करुणानिधि का दुराग्रही चिंतन

ब्रितानियों ने बनियों व ब्राह्मणों को सत्ता हस्तांतरित की है इसलिए हम भारत की आजादी नहीं स्वीकार करते।. यह कहना था जस्टिस पार्टी के नेता रामास्वामी पेरियार का। 15 अगस्त, 1947 के स्वतंत्रता दिवस को उन्होंने शोक दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया था। उन्होंने ब्रितानियों के बांटो और राज करो की नीति के अंतर्गत प्रचारित आर्य-द्रविड़ सिद्धांत पर आधारित उत्तर भारत और ब्राह्मण विरोध का आंदोलन खड़ा किया। हिंदू देवी-देवताओं का सार्वजनिक अपमान किया। पेरियार की पत्नी मनियामाई ने रामलीलाओं के मंचन की निंदा करते हुए चेन्नई में रावणलीला का आयोजन किया। आज राम और रामायण के खिलाफ विषवमन करने वाले करुणानिधि और उनका दल द्रमुक उसी साम्राज्यवाद प्रसूत अलगाववादी चिंतन के मानसपुत्र हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस ईशनिंदा अभियान में करुणानिधि को मा‌र्क्सवादियों का पूरा समर्थन मिला है। रामास्वामी पेरियार यदि दक्षिण भारत को शेष भारत से अलग कर एक स्वतंत्र द्रविड़स्तान की कल्पना करते थे तो यहां के कम्युनिस्ट भी भारत को एक एकीकृत भारत के रूप में नहीं देखते थे। उनके चिंतन में भारत 16 राष्ट्रों का समूह था और अंग्रेजों के जाने के बाद उसे उतने ही हिस्सों में खंडित हो जाना चाहिए था। इसीलिए दोनों ने ही जिन्ना के पाकिस्तान सपने को साकार करने के लिए पूरा सहयोग दिया। यदि पेरियार ने हर तरह से अंग्रेजों की साम्राज्यवादी सत्ता के पक्ष में आवाज उठाई तो भारतीय कम्युनिस्टों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में ब्रितानी हुकूमत का साथ दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय मद्रास में एनी बेसेंट की थियोसोफिकल सोसायटी ने होम रूल आंदोलन आरंभ किया और मांग की कि युद्ध के बाद भारतीयों के लिए स्व-शासन का प्रावधान हो। इससे अंग्रेजों में स्वाभाविक चिंता हुई और इसकी काट के लिए उनके आशीर्वाद से साउथ इंडियन लिबरेशन फ्रंट की स्थापना हुई, जिसका नाम बदलकर 1917 में जस्टिस पार्टी रखा गया। जस्टिस पार्टी ने कांग्रेस आंदोलन को ब्राह्मणवादी आंदोलन कहकर लांक्षित किया और भारत में अंग्रेजों का राज सदा के लिए बना रहे, इसकी पुरजोर कोशिश की। जस्टिस पार्टी के इस राष्ट्रविरोधी चिंतन में तत्कालीन ईसाई मिशनरियों की बहुत बड़ी भूमिका थी। इसी जस्टिस पार्टी से पहले डीके और बाद में डीएमके आंदोलन का जन्म हुआ। अगड़ी जातियों, खासकर ब्राह्मणों को मतांतरित करने में विफल रहे ईसाई मिशनरियों ने दक्षिण के गैर-ब्राह्मणों के माध्यम से अपना उल्लू साधना चाहा। पेरियार का सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट, जस्टिस पार्टी और बाद में इन दोनों के विलय से खड़ा डीके मूवमेंट वस्तुत: चर्च और ब्रितानी साम्राज्यवाद का संकर नस्ल है। पेरियार सभी तरह की सामाजिक बुराइयों के लिए उत्तर भारत, ब्राह्मणों, हिंदी वेद, पुराण, धर्मशास्त्र को दोषी ठहराते थे। सामाजिक न्याय और वर्ण व्यवस्था के विरोध के नाम पर पेरियार ने स्वाधीनता आंदोलन का विरोध और देश के शहीदों का अपमान किया। उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को पुष्ट करने के उद्देश्य से समाज को खंडित करने का भी काम किया। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव भी रखा, जिसे कांग्रेस और गांधीजी ने नकार दिया। आज उसी मानसिकता से प्रेरित करुणानिधि राम और रामायण के अस्तित्व का प्रमाण मांग रहे हैं। आस्था का वैज्ञानिक साक्ष्य क्या होगा? और यह प्रमाण केवल हिंदुओं से ही क्यों मांगा जाता है? राम नहीं थे; इस बात का प्रमाण करुणानिधि सामने रखें। इस बात का ऐतिहासिक साक्ष्य दें कि पैगंबर साहब चांद-तारों की राह जन्नत गए। इस बात का प्रमाण दें कि सूली पर टांग दिए जाने के बाद ईसा मसीह पुन: प्रकट हुए। सबसे बढ़कर करुणानिधि इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण दें कि तमिल द्रविड़ नस्ल के हैं और आर्य बाहर से आए थे। ब्रितानियों द्वारा पोषित जिस आर्य-द्रविड़ संघर्ष का द्रमुक बखेड़ा खड़ा करता है उसका एक भी साक्ष्य न तो उत्तर भारत के आर्षग्रंथों में है और न ही तमिल साहित्य में। 1937 में हिंदी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के उपरांत अक्टूबर, 1938 को सलेम में आयोजित एक जनसभा को संबोधित करते हुए पेरियार ने कहा था, तमिलों की आजादी की रक्षा करने का श्रेष्ठ मार्ग शेष भारत से अलग होने के लिए संघर्ष करना है। यह इतिहास सम्मत है कि रामास्वामी पेरियार ने जिन्ना के अलग पाकिस्तान की मांग का समर्थन करते हुए 1938 में इरोड में आयोजित एक जनसभा में कहा था, जिन्ना का विभाजन प्रस्ताव मेरे लिए आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि मैं खुद भी पिछले बीस सालों से अलग द्रविड़नाडु की मांग कर रहा हूं। हिंदू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के लिए जिन्ना के प्रस्ताव से अच्छा विकल्प कोई दूसरा नहीं है। क्या कभी कोई देशभक्त भारतीय अखंडता और उसकी बहुलतावादी संस्कृति को नकार कर तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर अलग देश की मांग कर सकता है? 21 जनवरी, 1940 को मद्रास को मद्रास प्रांत के राज्यपाल ने अनिवार्य हिंदी पाठ को निरस्त कर दिया। तब जिन्ना ने उन्हें टेलीग्राम भेजकर द्रविड़नाडु की दिशा में पहली जीत के लिए बधाई दी थी। अप्रैल, 1941 में मद्रास में आयोजित मुस्लिम लीग के 28वें वार्षिक अधिवेशन में जिन्ना ने अपने भाषण में द्रविड़स्तान का समर्थन करते हुए गैर-ब्राह्मणों के प्रति अपनी पूरी सहानुभूति और उन्हें अपना पूर्ण समर्थन देने की बात की थी। दिसंबर,1944 में कानपुर में एक सभा को संबोधित करते हुए पेरियार ने उत्तर भारत के गैर-ब्राह्मणों से अपनी हिंदू पहचान छोड़कर खुद को द्रविड़ घोषित करने का आह्वान किया। उत्तर भारत तो दूर, क्या पेरियार दक्षिण भारत में ही सफल हो पाए? उन्होंने विनायक की प्रतिमा तोड़ी, आज गणपति की पूजा तमिलनाडु में चारों ओर होती है। उन्होंने राम की तस्वीरें फाड़ी, उन पर चप्पलों की माला डालीं, किंतु कुछ साल पूर्व तमिलनाडु के कारसेवक बड़ी संख्या में रामशिला लेकर अयोध्या पहुंचे थे। उन्होंने अंधविश्वासों से लड़ने की मुहिम छेड़ी, किंतु आज द्रमुक-अन्नाद्रमुक के अनुयायी अपने नेता के दीर्घायु होने के लिए सिर मंुडवाते हैं। स्वयं करुणानिधि और उनके परिजन साईं बाबा के चरण रज सिर से लगाते हैं। यह स्पष्ट है कि करुणानिधि 2007 में भी आज से 90 वर्ष पूर्व 1917 के तमिलनाडु से वैचारिक रूप से बंधे हुए हैं। इस बीच गंगा से बहुत पानी बह चुका है। आज न तो पेरियार के चिंतन की तमिलनाडु में स्वीकार्यता है और न ही उसे आशीर्वाद व संरक्षण देने वाले अंग्रेज आका शेष हैं। अन्नाद्रमुक की नेता जयललिता ब्राह्मण हैं और करुणानिधि से कम लोकप्रिय नहीं हैं। आज तमिलनाडु में आस्थावान हिंदुओं की कमी नहीं है। राम और रामायण के अस्तित्व को नकारते हुए करुणानिधि और कम्युनिस्ट अपने आप में कुछ मौलिक नहीं कर रहे हैं, बल्कि भारतीय अस्मिता पर कुठाराघात कर देश को खंडित करने के अंग्रेजों के अधूरे काम को पूरा करने की कुचेष्टा कर रहे हैं।
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1 comments: on "करुणानिधि का दुराग्रही चिंतन"

Anonymous said...

maniamai - yeh khud bhool gayi ki Ravan brahman tha.