजाय जांच करना हमेशा बेहतर होता है।

अपनी ही जमीन पर आतंकवाद के जिस दानव को उसने खड़ा किया था उसे पाकिस्तान काबू नहीं कर पा रहा है। इस तथाकथित जेहाद ने जिन्हें जन्म दिया है, वही लोग भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। पाक ने हवा के बीज बोए थे, इसीलिए उसे बवंडर की फसल मिली है।

हमारा देश आतंकवाद की सर्वाधिक गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। सरकार के आतंकवाद विरोधी प्रयासों में तेजी और मजबूती लाने के लिए हमें आतंकवाद के आधार को निष्क्रिय करने वाले तथा आतंकी हमलों को शुरू होने से पहले ही रोकने वाले अधिक बुनियादी तरीके को अपनाने की तत्काल जरूरत है। मगर सबसे पहले सरकार को यह तय करना होगा कि आंध्रप्रदेश, असम और जम्मू-कश्मीर में उसका प्रस्ताव ठुकरा देने वाले आतंकियों को क्या वह बातचीत के लिए आमंत्रित करना चाहेगी। अगर सरकार सख्त रवैया अपनाए और आतंकियों के आगे घुटने न टेकने के संकेत दे, तो देश के नागरिक पूरी तरह से सरकार का साथ देंगे।

सरकार खुद कहती है कि देशभर में आईएसआई के एजेंट सक्रिय हैं। तो फिर इन्हें खोजने और इनकी घुसपैठ रोकने के लिए सरकार खुफिया एजेंसियों को निर्देश क्यों नहीं देती। विदेश में प्रशिक्षित कोई आतंकी जब भारत या किसी महानगर में आता है, तो उसे रहने की जगह, अधिक से अधिक नुकसान के लिए हमला करने की जगह तक आने-जाने का साधन और संपर्क के लिए मोबाइल फोन के रूप में स्थानीय सहयोग की जरूरत होती है। निश्चित ही उसका कोई स्थानीय मेजबान होता है। खुफिया एजेंसियों को अधिक कुछ करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ ऐसे सहयोगियों को खोजकर उन्हें पकड़ना है।
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ऐसे आतंकी संगठनों से मुल्क को किस तरह बचाया जाए जिन्हें किसी की जान लेने में कोई संकोच नहीं है और न ही अपने मकसद के लिए जान दे देने का ही कोई डर है। भारी- भरकम फौज का जमावड़ा, परमाणु संहार, अमेरिका की तरह ‘स्टार वार’ शैली और एंटी मिसाइल कवच जैसी रक्षा की पारंपरिक रणनीतियां तेजी से अनुपयोगी होती जा रही हैं और हमला कर भागने वाले आतंकियों को रोक पाने में अक्षम या कम सक्षम हैं। ‘पैटर्न्‍स ऑफ ग्लोबल टैरेरिज्म’ नामक वार्षिक अमेरिकी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 और 2003 के बीच दुनियाभर में की गईं आतंकी घटनाओं में से 75 फीसदी भारत में हुईं। यह मानना सही होगा कि इनमें से कई हमले, खासतौर पर कश्मीर में हुए हमलों के लिए ऐसे संगठन जिम्मेदार हैं जिनका ठिकाना पाकिस्तान में है। और समर्थन हिंदुस्तान के ही नासूर मुस्लिमों द्वारा दिया जा रहा है ताकि वो घटना को अंजाम देकर आसानी से हिंदुस्तान में अपने शुभचिंतक मुस्लिम जेहादी के यहाँ आराम से शरण पाते हैं और अगर उसके घर की तलाशी ली जाये तो पुलिस के ऊपर मुस्लमान को तंग करने का इल्जाम लगाते हैं

रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 203 अंतरराष्ट्रीय आतंकी हमले हुए जबकि चीन में एक भी नहीं। यह उस विचार से संबंधित कुछ वास्तविक समस्याएं हैं जिसके मुताबिक-लोकतंत्र सोचने व करने की ऐसी आदतें विकसित कर देगा जिनके चलते आतंकवाद से जुड़ने का इरादा कम हो जाएगा। मगर इनके अलावा तार्किक समस्याएं भी हैं। उदाहरण के लिए आतंकी आमतौर पर हाशिए के ऐसे समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें मुख्यधारा की आबादी से नहीं के बराबर सहयोग हासिल होता है। इस तथ्य की जानकारी के बावजूद वे मानते हैं कि उनकी राह सही है- शायद उन्हें विश्वास होता है कि उनके मकसद को ईश्वर ने अधिकृत कर रखा है।

भारत हमारा वतन है और इसकी रक्षा में योगदान देना हममें से हर एक का कर्तव्य है। किसी बस स्टॉप पर या आसपास, रेलवे स्टेशन या सबवे स्टेशन पर किसी संदिग्ध व्यक्ति या कुछ असामान्य दिखने पर कोई सूचना नहीं देता इसीलिए अधिकांश आतंकी बम विस्फोट होते हैं। अगर आप कुछ देखते हैं, तो कुछ कहिए, इस तरह की आसान प्रतिक्रिया खतरों को काफी कम कर सकती है। ऐसी सूचना देने की पहल करने वाले व्यक्ति को सरकार परेशान न करे। ऐसी सूचना किसी आतंकी घटना को होने से रोक सकती है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए प्रत्येक नागरिक को कानून लागू करवाने वाली एजेंसियों की आंख और कान की तरह काम करना होगा।
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सोनिया के निशाने पर हिन्दू नेता

न्यूयार्क। न्यूयार्क स्थित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विदेश ने न्यूयार्क राज्य के सर्वोच्च न्यायालय में तीन प्रमुख हिन्दू कार्यकर्ताओं नारायण कटारिया, अरीश साहनी और भरत बराई के विरुद्ध 100मिलियन डालर का मानहानि का दावा दायर किया है। इन कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया है कि इन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गान्धी द्वारा पिछ्ले वर्ष अक्टूबर में अमेरिका की यात्रा के समय अमेरिका के प्रमुख समाचार पत्र न्यूयार्क टाइम्स में पूरे एक पेज का विज्ञापन प्रकाशित कराया था और उसमें श्रीमती सोनिया गान्धी और उनके पुत्र राहुल गान्धी का कथित अपमान किया गया था।

इस मामले के वादी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विदेश के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी डा. सुरेन्द्र मल्होत्रा ने अपनी शिकायत में न्यायालय के समक्ष कहा है कि पिछ्ले वर्ष 6 अक्टूबर को न्यूयार्क टाइम्स में श्रीमती सोनिया गान्धी और उनके पुत्र राहुल गान्धी के सम्बन्ध में विज्ञापन में गलत सूचनायें प्रकाशित की गयी थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने मुकदमे की पैरवी के लिये उसी कानूनी फर्म की सेवायें ली हैं जिसने टाइम पत्रिका के विरुद्ध इजरायल के एरियल शेरोन का प्रतिनिधित्व किया था।

दूसरी ओर अपने मुकदमे की पैरवी के लिये नारायण कटारिया और अरीश साहनी ने कोर्नस्टॆन वीज वेक्स्लर एण्ड पोलार्ड को नियुक्त किया है जो कि अपनी कुशलता के लिये जानी जाती है। उधर इस मुकदमे में प्रतिवादी बनाये गये एक अन्य सदस्य भरत बराय ने दावा किया है कि वह किसी भी प्रकार से विज्ञापन का हिस्सा नहीं थे और स्वतंत्र रूप से इस मुकदमे के विरुद्ध पैरवी कर रहे हैं।

डा. भरत बराय ने इस मुकदमे में अपना नाम घसीटने के लिये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विदेश के विरुद्ध जवाब में मान हानि का दावा करने का निश्चय किया है। डा. भरत का कहना है कि उनका विज्ञापन से कुछ भी लेना देना नहीं है न तो उन्होंने इसका डिजाइन बनाया और न हि उन्होंने इसके लिये धन दिया और विज्ञापन में सम्पर्क के लिये जिनका नाम था उस सूची में भी उनका नाम नहीं था।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विदेश के इस फैसले के बाद अमेरिका में इस विषय पर ध्रुवीकरण तेज हो गया है। इन तीनों का समर्थन करने वाले हिन्दू नेता इस निर्णय पर सवाल उठा रहे है और उनका आरोप है कि जब यह विज्ञापन सार्वजनिक रूप से प्रकाशित हुआ था और लोगों के सामने यह काफी लम्बे समय तक आता रहा और विभिन्न मीडिया माध्यमों में बार बार प्रकाशित होता रहा तो फिर यह मुकदमा दायर करने के पीछे प्रमुख उद्देश्य क्या है। इन नेताओं का मानना है कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सोनिया गान्धी और सुरेन्द्र मल्होत्रा इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा प्रत्येक अमेरिकी नागरिक का अधिकार है। कटारिया और साहनी भारतीय जनता पार्टी के ओवरसीज फ्रेण्ड्स के नेता भी हैं और इसके अतिरिक्त वे इण्डियन अमेरिकन इंटेलेक्चुअल फोरम भी चलाते हैं। इन लोगों ने पिछ्ले वर्ष गान्धी हेरिटेज फाउण्डेशन की स्थापना भी की थी जिसने सोनिया गान्धी के संयुक्त राष्ट्र संघ में सोनिया गान्धी के आगमन का विरोध किया था।


न्यूयार्क के एक प्रभावी हिन्दू नेता का मानना है “ कि यह मुकदमा केवल कुछ व्यक्तियों को निशाना बनाकर दायर नहीं किया गया है वरन इसके निशाने पर समस्त अनिवासी भारतीय हैं। उनके अनुसार इस मुकदमे के पीछे प्रमुख उद्देश्य अमेरिका में हिन्दू नेताओं की उत्साह भंग करना, उन्हें जबरन चुप कराना, आर्थिक दृष्टि से उन्हें दीवालिया बनाना, प्रताडित कर उन्हें झुकने के लिये विवश कर देना। इसके अतिरिक्त एक और प्रमुख उद्देश्य यह है कि भारत से बाहर सोनिया खानदान के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज को सख्ती से कुचल देना यहाँ तक कि उन देशों में भी जहाँ के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारण्टी दी गयी है’’


अमेरिका के अधिकतर हिन्दू मानते हैं कि नारायण कटारिया और अरीश साहनी दशकों से हिन्दू हितों के लिये संघर्ष कर रहे हैं और वे ऐसे दबावों के आगे झुकने वाले नहीं हैं। नारायण कटारिया 78 वर्षीय एक सेवानिवृत्त व्यक्ति हैं और इस बात के लिये संकल्पबद्ध हैं कि वे इस मुकदमे को अंत तक लडेंगे भले ही इसके लिये उन्हें अपनी पेंशन के फण्ड से धन खर्च करना पडे।

ऐसा प्रतीत होता है कि यह मुकदमा कटारिया सहित उन लोगों को नीचा दिखाने की योजना है हिन्दुओं के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं। पिछ्ले कुछ वर्षों मे नारायण कटारिया उत्तरी अमेरिका में एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जिसने जिहाद जैसे विषय पर मुखर होकर हिन्दुओं की चिंतायें लोगों के समक्ष रखीं तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष सोनिया गान्धी के विरुद्ध प्रदर्शन करवाया और हिन्दू देवी देवताओं की नग्न चित्र बनाने वाले पेंटर मकबूल फिदा हुसैन की अनेक प्रदर्शनियों को रूकवाया। कटारिया और साहनी को ब्रिटेन, यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका के अनेक देशों से सहायता प्राप्त हो रही है। इन हिन्दू नेताओं के मित्रों ने इनके मुकदमे के लिये आर्थिक सहायता एकत्र करने हेतु एक समिति गठित की है तथा मुकदमा लडने के लिये भी एक समिति बनाई है।


आप भी इस कार्य में अपना योगदान कर सकते हैं। इसके लिये अपना चेक इस पते पर Narain Kataria, 41-67 Judge Street, Apt-5P, Elmhurst, New York 11373 ‘Hindu support fund’ के नाम पर भेजें। प्राप्त धन का प्रबन्धन समुदाय के नेताओं द्वारा किया जायेगा और इसका अंकेक्षण भी स्वतत्र रूप से होगा।
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नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत अनेक प्रकार के विचार सामने आने लगे हैं। भारत में इस विषय पर विभिन्न समाचार पत्रों में जो लेख या सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं उससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नेपाल में माओवादियों की विजय को दो सन्दर्भों में देखा गया हैं। एक विचार के अनुसार नेपाल में माओवादियों की विजय का लाभ उठाकर भारत में वामपंथी उग्रवादियों नक्सलवादियों या फिर माओवादियों को भी मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास करने चाहिये। अनेक बडे समाचार पत्रों ने अपनी सम्पादकीय और लेखों के द्वारा सरकार को सलाह दी है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से एक स्वर्णिम अवसर भारत को मिला है कि वह भारत में नक्सलियों को लोकतंत्र का मार्ग अपनाने को प्रेरित करे। इसके अतिरिक्त नेपाल में माओवादियों की विजय को लेकर एक दूसरी विचारधारा भी है जो मानती है कि अब नेपाल भारत की सुरक्षा की दृष्टि से एक बडा खतरा बन जायेगा और भारत का हित इसी में है कि नेपाल में माओवादी हिंसा को नष्ट करने की दिशा में भारत प्रयास जारी रखे और बदली परिस्थितियों में भी राजा को नेपाल में प्रासंगिक बना कर रखे। इन दोनों ही विचारों में से कौन सा विचार आने वाले समय में प्रभावी होने वाला है यह कहने की आवश्यकता नहीं है।


हमारे लेख का विषय यह है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत की सुरक्षा पर दीर्घगामी स्तर पर क्या प्रभाव पडने वाला है। अभी हाल के अपने अंक में प्रसिद्ध पत्रिका तहलका ने भारत में नक्सलियों के समर्थक और उनके बौद्धिक प्रवक्ता माने जाने वाले बारबरा राव का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है और इसमें उनसे जानने का प्रयास किया है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत के नक्सल आन्दोलन पर क्या प्रभाव पडने वाला है। पूरे साक्षात्कार में बारबरा राव ने अनेक बातें की हैं परंतु जो अत्यंत मह्त्वपूर्ण बात है वह यह कि नेपाल और भारत के माओवादियों के लक्ष्य में मूलभूत अंतर है एक ओर नेपाल के माओवादियों का उद्देश्य जहाँ नेपाल में राजशाही समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना था वहीं भारत में नक्सली या माओवादी एक व्यवस्था परिवर्तन या समानांतर राजनीतिक प्रणाली का आन्दोलन चला रहे हैं। इस व्यस्था परिवर्तन के मूल में शास्त्रीय साम्यवादी सोच है कि उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा समाज का अधिकार हो। बारबरा राव का मानना है कि अभी यह देखना होगा कि नेपाल का शासन किस प्रकार चलाया जाता है। इस साक्षात्कार से एक बात स्पष्ट होती है कि नेपाल के माओवादियों के प्रति भारत के नक्सली कोई दुर्भाव नहीं रखते जैसा कि भारत में कुछ समाचार पत्रों ने नेपाल में माओवादियों की विजय के बाद समाचारों में लिखा था कि भारत स्थित माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आने से नेपाली माओवादियों से खिन्न हैं। बारबरा राव की बातचीत से स्पष्ट है कि भारत स्थित नक्सली या माओवादी नेपाल की परिस्थितियों पर नजर लगाये रखेंगे।

भारत में जिस प्रकार नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत उनको अवसर देने के नाम पर या फिर भारत में नक्सलियों को लोकतांत्रिक बनाने के नाम पर जिस प्रकार माओवादियों की विजय को स्वीकार कराया जा रहा है और उससे भी आगे बढकर भारत सरकार पर एक बौद्धिक दबाव बनाया जा रहा है कि वह माओवादियों को हाथोंहाथ ले इसके बाद भी कि माओवादी नेता प्रचण्ड अपनी विजय के उपरांत दहाड दहाड कर कह रहे हैं कि वे भारत के साथ पुरानी सभी सन्धियाँ भंग कर भारत के साथ नेपाल के सम्बन्धों की समीक्षा नये सन्दर्भ में करेंगे। इस प्रकार भारत विरोधी वातावरण के बाद भी नेपाल में माओवादियों की विजय को भारत के लिये उपयुक्त ठहराने वाले कौन लोग हैं और इसके पीछे इनका उद्देश्य क्या है?

यही वह बिन्दु है जो हमें सोचने को विवश करता है और देश में वामपंथी विचारधारा के झुकाव को स्पष्ट करता है। इसमें बात में कोई शक नहीं है कि भारत के बडे समाचार पत्रों में निर्णायक पदों पर वही लोग बैठे हैं जो शीतकालिक युद्ध की मानसिकता के हैं और उस दौर के हैं जब वामपंथी विचारधारा कालेज कैम्पस में फैशन हुआ करती थी। इस विचारधारा को पिछले 25 वर्षों में अनेक उतार चढाव देखने पडे हैं। पहले राम मन्दिर के रूप में हिन्दुत्व आन्दोलन ने फिर सामाजिक न्याय के मण्डल आन्दोलन ने समाज का ध्रुवीकरण इस आधार पर कर दिया कि वामपंथी विचारधारा हाशिये पर चली गयी। ऐसी परिस्थितियों में यही वामपंथी विचार के पत्रकार जातिवादी दलों और हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों के साथ चले गये और सेकुलरिज्म के नाम पर एक नया मोर्चा बना लिया जिसका एक साझा कार्यक्रम हिन्दुत्व विरोध था। फिर भी यह विचारधारा पूरी तरह वामपंथ पर आधारित नहीं थी।

2000 के बाद समस्त विश्व में एक नया परिवर्तन आया है और वैश्वीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया और इस्लामी आतंकवाद का उत्कर्ष एक साथ हो रहा है। एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के नाम पर सामाजिक असमानता बढ रही है तो वहीं एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था के नाम पर इस्लामवादी शक्तियाँ कुरान और शरियत पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। वैश्वीकरण से उपजे सामाजिक असंतुलन के चलते समाज में आन्दोलन के लिये जो वातावरण पनप रहा है उसका कुछ हद तक उपयोग भारत में नक्सली कर रहे हैं। इस प्रकार नक्सलियों के आन्दोलन का सूत्र भी वर्तमान विश्व व्यवस्था का विरोध है और इस्लामवादी पुनरुत्थान आन्दोलन का लक्ष्य भी कुरान आधारित विश्व की स्थापना है। भारत में दोनों ही शक्तियाँ अर्थात नक्सली और इस्लामवादी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक और अपना शत्रु मानती हैं।

यह निष्कर्ष मैंने अपने अनुभव के आधार पर निकाला है। आज से कोई दो वर्ष पूर्व मुझे नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ जाने का अवसर मिला और उन हिस्सों में भी जाने का अवसर मिला जो नक्सल प्रभावित या नक्सल प्रभाव वाले हैं। अपनी यात्रा के दौरान नक्सलियों के पूरे कार्य व्यवहार को जानने का अवसर मिला। नक्सलवादी एक समानांतर व्यवस्था पर काम कर रहे हैं। छ्त्तीसगढ जैसे क्षेत्र में जो भौगोलिक दृष्टि से काफी बिखरा है और कुछ गाँवों में तो केवल एक तो घर ही हैं और पिछ्डापन इस कदर है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासी देश क्या होता है यह तक नहीं जानते। ऐसे पिछ्डे क्षेत्रों में शिक्षा का बहुत बडा अभियान संघ परिवार के एकल विद्यालय चला रहे हैं जहाँ दूर दराज के घरों में भी आपको भारतमाता के कैलेण्डर मिल जायेंगे। खैर इसके बाद भी नक्सलवादियों का प्रभाव इन क्षेत्रों में बहुत अधिक है और उनके अपने विद्यालय हैं जहाँ वे जनजातिय लोगों के बच्चों को अपने पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षा देते हैं और बच्चों के अभिभावकों को धन भी देते हैं। इन पाठ्यक्रमों के अंतर्गत साम्राज्यवाद और हिन्दुत्व को सहयोगी सिद्ध करते हुए दोनों को समान रूप से शत्रु बताया जाता है। यही नहीं तो नक्सलियों की एक पत्रिका मुक्तिमार्ग भी इस क्षेत्र से निकलती है जिसमें भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये जाते हैं। इस अनुभव को पाठकों से बाँटना इसलिये आवश्यक था कि इन चीजों को देखकर दो वर्ष पूर्व जो विचार मेरे मन में आया था और जिसके बारे में उस समय भी मैने लिखा था वह यह कि नक्सलियों का यह भाव एक बडे संकट को जन्म दे सकता है और वह यह कि भारत में और विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के समान उद्देश्य होने के कारण किसी स्तर पर आकर वे एक दूसरे के सहयोगी बन सकते है।

नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत जिस प्रकार की प्रतिक्रिया भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के मध्य हुई है उससे एक आशंका को बल मिलता है कि वामपंथ के थके सिपाही एक बार फिर विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद को और भारत में हिन्दुत्व को निशाना बना कर इस्लामवादियों के साथ आ सकते हैं।

वैसे वामपंथियों का मुस्लिम साम्प्रदायिकता का सहयोग देने का पुराना इतिहास रहा है और भारत के विभाजन के लिये मुस्लिम लीग को वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करने का कार्य वामपंथियों ने ही किया था। भारत में पिछ्ले 25-30 वर्षों से हाशिये पर आ गये वामपंथियों को सुनहरा अवसर 2004 में मिला जब वे केन्द्र में सत्तासीन दल के प्रमुख घटक बने और विदेश नीति सहित अनेक मुद्दों पर वीटो लगाने में सफल रहे। वामपंथियों ने नेपाल में माओवादियों को नेपाल की सत्ता तक लाने में भारत की ओर से मध्यस्थता की और राजतंत्र समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। कुछ वर्षों पहले भारत के दक्षिणी राज्य केरल में हुए विधानसभा चुनावों में वामपंथियों ने विदेश नीति को मुद्दा बनाकर चुनाव लडा और आई ए ई ए में भारत द्वारा ईरान के विरुद्ध किये गये मतदान को मुस्लिम वोट से जोडा और फिलीस्तीन के आतंकवादी नेता और अनेकों इजरायलियों की हत्या कराने वाले इंतिफादा के उत्तरदायी यासिर अराफात का चित्र लगाकर वोट की पैरवी की। इसी प्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के दौरान मुम्बई और दिल्ली में इस्लामवादियों के साथ मिलकर बडी सभायें कीं और अमेरिका के राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त सत्र सम्बोधित करने से रोक दिया। डेनमार्क में पैगम्बर मोहम्मद का आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित होने पर यही वामपंथी इस्लामवादियों के साथ सड्कों पर उतरे और केरल में इन्हीं वामपंथियों की सरकार ने कोयम्बटूर बम काण्ड के आरोपी कुख्यात आतंकवादी अब्दुल मदनी को जेल से रिहा करने के लिये विधानसभा का विशेष सत्र आहूत किया। ऐसा काम संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब विधानसभा के विशेष सत्र द्वारा किसी आतंकवादी को छोड्ने का प्रस्ताव पारित किया जाये।

अब जबकि नेपाल की संविधान सभा में विजय के उपरांत माओवादियों के नेता प्रचण्ड ने अपना प्रचण्ड रूप दिखाना आरम्भ कर दिया है और उनका भारत विरोधी एजेण्डा सामने आ रहा है तो स्पष्ट है कि नेपाल में चीन और पाकिस्तान की जुगलबन्दी गुल खिलाने वाली है और इसकी तरफ उन लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जा रहा है जो भारत सरकार को सीख दे रहे है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से भारत में नक्सलवादियों को भी लोकतांत्रिक बनाने में सहायता मिलेगी। इस तर्क से सावधान रहने की आवश्यकता है कहीं इस चिंतन के पीछे माओवादियों के सहारे मृतप्राय पडे वामपंथ को जीवित करने का स्वार्थ तो निहित नहीं है। वैसे भी विश्व स्तर पर आज वामपंथी इस्लामवादियों को अपना सहयोगी बनाने में नहीं हिचकते और अमेरिका, इजरायल सहित अनेक विषयों पर उनके सुर में बात करने में तनिक भी परहेज नहीं करते। नेपाल में माओवादियों की विजय को दक्षिण एशिया में इस्लामवादी-वामपंथी गठजोड की दिशा में एक मह्त्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिये। आने वाले दिनों में यह गठज़ोड और अधिक मुखर और मजबूत स्वरूप लेगा।
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कम्युनिस्ट पार्टी एक मरता हुआ पार्टी

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की उन्नीसवीं कांग्रेस महज एक सियासी जलसा बन कर रह गई। पार्टी के लिए यह सिद्धांत, संगठन और संघर्ष के सवालों पर खुलकर अपनी समीक्षा करने का अहम मौका हो सकता था। लेकिन जो हुआ, वह सिर्फ खानापूरी है। पार्टी संगठन में सुधार लाने के लिए कदम उठाने का ऐलान किया गया है। इसी तरह कैडरों में बढ़ते करप्शन पर रोक लगाने तथा हिंदी प्रदेश में अपना विस्तार करने की बातें कही तो गई हैं, लेकिन ये मुद्दे नए नहीं हैं। बरसों से सीपीएम इनसे उलझती रही है और एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है।

सीपीएम की समस्या यह है कि वह वैचारिक संघर्ष के नाम पर सत्ता की साझेदारी में शामिल रहना चाहती है। दूसरी दिक्कत यह है कि इसने संसदीय जनतंत्र को अपना तो लिया है, लेकिन कैडर अब भी मार्क्सवाद का मतलब वर्ग-संघर्ष समझते हैं। इसीलिए पार्टी के भीतर सत्तावादी सोच और किताबी मार्क्सवाद का विरोधाभास बना रहता है। पिछले चार बरसों से वह यूपीए सरकार की दोस्त बनी हुई है।

इस दौरान जन संघर्ष के नाम पर उसने बयान जारी करने के अलावा कुछ करना मुनासिब नहीं समझा। हाल के बरसों में पूंजीवादी-उदारवादी सोच उस पर और भी हावी हो गया है, जिसकी एक मिसाल स्पेशल इकनॉमिक जोन का मामला है। नवम्बर 2006 में पार्टी ने सेज की आलोचना करते हुए एक दस्तावेज जारी किया था। लेकिन अब पार्टी ने इस पर नरम रुख अख्तियार कर लिया है। इस बीच नंदीग्राम में जो हुआ, वह सभी ने देखा। एक ईमानदार लीडरशिप में सच को स्वीकार करने का साहस होता है और एक कमजोर लीडरशिप को ही अपनी आलोचना से डर लगता है।

सच तो यही है कि सीपीएम वैचारिक रूप से मार्क्सवाद का त्याग कर चुकी है। उसमें और यूरो कम्युनिज्म में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। पार्टी का नया रास्ता अब बुद्धदेववाद का है। लेकिन यूरोप से उसमें एक फर्क है। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने मार्क्सवाद को व्यावहारिक न मानकर अपने सिद्धांतों में सुधार किया था, जबकि सीपीएम घोषित तौर पर ऐसा करने का भी साहस नहीं रखती।

सलकिया प्लेनम में कहा गया था कि पार्टी लीडरशिप में भी 'अपने राज्य को अलग रखने' की प्रवृत्ति और अखिल भारतीय चरित्र का अभाव नजर आता है। यह बात सही थी और अब तक इस प्रवृत्ति में कई गुना बढ़ोतरी हो चुकी है। आज हाल यह है कि बंगाल और केरल की इकाइयां अलग-अलग रास्ते पर चल रही हैं। दोनों सरकारें दो सिद्धांतों और दो मूल्यों की नुमाइंदगी करती हैं। इस बिखराव को रोकने के लिए उन्नीसवीं कांग्रेस ने समझौतावादी रुख अपनाया है। कम्युनिस्ट संगठनों में लोकतांत्रिक केन्द्रवाद को जरूरी माना जाता है, लेकिन सीपीएम का केन्द्र ही जड़ता का शिकार हो चुका है, लिहाजा लोकतांत्रिक केन्द्रवाद भी बिखर गया है। एक समय केन्द्र में बी.टी. रणदिवे, नम्बूदरीपाद, ए.के. गोपालन और ज्योति बसु जैसे नेता थे, जो कम्युनिज्म के सिद्धांतों के सामने सत्ता को अहमियत नहीं देते थे। इन नेताओं ने लोकतांत्रिक केन्द्रवाद को कमजोर नहीं पड़ने दिया था। लेकिन जब सत्ता का स्वाद लग जाता है, तो सिद्धांत कूड़ेदान के हवाले हो जाते हैं।

केरल में सीपीएम की गुटबाजी बहुत समय से चर्चा में है। अठारहवीं कांग्रेस में भी इस मुद्दे पर विचार किया गया था, लेकिन गुटबाजी थमने का नाम नहीं ले रही। इस बार गुटबाजी पर पर्दा डालने के लिए पार्टी ने सभी विरोधी विचारों के बीच समन्वय की बात कहकर काम चला लिया है। एक वह भी दौर था, जब पार्टी के वरिष्ठ नेता एस.एस. मिराजकर को सिर्फ इसलिए निकाल दिया गया कि उन्होंने श्रीपाद अमृत डांगे के जन्मदिन पर शुभकामना संदेश भेजा था। आज कहानी एकदम उलटी है। केरल इकाई अनुशासनहीनता की मिसाल बन चुकी है। कल तक सीपीएम सीपीआई को दक्षिणपंथी रुझान वाली संशोधनवादी पार्टी मानती थी। सोशलिस्टों को तो वर्ग-शत्रु कहा जाता था। आज वह खुद किस मायने में सोशलिस्ट संगठनों से अलग है, इसका जवाब देना उसके लिए मुमकिन नहीं होगा। उसके पास सिर्फ वामपंथी लफ्फाजी बची है।

सोशलिस्ट नेताओं डॉ. राममनोहर लोहिया और जेपी आदि ने हिंदी इलाके के सामाजिक विरोधाभासों के बावजूद समाजवादी आंदोलन खड़ा कर दिया था। इसके पीछे उनकी स्पष्ट सोच और भारतीयता से जुड़ाव था। वे राष्ट्रीय सहमति के अभिन्न हिस्से थे, लेकिन कम्युनिस्ट? एक मिसाल लीजिए तिब्बत की। कम्युनिस्टों के नजरिए से तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। वे तिब्बत की बौद्ध संस्कृति, परंपरा और स्वायत्तता को मानने के लिए तैयार नहीं। उन्नीसवीं कांग्रेस में भी वे चीन की तरफदारी करते नजर आए हैं। सन 1959 में भी वे पंडित नेहरू की तिब्बत नीति की आलोचना कर रहे थे। नेहरू ने दलाई लामा को मानवता का श्रेष्ठतम प्रतिनिधि कहा था। कम्युनिस्ट उन्हें साम्राज्यवादी एजेंट मानते रहे। नेहरू ने 5 अप्रैल 1959 को संसद में कहा था कि कम्युनिस्ट राष्ट्रीय भावना के खिलाफ नजरिया रखते हैं।

लेकिन इस पर हैरान होने की जरूरत नहीं। सीपीएम का जन्म ही चीन की भक्ति के चलते हुआ। सन 1962 की जंग में भारतीय कम्युनिस्टों का एक तबका चीन को हमलावर मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। ऐसे 32 सदस्यों ने सीपीआई की नैशनल काउंसिल से अलग होकर सीपीएम का गठन किया। तब पार्टी के नेता पी. राममूर्ति ने कहा था, 'कोई मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही ही होगा, जो किसी समाजवादी देश को हमलावर मानेगा।'

सीपीएम का इतिहास और वर्तमान अनसुलझे सवालों से घिरा है। इनका जवाब उसके पास नहीं। उसकी दिलचस्पी भी जवाब खोजने में नहीं लगती। यही वजह है कि पार्टी के भीतर गिरावट नजर आ रही है और बाहर माओवादी-लेनिनवादी गुटों का फैलाव होता जा रहा है।
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क्या चाहते हैं आडवाणी?

आज जब मैं भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेता और आगामी लोकसभा चुनावों के लिये पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी श्री लालकृष्ण आडवाणी के बारे में कुछ लिखने बैठा हूँ तो निश्चय ही लोगों के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि ऐसा मैंने तब क्यों नहीं किया जब अधिकाँश लोग आडवाणी के बारे में लिख रहे थे। जब से लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ का विमोचन हुआ है, आडवानी जी खबरों में हैं। पुस्तक को जैसे जैसे लोग पढते गये उसी अनुपात में कुछ नया समाचार उस सम्बन्ध में आता गया। कुल मिलाकर आडवाणी जी स्वयं और उनके सलाहकार जो चाहते थे वह पूरा होता गया और तकरीबन महीने भर खबरों के केन्द्र में आडवाणी बने रहे। इस दौरान कभी भी मेरी इच्छा आडवानी जी पर कुछ लिखने की नहीं हुई। इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं एक तो मैने स्वयं आडवाणी जी की आत्मकथा पढी नहीं थी और दूसरा मैने आडवाणी जी को कभी क्रांतिकारी और व्यवस्था परिवर्तन का अग्रदूत नहीं माना। आडवाणी एक ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस की यथास्थितिवादी व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन के एक माध्यम थे जो कुछ वैसा ही है जैसे गर्मी की तपती दोपहरी में शीतल हवा का एक झोंका आ जाता है और मन प्रसन्न हो जाता है। आडवाणी जी को लेकर अपनी इस अवधारणा के चलते आडवाणी की आत्मकथा भी मुझे एक छवि निर्माण के प्रयास से अधिक कुछ नहीं दिखी।

आडवाणी जी पर लिखने का कोई प्रयास अब भी नहीं करता यदि पिछ्ले कुछ दिनों में आडवाणी जी द्वारा दिये गये कुछ साक्षात्कार विचलित न करते। पिछ्ले दिनों आडवाणी जी ने भारत के कुछ प्रमुख टी.वी चैनलों को साक्षात्कार दिया और उसके बाद पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र को साक्षात्कार दिया और दोनों स्थानों पर उन्होंने पाकिस्तान की अपनी यात्रा के दौरान जिन्ना के सम्बन्ध में की गयी अपनी टिप्पणियों को सही ठहराया और फिर दुहराया कि इस विषय पर उन्हें ठीक से नहीं समझा गया और पूरे विचार परिवार( संघ परिवार) ने एक ऐसा स्वर्णिम अवसर गँवा दिया जब मुसलमानों को समझाया जा सकता था कि विचार परिवार इस्लाम विरोधी या मुस्लिम विरोधी नहीं होते हुए भी हिन्दुत्व के प्रति आग्रही है।

आडवाणी के ऐसे विचारों से स्पष्ट है कि वह अपनी हिन्दुत्ववादी छवि तोडने के लिये व्यग्र हैं और इसके लिये तरह-तरह के प्रयास कर रहे हैं।

आडवाणी जी की इस स्थिति को समझने के लिये यदि हम आडवाणी की आत्मकथा की प्रस्तावना में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गयी उस टिप्पणी का मर्म समझने का यत्न करें तो बात स्पष्ट हो जायेगी जिसमें अटल जी ने कहा था कि आडवाणी को गलत समझा गया और वे अपनी छवि के शिकार हो गये। आडवाणी की यही विवशता है। सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथ लेकर चलने वाला आडवाणी किसी क्रांति के लिये नहीं निकला था और उनका उद्देश्य भी काँग्रेस द्वारा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चलते हिन्दुओं में पनप रहे असंतोष को राम जन्मभूमि आन्दोलन के प्रतीक के चलते भुनाकर संसदीय व्यवस्था में भाजपा के लिये विपक्ष की भूमिका सृजित करने से अधिक कुछ नहीं था और यही कारण है कि इस आन्दोलन की चरम परिणति के रूप में 6 दिसम्बर 1992 को जब मुगल कालीन ढाँचा ध्वस्त हो गया तो आडवाणी अत्यंत व्यथित हुए और तत्काल इसे अपने जीवन का काला दिन तक घोषित कर दिया। वास्तव में आडवाणी जी बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने हो लेकर अपराध बोध से ग्रस्त हैं और इसे अपने जीवन का पाप मानकर उसके प्रायश्चित के लिये जुटे हैं। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान की अपनी यात्रा के दौरान जिन्ना को सेकुलर घोषित करने के पीछे भी उनकी यही मानसिकता काम कर रही थी।

अभी हाल में पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र डान के साथ साक्षात्कार में आडवाणी ने पुनः वही बातें दुहरायीं कि यदि पाकिस्तान जिन्ना के रास्ते पर चलता तो आज भी सेकुलर रहता और साथ ही उन्होंने अपनी एक काफी पुरानी अवधारणा को भी दुहराया कि आने वाले समय में भारत और पाकिस्तान का एक महासंघ बन सकता है।

आडवाणी के इन बयानों के पीछे आपत्तिजनक क्या है? एक तो यह कि जिन्ना के प्रति अपनी बात को वे यह कह कर न्यायसंगत ठहराते हैं कि इससे भाजपा सहित पूरे संघ परिवार के सम्बन्ध में मुसलमानों की सोच बदल जाती अर्थात आडवाणी भी मानते हैं कि भारत का मुसलमान भारत से अधिक पाकिस्तान की परिस्थितियों और घटनाक्रम से प्रभावित होता है। आडवाणी की इस स्वीकारोक्ति से 1990 के दौरान अल्पसंख्यकवाद के विरुद्ध गढे गये उनके ही मुहावरे गलत सिद्ध होते हैं जब भारतीय मुसलमानों की पाकिस्तान के प्रति निष्ठा को आधार बनाकर हिन्दुत्व की धार तेज की जाती थी। इससे एक अर्थ तो यह निकलता है कि आडवाणी देश की समस्याओं के सन्दर्भ में काँग्रेस से भिन्न राय नहीं रखते और अल्पसंख्यकवाद का नारा मात्र वोट के लिये था और इस समस्या के समाधान को लेकर स्वयं आडवाणी भी गम्भीर नहीं हैं।

जिन्ना को सेकुलर सिद्ध कर आडवाणी पाकिस्तान की निर्मिति को शाश्वत बना देते हैं और भारत पाकिस्तान की समस्या को और उलझा देते हैं। भारत और पाकिस्तान की समस्या के सम्बन्ध में एक तथ्य पर कभी ध्यान नहीं दिया गया और वह यह कि पाकिस्तान और भारत की समस्या भी काफी कुछ इजरायल और फिलीस्तीन की भाँति है जहाँ एक देश दूसरे देश के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान आज भी स्वाधीनता पूर्व की मुस्लिम मानसिकता से ग्रस्त है और समस्त भारत को इस्लामी राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करने का स्वप्न देखता है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत को हजारों घाव देने के योजना के आधार पर आतंकवाद को प्रश्रय क्यों देता? वास्तव में इस पूरी समस्या को इस नजरिये से देखने का प्रयास कभी हुआ ही नहीं और न ही उस मानसिकता को जानने का प्रयास किया गया जो भारत के प्रति शाश्वत शत्रुता को पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार बनाती है। पाकिस्तान की इसी इस्लामपरक मानसिकता के चलते ही भारत का मुसलमान पाकिस्तान के अधिक निकट अपने को पाता है और इसके बाद भी आडवाणी का जिन्ना को सेकुलर सिद्ध करना और पाकिस्तान के रास्ते मुसलमानों के मध्य अपनी छवि बदलने का प्रयास करना यही प्रमाणित करता है कि या तो आडवाणी समस्याओं को सही सन्दर्भ में नहीं देख पा रहे हैं या फिर वे यथास्थितिवादी नेता हैं जो सत्ता परिवर्तन का माध्यम भर हैं।

इस बात की पुष्टि आडवाणी जी की आत्मकथा में इस्लामी उग्रवाद के सम्बन्ध में उनकी धारणा से भी होती है। अपनी आत्मकथा में इस्लामी आतंकवाद के लिये आडवाणी ने इस्लामी उग्रवाद शब्द का प्रयोग किया है और इस समस्या के पीछे एक विचारधारा की प्रेरणा की बात स्वीकार की है परंतु अपनी आत्मकथा के बाद छवि बदलने के अपने प्रयास में किसी भी साक्षात्कार में उन्होंने इस्लामी उग्रवाद या इस्लामी आतंकवाद की चर्चा ही नहीं की। यही नहीं तो राजनेता के रूप में भी आडवाणी जब भी इस्लामी आतंकवाद की चर्चा करते हैं तो इसके पीछे किसी विचारधारा की प्रेरणा सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते। ऐसा शायद वे राजनीतिक दृष्टि से सही होने के लिये या पोलिटिकल करेक्टनेस के कारण नहीं करते। इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि आडवाणी यथास्थितिवादी व्यवस्था के लिये उपयुक्त राजनेता हैं जो सत्ता परिवर्तन तो कर सकते हैं परंतु उनसे किसी क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

आडवाणी स्वयं और उनके सलाहकार उनकी छवि बदलने के कार्य में लग गये हैं और इस प्रयास में वे ऐसे कदम भी उठाते जा रहे हैं जिससे उनके समक्ष अनेक प्रश्न भी खडे होते जा रहे हैं। भारत की संसदीय प्रणाली की व्यवस्था के चलते सम्भव है कि आडवाणी देश के सर्वोच्च पद तक पहुँच भी जायें परंतु उनके नये तेवर से स्पष्ट है कि छ्द्म धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा देने वाला यह राजनेता स्वयं धर्मनिरपेक्षता और छद्म धर्मनिरपेक्षता के मध्य विभाजन नहीं कर पा रहा है।
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सिमी का फैलता जाल

सिमी का फैलता जाल

प्रतिबन्धित इस्लामी संगठन स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट आफ इण्डिया या संक्षिप्त रूप में जिसे सिमी के नाम से जाना जाता है अब खुफिया एजेंसियों के लिये काफी बडा सिरदर्द बनता जा रहा है। खुफिया एजेंसियों के अनुसार सिमी ऐसा पहला आतंकवादी संगठन है जिसने देश के अन्दर बडे पैमाने पर देशी आतंकवादियों का नेटवर्क खडा कर लिया है और इन खुफिया एजेंसियों का यह भी मानना है कि यह देश में कार्यरत अनेक मुस्लिम चरमपंथी संगठनों के साथ मिलकर काम ही नहीं कर रहा है वरन उनके साथ मिलकर नेटवर्क को और अधिक व्यापक बना रहा है। यह खुलासा मार्च के महीने में इन्दौर से पकडे गये सिमी के 13 सदस्यों में से एक अमील परवेज के साथ पुलिस की पूछताछ के दौरान हुआ। परवेज ने बताया कि सिमी हैदराबाद स्थित चरमपंथी इस्लामी संगठन दर्सगाह जिहादो शहादत के साथ के साथ काफी निकट से सम्बद्ध है और इसके साथ मिलकर काम कर रहा है।पूछ्ताछ के दौरान इस रहस्योद्घाटन से स्पष्ट हो गया है कि इस्लामी संगठन मिलकर काम कर रहे हैं और इनका विशेषकर सिमी का व्यापक नेटवर्क देश भर में स्थापित हो चुका है। पुलिस से पूछ्ताछ के दौरान अमील परवेज ने बताया कि दर्सगाह के अध्यक्ष शेख महबूब अली ने उसे मार्शल आर्ट की शिक्षा देने के लिये बुलाया था। इसके बाद पुलिस इस कोण पर भी जाँच कर रही है कि सिमी के देश भर में ऐसे कितने इस्लामी संगठनों के साथ सम्बन्ध हैं। पुलिस की इस बात को स्वीकार कर रही है कि यह तो एक शुरूआत भर है और ऐसे कितने ही रहस्य अभी आगे खुलने शेष हैं।
इससे पूर्व भी हैदराबाद में दर्सगाह की गतिविधियों के बारे में और इसके उग्र स्वरूप के बारे में पहली बार तब पता चला था जब गुजरात के पूर्व मंत्री हरेन पाण्ड्या की हत्या के आरोपी मौलाना नसीरुद्दीन को पुलिस ने पकडा तो दर्सगाह के सदस्यों ने पुलिस पर पथराव कर उसे पुलिस की पकड से छुडाने का प्रयास किया और जबरन पुलिस की गाडी से उसे ले जाने का प्रयास करने लगे। इस घटना के उपरांत पुलिस ने जब भीड को तितर बितर करने के लिये गोली चलाई तो दर्सगाह का कार्यकर्ता मुजाहिद सलीम इस्लाही गोलीबारी में मारा गया।.

हैदराबाद के पुलिस आयुक्त ने भी स्वीकार किया कि वे इस संगठन के बारे में जानते हैं और सम्भव है कि सिमी के कुछ पूर्व सदस्य इस संगठन से सम्बद्ध हों। दर्सगाह के सम्बन्ध में उसकी वेबसाइट www.djsindia.org से जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसकी वेबसाइट के अनुसार इस संगठन का उद्देश्य मुस्लिम युवकों को शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त बनाना और इस हेतु उन्हें प्रशिक्षण देना जो कि सशस्त्र भी हो सकता है। इस संगठन के अनुसार उसका प्रमुख उद्देश्य हिजाब के सिद्धांत को सख्ती से लागू कराना, शरियत, मस्जिद और कुरान की पवित्रता और सुरक्षा सुनिश्चित करना, स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा करना, इस्लामी सुधार के लिये मार्ग प्रशस्त करना और अंत में इसके उद्देश्य में कहा गया है कि अल्लाह और इस्लाम की सर्वोच्चता स्थापित करना। लेकिन जिस बात ने खुफिया एजेंसियों को इस संगठन के सम्बन्ध में सर्वाधिक सतर्क किया है वह है इसके प्रशिक्षण की एक व्यवस्था जिसके अंतर्गत हैदराबाद के बाहरी क्षेत्रों में कुछ विशिष्ट लोगों को छांटकर प्रशिक्षण दिया जाता है। परवेज ने पुलिस को बताया कि उसने 2007 में दो प्रशिक्षण शिविरों में भाग लिया था और इन शिविरों में अनेक कठिन प्रशिक्षण दिये गये जिनमें चाकू छूरी चलाने से लेकर पेट्रोल बम बनाने तक का प्रशिक्षण था। इस वेबसाइट ने एक किशोर का चित्र भी लगा रखा था जिसके हाथ में एक पट्टिका थी जिस पर लिखा था “ कुरान हमारा संविधान है और मैं उसका सिपाही” परंतु कुछ समाचार पत्रों में इसके बारे में समाचार प्रकाशित होने के बाद फिलहाल इस चित्र को वहाँ से हटा दिया गया है।

पुलिस से पूछ्ताछ में जब सिमी और दर्सगाह के परस्पर सम्बन्धों की बात निकली तो दर्सगाह के अध्यक्ष शेख महबूब अली ने सिमी के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्धों से तो इंकार किया और कहा कि उनके संगठन के अन्य किसी संगठन से सम्बन्ध नहीं है परंतु यह माना कि देश भर में उनके 10-12 केन्द्र हैं और कौन कहाँ प्रशिक्षण प्राप्त करता है इसका रिकार्ड रखना सम्भव नहीं है। परवेज ने पूछ्ताछ में बताया कि प्रशिक्षण के दौरान शिविर के प्रभारी सफदर और कमरुद्दीन ने उसे बताया था कि यह आरम्भिक प्रशिक्षण है और इसके बाद जो लोग छांटे जायेंगे उन्हें पुनः प्रशिक्षित किया जायेगा। .
परवेज की पूछ्ताछ में सिमी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस्लामी संगठनों से सम्पर्क की बात सामने आयी है 1997 में अलीगढ में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसकी अध्यक्षता सिमी के तत्कालीन अध्यक्ष शाहिद बद्र फलाही ने की थी और उस सम्मेलन में परवेज के साथ 20 वर्षीय फिलीस्तीनी मूल के हमास नामक फिलीस्तीनी आतंकवादी संगठन के सदस्य शेख सियाम ने भी भाग लिया था। परवेज ने पूछ्ताछ के दौरान यह भी स्पष्ट किया है कि 2001 में इस संगठन पर प्रतिबन्ध लग जाने के बाद भी किस प्रकार यह सक्रिय रहा और अपनी गतिविधियाँ चलाता रहा। परवेज के अनुसार काफी सदस्यों की गिरफ्तारी के बाद सफदर नागौरी और नोमन बद्र ने इस संगठन को नये सिरे से खडा किया। परवेज के अनुसार नगौरी ने उससे कहा कि वह प्रतिबन्ध हटवाने का पूरा प्रयत्न करेगा और इस आन्दोलन को समाप्त नहीं होने देगा।

पिछ्ले महीने मध्य प्रदेश में इन्दौर में पकडे गये सिमी के सदस्यों ने देश के समक्ष अनेक प्रश्न खडे कर दिये हैं। 2001 में प्रतिबन्ध लगने के बाद भी यह संगठन कभी निष्क्रिय नहीं हुआ और पिछ्ले दो तीन वर्षों में देश में हुई बडी आतंकवादी घटनाओं में इसका हाथ रहा है या इसी संगठन ने उन्हें अंजाम दिया है। इस संगठन की सक्रियता के मूल कारण पर जब हम विचार करते हैं तो हमें कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से दिखायी पडते हैं एक तो हमारे राजनीतिक दलों द्वारा इस्लामी आतंकवाद के मुद्दे को वोट बैंक की राजनीति से जोड्कर देखना और दूसरा इस्लामी धार्मिक नेतृत्व या बुध्दिजीवियों द्वारा आतंकवाद को हतोत्साहित करने के स्थान पर मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा को प्रोत्साहित कर सरकार, राज्य, प्रशासन, सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों को कटघरे में खडा कर इस्लामी प्रतिरोध की शक्तियों को कुण्ठित करना।

2001 में जब तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने सिमी पर पहली बार प्रतिबन्ध लगाया तो उस समय विपक्ष की नेत्री श्रीमती सोनिया गाँधी ने इसकी आलोचना की और उनका साथ उनके ही दल की सदस्या अम्बिका सोनी ने दिया। फिर जब सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली यू.पी.ए की सरकार केन्द्र में बनी तो इस सरकार ने भी सिमी पर प्रतिबन्ध को जारी रखा। यह उदाहरण संकेत करता है कि आतंकवाद जैसे मह्त्वपूर्ण मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं बन पायी है और इसे भी राजनीतिक मोल तोल के हिसाब से देखा जा रहा है। राजनीतिक दलों के इस रवैये का सीधा असर सुरक्षा एजेंसियों पर पड्ता है जो तमाम जानकारियों और प्रमाणों के बाद भी आरोपियों पर कार्रवायी करने में हिचकती हैं या उन्हें कार्रवायी धीरे धीरे करने का निर्देश दिया जाता है। दोनों ही दशाओं में इस्लाम के नाम पर आतंकवाद करने वालों का मनोबल बढता है और वे अवसर पाकर अपनी ताकत और अपना नेटवर्क बढा लेते हैं।

प्रतिबन्ध के बाद भी सिमी का इस मात्रा में सक्रिय रहना और ताकतवर रहना एक और मह्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करता है जिसका उल्लेख ऊपर भी किया गया है कि इस्लामी धर्मगुरूओं और बुद्धिजीविओं की भूमिका इस सम्बन्ध में सन्दिग्ध है। अभी कुछ महीने पहले जब उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित प्रमुख इस्लामी संस्थान दारूल- उलूम – देवबन्द ने आतंकवाद के सम्बन्ध में एक बडा सम्मेलन आयोजित किया और उस सम्मेलन के द्वारा इस्लाम और आतंकवाद के मध्य किसी भी सम्बन्ध से इन्कार किया तो भी जैसे प्रस्ताव वहाँ पारित हुए उनमें राज्य, प्रशासन, पुलिस को ही निशाना बनाया गया और पूरे प्रस्ताव में सिमी जैसे संगठनों के बारे में एक भी शब्द नहीं बोला गया। पिछ्ले लेख में भी लोकमंच में इस बात को उठाया गया था कि एक ओर तो आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर सिमी का नेटवर्क फैलता जा रहा है। यहाँ तक कि सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि सिमी का नेटवर्क दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत के अनेक प्रांतों में फैल चुका है। इससे तो यही संकेत मिलता है कि ऐसे संगठनों को रोकने की इच्छा शक्ति का अभाव है। सरकार जिसका नेतृत्व राजनीतिक दल कर रहे है उनमें ऐसे तत्वों को रोकने की शक्ति नहीं है क्योंकि उनके लिये मुस्लिम वोट अधिक महत्व रखते हैं और इस्लामी धर्मगुरूओं या बुद्धिजीवियों में इस्लाम के नाम पर आतंक फैला रहे तत्वों को रोकने की इच्छा नहीं है क्योंकि यदि उनमें ऐसी इच्छा होती तो वे मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा को सशक्त बनाकर या खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को निशाने पर लेकर इस्लामी आतंकवादियों को बचने का रास्ता नहीं प्रदान करते।

देश भर में सिमी के फैलते जाल ने हमारे समक्ष अनेक प्रश्न खडे कर दिये हैं जिनके प्रकाश में इस्लामी आतंकवाद के सम्बन्ध में नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। यह समस्या एक विचारधारा से जुडी है और उस विचारधारा की तह तक जाना होगा। इस समस्या को बेरोजगारी या अल्पसंख्यकों के देश की मुख्यधारा से अलग थलग रहने जैसे सतही निष्कर्षों से बाहर निकल कर पूरी समग्रता में लेने की आवश्यकता है। उन तथ्यों का पता लगाने की आवश्यकता है कि इस्लामी धर्मगुरु और बुध्दिजीवी आखिर क्योंकर इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले संगठनों के विरुद्ध मुखर होकर उन्हें इस्लाम विरोधी घोषित नहीं करते।
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बांग्लादेशी: देश की सुरक्षा के लिये खतरा

गृह मंत्रालय से संबंधित स्थायी समिति के इस निष्कर्ष से संभवत: सभी सहमत होंगे कि देश में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिक आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं, लेकिन उन्हें निकाल बाहर करने के लिए कोई अभियान शायद ही सामने आए। संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो के चलते न तो केंद्र सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकालने की इच्छुक है और न ही राज्य सरकारें। राजनीतिक दलों के इसी रवैये के चलते बांग्लादेशी घुसपैठियों ने पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी ठिकाना बना लिया है। अब तो राजधानी दिल्ली में भी उनकी अच्छी-खासी आबादी हो गई है। यद्यपि बांग्लादेशी नागरिक छोटे-मोटे अपराधों के साथ-साथ आतंकी वारदातों में भी लिप्त पाए जा रहे हैं, लेकिन उन्हें अवांछित घोषित करने का साहस कोई भी नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में गृहमंत्रालय की स्थायी समिति की उक्त रपट को ठंडे बस्ते में डालने के आसार ही अधिक हैं। यह कार्य पहले भी होता रहा है और एक बार फिर ऐसा होना इसलिए तय सा है, क्योंकि गृहमंत्री शिवराज पाटिल बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या को न केवल मानवीय दृष्टि से देखते हैं, बल्कि उसे इसी दृष्टि से हल भी करना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण बांग्लादेशी नागरिकों को एक तरह से अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने के लिए निमंत्रित करने वाला है। नि:संदेह बात केवल केंद्रीय गृहमंत्री के ही विचित्र रवैये की नहीं, संपूर्ण केंद्रीय सत्ता के नजरिये की भी है। यदि संप्रग सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को महज एक वोट बैंक के रूप में नहीं देख रही होती तो वह असम से संबंधित उस कानून को पिछले दरवाजे से लागू करने की कोशिश नहीं करती जिसे उच्चतम न्यायालय ने अनुचित और असंवैधानिक करार दिया था।

अवैध रूप से करोड़ों की संख्या में भारत में बस चुके बांग्लादेशी नागरिकों के प्रति जैसा नरम रवैया केंद्र सरकार का है वैसा ही कुछ सीमावर्ती राज्य सरकारों का भी है। अब यह कहने में हर्ज नहीं कि बांग्लादेश की सीमा से सटे ज्यादातर राज्यों के लगभग सभी राजनीतिक दल घुसपैठियों की आवभगत करने में लगे हुए हैं। यही कारण है कि बांग्लादेशी घुसपैठिये राशन कार्ड के साथ-साथ मतदाता पहचान पत्र हासिल करने में भी समर्थ हैं। बांग्लादेश आधारित आतंकी संगठन हुजी ने भारत में अपनी जड़ें इसीलिए जमा ली हैं, क्योंकि उन्हें शरण देने और मदद करने वाले बांग्लादेशी नागरिकों की कमी नहीं। अब तो यह काम देश के राजनेता भी करने लगे हैं। हुजी के एक आतंकी की मदद करने के मामले में त्रिपुरा सरकार के एक मंत्री का त्यागपत्र देने के लिए विवश होना यही बताता है कि हालात कितने बिगड़ चुके है? भारत में जो करोड़ों बांग्लादेशी नागरिक अवैध रूप से रह रहे है उन सभी के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की आशंका नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हे देश का नागरिक मान लिया जाए। आखिर भारत नार्वे, स्वीडन अथवा अमेरिका नहीं है। यदि गृहमंत्रालय की स्थायी समिति बांग्लादेशी नागरिकों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सचमुच खतरा मान रही है तो फिर उसे ऐसे प्रयत्‍‌न करने चाहिए कि उसकी रपट पर न केवल ध्यान दिया जाए, बल्कि उसकी सिफारिशों पर अमल भी हो।
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चीन का चमचागीरी

इतिहास बनता हुआ तभी अच्छा लगता है, जब हम उस पर गर्व कर सकें। दिल्ली में ओलिंपिक मशाल की दौड़ का आयोजन जिस जबर्दस्त सुरक्षा इंतजाम के बीच हुआ, उसने जरूर कई रेकॉर्ड कायम किए होंगे। वैसे तो किसी न किसी बहाने से राजधानी को छावनी में अक्सर तब्दील होना पड़ता है, लेकिन उस पैमाने से भी यह कुछ ज्यादा ही था। इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।

ओलिंपिक मशाल के सफर में कोई बाधा पड़े, यह सरकार के लिए शर्मिन्दगी की बात होती। वह अपनी तरफ से कोई चूक नहीं रहने दे सकती थी। लिहाजा उसने वही किया, जो राज्य सत्ता करती है। शहर के दूसरे इलाकों में प्रदर्शन हुए, झड़पें और हंगामे भी, लेकिन उन सब पर पाबंदी लगा देना मकसद था भी नहीं। विरोध जताने के लोकतांत्रिक अधिकार को यहां कुचला नहीं जा सकता था, सिर्फ उसकी धार सहनीय बनाए रखनी थी। कोई चाहे तो इसे सरकार और प्रशासन की कामयाबी मान सकता है, लेकिन इसे मशाल दौड़ के विरोधियों की जीत भी समझा जा सकता है।

चीन के तेवरों में हमेशा कुछ ऐसा रहा है, जो चुभने लगता है। पिछले दिनों ऐसा तब हुआ, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल दौरे पर पेइचिंग से नाराजगी भरी बड़बड़ाहट सुनाई दी। उसी बिगड़ैल मूड से एक बार फिर हमारा साबका पड़ रहा है, जिसकी वजह तिब्बत है। पिछले दिनों दिल्ली में तिब्बती प्रदर्शनकारियों ने पुलिस को चकमा देते हुए चीनी दूतावास में घुसने की कोशिश की। इसे ज्यादा से ज्यादा भारत के प्रशासकीय इंतजाम की कमजोरी कहा जा सकता था, तिब्बत को लेकर सहानुभूति नहीं, क्योंकि इससे पहले तिब्बती प्रदर्शनकारियों के साथ हमारी पुलिस बेरहमी से सख्ती कर चुकी है। इसके लिए सरकार ने खासी आलोचना भी झेली है। लेकिन चीन के लिए इस सबका कोई मतलब जैसे था ही नहीं।

पेइचिंग में भारतीय राजदूत निरुपमा राव को रात दो बजे तलब किया गया और भारत में होने जा रहे प्रदर्शनों की जानकारी दी गई। यह अजब बात थी और किसी के लिए इसके निहितार्थ समझना मुश्किल नहीं था। चीन साफ-साफ जता देना चाहता था कि उसे भारत के इरादों पर संदेह है और वह अपनी नाराजगी छुपाने में यकीन नहीं करता। इसे आप कूटनीतिक धमकी कह सकते हैं, हालांकि दोस्ती और अच्छे रिश्तों का लिहाज न करते हुए आपा खो बैठना चीन की आदत है। वह संदेहों का मारा हुआ देश है, जो किसी का यकीन नहीं करता और किसी भी बात पर चिढ़ उठता है। यही डर और चिढ़ उसके इतिहास को दिशा देती रही है और अब ताकत बटोरने के उसके जुनून में नजर आती है। लेकिन हमारे लिए सवाल यह है कि ऐसे पड़ोसी का क्या करें?

हम चीन के साथ दुश्मनी का इतिहास भुला देना चाहते हैं, उसके साथ होकर इस सदी को एशिया की सदी बनाना चाहते हैं, तिब्बत की निर्वासित सरकार को अपने यहां शरण देने के बावजूद तिब्बत की समस्या को लेकर भारत सरकार ठंडी ही रहती है और यहां तक कि वह उसे चीन का हिस्सा मान चुकी है। अब इससे ज्यादा क्या किया जा सकता है कि चीन का मिजाज ठीक रहे? जाहिर है, कुछ भी नहीं, बल्कि हम समझते हैं कि इसे लेकर भारत को बहुत फिक्र भी नहीं करनी चाहिए। कहा जा रहा है कि निरुपमा राव से बदसलूकी के जवाब में ही वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की पेइचिंग यात्रा स्थगित कर दी गई है।

अगर ऐसा है, तो यह सही है, हालांकि सीधे-सीधे अपना विरोध जताने से भी हमें हिचकना नहीं चाहिए। आखिर हम इस बात को लेकर क्यों दुबले होते रहें कि चीन हमारे बारे में क्या सोचता है? क्यों नहीं हम अपनी विदेश नीति को धड़ल्ले से, बिना किसी दुराव-छिपाव के लागू करें? जो हमें नागवार लगे, उसे कहने में क्यों हिचकें? आखिर भारत भी दुनिया का एक अहम देश है, जिसके मिजाज की फिक्र दूसरे देशों को करनी चाहिए- चीन को भी।
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फतवा और आतंकवाद साथ- साथ

पिछ्ले दिनों जब उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित प्रमुख इस्लामी संस्था दारूल उलूम देवबन्द ने आतंकवाद की भर्त्सना करने जैसा दिखने वाला एक बडा सम्मेलन आयोजित किया और उसमें आतंकवाद और इस्लाम के मध्य परस्पर किसी भी सम्बन्ध से इंकार करते हुए भी अनेक ऐसी बातें कहीं जो इन मौलवियों या इस्लामी धर्मगुरुओं की नीयत पर प्रश्न खडा करने के लिये पर्याप्त था। इन बातों में सबसे प्रमुख बात यह थी कि आतंकवाद के नाम पर सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को निशाना बना रही हैं और उन्हें हिरासत में लिया जा रहा है। इसी क्रम में इस सम्मेलन में कहा गया कि मदरसों को भी नाहक परेशान किया जा रहा है। इस उलेमा सम्मेलन की काफी चर्चा हुई और अनेक लोगों ने इसे अत्यंत सकारात्मक पहल घोषित किया। भारतीय जनता पार्टी के नेता और एक प्रमुख हिन्दी दैनिक में वरिष्ठ स्तम्भकार ने तो इस सम्मेलन को नरमपंथी इस्लाम के विकास की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम की सन्ज्ञा तक दे डाली तो वहीं कुछ अन्य लेखकों ने इस मामले पर काफी सधी टिप्पणी की।

इस विषय पर लोकमंच में प्रकाशित किये गये आलेख में उलेमा सम्मेलन को लेकर कुछ प्रश्न खडे किये गये थे और इस सम्मेलन के प्रस्तावों और इसमें हुई चर्चा के आधार पर आशंका प्रकट की गयी थी कि ऐसे प्रयास एक सोची समझी रणनीति का अंग हैं जिसका प्रमुख उद्देश्य समाज में इस्लामवाद के प्रतिरोध की शक्ति को कुन्द करना है और इस पूरी बहस में आतंकवाद की प्रेरणास्रोत विचारधारा पर चर्चा होने से रोकना है। यह विषय इस समय फिर से लाने के पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं।

मार्च महीने से लेकर इस अप्रैल महीने तक भारत में अनेक इस्लामी आतंकवादी नेटवर्क या आतंकवादी गिरफ्तार किये गये हैं। इसमें सबसे उल्लेखनीय गिरफ्तारी सिमी के सदस्यों की है। मार्च के महीने में इन्दौर में सिमी के कुछ सदस्यों की गिरफ्तारी के बाद एक के बाद एक राज खुलते गये और अंततोगत्वा मध्य प्रदेश के एक क्षेत्र चोरल में सिमी के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर का भी पता चला और यह भी पता लगा कि यहाँ छोटे बच्चों को भी सशस्त्र प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और उन बच्चों को शिविर में देखभाल के लिये महिलाओं का एक बल शाहीन बल के नाम से गठित गिया गया था। सिमी के पकडे गये सदस्यों में इस संगठन का मुखिया सफदर नागौरी भी शामिल है जिसका 11 जुलाई को मुम्बई के ट्रेन धमाकों के सिलसिले में मुम्बई के सिमी को जेल से पत्र लिखने का मामला भी काफी चर्चा में आया और इससे इन धमाकों में सिमी के लिप्त होने की पुष्टि भी हो गयी। मध्य प्रदेश से ही पकडे गये सिमी के सद्स्यों से पता चला कि हैदराबाद में मक्का मस्जिद में हुए धमाकों के तार भी सिमी से जुडे हैं।

पिछ्ले वर्ष कर्नाटक में आतंकवादी प्रशिक्षण होने का समाचार एक चौंकाने वाली घटना थी और अब मध्य प्रदेश में ऐसे शिविर के मिलने से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि भारत में आतंकवाद का आधारभूत ढाँचा अब निर्णायक स्थिति में पहुँच गया है और इस सम्स्या पर समग्रता से विचार करने की आवश्यकता है। समग्रता से तात्पर्य है कि इस समस्या के पीछे के विचारधारागत स्रोत को पहचानने की आवश्यकता है। क्या इस सम्बन्ध में सार्थक प्रयास हो रहे हैं। दुर्भाग्यवश इसका उत्तर नकारात्मक है। ऐसा इसलिये है कि भारत में बहुत कम संख्या में लोग ऐसे हैं जो इस समस्या को कानून व्यवस्था से परे कहीं अधिक व्यापक सन्दर्भ में देखना चाह्ते हैं। यह बात सत्य है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद को पूरी तरह इस्लाम धर्म से नहीं जोडा जा सकता परंतु यह भी सत्य है कि इसके पीछे की प्रेरणास्रोत विचारधारा पूरी तरह इस्लाम से प्रेरणा ग्रहण करती है और इसका उद्देश्य भले ही विश्व में शक्ति के आधार पर इस्लाम की सर्वोच्चता स्थापित करना और विश्व का संचालन शरियत या इस्लामी कानून के आधार पर सुनिश्चित करना हो इस राजनीतिक इस्लाम की अवधारणा से इस्लामी धर्म के विद्वान और धर्मगुरु भी असहमत नहीं दिखते। यही विषय सर्वाधिक चिंता का कारण है और इसी कारण अंतर्धार्मिक बह्सों या आडम्बरी फतवों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे किसी मित्र ने मुम्बई स्थित इस्लामिक रिसर्च फाउण्डेशन और उसके प्रमुख डा. जाकिर नाइक के सम्बन्ध में बताया। उनके सम्बन्ध में अधिक जानने की जिज्ञासा से जब इण्टरनेट पर ढूँढा तो मुझे कुछ विषयों पर घोर आश्चर्य हुआ और उनके कुछ विचार इतने असहिण्णु दिखे कि उनमें और इस्लामवादी आतंकवादियों के एजेण्डे में विशेष अंतर नहीं दिखा। वीडियो की प्रसिद्ध साइट यू-ट्यूब पर डा. जाकिर नाइक का एक वीडियो है जो प्रसिद्ध इस्लामी चैनल Q TV के प्रश्नोत्तर पर आधारित है इस वीडियो में डा जाकिर नाइक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इस्लाम को छोडकर शेष सभी धर्म गलत हैं और वे गलत सीख देते हैं इसी कारण इस्लामी देशों में गैर मुस्लिम धर्मों का प्रचार या उनके उपासना स्थल बनाने की आज्ञा नहीं दी जा सकती।

इस सम्बन्ध में तर्क के लिये उन्होंने एक उदाहरण दिया है जो अत्यंत रोचक है उनके अनुसार यदि किसी विद्यालय के प्रधानाचार्य के पास तीन व्यक्ति गणित का अध्यापक बनने आयें और प्रधानाचार्य उससे प्रश्न पूछे कि दो और दो कितने होते हैं और उनमें से एक का उत्तर हो चार, दूसरा कहे पाँच और तीसरा कहे छह तो प्रधानाचार्य उसी को अध्यापक नियुक्त करेगा जो उत्तर में दो और दो चार कहेगा न कि पाँच और छ्ह कहने वाले को। नाइक के अनुसार शेष दो को लगता है कि दो और दो पाँच और छह होता है पर प्रधानाचार्य को पता है कि यह गलत है इसलिये वह गलत शिक्षा अपने छात्रों को नहीं लेने देगा। जाकिर नाइक के अनुसार यही फार्मूला धर्म के मामले में भी है। गैर इस्लामी धर्मों को लगता है कि उनकी शिक्षायें ठीक हैं परंतु इस्लाम के अनुयायी जानते हैं कि वे गलत हैं और यदि किसी का दीन( धर्म) सही है तो वह सिर्फ इस्लाम है। यही कारण है कि इस्लामी देशों में अपने धर्म का प्रचार करने या उपासना स्थल बनाने की छूट गैर मुसलमानों को नहीं है।


डा. जाकिर नाइक को इन दिनों अंतरधार्मिक विमर्श के सम्बन्ध में और तुलनात्मक धार्मिक अध्ययन का विशेषज्ञ माना जाता है जो इसी विषय पर विश्व के अनेक देशों में व्याख्यान देते हैं। ऐसे व्यक्ति के विचार यदि इतने असहिण्णु हैं जो इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत से परिपूर्ण है उससे इस बात कि अपेक्षा भला कैसे की जा सकती है कि वह ऐसे प्रयासों से विश्व में सहिण्णुता की स्थिति निर्माण करने में सहायक हो सकेगा।

इन्हीं महोदय ने मुम्बई में ही एक हिन्दू और इस्लाम के मध्य समानताओं के विषय पर एक व्याख्यान का आयोजन किया जिसका पूरा वीडियो यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। इस पूरे व्याख्यान में केवल एक बार कुछ मिनटों के लिये आर्य समाज के तीन विद्वानों को वैदिक ऋचाओं के पाठ के लिये मंच पर स्थान दिया गया और उसके उपरांत दोनों धर्मों की समानता पर डा जाकिर नाइक का एकपक्षीय भाषण होता रहा परंतु उनके भाषण का लब्बोलुआब यही रहा कि यदि हिन्दू इस्लाम की भाँति अल्लाह को सर्वोच्च ईश्वर स्वीकार करे तो ही दोनों धर्मों में सद्भाव सम्भव है। यह सन्दर्भ इसलिये मह्त्वपूर्ण है कि इस्लाम के नाम पर आतंकवाद करने वाले भी यही तर्क देते हैं कि उनका उद्देश्य गलत दीन का पालन कर रहे लोगों को अल्लाह के सही रास्ते पर लाना है। यही तर्क यदि इस्लाम के जानकार और विद्वान भी देते हैं कि इस्लाम के अतिरिक्त शेष धर्म अन्धकारमय हैं तो चिंता होती है कि इन दोनों की सोच में अंतर नहीं है अंतर है तो केवल उद्देश्य प्राप्त करने के तरीके में। एक इतना असहिण्णु है कि उसकी बात न मानने वाले को मौत के घाट उतार देता है और दूसरा यह कह कर लानत भेजता है कि तुम गलत रास्ते पर हो और सही रास्ता हमारा है।

विश्व के अनेक देशों में और विशेषकर यूरोप में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के तथाकथित प्रतीकों पर भी चर्चा का दौर आरम्भ हो गया है और इस विषय को लेकर इस्लाम में कुछ बेचैनी भी अनुभव की जा रही है तो भी भारत में यह विषय अब भी बह्स की परिधि से बाहर है और पिछ्ले महीने देश की राजधानी में बुद्धिजीवियों के मध्य एक घटना घटित हुई जिस पर विशेष संज्ञान नहीं लिया गया परंतु यह घटना हमारी लेख की इस विषयवस्तु को पुष्ट ही करती है कि जब भी आतंकवाद के नाम पर वामपंथियों या इस्लामवादियों द्वारा कोई बहस आयोजित की जाती है तो वह पूरे विषय के मूल स्रोत पर चर्चा करने के स्थान पर इस विषय पर केन्द्रित हो जाती है कि किस प्रकार मुसलमानों का उत्पीडन आतंकवाद को प्रेरित करता है। आज समस्त विश्व में मुस्लिम उत्पीडन की एक मिथ्या अवधारणा को सृजित किया गया है और इसके इर्द-गिर्द इस्लामी आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराया जा रहा है।

पिछ्ले महीने 2 मार्च को राष्ट्रीय राजधानी स्थित उर्दू प्रेस क्लब में आतंकवाद और फासिज्म: एक ही सिक्के के दो पहलू विषय पर परिचर्चा आयोजित की गयी और इसमें प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्त्री और लेखिका अरुन्धती राय, संसद पर आक्रमण के दोषी रहे और फिर साक्ष्यों के अभाव में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी किये गये गिलानी, प्रसिद्ध टी वी पत्रकार मनोज रघुवंशी सहित अनेक मुस्लिम वक्ता भी थे। उस कार्यक्रम में भाग लेने गये विश्व हिन्दू परिषद के एक नेता सुरेन्द्र जैन ने आँखो देखा हाल बताया कि अरुन्धती राय और गिलानी ने भारत सरकार को जमकर कोसा और निष्कर्ष निकाला कि भारत में कानून व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं है और घोर अराजकता का माहौल है।

पत्रकार मनोज रघुवंशी ने मुस्लिम उत्पीडन के नाम पर इस्लामी आतंकवाद तो न्यायसंगत ठहराने की प्रवृत्ति की आलोचना की तो पूरे सभाकक्ष में शोर मचने लगा। इसके बाद हसनैन नामक एक वक्ता बोलने के लिये उठे और उन्होंने श्री राम और सीता पर अभद्र टिप्पणियाँ की और श्री राम को युद्ध प्रेमी सिद्ध कर दिया। इनके बाद जब विश्व हिन्दू परिषद के नेता सुरेन्द्र जैन बोलने आये तो उन्होंने श्री राम पर की गयी टिप्पणियों पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यदि इसी प्रकार की टिप्पणियाँ आपके पैगम्बर पर की जायें तो आपको कैसा लगेगा। इसके बाद तो सभाकक्ष में जम कर बवाल हो गया और मंच पर तथा दर्शकों में से लोगों ने वक्ता को घेर लिया और हाथापाई की नौबत आ गयी। किसी ने वक्ता को धमकाते हुए कहा कि 6 दिसम्बर से अब तक 10 हिन्दुओं को मार चुका हूँ और 11वाँ नम्बर तेरा है। मंच पर 13 से 15 लोगों ने वक्ता को घेर लिया और काफी देर बाद पुलिस आयी और विश्व हिन्दू परिषद के नेता को सुरक्षित निकाल ले जा पाई।

इस घटना के भी निहितार्थ हैं। इस्लाम के धर्मगुरु या विद्वान जब व्याख्यान देते हैं तो इस अजीब तर्क पर जोर देते हैं कि इस्लाम का आकलन उसके धर्मग्रंथों के आधार पर किया जाना चाहिये न कि उसके अनुयायियों के आधार पर क्योंकि अनुयायी प्रायः धर्म को सही नहीं समझते और उनका आचरण धर्म के विपरीत होता है। इस धारणा को अंग्रेजी में Apologetic कहते हैं इसके लिये हिन्दी में कोई समानान्तर शब्द नहीं है परंतु ये वही लोग हैं जो अपने तर्कों के आधार पर इस्लामी आतंकवाद को इस्लाम से अस्पृक्त भी करते हैं और आतंकवाद को मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा के आधार पर न्यायसंगत भी ठहराते हैं। यह प्रवृत्ति कितनी खतरनाक है इसका पता उपर्युक्त उदाहरण से बखूबी चलता है कि बुद्धिजीवी माने जाने वाले मुसलमान भी दूसरे धर्मों के महापुरुषों का सम्मान नहीं करते और उनपर टिप्पणी करना अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं और वही अधिकार जब उनके शीर्ष पुरुषों के सम्बन्ध में प्रयोग किया जाता है तो इसे ईशनिन्दा मानकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। यह अवधारणा किस ओर संकेत करती है और ऐसे लोग इस्लामी आतंकवाद की आग बुझाने में कितने सक्षम होंगे इसका निष्कर्ष पाठक ही निकालें श्रेयस्कर होगा।

आजकी सबसे बडी आवश्यकता इस्लामी आतंकवाद को व्यापक सन्दर्भ में समझने और उसके पीछे की मूल प्रेरणा को पहचानने की है। क्योंकि यह कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं है इसके पीछे एक सोच है और जब तक उस सोच पर प्रहार नहीं होगा तब तक आतंकवाद से मुक्ति प्राप्त कर लेने से भी इस्लामी सर्वोच्चता और शरियत लागू करने की सोच से प्रेरित इस्लामवाद पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती क्योंकि इस्लामवादी केवल आतंकवादी नहीं हैं वे भी हैं जो इसी उद्देश्य को शांतिपूर्ण तरीके से प्राप्त करना चाह्ते हैं। ऐसे तत्वों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है।
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क्या ऑस्ट्रेलिया भी?

अभी तक तो हिंदू विरोधी देशों में मुख्यत: पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया तथा अन्य मुस्लिम देशों का ही नाम आता था, जहाँ हिन्दुओं पर तथा हिंदू मंदिरों पर हमले होते रहते हैं. अब इस श्रंखला में एक और नाम जुड़ गया है और वो राष्ट्र कोई मुस्लिम राष्ट्र नहीं है. उस देश का नाम है "ऑस्ट्रेलिया".
पिछले दिनों मेलबर्न स्थित श्री शिव-विष्णु मन्दिर पर वहाँ के कुछ हिंदू विरोधियों ने लगातार हमले किए हैं.उन्होंने मन्दिर संपत्ति को नष्ट किया. मन्दिर का कुछ हिस्सा तोड़ दिया है.वहाँ आने वालो भक्तो को धमका रहे हैं. मन्दिर तथा मन्दिर प्रबंधक पर अंडे फैंके. मन्दिर सजाने के लिए लगाई जाने वाली झालरों को तोड़ दिया.
यह काम वहाँ के कुछ युवा (teenager) कर रहे हैं जिनकी उम्र 13-15 के आस-पास की है. वो मन्दिर आने वाले श्रद्धालुओं को रोक कर पैसा भी मांगते हैं. मन्दिर से चढावे के पैसे चुराने पर एक भक्त ने उनका पीछा करना चाहा तो उन्होंने उस पर बियर की बोतलें फैंक कर घायल कर दिया. मन्दिर में होने वाले एक धार्मिक आयोजन को रोकने के लिए इन लोगो ने मन्दिर के मुख्य गेट पर ज़ंजीर डाल कर ताला लगा दिया, ताकि श्रद्धालु उस आयोजन में शामिल ना हो सकें. बाद में मन्दिर प्रबंधन अधिकारियों को ज़ंजीर को काटना पड़ा तभी भक्त लोग अंदर आ सके.
मन्दिर प्रबंधन ने पुलिस में भी शिकायत करी है लेकिन अभी तक पुलिस द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.
प्रश्न - कब तक चलेगा ये सब. एक-एक करके हिंदू विरोधी संगठनो और देशो की संख्या बढ़ती ही जा रही है. सभी जगह हिन्दुओं को प्रताड़ित किया जा रहा है. हिंदू मंदिरों को तोडा जा रहा है. हिंदू समुदाय के लोगो पर हमले हो रहे हैं. हिंदू देवी देवताओं का अपमान किया जा रहा है... कभी उनकी नग्न तस्वीर बना कर और कभी उनकी तस्वीर "toilet seat"

और "toilet paper" तथा अन्य गन्दी वस्तुओं पर छाप कर.
भारत सरकार को इस प्रकार की घटनाओं की ख़बर क्यों नही लगती? अगर लगती है तो वो इसका विरोध विश्व स्तर पर क्यों नहीं करती? या फिर वो ये सब देख कर भी अनदेखा कर रही है सिर्फ़ चंद वोटों की खातिर? क्या हमारा अन्य देशों में रहने वाले हिन्दुओं के प्रति कोई कर्तव्य नहीं? क्या अन्य देशों में स्थित हिंदू मंदिरों का कोई मूल्य नहीं?
उत्तर स्वयं सोचें....

मयंक
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इस्लाम में बेचैनी ?

लोकमंच ने अपने पिछले कुछ लेखों में उल्लेख किया है कि किस प्रकार पश्चिम और इस्लाम आपस में टकराव की मुद्रा में आ गये हैं। इस्लामी और पश्चिम जगत में घट रही घटनायें इसी प्रवृत्ति की ओर बार बार संकेत कर रही हैं। पिछ्ले महीने दो विशेष घटनायें घटित हुईं जो इस्लाम और पश्चिम तथा कैथोलिक चर्च के मध्य सम्बन्धों में और तनाव उत्पन्न कर सकती हैं और इनमें से एक घटना तो निश्चय ही ऐसी है जो दीर्घगामी स्तर पर प्रभाव डाल सकती है।

22 मार्च को ईसाइयों के मह्त्वपूर्ण पर्व ईस्टर के दिन वेटिकन में रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वश्रेष्ठ धर्मगुरु पोप बेनेडिक्ट ने मिस्र मूल के मुसलमान और पिछ्ले काफी वर्षों से इटली में निवास कर रहे मगदी आलम को पूरे विधिविधान से ईसाइत में दीक्षित कर लिया। मगदी आलम पिछ्ले काफी वर्षों से इटली में निवास कर रहे थे और इस विषय पर भी मतभेद था कि मगदी आलम क्या आस्थावान मुसलमान थे या नहीं। यह विषय सर्वप्रथम 2007 में चर्चा में आया था जब लन्दन के मेयर द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में मध्य पूर्व के प्रसिद्ध विद्वान और इस्लामी विषयों के जानकार डा. डैनियल पाइप्स ने इस्लामवाद से लडाई के लिये सभ्यतागत लोगों के मध्य सहयोग की आवश्यकता जताते हुए उन्होंने मगदी आलम को एक इस्लाम धर्मानुयायी बताया जो नरमपंथी हैं और उनका सहयोग लेने की बात कही। इस बात पर एक और इस्लामी विद्वान तारिक रमादान ने आपत्ति जताते हुए डा. डैनियल पाइप्स पर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए कहा कि मगदी आलम एक ईसाई हैं। डा. डैनियल पाइप्स ने इसका खण्डन किया और प्रमाणित किया कि मगदी आलम एक मुसलमान हैं। यह सन्दर्भ यहाँ इसलिये महत्वपूर्ण है कि इस्लामी विषयों पर नजर रखने वाले लोगों के मध्य यह खासी चर्चा का विषय बना था। यह भ्रम इसलिये भी बना क्योंकि मगदी आलम का मध्य का नाम क्रिस्टोफर है। परंतु जब 22 मार्च को पोप ने विधिवत ढंग से मगदी आलम का धर्मांतरण कराया तो इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह गया कि मगदी आलम एक मुसलमान थे।

यह विषय अत्यंत मह्त्व का इसलिये है कि इतने बडे पैमाने पर एक वैश्विक मह्त्व वाले दिन एक महत्वपूर्ण मुसलमान का धर्मांतरण करा कर कैथोलिक चर्च ने क्या सन्देश देने का प्रयास किया है। विशेषकर इन समाचारों के मध्य कि विश्व में कैथोलिक जनसंख्या अब मुसलमानों के बाद दूसरे स्थान पर आ गयी है। यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कुल ईसाई अब भी मुसलमानों से अधिक हैं केवल कैथोलिक सम्प्रदाय दूसरे स्थान पर आ गया है।

मगदी आलम ने धर्मांतरण के उपरांत तत्काल एक बयान दिया और अपने पुराने धर्म पर टिप्पणी करते हुए कहा कि समस्त विश्व में जो कुछ भी आतंकवाद इस्लाम के नाम पर चल रहा है उसके लिये इस्लाम धर्म भी उत्तरदायी है। इस घटना के अपने निहितार्थ हैं। अर्थात कैथोलिक सम्प्रदाय अपनी संख्या की पूर्ति के लिये उन मुसलमानों को अपने शिविर में लाने से परहेज नहीं करेगा जो इस्लाम धर्म बदलना चाहेंगे। इससे इस्लाम और कैथोलिक चर्च में टकराव सुनिश्चित है। क्योंकि अभी तक चर्च खुलेआम मुसलमानों का धर्मांतरण करने से परहेज करता था और अंतर्धार्मिक बह्स के लिये इस्लाम से बातचीत के लिये अधिक उत्सुक दिख रहा था। परंतु अब इस नये घटनाक्रम से स्पष्ट है कि चर्च इस्लाम के विषय पर अधिक आक्रामक रणनीति अपनाने की फिराक में है जिसमें धर्मांतरण का जवाब धर्मांतरण से देने की नीति अपनाई गयी है।

इस्लामी विश्व में किसी मुसलमान को अपना धर्म छोडने की आज्ञा नहीं है और ऐसा करने पर उसके लिये मृत्युदण्ड का विधान है। मगदी आलम के धर्मांतरण से भी ऐसे ही प्रश्न उठने वाले हैं क्योंकि मगदी आलम एक इस्लामी राज्य का मूलनिवासी है। तो क्या यह माना जाये कि यह धर्मांतरण एक विशेष राजनीतिक सन्देश है जो इस्लाम धर्म के उन तमाम अनुयायियों को एक सन्देश है जो इस्लाम में बेचैनी अनुभव कर रहे हैं परंतु धर्मांतरण के कडे नियमों के चलते धर्म बदलने के बारे में नहीं सोच पाते। यह इस्लाम की दृष्टि से एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि इससे पूर्व जितने भी मुसलमानों ने इस्लाम की आलोचना की थी उन्होंने धर्म परिवर्तन के विकल्प पर विचार नहीं किया था चाहे वह सलमान रश्दी हों, तस्लीमा नसरीन हों या फिर सोमालिया मूल की अयान हिरसी अली हों। इन लोगों ने यूरोप के देशों में या अन्य देशों में शरण तो ले ली परंतु धर्म नहीं छोडा।

इसके पीछे मुख्य रूप से दो प्रमुख कारण थे एक तो ये लोग इस्लाम धर्म छोडने को लेकर इस्लाम में मृत्युदण्ड की व्यवस्था से चिंतित थे और अपने जीवन पर और अधिक संकट नहीं लाना चाह्ते थे और दूसरा कारण यह कि सामान्य रूप से पश्चिम और विशेष रूप से कैथोलिक चर्च इस्लाम के साथ प्रत्यक्ष रूप से टकराव मोल नहीं लेना चाह्ता था। तो प्रश्न यह उठता है कि अब परिस्थितियों में ऐसा क्या परिवर्तन आ गया है कि चर्च इस्लाम के मह्त्वपूर्ण व्यक्ति का धर्मांतरण करने में कोई हिचक नहीं दिखा रहा है जबकि कैथोलिक चर्च के साथ इस्लाम की ओर से अंतर्धार्मिक बातचीत में लगे प्रतिनिधि भी मानते हैं कि मगदी आलम के ईसाई बनने से से दोनों के मध्य सद्भाव के प्रयास को झटका लगेगा और दोनों पक्षों के सम्बन्धों में तनाव आ सकता है।

कैथोलिक चर्च के दृष्टिकोण में यह परिवर्तन अचानक नहीं आया है। कैथोलिक चर्च पिछ्ले कुछ वर्षों से इस्लामी जगत के मध्य यह विषय उठाता रहा है कि यदि ईसाई बहुल देशों में इस्लाम धर्म के अनुयायियों को हर प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और उन्हें प्रार्थना करने या मस्जिद बनाने की स्वतंत्रता है तो फिर मुस्लिम बहुल देशों में भी ईसाई धर्म के अनुयायियों को यही स्वतंत्रता मिलनी चाहिये और समानता के इस सिद्धांत पर जोर पोप जान पाल के समय से ही देना आरम्भ कर दिया गया था जब वैटिकन के विदेश मंत्री स्तर के जीन लुइस तौरोन ने पहली बार 2003 में स्पष्ट रूप से कहा था कि मुस्लिम बहुल देशों में ईसाइयों के साथ द्वितीय श्रेणी के नागरिकों जैसा व्यवहार हो रहा है। पोप बेनेडिक्ट के समय में इस सिद्धांत पर अधिक आग्रह किया जाने लगा। इसी का परिणाम था कि अनेक अरब देशों में चर्च बनाने के प्रस्तावों पर चर्चा होने लगी यह बात और है कि इसका स्थानीय कट्टरपंथी मौलवियों ने कडा विरोध किया और ऐसे प्रस्तावों का प्रतिफल अभी तक सामने नहीं आया है परंतु ऐसे प्रस्तावों पर चर्चा कैथोलिक चर्च के कठोर रूख की ओर संकेत अवश्य देता है तो क्या माना जाये कि चर्च अब अधिक मुखर होकर इस्लाम और ईसाइत के मध्य समानता के सिद्धांत को अपनाना चाह्ता है।

इसके अतिरिक एक और घटनाक्रम है जो पश्चिम के कठोर रूख की ओर संकेत करता है वह है हालैण्ड के सांसद और नेशनल फ्रीडम पार्टी के नेता गीर्ट वाइल्डर्स द्वारा कुरान पर एक फिल्म का निर्माण और उसका प्रदर्शन। इस फिल्म के सम्बन्ध में पिछ्ले अनेक महीनों से चर्चा थी और इसके निर्माण से पूर्व ही इस पर काफी विवाद हो रहा था। हालाँकि इस फिल्म में सनसनीखेज या विवादित कुछ भी नहीं है फिर भी तमाम विवादों के बीच इस कानून निर्माता ने जिस प्रकार फिल्म के निर्माण फिर इसके प्रसारण में अपनी सक्रियता दिखाई है वह यूरोप की इस्लाम के प्रति बदलती मानसिकता का परिचय देता है।

मगदी आलम के धर्मांतरण और वाइल्डर्स की फिल्म के निर्माण और प्रसारण में जो अत्यंत उल्लेखनीय बात रही वह यह कि दोनों ही घटनाओं पर कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई जिसकी आशंका जतायी जा रही थी। प्रतिक्रिया नहीं होने से ऐसी घटनाओं को करने या अपने धर्म और मूल्यों के प्रति अधिक आग्रह की प्रवृत्ति पश्चिम में और बढेगी और इससे इस्लाम में बेचैनी और अधिक बढेगी।
इस्लाम में बेचैनी की कुछ मह्त्वपूर्ण घटनायें पिछ्ले दिनों घटित हुईं जिस पर विश्व की मीडिया का ध्यान बिल्कुल नहीं गया। इसी वर्ष यूरोप के कुछ समाचार पत्रों में पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून पुनः प्रकाशित होने पर इस्लामी विश्व में एक दूसरे प्रकार का चिंतन आरम्भ हुआ। फरवरी के अंत में एक कार्यक्रम में भाग लेते हुए यमन के प्रधानमंत्री अली मोहम्मद मुजावर ने प्रस्ताव किया कि विश्व स्तर पर ऐसे कानून का निर्माण होना चाहिये जो किसी भी धर्म के अपमान को आपराधिक कृत्य घोषित करे और धर्मों के समान सम्मान की भावना पर जोर दे। उन्होंने पश्चिम से अनुरोध किया कि वे इस्लाम की भावनाओं का सम्मान करें अन्यथा अस्थिरता ही बढेगी।

इसी प्रकार का प्रस्ताव सऊदी अरब सलाहकार समिति ने सऊदी सरकार को दिया तथा विदेश मंत्रालय से आग्रह किया कि वह अन्य अरब देशों, मुस्लिम देशों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ मिलकर ऐसे प्रस्ताव पर विचार करें कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी सन्धि की जाये कि प्रत्येक धर्म के प्रतीकों, पैगम्बरों का सम्मान करते हुए सभी धर्मों के सम्मान को बल प्रदान किया जाये। सऊदी अरब सलाहकार समिति या मजलिसे अश शुरा की ओर से यह प्रस्ताव मोहम्मद अल कुवाहेश ने यूरोप और अमेरिका में पैगम्बर के कार्टूनों के प्रकाशन की प्रतिक्रिया में रखे थे। परंतु यह प्रस्ताव समिति ने 77 के मुकाबले 33 मतों से निरस्त कर दिया। इस प्रस्ताव को निरस्त करने के पीछे प्रमुख कारण यह बताया गया कि सभी धर्मों के प्रतीकों का सम्मान करने की अंतरराष्ट्रीय सन्धि का अर्थ होगा शेष धर्मों के प्रतीकों का सम्मान करना जो कि मुसलमानों के लिये सम्भव नहीं है। दूसरा कारण यह बताया गया कि इससे इस्लामी देशों में गैर मुसलमानों को अपने उपासना केन्द्र स्थापित करने की अनुमति मिल जायेगी।

इस घटनाक्रम के अपने निहितार्थ हैं। एक तो यह घटनाक्रम बताता है कि चतुर्दिक इस्लाम पर हो रहे हमलों से इस्लामी धार्मिक नेतृत्व और सामाजिक नेतृत्व बेचैन है और इसके लिये रास्ता निकालने का प्रयास कर रहा है और वहीं दूसरी ओर समस्त विश्व में इस्लाम की अनेक प्रवृत्तियों को लेकर मंथन आरम्भ हो गया है और इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद या फिर शरियत लागू करने की इस्लामी मतानुयायियों की इच्छा के आगे विश्व झुकने के स्थान पर अधिक आग्रह पूर्वक इसका प्रतिरोध करने की तैयारी कर रहा है। इस सम्बन्ध में यूरोप ने पहल की है और इस्लाम को कठोरतापूर्वक सन्देश देने का प्रयास किया है कि वह अपने इस्लामीकरण के लिये तैयार नहीं है इसके स्थान पर वह अपनी संस्कृति और मूल्यों के प्रति अधिक सजग हो रहा है।


जहाँ यूरोप और चर्च ने अपना आग्रह दिखाकर राजनीतिक और सांस्कृतिक सन्देश दिया है वहीं इस्लाम मतावलम्बी बेचैनी अनुभव कर रहे हैं और अनेक विकल्पों पर विचार कर रहे हैं कि इस्लाम की छवि को सुधारा जा सके। इस क्रम में भारत में बडे बडे मुस्लिम सम्मेलन आयोजित कर आतंकवाद की निन्दा की जा रही है परंतु ये प्रयास छवि सुधारने की कवायदें मात्र हैं क्योंकि आज तक इस्लामी धर्मगुरुओं ने उन मुद्दों को स्पर्श करने का प्रयास कभी नहीं किया जो वास्तव में समस्त विश्व के गैर मुसलमानों के लिये आशंका और चिंता के कारण हैं।

आज समस्त विश्व में जो वातावरण बन रहा है वह कतई उत्साहजनक नहीं है और संकेत यही मिल रहे हैं कि आने वाले दिनों में टकराव का यह वातावरण और भी तनावपूर्ण ही होने वाला है। विशेषकर कैथोलिक चर्च और यूरोप की भावभंगिमा से तो यही संकेत मिलता है कि इस्लाम और पश्चिम तथा कैथोलिक चर्च के मध्य सम्बन्ध सामान्य नहीं हैं और विश्व की शेष सभ्यतायें भी शीघ्र ही इसका अनुसरण करने लगें और इस्लाम के प्रति सशंकित हो जायें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
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मस्जिदों में कट्टरपंथी मन्दिरों पर आक्रमण

ब्रिटेन के आधी से अधिक मस्जिदों पर कट्टरपंथी सुन्नी समुदाय का कब्जा है और इन मस्जिदों के मौलवी मजहब के नाम प मुसलमानों को खुन बहाने की बात करते हैं। दि टाइम्स ने इस आशय का समाचार प्रकाशित है । पुलिस रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन की 1350 मस्जिदों में से 600 देवबंदी सम्प्रदाय द्वारा चलाया जा रहा है। समाचार पत्र के अनुसार ब्रिटेन के प्रमुख मौलवी रियाउछूल हक ने कहा कि मुसलमान का यहुदी या फिर ईसाइयों के साथ
दोस्ती अल्लाह के मजहब के साथ मजाक है। उन्होंने मुसलमानों को कहा कि गैर मुसलमानों के गलत प्रभावों से बचें। उन्होंने कहा कि हम यहां काफी मुश्किल स्थिति में काफिरों के साथ रहतें हैं। हम उनके साथ काम करतें है उनके साथ मिलकर रहते हैं। कई बार हम उनकी आदतों को भी मानना शुरु कर देते हैं।
दुसरी और बांग्लादेश के संथिया उप जिला के बेरापडा में हिन्दू मन्दिर पर हमले और लूट की घटना सामने आयी है| इस सम्बन्ध में सिद्धेश्वरी पूजा कमेटी के अध्यक्ष प्रदीप कुमार के द्वारा थाने में मामला दर्ज करने के बाद पुलिस पुलिस ने कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टी जमायत-ए-इस्लामी के 10 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया और 10 मिनट में छोड़ दिया।
बांग्लादेशी समाचार पत्र डेली स्टार में प्रकाशित समाचार के अनुसार जमायते-ए-इस्लामी के कार्यकर्ता तथा मदरसे के कुछ लोग धारदार हथियारों के साथ मंदिर में आये। इन लोगों ने मन्दिर में आकर पूजा बंद करने की धमकी दी। उन्होंने अतिथियों के लिये बने टेंट को तोड दिया, पेड काट दिये तथा रथ को नुकसान पहुचायां इस घटना में
मंदिर को 30,000 टका का नुकसान होने का अनुमान है। इस घटना से बांग्लादेश का हिन्दू समुदाय बहुत भयभीत है उसे आशा थी की भारत सरकार उसकी आवाज उठायेगी लेकिन भारत से भी उसे निराशा मिली।
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केरल मा‌र्क्सवादी गुंडों में शिकार हुये निर्दोष जनता

केरल में 2001 से अभी तक मा‌र्क्सवादी गुंडों में शिकार हुये निर्दोष जनता|

1. Thayakandi Prasanth - Panoor- 2 Jan 01

2. Rajesh Konkachi - 4 Mar 01

3.T Aswinikumar, Poyiloor - 22 Feb 02

4. M Surendran,Poyiloor - 22 Feb 02

5. CK Sujesh - Melur - 2 Mar 02

6. P Sunil - Melur - 2 Mar 02

7. Uthaman Chavassery - mattanor- 2002

8. Ammu Amma Thillankeri - iritti- 2002

9. Shaji paduvilayi - Koothuparamba- 17 Nov 03

10.T Aswinikumar,punnad - Iritti- 10 Mar 05

11.Sooraj mozhappilangad- Thalasery-7 Jul 05

12. E Preman, moozhikkara- Thalasery- 5 Nov 05

13. Adv. Valsaraj - Panoor- 5th Mar 07

14. Pramod mooriyad -Koothuparamba-16 Oct 07

15. Biju kodunganoor- Trivandrum- 1 Dec 06

16.G Chandran vallikunnam-Chengannur-20 Apr 07

17.N Sunilkumar kilimanur-Attingal-9 May 06

18.Unnimenon punnayoorkulam-Guruvayur-

19.Damodaran ambalathara- Kanhangad-23 June 03

20.Udayan kottapara- Kanhangad-22 Oct 2000

21.Jayachandran ajanoor- Kanhangad- Aug 03

22.Ravendran-Tirur-20 Jan 07

23.Laxman -Tirur- 16 Feb 07

24.T Kunjumon Marad- Kozhikode-3 Jan 02

25.T Shimjith Marad - Kozhikode -3 Jan 02

26.AP Dasan Marad- Kozhikode -2 May 03

27.P Gopalan Marad- Kozhikode -2May 03

28 A Krishnan Marad- Kozhikode -2May 03

29.C Madhavan Marad- Kozhikode -2 May 03

30. C Chandran Marad- Kozhikode -2 May 03

31.T Santhosh Marad- Kozhikode -2 May 03

32.T preji Marad- Kozhikode -2 May 03

33.T Pushaparaj-Marad- Kozhikode -2 May 03

34.Vinod vallikunnam-Chengannur-23 Dec 07

35. Sujith-Engandiyur, Triprayar 17.12.06

36. Shaju- Alur, Chalakudi, 12. 02.2007

37.Nikhil- Thalasery-6 Mar 08

38.Sathyan-Koothuparamba-6 Mar 08

39.Mahesh-Chittariparamba-6 Mar 08

40.Suresh Babu-Kodiyeri-7 Mar 08

41.KV Surendran-Illathuthazham-7 Mar 08

42. Vinod Kumar -Chengannur-23 Dec '07

43. Shaju - Alur, Chalakkudi. 12.02.07

44. Sujith- Engandiyur, Triprayar.17.12.06
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