यह कैसी पंथनिरपेक्षता है?

वह दिन अब दुर नही जब हिन्दुस्तान मे रहने बाले मुस्लमान मुस्लिमों लिये अलग सविधान का मांग रख दे और हमारे देश की सोनिया सरकार उनकी हर एक वेहुदा मांग कि तरह इस मांग को भी मान ले। मुस्लिम धर्मगुरुओं और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को विरोध करने का एक नया मुद्दा मिल गया है। मुस्लिमों का ताजा विरोध उस निर्देश के खिलाफ है जो उच्चतम न्यायालय ने शादियों के अनिवार्य पंजीकरण के संदर्भ में हाल में दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने शादियों के अनिवार्य पंजीकरण का आदेश 14 फरवरी 2006 को दिया था और इस संदर्भ में पिछले दिनों उसने सभी राज्यों को इस पर प्रभावशाली तरीके से अमल सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। उच्चतम न्यायालय का यह आदेश महिलाओं के अधिकारों की हिफाजत के लिए है, साथ ही इससे बाल विवाह जैसी बुराइयों पर भी अंकुश लगेगा। शीर्षस्थ अदालत द्वारा इस संदर्भ में दिए गए स्पष्ट आदेश के बाद बीस माह बीत जाने के बावजूद यह सामने आया कि बहुत सारे राज्यों ने इस पर अमल ही सुनिश्चित नहीं किया। केवल पांच राज्यों में ही शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन का कानून है, जबकि कुछ अन्य ने इस व्यवस्था को मुस्लिमों के लिए वैकल्पिक घोषित करते हुए कानून का निर्माण किया। इस स्थिति पर नाराजगी जताते हुए अदालत ने पिछले दिनों फिर से आदेश जारी कर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा कि वे 90 दिनों के भीतर सभी नागरिकों, चाहे वे किसी भी मजहब के हों, के लिए शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन का कानून बनाएं।
सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का कहना है कि शादियों का रजिस्ट्रेशन मुस्लिमों के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि मुस्लिमों के विवाह गवाहों की मौजूदगी में संपन्न होते हैं और स्थानीय काजी उनका रिकार्ड रखते हैं। लिहाजा किसी कानून के जरिए मुस्लिमों के लिए शादियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाना उचित नहीं है। पर्सनल ला बोर्ड के इस तर्क में कोई वजन नहीं हैं। क्या मुस्लिम पसर्नल ला बोर्ड के सदस्यों ने हिदुओं में होने वाले विवाह नहीं देखे? अक्सर हिंदुओं में शादियां हजारों लोगों की मौजूदगी में होती हैं और हिंदुओं में कई वर्गो, धार्मिक प्रथाओं तथा मंदिरों में शादियों का रिकार्ड भी रखा जाता है। इसी तरह देश के सबसे छोटे मजहबी समूह पारसियों तथा ईसाइयों में ऐसी पद्धतियां हैं जिसके तहत मजहबी स्थलों में संपन्न होने वाली शादियों का पंजीकरण किया जाता है। लिहाजा मुस्लिमों में ही स्थानीय काजियों द्वारा शादियों का रिकार्ड रखने में क्या विशेषता है जिससे उन्हें इस कानून से अलग रखा जाए? क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य खुद को इतना असहाय महसूस करेगा कि वह मुस्लिमों की एक गैर-जरूरी मांग को पूरा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का उल्लंघन कर दे? क्या हम यह मान लें कि भारतीय राष्ट्र-राज्य ने शासन करने की क्षमता खो दी है और वह उस अनुच्छेद 14 पर अमल सुनिश्चित नहीं कर सकता जो कानून के सामने सभी नागरिकों की समानता रेखांकित करता है?

दरअसल आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने सामाजिक क्षेत्र में किसी भी प्रगतिशील कानून का विरोध करने की आदत डाल ली है। हर बार जब महिलाओं और बच्चों के हित संव‌र्द्धन के लिए कोई राष्ट्रीय कानून बनाने की कोशिश की जाती है तो मुस्लिम धर्मगुरुओं और पर्सनल ला बोर्ड की ओर से तीव्र विरोध के स्वर सुनाई देने लगते हैं। उन्होंने ऐसा ही तब किया था जब इंदिरा गांधी ने 1972 में बच्चों को गोद लेने के संदर्भ में संसद में बिल पेश किया था। इस बिल का मकसद बच्चों को गोद लेने के संदर्भ में एकसमान कानून का निर्माण करना था। सरकार ने यह कदम उठाने की इसलिए जरूरत महसूस की, क्योंकि हिंदू एडाप्शन एंड मेंटिनेंस एक्ट 1956 के अनुसार केवल हिंदुओं को बच्चों को गोद लेने का अधिकार है। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस कानून के संदर्भ में यह दलील दी कि इस्लाम में बच्चों को गोद लेना प्रतिबंधित है, इसलिए सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जिससे मुस्लिमों समेत सभी नागरिकों को गोद लेने का अधिकार मिले।

पर्सनल ला बोर्ड उक्त कानून के विरोध पर अडिग था। उसके प्रतिनिधियों ने इस बिल का परीक्षण करने वाली संसद की एक संयुक्त समिति को बता दिया कि यद्यपि यह बिल किसी को बच्चे गोद देने के लिए मजबूर नहीं करता, लेकिन इसे सभी पर लागू करने का मतलब है मुस्लिमों को बच्चे गोद लेने के लिए लालच देना और यह उनकी मजहबी मान्यताओं का उल्लंघन है। अनेक बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने मुस्लिमों को मनाने के प्रयास किए कि वे अपनी आपत्तियां छोड़ दें। मुस्लिमों को बताया गया कि एडाप्शन ला एक विधायी व्यवस्था भर है। यदि मुस्लिमों के लिए गोद लेना हराम है तो उन्हें इस कानून का इस्तेमाल करने के लिए कोई जरूरत नहीं है, लेकिन मुस्लिमों ने एक न सुनी। यहां तक कि जाने माने इस्लामिक विद्वान डा. ताहिर महमूद ने भी समिति से कहा कि उनके विचार से इस्लाम में गोद लेने पर पाबंदी नहीं है, बल्कि इस्लाम गोद लेने के मामले में उदासीन है। इससे भी अधिक यह बिल किसी से बच्चों को गोद लेने के लिए नहीं कह रहा है। ऐसे सभी विचार पर्सनल ला बोर्ड की समझ में नहीं आए। अंतत: सरकार ने मुस्लिमों के दबाव के आगे घुटने टेक दिए और बिल वापस ले लिया गया।
1980 के दशक में भी मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को राहत उपलब्ध कराने से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों को धता बता दी थी। जब अदालत ने यह फैसला दिया कि तलाकशुदा महिलाएं संसद द्वारा बनाए गए कानून के मुताबिक गुजारा-भत्ता पाने की अधिकारी हैं तो मुस्लिमों ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ दिया, जिसके दबाव में आकर राजीव गांधी सरकार ने कानून में संशोधन ही कर डाला। हाल के समय में मुस्लिम समुदाय ने ऐसे प्रयासों के खिलाफ भी अभियान छेड़ा है जिनका संबंध उनके ही समाज के बच्चों के स्वास्थ्य से है। पल्स पोलियो अभियान को ही लें। सरकार देश को पोलियो से मुक्त बनाने के लिए अरबों रुपए व्यय कर रही है और अभिभावकों को इसके प्रति जागरूक किया जा रहा है कि वे अपने बच्चों को समय पर पोलियो की दवा दिलवाएं, लेकिन देश के कुछ हिस्सों में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने पोलियो की दवा के खिलाफ एक व्यापक दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया और मुस्लिमों को अपने बच्चों को इस दवा से दूर रखने की सलाह दी। आश्चर्य नहीं कि देश में हाल के समय में पोलियो के जो मामले सामने आए उनमें 90 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों के हैं।

देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो धार्मिक नेताओं को जिम्मेदाराना आचरण से विशेष छूट प्रदान करे। राष्ट्र-राज्य को ऐसे धार्मिक नेताओं का संज्ञान लेना चाहिए जो अपनी बेजा मांगों से लोक व्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। इस तरह के आचरण का ताजा उदाहरण है एक लोकतांत्रिक और सेकुलर देश में शादियों के पंजीकरण से संबंधित आदेश के खिलाफ उठे स्वर। विचित्र यह है कि ऐसी व्यवस्थाओं का विरोध करने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट से भी दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। यह दु:खद है कि उनके इस आचरण की सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा अनदेखी कर दी जाती है। आखिर यह कैसी पंथनिरपेक्षता है? यदि कुछ राज्य मुस्लिमों के विरोध के डर से सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर अमल करने से बच रहे हैं तो फिर हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हमारे राष्ट्र-राज्य में पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक वातावरण को संरक्षित करने की प्रेरणा का घोर अभाव है।
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