दारुल उलूम का मुस्लिम सम्मेलन की सच्चाई

दारुल उलूम का मुस्लिम सम्मेलन खासी चर्चा में है। बेशक पहली दफा किसी बड़े मुस्लिम सम्मेलन में आतंकवाद की निंदा की गई, लेकिन आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद 'असंख्य निर्दोष मुस्लिमों पर हो रहे असहनीय अत्याचारों' पर गहरी चिंता भी जताई गई। आल इंडिया एंटी टेररिज्म कांफ्रेंस की दो पृष्ठीय उद्घोषणा में आतंकवाद विरोधी सरकारी कार्रवाइयों को भेदभाव मूलक कहा गया। इसके अनुसार निष्पक्षता, नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्यों वाले भारत में वर्तमान हालात बहुत खराब है। सम्मेलन ने आरोप लगाया कि इस वक्त सभी मुसलमान, खासतौर से मदरसा प्रोग्राम से जुड़े लोग दहशत में जी रहे है कि वे किसी भी वक्त गिरफ्तार हो सकते है। सम्मेलन में सरकारी अधिकारियों पर असंख्य निर्दोष मुस्लिमों को जेल में डालने, यातनाएं देने और मदरसों से जुड़े लोगों को शक की निगाह से देखने का आरोप भी जड़ा गया। सम्मेलन ने भारत की विदेश नीति और आंतरिक नीति पर पश्चिम की इस्लाम विरोधी ताकतों का प्रभाव बताया। देश दुनिया के मुसलमानों से हमेशा की तरह एकजुट रहने की अपील की गई। ऐलान हुआ कि सभी सूबों में भी ऐसे ही जलसे होंगे। सरकार के कथित मुस्लिम विरोधी नजरिए के संदर्भ में अवाम को बताया जाएगा।
सम्मेलन की उद्घोषणा दरअसल आतंकवाद से जारी संघर्ष की हवा निकालने वाली है। जाहिर है कि जलसे का मकसद दीगर था। आतंकवाद की निंदा की वजहें भी दूसरी थीं। निगाहे मुस्लिम एकजुटता पर थीं, निशाना आतंकवाद से लड़ रहा राष्ट्र था। इराक, अफगानिस्तान, फलस्तीन, बोस्निया और दक्षिण अमेरिकी देशों के मुस्लिम उत्पीड़न की चर्चा की गई। जेहाद के नाम पर मारे गए हजारों भारतीय निर्दोषों, श्रृद्धा केंद्रों, कचहरी और मेला बाजारों में मारे गए नागरिकों के बारे में शोक संवेदना का एक लफ्ज भी इस्तेमाल नहीं हुआ। आतंकवाद से लड़ते हुए मारे गए सैकड़ों पुलिस जवानों/ सैनिकों की तारीफ के बजाय पुलिस व्यवस्था को ही भेदभाव मूलक बता दिया गया। आतंकवाद के आरोपों में बंद 'असंख्य निर्दोष मुस्लिम' वाक्य का इस्तेमाल भारतीय राष्ट्र-राज्य की घोर निंदा है। सम्मेलन की राय में यहां असंख्य मुसलमानों को बेवजह फंसाया जा रहा है। उन पर लगे सारे आरोप मनगढ़ंत है। सम्मेलन के मुताबिक देश के असंख्य मुसलमानों की जिंदगी तबाह है। वे प्रतिपल दहशत में हैं। उन्हे यहां सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं है। आतंकवाद विरोधी सरकारी कार्रवाई को मुस्लिम विरोधी बताने का काम अध्यक्षीय भाषण में भी हुआ। सम्मेलन के अध्यक्ष मुहम्मद मरगूबउर्रहान ने फरमाया, ''आतंकवादी कार्रवाई के सिलसिले में दोषी या कम से कम संदिग्ध करार देने के लिए न तो किसी विचार-विमर्श की आवश्यकता महसूस की जाती है, न किसी सावधानी से काम लिया जाता है और न तथ्य और प्रमाण इकट्ठा करने का कोई गंभीर प्रयास किया जाता है। उनको दोषी बताने के लिए केवल इतना ही आवश्यक समझा जाता है कि वे मुसलमान है।''
मौलाना ने आतंकवाद से निपटने में खास सतर्कता की जरूरत भी बताई। उन्होंने कहा कि इतिहास में अक्सर ऐसा हुआ है कि सरकार के दोषी हीरो कहलाए है-खासतौर से वे जिनके कट्टरवादी व्यवहार के कारण सरकार की ओर से अन्याय और अत्याचार हो। इतिहास के इस तथ्य पर नजर रखते हुए ऐसा काम न किया जाए जिसकी प्रतिक्रिया आतंकवाद के रूप में हो। यानी आतंकवाद के विरुद्ध नरमी से पेश आना चाहिए, अन्यथा इसकी प्रतिक्रिया में आतंकवाद और भड़केगा। केंद्र सरकार की नरम नीति उलेमा की हिदायत से मिलती-जुलती है। बावजूद इसके केंद्र पर असंख्य निर्दोष मुस्लिमों को जेल में बंद रखने के आरोप भी लगाए। दरअसल, मजहब और पंथ का उदय देश, काल और परिस्थिति में ही होता है। वे प्रत्येक देश, समय और परिस्थिति में उपयोगी नहीं होते। मजहब-पंथ का काम मानवीय सद्गुणों का विकास ही है। दर्शन और विज्ञान यही काम 'सत्य दिखाकर' करते है। पंथ और मजहब यही काम अकीदत और आस्था के जरिए करते हैं। मौलाना ने इस्लाम की तारीफ की। ठीक किया। यह भी कहा कि इस्लाम निष्पक्षता, न्याय और दया की सीख देता है। उन्होंने कुरान के हवाले से कहा कि इस्लाम में गवाही देते समय परिवार और संबंधी का मोह भी छोड़ने की हिदायत है। वह भूल गए कि कुरान की इसी आयत के बाद कहा गया है, ''जो ईमानवालों/मुसलमानों को छोड़कर इनकार करने वालों को अपना दोस्त बनाते हैं, क्या उन्हे प्रतिष्ठा की तलाश है।'' आगे हिदायत दी गई, ''ऐ ईमानवालो! इनकार करने वालों को अपना मित्र न बनाओ।'' यह भी कहा गया कि जो इस्लाम के अलावा कोई और दीन तलब करेगा उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न होगा और अंतत: वह घाटे में रहेगा।
सह-अस्तित्व और समझौते की बातें भी अध्यक्षीय भाषण में कही गईं, लेकिन कुरान में साफ हिदायत है, ''तुम अपने दीन के अनुयायियों के अलावा किसी पर भी विश्वास न करो।'' इस्लामी विचारधारा दुनिया के सभी मनुष्यों को दो हिस्सों में बांटती है। पहला, ईमानवाले यानी मुसलमान और दूसरे वे जिन्होंने इनकार किया। कुरान में बताया गया कि इनकार करने वालों से कह दो कि वे बाज आएं तो क्षमा है। यदि वे फिर भी वही करेगे तो जैसा पूर्ववर्ती लोगों के लिए किया गया, वही रीति अपनाई जाएगी। उनसे युद्ध करो, यहां तक कि फितना भी बाकी न रहे और दीन पूरा का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। सम्मेलन ने जिन फलस्तीन, इराक आदि का जिक्र किया है वहां इस्लाम के पहले क्या था? भारत नाजुक दौर में है। मौलाना ने बजा फरमाया कि आतंकवाद हमारे देश की मूल समस्या नहीं है, लेकिन उन्होंने गलत कहा कि यह साम्राज्यवादी देशों द्वारा फैलाया गया। प्राचीन अरब और अरबी सभ्यता पर पहला हमला इस्लामी विस्तारवाद ने ही किया। ऋग्वेद की निकटतम जेंदअवेस्ता वाली महान ईरानी सभ्यता भी इस्लामी हमले में तबाह हुई। यूरोप में स्पेन तक हमला हुआ। इस्लामी विस्तारवाद को भारत और स्पेन में ही टक्कर मिली, जबकि सीरिया, मिस्त्र, फलस्तीन और ईरान तबाह हो गए। मुहम्मद बिन कासिम से लेकर तराई (1192 ई.) की लड़ाई तक वे यहां अपनी स्थायी हुकूमत नहीं बना पाए।
इस्लामी गलबे के खिलाफ पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, गुरु तेग बहादुर, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह सहित हजारों लोग न लड़े होते तो भारत भी फलस्तीन, मिस्त्र, यूनान, ईरान और मध्य एशिया के तमाम इलाकों की तरह प्राचीन संस्कृति और इतिहास से शून्य होता? मुस्लिम सम्मेलन ने विश्वव्यापी इस्लामी विस्तारवाद की चर्चा नहीं की। पाकिस्तान द्वारा मुसलसल भारत भेजे जा रहे आतंकवादी गिरोहों पर भी कोई बात नहीं हुई। पाक आतंकी डेली पैसेंजरी नहीं करते। वे भारत के ही लोगों द्वारा सहायता पाते हैं। सम्मेलन ने भारत के ऐसे राष्ट्रद्रोही तत्वों की आलोचना नहीं की। बावजूद इसके लोग खुश हैं कि सम्मेलन ने आतंकवाद के विरुद्ध बोलकर भारत पर भारी कृपा की है। विद्वान प्रधानमंत्री बुरे फंसे। वे मुस्लिम सर्वोपरिता और तुष्टीकरण का संगीत बजा रहे है। ये है कि तमाम नाजायज कोशिशों के बावजूद रुष्ट है, तुष्ट होने का नाम भी नहीं लेते और 'असंख्य निर्दोष मुस्लिमों' को जेल में यातना देने का आरोप भी लगा रहे है।
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