काग्रेस की देशभक्ती पर सन्देह

असम में ताकतवर माने जाने वाले छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) को पिछले दिनों काफी निराशा के दौर से गुजरना पड़ रहा था. इसका कारण यह था कि उसे अवैध बांग्लादेशियों के मुद्दे को फिर से उभारने में कामयाबी नहीं मिल रही थी. इसके विपरीत बार-बार की सरकार के साथ बैठकों के कारण उसकी एक समझौतापरस्त और सरकारपरस्त छवि बनती जा रही थी.
लेकिन अचानक ही पड़ोस के अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड के सीमावर्ती जिलों के छात्र संगठनों ने अपने यहां से अवैध नागरिकों को वापस भेजने का अभियान शुरू कर दिया. बाद में यह मुहिम मिजोरम में भी शुरू कर दी गई. यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अवैध नागरिकों की असम और इन तीन राज्यों की परिभाषा में अंतर है. इन तीनों पहाड़ी राज्यों में (और मणिपुर के भी कुछ जिलों में) जाने के लिए भारतीय नागरिकों को भी विशेष अनुमति लेनी पड़ती है. इसे इनर लाइन परमिट कहा जाता है.
इसलिए इन राज्यों के छात्र जब कहते हैं कि वे अवैध नागरिकों को राज्य के बाहर खदेड़ेंगे तो उनका तात्पर्य यह होता है कि वे उन सभी लोगों को राज्य के बाहर भेज देंगे, जिनके पास वैध इनर लाइन परमिट नहीं है. इस तरह अरुणाचल प्रदेश के छात्र संगठन ने करीब 24 हजार लोगों को प्रदेश छोड़ देने का फरमान जारी किया और ये लोग जबरन वापस भेजे जाने का इंतजार किए बिना ही असम के लिए कूच कर गए. इस तरह जुलाई महीने के दूसरे पखवाड़े में बसों में इन लोगों का असम में आने का तांता लगा रहा.
काग्रेस की देश विरोधी मानसिकता
असम आने वाले इन लोगों में सभी बंगलाभाषी मुसलमान थे और अरुणाचल प्रदेश में मजदूरी करते थे. इनको लेकर असम में राजनीति गरम हो गई. आसू का कहना था कि ये लोग बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. कई जगह इन मजदूरों को छात्र नेताओं ने सीधे पुलिस को सौंप दिया. कुछ मंत्रियों के हस्तक्षेप के बाद इन लोगों को पुलिस सुरक्षा में उनके गृह जिलों में पहुंचाया गया. नगालैंड से भगाए गए लोगों के साथ भी यही सलूक हुआ.
अब राज्य में इस विवाद के इर्द-गिर्द राजनीति गर्म हो गई कि दोनों पड़ोसी राज्यों से भगाए गए लोग बांग्लादेशी थे या भारतीय नागरिक. आसू जहां उनकी नागरिकता पर संदेह व्यक्त करता रहा, वहीं सत्ताधारी कांग्रेस उन्हें क्लीनचिट देती रही. इधर मुसलमानों के एक और पैरोकार बदरुद्दीन अजमल वाले असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) ने भी इन विस्थापित मजदूरों के पक्ष में आवाज उठानी शुरू कर दी. पूर्वोत्तर राज्यों के विभिन्न छात्र संगठनों के फेडरेशन "नेसो' के सम्मेलन में पूर्वोत्तर को अवैध घुसपैठियों से खाली कराने का संकल्प लिया गया.
छह अगस्त से शुरू हुए असम विधानसभा के मानसून सत्र में भी यही मुद्दा छाया रहा. एयूडीएफ के विधायक तो एक दिन खास तरह की टोपी और लूंगी पहनकर विधानसभा में गए और यह संदेश देने की कोशिश की कि राज्य में हर टोपी-लूंगीधारी को बांग्लादेशी घुसपैठिया नहीं समझा जाना चाहिए. अलबत्ता इस "प्रदर्शन' का राज्य के बढ़ते सांप्रदायिक तापमान में उल्टा ही असर हुआ और हिंदुत्ववादियों ने इसे असम विधानसभा के भविष्य का स्वरूप करार दिया.
बहरहाल असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के रवैये से साफ जाहिर है कि वे अवैध घुसपैठियों को "परेशान' करने के लिए कुछ नहीं करने जा रहे. आसू तथा विपक्षी दलों द्वारा बनाए गए दबाव के आगे झुकने से इनकार करते हुए उन्होंने कह दिया कि पड़ोसी राज्यों से असम में आने वाले विस्थापितों में एक भी बांग्लादेशी या संदिग्ध नागरिकता वाला व्यक्ति नहीं था.
सोनिया गांधी का फरमान
हालांकि न तो तब और न ही अब, कांग्रेस राज्य में 31 फीसदी के आंकड़े को छूने वाले मुसलमान समुदाय को नाराज करने का जोखिम उठा सकती है. लेकिन भला हो आईएमडीटी कानून का, कि एक भी बांग्लादेशी को देश के बाहर किए बिना गोगोइर् हिंदुओं के खैरख्वाह बन बैठे और दुबारा गद्दी हासिल करने में कामयाब हो गए.
लेकिन राजनीति में एक ही फार्मूला ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता. ताजा स्थिति में तरुण गोगोई ने अपने-आपको मुसलमानों के संरक्षक के रूप में पेश करने का मन बना लिया है. राष्ट्रीय राजनीति के दबाव भी इसके पीछे काम कर रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नजरें आगामी लोकसभा चुनावों पर हैं. असम के माध्यम से वे देश भर में एक संदेश देना चाहती हैं. इसके लिए जमीयत उलेमा–ए-हिंद उनके लिए काम का संगठन साबित हो सकता है. गोगोई ने जमीयत के आगे झुकने से एक बार इनकार कर दिया था. लेकिन गोगोई की जिद के आगे झुककर सोनिया बाकी भारत में, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में, कांग्रेस की डूबती नैया में एक छेद और नहीं करना चाहती. उन्होंने गोगोई को इसके लिए मना लिया है कि बदरुद्दीन अजमल को वापस कांग्रेस में ले लिया जाए और आगामी पंचायत चुनाव उनके साथ मिलकर लड़े जाएं और बांग्लादेशी मुस्लमान को जीतना फायदा दे सकते है दे दे।
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