कम्युनिस्ट पार्टी एक मरता हुआ पार्टी

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की उन्नीसवीं कांग्रेस महज एक सियासी जलसा बन कर रह गई। पार्टी के लिए यह सिद्धांत, संगठन और संघर्ष के सवालों पर खुलकर अपनी समीक्षा करने का अहम मौका हो सकता था। लेकिन जो हुआ, वह सिर्फ खानापूरी है। पार्टी संगठन में सुधार लाने के लिए कदम उठाने का ऐलान किया गया है। इसी तरह कैडरों में बढ़ते करप्शन पर रोक लगाने तथा हिंदी प्रदेश में अपना विस्तार करने की बातें कही तो गई हैं, लेकिन ये मुद्दे नए नहीं हैं। बरसों से सीपीएम इनसे उलझती रही है और एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है।

सीपीएम की समस्या यह है कि वह वैचारिक संघर्ष के नाम पर सत्ता की साझेदारी में शामिल रहना चाहती है। दूसरी दिक्कत यह है कि इसने संसदीय जनतंत्र को अपना तो लिया है, लेकिन कैडर अब भी मार्क्सवाद का मतलब वर्ग-संघर्ष समझते हैं। इसीलिए पार्टी के भीतर सत्तावादी सोच और किताबी मार्क्सवाद का विरोधाभास बना रहता है। पिछले चार बरसों से वह यूपीए सरकार की दोस्त बनी हुई है।

इस दौरान जन संघर्ष के नाम पर उसने बयान जारी करने के अलावा कुछ करना मुनासिब नहीं समझा। हाल के बरसों में पूंजीवादी-उदारवादी सोच उस पर और भी हावी हो गया है, जिसकी एक मिसाल स्पेशल इकनॉमिक जोन का मामला है। नवम्बर 2006 में पार्टी ने सेज की आलोचना करते हुए एक दस्तावेज जारी किया था। लेकिन अब पार्टी ने इस पर नरम रुख अख्तियार कर लिया है। इस बीच नंदीग्राम में जो हुआ, वह सभी ने देखा। एक ईमानदार लीडरशिप में सच को स्वीकार करने का साहस होता है और एक कमजोर लीडरशिप को ही अपनी आलोचना से डर लगता है।

सच तो यही है कि सीपीएम वैचारिक रूप से मार्क्सवाद का त्याग कर चुकी है। उसमें और यूरो कम्युनिज्म में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। पार्टी का नया रास्ता अब बुद्धदेववाद का है। लेकिन यूरोप से उसमें एक फर्क है। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने मार्क्सवाद को व्यावहारिक न मानकर अपने सिद्धांतों में सुधार किया था, जबकि सीपीएम घोषित तौर पर ऐसा करने का भी साहस नहीं रखती।

सलकिया प्लेनम में कहा गया था कि पार्टी लीडरशिप में भी 'अपने राज्य को अलग रखने' की प्रवृत्ति और अखिल भारतीय चरित्र का अभाव नजर आता है। यह बात सही थी और अब तक इस प्रवृत्ति में कई गुना बढ़ोतरी हो चुकी है। आज हाल यह है कि बंगाल और केरल की इकाइयां अलग-अलग रास्ते पर चल रही हैं। दोनों सरकारें दो सिद्धांतों और दो मूल्यों की नुमाइंदगी करती हैं। इस बिखराव को रोकने के लिए उन्नीसवीं कांग्रेस ने समझौतावादी रुख अपनाया है। कम्युनिस्ट संगठनों में लोकतांत्रिक केन्द्रवाद को जरूरी माना जाता है, लेकिन सीपीएम का केन्द्र ही जड़ता का शिकार हो चुका है, लिहाजा लोकतांत्रिक केन्द्रवाद भी बिखर गया है। एक समय केन्द्र में बी.टी. रणदिवे, नम्बूदरीपाद, ए.के. गोपालन और ज्योति बसु जैसे नेता थे, जो कम्युनिज्म के सिद्धांतों के सामने सत्ता को अहमियत नहीं देते थे। इन नेताओं ने लोकतांत्रिक केन्द्रवाद को कमजोर नहीं पड़ने दिया था। लेकिन जब सत्ता का स्वाद लग जाता है, तो सिद्धांत कूड़ेदान के हवाले हो जाते हैं।

केरल में सीपीएम की गुटबाजी बहुत समय से चर्चा में है। अठारहवीं कांग्रेस में भी इस मुद्दे पर विचार किया गया था, लेकिन गुटबाजी थमने का नाम नहीं ले रही। इस बार गुटबाजी पर पर्दा डालने के लिए पार्टी ने सभी विरोधी विचारों के बीच समन्वय की बात कहकर काम चला लिया है। एक वह भी दौर था, जब पार्टी के वरिष्ठ नेता एस.एस. मिराजकर को सिर्फ इसलिए निकाल दिया गया कि उन्होंने श्रीपाद अमृत डांगे के जन्मदिन पर शुभकामना संदेश भेजा था। आज कहानी एकदम उलटी है। केरल इकाई अनुशासनहीनता की मिसाल बन चुकी है। कल तक सीपीएम सीपीआई को दक्षिणपंथी रुझान वाली संशोधनवादी पार्टी मानती थी। सोशलिस्टों को तो वर्ग-शत्रु कहा जाता था। आज वह खुद किस मायने में सोशलिस्ट संगठनों से अलग है, इसका जवाब देना उसके लिए मुमकिन नहीं होगा। उसके पास सिर्फ वामपंथी लफ्फाजी बची है।

सोशलिस्ट नेताओं डॉ. राममनोहर लोहिया और जेपी आदि ने हिंदी इलाके के सामाजिक विरोधाभासों के बावजूद समाजवादी आंदोलन खड़ा कर दिया था। इसके पीछे उनकी स्पष्ट सोच और भारतीयता से जुड़ाव था। वे राष्ट्रीय सहमति के अभिन्न हिस्से थे, लेकिन कम्युनिस्ट? एक मिसाल लीजिए तिब्बत की। कम्युनिस्टों के नजरिए से तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। वे तिब्बत की बौद्ध संस्कृति, परंपरा और स्वायत्तता को मानने के लिए तैयार नहीं। उन्नीसवीं कांग्रेस में भी वे चीन की तरफदारी करते नजर आए हैं। सन 1959 में भी वे पंडित नेहरू की तिब्बत नीति की आलोचना कर रहे थे। नेहरू ने दलाई लामा को मानवता का श्रेष्ठतम प्रतिनिधि कहा था। कम्युनिस्ट उन्हें साम्राज्यवादी एजेंट मानते रहे। नेहरू ने 5 अप्रैल 1959 को संसद में कहा था कि कम्युनिस्ट राष्ट्रीय भावना के खिलाफ नजरिया रखते हैं।

लेकिन इस पर हैरान होने की जरूरत नहीं। सीपीएम का जन्म ही चीन की भक्ति के चलते हुआ। सन 1962 की जंग में भारतीय कम्युनिस्टों का एक तबका चीन को हमलावर मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। ऐसे 32 सदस्यों ने सीपीआई की नैशनल काउंसिल से अलग होकर सीपीएम का गठन किया। तब पार्टी के नेता पी. राममूर्ति ने कहा था, 'कोई मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही ही होगा, जो किसी समाजवादी देश को हमलावर मानेगा।'

सीपीएम का इतिहास और वर्तमान अनसुलझे सवालों से घिरा है। इनका जवाब उसके पास नहीं। उसकी दिलचस्पी भी जवाब खोजने में नहीं लगती। यही वजह है कि पार्टी के भीतर गिरावट नजर आ रही है और बाहर माओवादी-लेनिनवादी गुटों का फैलाव होता जा रहा है।
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