कश्मीर में मारे गए मेजर की शादी इस महीने होने वाली थी

पिछले सप्ताह मेजर के. पी. विनय ने अपने पिता से फोन पर बात की थी और कहा था कि विवाह के लिए तैयार किए गए निमंत्रण कार्ड सभी दोस्तों को वे भेंज दें। दरअसल विनय की शादी इसी महीने के 29 अकटूबर को होने वाली थी।
बुधवार को 30 वर्षीय मेजर विनय के शव के लिए उनका परिवार हैदराबाद में इंतजार कर रहा था। दरअसल श्रीनगर से विमान के द्वारा उनका शव अंतिम संस्कार के लिए यहां लाया गया। गौरतलब है कि मंगलवार को जम्‍मू और कश्मीर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में मेजर विनय की मृत्यु हो गयी थी। मंगलवार की शाम मेजर विनय के परिवार के लिए सबसे ज्यादा दर्दनाक रही, जब सेना विभाग ने उनके परिवार को फोन के द्वारा यह सूचना दी कि बारामूला जिले में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में मेजर विनय की मृत्यु हो गयी है। कश्मीर से सेना के अधिकारियों ने मेजर विनय के बड़े भाई विक्रम को फोन पर यह जानकारी दी थी। उनके भाई सिर पर और सीने पर गोली लगी। उस वकत मेजर विनय की मां जयंती अपने बेटे के विवाह को लेकर तैयारी कर रही थीं।
शहीद विनय कि शादी शायद हिन्दुस्तान के नेताओ को यह मंजूर नहीं थी।
भारत की राजनीति में कई ऐसे नेता हैं जिन्हें न देश की चिंता है, न देशवासियों की। उन्हें चिंता है तो सिर्फ अपनी राजनीतिक दुकान की। यह दुकान चलती रहे इसके लिए वे कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती बाप-बेटी की पार्टी पी.डी.पी. के दबाव में आकर सी.आर.पी.एफ. ने कुछ समय पहले अपनी कुछ चौकियां खाली कर दी थीं। अब पी.डी.पी. और नैशनल कांफ्रैंस के नेता यह दबाव बना रहे हैं कि रमजान के महीने में संघर्ष विराम हो यानी सेना आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई रोक दे। सेना में कुछ बड़े अधिकारी दबी जुबान में यह मानते हैं कि कुछ नेता ऐसे हैं जो राष्ट्र विरोधी हैं, कौम के दुश्मन हैं। संघर्ष विराम लागू करने की मांग का एक ही मकसद है कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की रफ्तार कम हो जाए। यदि यह मांग मान ली गई और आतंकवादियों को थोड़ी भी राहत दी गई तो उन्हें गोलाबारूद इकट्ठा करने का मौका मिल जाएगा। कौम के दुश्मन ये नेता सुरक्षा बलों से तो संघर्ष विराम का आग्रह करते हैं, आतंकवादी गिरोहों से क्यों नहीं कहते कि रमजान के दौरान वे अपनी गतिविधियां बंद कर दें। पी.डी.पी. के संस्थापक नेता मुफ्ती मोहम्मद वही व्यक्ति है जिसके भारत का गृहमंत्री रहते उसकी बेटी रूबिया को आतंकवादी उठा ले गए थे और उसे अपहर्ताओं से मुक्त कराने के लिए फिरौती में पांच दुर्दांत आतंकवादी रिहा करने पड़े थे।
आतंक का सामना करने की बात जब आती है तो भारत की तस्वीर एक नपुंसक राष्ट्र के रूप में उभरती है। पुलिस और नेता पुराना राग अलापते हैं लेकिन वास्तव में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होता। मुंबई बार-बार आतंकवादियों के निशाने पर चढ़ता है और सीरियल बम ब्लास्ट होते है। दिल्ली का भी बार-बार आतंकवादी चीर-हरण करते रहे हैं। चार माह में हैदराबाद को भी आतंकवादियों ने दो बार तार-तार करने का दुस्साहस किया है , बेंगलुरू में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस पर भी हमला किया गया। आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं और एक एक करके नए शहर उनके निशाने पर चढ़ते जा रहे हैं और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
स्थितियां भयावह हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि हमारा तंत्र आतंकवादी हमलों को रोकने में तो नाकाम है ही साथ में कसूरवार को पकड़कर अंजाम तक पहुंचाने में भी उसका रेकॉर्ड अच्छा नहीं है। 1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट के मामले में अभियुक्तों को अंजाम तक पहुंचाने में 14 साल लग गए। अभी तक उसके असली षडयंत्रकारी खुलेआम घूम रहे हैं। हमारे तंत्र में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति की कमी सदैव खलती है। और इससे भी खतरनाक है , ऐसे तत्वों के बारे में राजनीतिक प्रटेक्शन की कहानियों का बाजार में होना। 9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई की चौतरफा निंदा भले ही हो रही हो लेकिन दुनिया के सामने आज यह एक सच्चाई है कि 2001 के बाद से अमेरिका की ओर आतंकवादियों ने आंख उठाकर भी नहीं देखा है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि आतंकवाद के प्रति अमेरिका के अप्रोच का हम समर्थन कर रहे हैं। लेकिन कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और निर्दोष लोगों को आतंकवादियों के हाथों मरते देखते रहेंगे ? वक्त आ गया है कि हम आतंकवाद पर जवाबी हमला बोलें या हिन्दुस्तानी नेता और जनता को नपुंसक घोषीत कर दे।
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