कोई इन्हें बचाओ

हिन्दुस्तान में मुस्लमानों को हर तरह कि सुख सुविधा सरकार के द्वारा दिया जा रहा है यहा तक कि मुस्लिम आतकवादियों भी सरकार फाँसी पर लटकाने से गुरेज कर रही है। आतंकवाद कि पाढ़शाला मदरसा को दिल खोल कर सरकारी सुविधा मील रहा है जिसका नतीजा है कि हिन्दुस्तान में आये दिन कही न कही बम विस्फोट या फिर दंगा फसाद होते रहता है लेकिन इसके ठीक उलट पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं की हालत चिंता का विषय है और सरकार इस ओर से आँख बन्द कर रखा है।

पाकिस्तान के हिंदुऒं ने अपने समुदाय के खिलाफ जानमाल को लक्ष्य बनाकर हो रही घटनाऒं के प्रति चिंता जताई है। गौरतलब है कि देश में हिंदुऒं के धार्मिक स्थलों को भी निशाना बनाया जा रहा है।

अल्पसंख्यक हिंदु समुदाय की पाकिस्तान हिंदू परिषद् (पीएचसी) के प्रतिनिधिमंडल ने चिंता जताई है कि सिंध प्रांत में हिंदुऒं को लगातार लूट और डकैती का निशाना बनाया जा रहा है। उनके खिलाफ इस तरह की घटनाऒं में वृद्धि हो रही है। परिषद ने मांग की है कि इस्लामाबाद की संघीय सरकार इन घटनाऒं को रोकने के तुरंत कोई कदम उठाए और देश में अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा करे।

जाकोकाबाद में हाल ही में हुई लूट की घटना के विरोध प्रदर्शन में कराची में बड़ी संख्या में हिंदुऒं ने भाग लिया। जाकोकाबाद में कुछ हथियारबंद लोगों ने मंदिर में घुस कर करीब ३५० हिंदू महिलाऒं से लाखों रूपये की नगदी तथा जेवरात लूट लिए थे। सिंघ के पूर्व सांसद डा. रमेश लाल ने पुलिस और अन्य कानूनी एजेंसियों पर आरोप लगाया है कि वह नागरिकों खासतौर पर अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में नाकाम रही हैं।

पीएचसी के सचिव हरी मोटवानी ने डेली टाइम्स अखबार को बताया कि डाकुऒं ने करीब सात करोड़ की लूट की है और जाकोकाबाद की हाल ही की घटना के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के लोग खासतौर पर महिलाएं धार्मिक स्थानों पर जाने में डरने लगे हैं। मोटवानी ने कहा कि इसलिए हम मांग करते हैं कि सरकार डकैतों को तुरंत गिरफ्तार करे और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्र्चित करे। उन्होंने कहा कि यह घटना दिन के समय हुई है बावजूद इसके पुलिस इसे रोक नहीं पाई।

पीएचसी के अध्यक्ष राजा असेरमल मांगलानी ने कहा कि सिंध के उत्तरी जिलों में हिंदुऒं के साथ लूट और अपहरण की घटनाएं हो रही हैं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में डर और असुरक्षा की भावना घर कर गई है। सरकार को चाहिए कि वह लोगों में व्याप्त इस इस डर की भावना को दूर करे।
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आतंकवादीयों को दमाद क्यों नही बना लेते

बेंगलूर के बाद अहमदाबाद भी सीरियल बम धमाकों से दहल उठा हिन्दुस्तान। 24 घंटे में दुसरा हमला । देश में जब कभी कोई आतंकवादी हमला होता है, तो हमले के लिए जिम्मेदार लोगों या उनके संगठनों अथवा हमलावरों को पनाह देने वाले मुल्क या मुल्कों के नाम रेडिमेड तरीके से सामने आ जाते हैं। आतंकवादियों को कायर, पीठ में छुरा घोंपने वाले या बेगुनाहों का हत्यारा कहकर केंद्र और राज्य सरकारें तयशुदा प्रतिक्रिया व्यक्त कर देती हैं। हमारे नेता भी ऊंची आवाज में चीखकर कहते हैं कि आतंकवाद के साथ सख्ती से निपटा जाएगा। कुत्ता को घुमाने और ई-मेल कहा से आया बस यही तक खबर आती है। फिर मुआवजा देने का दौर चलता है अगर हिन्दु मरा है तो 1 लाख और मुस्लमान मरा है तो 5 से 10 लाख तक का मुआवजा मिलता है। सरकार के किसी मंत्री घटनास्थल के दौरे के साथ ही सभी बड़ी-बड़ी बातें खत्म हो जाया करती हैं और यह श्रंखला आतंकवादियों की अगली करतूत होने पर फिर शुरू हो जाती है, यही सिलसिला चलता रहता है। लोगों ने अब यह भी कहना शुरू कर दिया है कि बढ़-चढ़कर किए गए ऐसे दावों में कोई दम नहीं होता। कुछ लोगों ने मुझसे यहां तक कहा कि अखबारों में छपे ऐसे सियासी बयानों को हम पढ़ते तक नहीं।

आखीर कब रुकेगा आतंकवादियों का हमला। हिन्दुस्तान में आतंकवाद को सदैव वोट बैंक और मुस्लिम तुस्टीकरण की राजनीति से जोड्कर देखा जाता है और इसी का परिणाम है कि पहले 1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार के मुसलमानों के दबाव में आकर टाडा कानून वापस ले लिया और उसके बाद 2004 में सरकार में आते ही एक बार फिर कांग्रेस ने पोटा कानून वापस ले लिया। उच्चतम न्यायालय ने जब संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का आदेश दिया था तो तमाम 'सेकुलरवादी दलों' का राष्ट्रविरोधी चेहरा भी सामने आ गया था। जम्मू-कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद सहित पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती उसके बचाव में आ खड़ी हुई थीं। यहा तक कह दिया कि अफजल को फांसी देने पर इस देश में दंगा भरक सकता है कांग्रेसी आजाद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर फांसी की सजा नहीं दिए जाने की अपील की थी। अलगाववादी संगठनों के नेतृत्व में घाटी में व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया। इन सबका ही परिणाम है कि आज भी अफजल सरकारी दमाद बना हुआ है और सेकुलर संप्रग सरकार फांसी की सजा माफ करने की जुगत में लगी है। क्या एक आतंकवादी को फांसी देने से दंगा भरक सकता है तो इसमें हमे कहने से कोई गुरेज नही है कि दंगाई का राष्टृभक्ति कभी भी हिन्दुस्तान के साथ नही है और इसमें भी कांग्रेसी ही दोषी है जब देश आजाद हूआ था तभी कांग्रेसी जन यैसे देशद्रेही को गले लगा-लगा कर इस देश में रहने के लिये रोक रहे थे जो आज हमारे लिये नासूर बन गये हैं।
हिन्दुस्तान यैसा देश है जहा आतंकवादि सरकारी नैकरी करते हैं सरकार उन्हें पैसा भी देती है और आतंकवाद फैलाने के सहायता। "भारत बहुत बुरा देश है और हम भारत से घृणा करते है। हम भारत को नष्ट करना चाहते है और अल्लाह के फजल से हम ऐसा करेगे। अल्लाह हमारे साथ है और हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेगे।" गिलानी के ताजा बयान के बाद भी यदि सेकुलर खेमा गिलानी और अफजल जैसे देशद्रोहियों की वकालत करता है तो उनकी राष्ट्र निष्ठा पर संदेह स्वाभाविक है। गिलानी दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी और फारसी पढ़ाता है। उसके नियुक्ति पत्रों की जांच होनी चाहिए और यदि उसने अपनी नागरिकता भारतीय बताई है तो उसे अविलंब बर्खास्त कर देना चाहिए। क्या यही है आतंकवादियों से लड़ने क माद्दा, शायद नही।

आज भारत में एक भी ऐसा कानून नहीं है जो आतंकवाद की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए और आतंकवादियों के विशेष चरित्र को देखते हुए उन्हें तत्काल और प्रभावी प्रकार से दण्डित करने के लिये प्रयोग में आ सके। आज सभी राजनीतिक दलों के नेता केवल भाजपा को छोड्कर इस बात पर सहमत दिखते हैं कि सामान्य आपराधिक कानूनों के सहारे आतंकवाद से निपटा जा सकता है। हमारे सामने एक नवीनतम उदाहरण है कि किस प्रकार टाडा के विशेष न्यायालय में मुकदमा होते हुए भी मुम्बई बम काण्ड के अपराधियों को सजा मिलने में कुल 15 वर्ष लग गये और सजा मिलने के बाद भी एक के बाद एक आतंकवादियों जमानत पर छूटते जा रहे हैं। आखिर जब हमारी न्याय व्यवस्था जटिल तकनीकी खामियों का शिकार हो गयी है जो आतंकवादियों को बच निकलने का रास्ता देती है तो फिर कडे और ऐसे कानूनों के आवश्यकता और भी तीव्र हो जाती है जो तत्काल जमानत या फिर आतंकवाद के मामले में जमानत के व्यवस्था को ही समाप्त कर दे। यह कोई नयी बात नहीं है। पश्चिम के अनेक देशों ने ऐसे कठोर कानून बना रखे हैं और इसके परिणामस्वरूप वे अपने यहाँ आतंकवादी घटनायें रोकने में सफल भी रहे हैं। परंतु भारत के सम्बन्ध में हम ऐसी अपेक्षा नहीं कर सकते। अगर हिन्दुस्तान की सरकार आतंकवादियों से लड़ नही सकती है तो उसे अपना दमाद बना ले लफडा खत्म हो जायेगा। हम मुर्ख जनता जात-पात उँच-नीच के नाम पर दुबारा नपुसंको के हाथ में इस देश की बागडोर दे देंगे।
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सरकार का एक और झुठ

रामसेतु मसला एक बार फिर केंद्र मे आ गया है। केंद्र सरकार पहले राम और उसके अस्तित्व को नकारते-नकारते आखिरकार यह स्वीकार करने लगी है कि राम पौराणिक काल में थे। कंब रामायण का सहारा लेकर सरकार यह बताने में लगी थी कि भगवान राम स्वयं इस पुल को तोड़ दिया था, केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, ' रामसेतु के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। भगवान राम ने लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद रामसेतु को ध्वस्त कर दिया था।' जो कि सरकार द्वारा झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, यह बात हिन्दुस्तान का बच्चा बच्चा जानता है सो वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था। कालिदास सरीखे कवि को गलत मानकर कम्ब रामायण जैसे अविश्वसनीय स्त्रोत पर कैसे विश्वास कर किया जा सकता है? यह सर्वविदित है कि वाल्मिकी रामायण तक में इस तरह के प्रमाण नहीं दिए गए हैं। इसका मतलब साफ है कि सरकार इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए हर वह कदम उठाना चाहती है, जिससे इस विवादास्पद मुद्दे पर कहीं से कोई शोर नहीं सुनाए पड़े। सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट पर बनी १९ सदस्यीय समिति में से १८ ने इस प्रोजेक्ट के लिए दूसरे मार्ग अपनाने की सलाह दी थी। केवल एक ने यह सुझाव दिया है कि मार्ग छह का इस्तेमाल किया जाए। मार्ग छह के अपनाने से सेतु का तोड़ा जाना जरूरी हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को यह सलाह दी है कि वह मार्ग चार को अपनाए, जिससे यह पौराणिक तथ्य और विरासत को बचाया जा सके और करोड़ों लोगों के धार्मिक आस्था की रक्षा की जा सके।
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भारत की संसद भ्रष्ट नेता का अड्डा

न्यूक्लीयर डील पर विश्वास मत हासिल करने की कवायद और उस पर हुए ड्रॉमे ने देश को काफी कुछ बता दिया है। संसद में सरकार ने विश्वास मत तो हासिल कर लिया, लेकिन इस हासिल में बहुतों ने बहुत कुछ खोया है। भारतीय संसद जिस तरह से शर्मसार हुई, उसका उल्लेख बार-बार होगा। जब भी संसद की चर्चा होगी इस बात का उदाहरण दिया जाएगा कि संसद की गरिमा को कैसे धूमिल किया गया। यह उन नेताओं द्वारा किया जिसकी जमीर में हया का वास नहीं है। जिसने भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का बाजार में बदल दिया है। सरे आम जहां खरीद-फरोख्त की जा रही है। उन लाखों-करोड़ों जनता जिसने उन नेताओं को चुनकर अपने प्रतिनिधित्व के रूप में संसद की नुमाइंदगी करने के लिए भेजा आज वह बेचे और खरीदे जा रहे हैं। यह भारत के संसदीय इतिहास में सचमुच एक इतिहास बना गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही संख्या बल पर विश्वास मत हासिल कर लिया, लेकिन नैतिकता के चश्मे से देखे तो यह उनके लिए दागदार वाला दिन रहा। मनमोहन सिंह की अपनी छवि भले ही एक साफ सुथरे नेता की रही हो, लेकिन अपने को संसद में जीता देखने के लिए जिस नेता का दामन पकड़े हुए थे वो दागदार हैं। इससे पहले १९९३ में नरसिंहा राव की सरकार ने अपनी सरकार बचाने के लिए उसी शिबू सोरेने का सहारा लिया था, जिसके लिए मनमोहन सिंह भी बेकरार दिखें। आखिर परमाणु डील इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उन्होंने भारतीय संसद की गरिमा, भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का ताक पर रखकर ऐसे समझौते किए जो उनके लिए तो नहीं, लेकिन देश में टीस पैदा करेंगे। आज भारतीय राजनीति अपने सफर में सबसे नीचे वाले पायदान पर खड़ी नजर आ रही है। अब तक जो ढंके छुपे होता आ रहा था, वह अब बिल्कुल खुला हुआ हमारे समक्ष है। जनता ये जानती थी कि नेता भ्रष्ट होते हैं, लेकिन वे यह भी कहेंगे कि नेता बिकाऊ होते हैं। और इस बात का सारा दारोमदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जाता है। उन्होंने भारतीय राजनीति में यह बात साफ तौर पर जाहिर कर दी कि संख्या बल का जुटाना हो तो जोड़-तोड़ की राजनीति के साथ करोड़ों की डील भी करनी पड़ती है। एक स्वच्छ नेता जिस पर यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राजनीति से गंदगी को साफ कर राजनीति को आम आदमी के बीच पॉपुलर बनाए बजाय उसके उन्होंने इसकी गरिमा को मटियामेट कर दिया। सरकार भले ही अपना पीठ थपथपा रही हो, लेकिन अंदर से उसे भी पता है कि इस संख्या बल जुटाने के लिए उसे कितने रहस्यों पर पर्दा डालना पड़ा है। इस जीत को यूपीए चुनाव में भुनाने की कोशिश करेगी, लेकिन वह जनता को इस बात का जवाब कैसे देगी कि संख्या बल उन्होंने कैसे और किस तरह से जुटाए। देश की जनता ने संसद का पूरा हाल अपनी आंखों से देखा है और वह इतनी आसानी से भूलने वाली नहीं। अगर जनता भूलती है तो यह संसद के अंदर जो कुछ भी हुआ उससे बढ़कर शर्मनाक होगा। लोकसभा में मंगलवार को सांसद राहुल गांधी के भाषण में निरन्तर व्यवधान पर अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि भारत की संसद अपने –अधोबिंदु— पर पहुंच गई है। इसके बावजूद विश्वासमत प्रस्ताव के पक्ष- विपक्ष में दबाव और प्रलोभनों के आरोपों के बाद जिस तरह सदन में नोटों की गड्डियों का प्रदर्शन हुआ, उसे तो –पतन की पराकाष्ठा— ही कहा जाएगा। दरअसल सरकार का बनना और गिरना यदि जनादेश, नीतियों और कार्यक्रमों पर आधारित विशुद्ध लोकतांत्रिक प्रक्रिया हो, तो ऐसी नौबत ही नहीं आए। इसके विपरीत आज तो निजी स्वार्थों, आपसी सौदेबाजी और विचारधारा के विरुद्ध भी गठबंधन हो रहे हैं। ऐसी हालत में ये गठजोड़ कब टूट जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। यही चार साल पुरानी मनमोहन सरकार के साथ हुआ और वामपंथी दल उसे मझधार में डुबोने के लिए अपने धुर विरोधियों भाजपा और उसके सहयोगी दलों से जा मिले। आश्चर्य की बात यह है कि वामपंथी दलों ने तो गत ८ जुलाई को समर्थन- वापसी की घोषणा कर दी थी, फिर सांसदों को घूस देने का –भंडाफोड़— विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान के ही दिन क्यों हुआ?
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सरकार को हलाल नहीं होने देगा ये दलाल

परमाणु करार पर देश में घमासान मचा हुआ है। देश में जो वातावरण तैयार हो रहा है वो साठ साला लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतने का प्रयास मात्र है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि देश को गिरवी रखने की एक डील पर डील हो रही है। अभी तक बडे पूंजीपति पर्दे के पीछे से सरकार से सम्फ किया करते थे और लाभ कमाते थे। लेकिन अब खुल्लमखुल्ला ये धनपशु न केवल अपने व्यावसायिक हित साध रहे हैं बल्कि देश की राजनीति की दिशा और दशा भी तय कर रहे हैं। तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया भी इन व्यावसायिक घरानों और सरकार के प्रवक्ता की भूमिका अदा कर रहा है। सरकार रहे या जाये लेकिन इस बहाने देश के राजनीति के चरित्र पर बहस करने का एक अवसर देश की जनता को नसीब हुआ है ।
एक समाचार पत्र की सुर्खी थी कि ‘सरकार को हलाल नहीं होने देगा ये दलाल’। बहुत तथ्यपरक और विचारणीय सुर्खी थी यह। इसे सिर्फ एक सुर्खी मात्र कहकर खारिज नहीं किया जा सकता बल्कि यह एक चिन्तन का अवसर है कि देश की राजनीति किधर जा रही है। क्या इसका जवाब यह है कि-’’यह दलाल सरकार को हराम कर देगा?‘‘
बार-बार बहस की जा रही है कि डील देशहित में है। सरकार और सपा का दावा सही माना जा सकता है। लेकिन सपा से एक प्रश्न तो पूछा जा सकता है कि अगर यह डील इतनी ही देशभक्तिपूर्ण थी तो उस समय जब जॉर्ज बुश भारत आये थे तब विरोध प्रदर्शन में सपा क्यों शरीक हुई?
सरकार से भी तो प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब वामपंथी दलों ने सेफगार्ड और १२३ करार का मसौदा मॉगा तो सरकार ने कहा था कि यह गोपनीय दस्तावेज हैं और तीसरे पक्ष को नहीं बताये जा सकते हैं। सरकार अगर सच बोल रही थी तो महत्वपूर्ण सवाल है कि अमर सिंह और मुलायम सिंह ने बयान दिया कि उन्हें पूर्व राष्ट्रपति ए०पी०जे० अब्दुल कलाम और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम० के० नारयणन ने डील का मसौदा बताया और आश्वस्त किया कि डील देशहित में हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि जो दस्तावेज सरकार को समर्थन दे रहे दलों को गोपनीय बताकर नहीं बताये गये वो बाहरी व्यक्ति अमर सिंह और मुलायम सिंह को क्यों दिखा दिये गये?
क्या कलाम और नारायणन को यह दस्तावेज इसलिये मालूम थे कि वो राष्ट्रपति रह चुके थे और राष्टीय सुरक्षा सलाहकार हैं? तब तो यह देश की सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा है, चकि कलाम कों तो देश के पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते और नारायनन को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होने के नाते बहुत से गम्भीर राज मालूम होंगे और क्या यह दोनों किसी सरकार को बचाने के लिये किसी को देश के राज बता देंगे?
सरकार से यह भी पूछा जा सकता है कि जब बुश ४ नवम्बर को रिटायर हो रहे हैं और व्हाइट हाउस स्पष्ट कह चुका है कि डील को अमरीकी संसद से मंजूरी मिलने की कोई गारन्टी नहीं है। तथा आई ए ई ए के प्रवक्ता ने स्पष्ट कहा है कि उनकी तरफ से ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी कि डील का खुलासा नहीं किया जाये तब वो कौन सा कारण था कि डील देश से छुपाई गई? मनमोहन सरकार को बुश से किया वायदा याद है लेकिन देश की जनता से किया एक भी वायदा याद नहीं हैं।
सरकार ने डील पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिये एक विज्ञापन जारी किया जिसमें वैज्ञानिक अनिल काकेादकर केबयान को दोहराया गया है कि देश की ऊर्जा जरुरतों के साथ अगर समझौता किया गया तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। बेहतर होता काकोदकर इतिहास पढाने से बचकर विज्ञान में कोई नया आविष्कार करते।
अब मुलायम सिंह और अमर सिंह कह रहे हैं कि अगर डील न हुई तो भाजपा आ जायेगी। यह गजब का तर्क है। यही समाजवादी नेता पहले कह रहे थे कि सोनिया आ गईं तो देश को विदेशी हाथों बेच देंगी। अब समझ में नहीं आता है कि इनका कौन सा बयान सही है? अमर सिंह जी कह रहे हैं कि मायावती उनके सॉसदों को धन देकर तोड रही हैं। गजब मायावती ने अमर सिंह का हुनर सीख लिया? लोगों को आश्चर्य है कि सपा ने यू टर्न ले लिया है। लेकिन यह झूठा सच है। मुलायम सिंह तो नरसिंहाराव की सरकार भी बचा चुके हैं। फिर यू टर्न कैसा ?करार हो या ना हो, सरकार रहे या जाये लेकिन एक नई बात हो रही है, अब भारतीयता का पाठ सोनिया पढायेंगी, देशभक्ति का पाठ मनमोहन सिंह पढायेंगे, इतिहास अनिल काकोदकर पढायेंगे, धर्मनिरपेक्षता का पाठ अमर सिंह पढायेंगे, मुलायम सिंह राजनीतिक सदाचार पढायेंगे और वेश्याऍ सतीत्व का पाठ पढायेंगी ? क्या देश की राजनीति इसी मुहान पर आ पहॅची है ?
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राजनैतिक दलों का सच हुआ उजागर

रामसेतु का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है जहां कांग्रेसी के पुरातत्वविदों ने भगवान राम के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाकर हिन्दू भावनाओं को चोट पहुंचाई है। अभी इस प्रकरण पर अंतिम सुनवाई होनी बाकी ही थी कि एक बार फिर अमरनाथ यात्रा से जुड़े प्रसंग न केवल हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं वरन् वर्तमान सत्ताधीश अलगाववादियों के समक्ष आत्मसमर्पण को भी उजागर कर रहे हैं। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा ४९.८८ एकड़ की जमीन आवंटित करने के निर्णय पर जम्मू कश्मीर के मुस्लिम नेताओं ने जिस तरह की अलगाववादी स्थितियां बनायी और जहर भरे वक्तव्य दिये उससे उनकी असलियत पूरे राष्ट्र के समक्ष आ गयी, जम्मू कश्मीर में सत्ता सुख भोग रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का छद्म पंथनिरपेक्षता का मुखौटा भी उतर गया है। इस्लाम की दुहाई देने वाली आल इंडिया हुर्रियत कांफे्रस व उसके सहयोगी दलों ने जिस प्रकार पूरी श्रीनगर घाटी व जम्मू में अमरनाथ यात्रा श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के विरोध में जोरदार हिंसक प्रदर्शन किया उसमें पाकिस्तान समर्थक नारे लगवाए, पाकिस्तान झण्डे फहराए, सी.आर.पी.एफ. वे सेना के जवानों पर हमले किए उससे यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि ये सभी राष्ट्रविरोधी आतंकवाद समर्थक हैं। आश्चर्य है कि कांग्रेस ने इनके समक्ष आत्मसमर्ण किया हुआ है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में भारत सरकार जहां अल्पसंख्यकों के विकास व उनकी धार्मिक सुरक्षा के नाम पर उनके धामिक क्रिया-कलापों को पूर्ण कराने के लिए बिजली, पानी, सड़क, आवास, खाने-पीने, चिकित्सा जैसी सुविधाओं की पूर्ति करवाने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं व हज यात्रा पर जाने वाले हजियों के साथ अपने दो-दो मंत्रियो तक को उनके साथ भेजती है। इतनी सारी सुविधाओं व सब्सिडी का असीम सुख भोगने के बाद भी इन कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने पाकिस्तानी आतंकियों का साथ लेकर अमरनाथ यात्रियों पर हमले करके अपनी गहरी बेशर्मी का प्रदर्शन किया है । इसे अच्छा ही कहेंगे कि मुस्लिमों और उसके तुष्टिकारकों दोनों का बदनुमा चेहरा एक साथ देश के सामने उजागर हो गया। जम्मू कश्मीर के मुख्य मंत्री गुलाम नवी आजाद ने पी.डी.पी. द्वारा समर्थन वापस लेने की घोषणा के बाद जहां राज्य की विस्फोटक होती स्थिति को सुधारने की दृष्टि से अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा व सुविधा का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया वहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड के अधिकार केवल पूजा तक ही सीमित कर दिया।
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कश्मीर में हिंदू विरोधी मानसिकता

कश्मीरी मुस्लिम नेता कश्मीरी हिंदुओं को मार भगाने संबंधी अपना पाप छिपाने तथा शेष भारत के हिंदुओं को बरगलाने के लिए कश्मीरियत का हवाला देते है, लेकिन असंख्य बार धोखा खाकर भी हिंदू वर्ग कुछ नहीं समझता। अभी-अभी मुफ्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर सरकार को गिराया वह कश्मीरियत की असलियत का नवीनतम उदाहरण है। प्रांत में तीसरे-चौथे स्थान की हस्ती होकर भी मुफ्ती और उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री पद रखा। विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 13 सीटे और तीसरा स्थान मिला था, जबकि पहले स्थान पर रही कांग्रेस को 20 सीटे मिली थीं, फिर भी कांग्रेस ने पीडीपी को पहला अवसर दे दिया। कांग्रेस ने आधी-आधी अवधि के लिए दोनों पार्टियों का मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला माना था। जब आधी अवधि पूरी हुई तब पहले तो मुफ्ती ने समझौते का पालन करने के बजाय मुख्यमंत्री बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकड़में कीं। अंतत: जब कांग्रेस ने अपनी बारी में अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया तो मुफ्ती ने 'नाराज न होने' का बयान दिया। तभी से वह किसी न किसी बहाने सरकार से हटने या उसे गिराने का मौका ढूंढ रहे थे। अमरनाथ यात्रा के यात्रियों के लिए विश्राम-स्थल बनाने के लिए भूमि देने से उन्हें बहाना मिल गया। इसीलिए उस निर्णय को वापस ले लेने के बाद भी मुफ्ती और उनकी बेटी ने सरकार गिरा दी। भारत का हिंदू कश्मीरी मुसलमानों से यह पूछने की ताब नहीं रखता कि जब देश भर में मुस्लिमों के लिए बड़े-बड़े और पक्के हज हाउस बनते रहे है, यहां तक कि हवाई अड्डों पर हज यात्रियों की सुविधा के लिए 'हज टर्मिनल' बन रहे है और सालाना सैकड़ों करोड़ रुपये की हज सब्सिडी दी जा रही है तब अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं के लिए अपने ही देश में अस्थाई विश्राम-स्थल भी न बनने देना क्या इस्लामी अहंकार, जबर्दस्ती और अलगाववाद का प्रमाण नहीं है?

चूंकि कांग्रेस और बुद्धिजीवी वर्ग के हिंदू यह प्रश्न नहीं पूछते इसलिए कश्मीरी मुसलमान शेष भारत पर धौंस जमाना अपना अधिकार मानते है। वस्तुत: इसमें इस्लामी अहंकारियों से अधिक घातक भूमिका सेकुलर-वामपंथी हिंदुओं की है। कई समाचार चैनलों ने अमरनाथ यात्रियों के विरुद्ध कश्मीरी मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा पर सहानुभूतिपूर्वक दिखाया कि 'कश्मीर जल रहा है'। मानों मुसलमानों का रोष स्वाभाविक है, जबकि यात्री पड़ाव के लिए दी गई भूमि वापस ले लेने के बाद जम्मू में हुए आंदोलन पर एक चैनल ने कहा कि यह बीजेपी की गुंडागर्दी है। भारत के ऐसे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने ही अलगावपरस्त और विशेषाधिकार की चाह रखने वाले मुस्लिम नेताओं की भूख बढ़ाई है। इसीलिए कश्मीरी मुसलमानों ने भारत के ऊपर धीरे-धीरे एक औपनिवेशिक धौंस कायम कर ली है। वे उदार हिंदू समाज का शुक्रगुजार होने के बजाय उसी पर अहसान जताने की भंगिमा दिखाते है। पीडीपी ने कांग्रेस के प्रति ठीक यही किया है। इस अहंकारी भंगिमा और विशेषाधिकारी मानसिकता को समझना चाहिए। यही कश्मीरी मुसलमानों की 'कश्मीरियत' है। यह मानसिकता शेष भारत अर्थात हिंदुओं का मनमाना शोषण करते हुए भी उल्टे सदैव शिकायती अंदाज रखती है। जो अंदाज छह वर्षो से मुफ्ती और महबूबा ने दिखाया वही फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर का भी था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी पार्टी ने लोकसभा में वाजपेयी सरकार के विश्वास मत के पक्ष में वोट नहीं दिया था। वह मंत्री पद का सुख भी ले रहे थे और उस पद को देने वाले के विरोध का अंदाज भी रखते थे। जैसे अभी मुफ्ती ने कांग्रेस का दोहन किया उसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा का दोहन किया। पूरे पांच वर्ष वह प्रधानमंत्री वाजपेयी से मनमानी इच्छाएं पूरी कराते रहे। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र कश्मीरी मुसलमानों की अहमन्यता और शोषण का शिकार रहा है।

जम्मू और लद्दाख भारत का पूर्ण अंग बनकर रहना चाहते है। इन क्षेत्रों को स्वायत्त क्षेत्र या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे समय से स्वयं भाजपा करती रही। फिर भी केंद्र में छह साल शासन में रहकर भी उसने फारुक अब्दुल्ला को खुश रखने के लिए जम्मू और लद्दाख की पूरी उपेक्षा कर दी। यहां तक कि पिछले विधानसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला को जिताने की खातिर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा। बावजूद इसके जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन पराजित हुआ, फारुख ने उससे तुरंत पल्ला झाड़ लिया। इस मानसिकता को समझे बिना कश्मीरी मुसलमानों को समझना असंभव है। वाजपेयी सरकार के दौरान एक तरफ फारुख अब्दुल्ला ने तरह-तरह की योजनाओं के लिए केंद्र से भरपूर सहायता ली, जबकि उसी बीच जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राज्य की 'और अधिक स्वायत्तता' के लिए प्रस्ताव पारित कराया। एक तरह से यह वाजपेयी के साथ विश्वासघात जैसा ही था। यदि वह प्रस्ताव लागू हो तो जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री होगा। साथ ही वे तमाम चीजें होंगी जो उसे लगभग एक स्वतंत्र देश बना देंगी,मगर उसके सारे तामझाम, ठाट-बाट, सुरक्षा से लेकर विकास तक का पूरा खर्चा शेष भारत को उठाते रहना होगा। इस तरह कश्मीरी मुसलमान एक ओर भारत से अलग भी रहना चाहते है और दूसरी तरफ इसी भारत के गृहमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और मौका मिले तो प्रधानमंत्री भी होना चाहते है। मुफ्ती मुहम्मद सईद, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अन्य कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के तमाम राजनीतिक लटके-झटके केवल एक भाव दर्शाते है कि वे भारत से खुश नहीं है। यही कश्मीरियत की असलियत है। कश्मीरी मुस्लिम नेतै, चाहे वे किसी भी राजनीतिक धारा के हों, शेष भारतवासियों को बिना कुछ दिए उनसे सिर्फ लेते रहना चाहते है। इस मनोविज्ञान को समझना और इसका इलाज करना बहुत जरूरी है, अन्यथा विस्थापित कश्मीरी हिंदू लेखिका क्षमा कौल के अनुसार पूरे भारत का हश्र कश्मीर जैसा हो जाएगा।
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भारत के इस्लामीकरण का खतरा

अभी कुछ दिनों पूर्व जब मैंने अपने एक मित्र और नवसृजित राजनीतिक आन्दोलन युवादल के राष्ट्रीय संयोजक विनय कुमार सिंह के साथ पश्चिम बंगाल की यात्रा की तो भारत पर मँडरा रहे एक बडे खतरे से सामना हुआ और यह खतरा है भारत के इस्लामीकरण का खतरा। पश्चिम बंगाल की हमारी यात्रा का प्रयोजन हिन्दू संहति के नेता तपन घोष सहित उन 15 लोगों से मिलना था जिन्हें 12 जून को हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुए मुस्लिम आक्रमण के बाद हिरासत में ले लिया गया था। तपन घोष को गंगासागर और कोलकाता के मध्य डायमण्ड हार्बर नामक स्थान पर जेल में रखा गया था। हम अपने मित्र के साथ 23 जून को कोलकाता पहुँचे और दोपहर में पहुँचने के कारण उस दिन तपन घोष से मिलने का कार्यक्रम नहीं बन सका और हमें अगली सुबह की प्रतीक्षा करनी पडी। अगले दिन प्रातः काल ही हमने सियालदह से लोकल ट्रेन पकडी और डायमण्ड हार्बर के लिये रवाना हो गये। कोई दो घण्टे की यात्रा के उपरांत हम अपने गंतव्य पर पहुँचे और जेल में तपन घोष सहित सभी लोगों से भेंट हुई जिन्हें अपने ऊपर हुए आक्रमण के बाद भी जेल में बन्द कर दिया गया था। जेल में हुई भेंट से पूर्व जो सज्जन हमें तपन घोष से मिलाने ले गये थे उन्होंने बताया कि हिन्दुओं का विषय उठाने के कारण उन्हें भी जेल में महीने भर के लिये बन्द कर दिया गया था परंतु उन्होंने जेल के अन्दर की जो कथा सुनाई उससे न केवल आश्चर्य हुआ वरन हमें सोचने को विवश होना पडा कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।

भारत के इस्लामीकरण की सम्भावना व्यक्त करने के पीछे दो कारण हैं जो स्थानीय तथ्यों पर आधारित हैं। एक तथ्य तो यह कि 12 जून को जो आक्रमण हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुआ उसमें अग्रणी भूमिका निभाने वाले व्यक्ति का नाम इस्माइल शेख है जिसका गंगासागर क्षेत्र में दबदबा है और यही व्यक्ति आस पास के क्षेत्रों में जल की आपूर्ति कर करोडों रूपये बनाता है पर बदले में इसकी शह पर गंगासागर से सटे क्षेत्रों में खुलेआम गोमांस की बिक्री होती है। एक ओर जहाँ देश के अन्य तीर्थ स्थलों में गोमांस की बिक्री निषिद्ध है वहीं यह क्षेत्र इसका अपवाद है क्योंकि पूरे गंगासागर में मस्जिदों का जाल है और इस्माइल शेख की दादागीरी है। रही सही कसर कम्युनिष्ट सरकार ने पूरी कर दी है और यहाँ तीर्थ कर लगता है। गंगासागर में प्रवेश करने के बाद आंखों के सामने मुगलकालीन दृश्य उपस्थित हो जाता है और ऐसा प्रतीत होता है मानों इस्लामी क्षेत्र में हिन्दू अपने लिये तीर्थ की भीख माँग रहा है।

इससे पूर्व जब लोकमंच पर इस घटना के सम्बन्ध में लिखा गया था तो आशंका व्यक्त की गयी थी कि यह पहला अवसर है जब पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट और इस्लामवादियों ने मिलकर किसी हिन्दू तीर्थ पर आक्रमण किया है। पश्चिम बंगाल की यात्रा के बाद यह आशंका पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई जब कोलकाता से गंगासागर तक पड्ने वाले क्षेत्रों की भूजनांकिकीय स्थिति के बारे में लोगों ने बताया। कुछ क्षेत्र और जिले तो ऐसे हैं जहाँ दस वर्षों में जनसंख्या की वृध्दि की दर 200 प्रतिशत रही है। कभी कभार कुछ जिलाधिकारियों या आईएएस अधिकारियों ने अपनी ओर से अपने क्षेत्र की जनसंख्या का हिसाब कर लिया और जिन लोगों ने इस विषय़ में अधिक रुचि दिखाई उनका स्थानांतरण कर दिया गया। फिर भी भगोने के एक चावल से पूरे चावल का अनुमान हो जाता है और उस अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में इस समय जनसंख्या का अनुपात पूरी तरह बिगड गया है और इसका सीधा असर इस्लामवादियों की आक्रामकता में देखा जा सकता है।


मुस्लिम घुसपैठियों की जनसंख्या से जहाँ एक ओर इस राज्य के इस्लामीकरण का खतरा उत्पन्न हो गया है वहीं कम से 1 करोड हिन्दू इस राज्य में ऐसा है जिसे देश या राज्य के नागरिक का दर्जा नहीं मिला है, एक ओर जहाँ बीते दशकों में बांग्लादेशी घुसपैठियों का स्वागत इस राज्य में राजनीतिक दलों ने दोनों हाथों में हार लेकर किया है वहीं 1971 के बाद से बांग्लादेश से आयए हिन्दुओं का नाम भी मतदाता सूची में नहीं है और यदि उन्हें नागरिक का दर्जा दिया भी गया है तो पिता का नाम हटा दिया गया है। इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए एक बंगाल के हिन्दू ने कहा कि हमें तो सरकार ने “हरामी” बना दिया और बिना बाप का कर दिया। लेकिन इस ओर किसी भी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं जाता। यही नहीं तो एक बडा खतरा यह भी है कि मुस्लिम घुसपैठी न केवल मतदाता सूची में अंकित हैं, या उनके पास राशन कार्ड है उन्होंने अपना नाम भी हिन्दू कर लिया है और सामान्य बांग्लाभाषियों के साथ घुलमिल गये हैं। यह इस्लामी आतंकवादियों और इस्लामवादियों के सबसे निकट हैं जो कभी भी राज्य की सुरक्षा और धार्मिक सौहार्द के लिये खतरा बन सकते हैं।

ऐसा नहीं है कि इस असहिष्णुता का असर देखने को नहीं मिल रहा है। जेल में एक माह बिता चुके एक हिन्दू नेता ने बताया कि डायमण्ड हार्बर जेल में 7 नं. की कोठरी ऐसी है जिसमें केवल मुसलमान कैदी हैं और उन्होंने अपनी कोठरी के एक भाग को कम्बल से ढँक रखा है और उसे “ कम्बल मस्जिद” का नाम दे दिया है। इस क्षेत्र के आसपास के स्नानागार और शौचालय में काफिरों को जाने की अनुमति नहीं है तो यही नहीं हिन्दुओं को ये लोग इस कदर परेशान करते हैं कि उन्हें शौचालय में अपने धर्म के विपरीत दाहिने हाथ का प्रयोग करने पर विवश करते हैं। मुस्लिम कैदियों की एकता और जेल के बाहर उनकी संख्या देखकर जेल प्रशासन भी उनकी बात मानने और उन्हें मनमानी करने देने के सिवा कोई और चारा नहीं देखता।

पश्चिम बंगाल में जिन दिनों हम यात्रा पर थे उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर में अमरनाथ यात्रा को लेकर चल रहे विवाद के बारे में भी सुना। जेल में तपन घोष से मिलने के बाद जब हम किसी घर में भोजन कर रहे थे तो टेलीविजन पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले पर चल रहे विरोध प्रदर्शन पर कश्मीर घाटी के पूर्व आतंकवादी और जेकेएलएफ के प्रमुख यासीन मलिक का बयान आ रहा था कि अमरनाथ यात्रा का प्रबन्धन पिछले अनेक वर्षों से मुस्लिम हाथों में है और इसकी रायल्टी से कितने ही मुस्लिम युवकों को रोजगार मिलता है। कितना भोंडा तर्क है यह कि हिन्दू तीर्थ यात्रा का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में हो क्या ये मुसलमान अजमेर शरीफ का प्रबन्धन, वक़्फ बोर्ड का प्रबन्धन, हज का प्रबन्धन हिन्दू हाथों में देंगे तो फिर अमरनाथ यात्रा का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में क्यों क्योंकि कश्मीर मुस्लिम बहुल है और मुस्लिम कभी सद्भाव से रहना जानता ही नहीं।

अमरनाथ यात्रा को लेकर जो विवाद श्राइन बोर्ड को राज्यपाल द्वारा दी गयी जमीन से उठा था उसकी जडें काफी पुरानी हैं। 2005 में भी जब तत्कालीन राज्यपाल ने अमरनात यात्रा की अवधि बढाकर 15 दिन से दो माह कर दी थी तो भी तत्कालीन पीडीपी मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसका विरोध कर इस प्रस्ताव को वापस यह कहकर किया था कि प्रदूषण होगा और सुरक्षा बलों को यात्रा में लगाना पडेगा जिससे कानून व्यवस्था पर असर होगा। बाद में सहयोगी कांग्रेस के दबाव के चलते मुफ्ती को झुकना पडा था और यात्रा की अवधि बढ गयी थी। इसी प्रकार मुख्यमंत्री रहते हुए मुफ्ती ने राज्यपाल एस.के.सिन्हा के कई निर्णयों पर नाराजगी जतायी थी। मुफ्ती ने कुछ महीने पूर्व जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने का भी सुझाव दिया था तो पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती तो खुलेआम पाकिस्तान की भाषा बोलती हैं। ऐसे में अमरनाथ यात्रा को लेकर हुआ विवाद तो बहाना है असली निशाना तो कश्मीर का इस्लामीकरण है। कश्मीर का इस्लामीकरण पूरी तरह हो भी चुका है कि वहाँ की सरकार ने घुट्ने टेक दिये और इस्लामी शक्तियों की बात मान ली। परंतु कश्मीर में हुए इस विरोध और सरकार को झुका लेने के इस्लामी शक्तियों के अभियान के अपने निहितार्थ है और ऐसे ही प्रयास स्थानीय विषयों को लेकर प्रत्येक मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में होंगे। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार के सीमावर्ती क्षेत्र अब अगले निशाने पर होंगे जब वहाँ से एक और पाकिस्तान की माँग उठेगी। इससे पूर्व कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो और देश धार्मिक आधार पर कई टुकडों में विभाजित हो जाये हमें अपनी कुम्भकर्णी निद्रा त्याग कर इस्लाम के खतरे को पहचान लेना चाहिये जो अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
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गंगासागर की घटना से उभरे कुछ प्रश्न

दिनाँक 12 जून को पश्चिम बंगाल के सुदूर क्षेत्र में एक ऐसी घटना घटी जो सामान्य लोगों के लिये सामान्य नहीं थी पर उस राज्य के लिये सामान्य से भी सामान्य थी। हिन्दू संहति नामक एक हिन्दू संगठन द्वारा “वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश” विषय पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया और उस कार्यशाला पर कोई 6,000 की मुस्लिम भीड ने आक्रमण कर दिया और इस कार्यशाला में शामिल सभी 180 लोगों पर पत्थर और गैस सिलिंडर फेंके। इस घटना में अनेक लोग घायल भी हुए और यहाँ तक कि जो 10 पुलिसवाले कार्यशाला में फँसे लोगों को बचाने आये उनकी जान के भी लाले पड गये। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह भीड प्रायोजित थी और कुछ स्थानीय कम्युनिष्ट कैडर द्वारा संचालित थी। लोगों का कहना है कि एक स्थानीय कम्युनिष्ट नेता जो अभी हाल में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में पराजित हो गये हैं उन्होंने इस पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया और स्थानीय मुसलमानों को भडकाने और एकत्र करने में सक्रिय भूमिका निभाई।

आसपास के लोगों का कहना है कि मामला ऐसे आरम्भ हुआ कि कार्यशाला में भाग लेने आये प्रतिभागी गंगासागर से स्नान करके कार्यशाला आटो से लौट रहे थे और उत्साह में नारे लगा रहे थे। आटो चलाने वाला मुस्लिम समुदाय से था और उसे भारतमाता की जय, वन्देमातरम जैसे नारों पर आपत्ति हुई और उसने आटो में बैठे लोगों से नारा लगाने को मना किया साथ ही यह भी धमकी दी कि, “ तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे तुम्हारा कुछ करना पडेगा” इतना कहकर वह स्थानीय मस्जिद में गया और कोई दस लोगों की फौज लेकर कार्यशाला स्थल वस्त्र व्यापारी समिति धर्मशाला में ले आया। इन लोगों ने कार्यशाला में जबरन प्रवेश करने का प्रयास किया तो दोनों पक्षों में टकराव हुआ और यह हूजूम चला गया। कुछ ही समय के उपरांत हजारों की संख्या में मुस्लिम समुदाय और कम्युनिष्ट कैडर मिलाकर एकत्र हो गया और कार्यशाला को घेर लिया तथा पत्थर और जलता गैस सिलिंडर कार्यशाला के अन्दर फेंकना आरम्भ कर दिया। कार्यशाला और भीड के बीच कुछ घण्टों तक युद्ध का सा वातावरण रहा और कार्यशाला में अन्धकार था जबकि भीड प्रकाश में थी। भीड अल्लाहो अकबर का नारा माइक से लगा रही थी। कार्यशाला के प्रतिरोध के चलते भीड को कई बार पीछे की ओर भागना पडा। इस संघर्ष के कुछ देर चलते रहने के बाद दस पुलिसकर्मी आये और उनके भी जान के लाले पड गये। पुलिस टीम का प्रमुख तो प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बंगाली में कह रहा था कि, “ बचेंगे भी कि नहीं” ।
घटनाक्रम किस प्रकार समाप्त हुआ किसी को पता नहीं। पुलिस के हस्तक्षेप से या स्वतः भीड संघर्ष से थक गयी यह स्पष्ट नहीं है। परंतु बाद में पुलिस से एकतरफा कार्रवाई की और भीड को साक्षी बनाकर हिन्दू संहति के प्रमुख तपन घोष पर अनेक धाराओं के अंतर्गत मुकदमा लगा दिया और गैर जमानती धाराओं में जेल भेज दिया। जिस प्रकार पुलिस ने एकतरफा कार्रवाई की उससे इस पूरे मामले के पीछे राजनीतिक मंशा और नीयत स्पष्ट है।

इस पूरे घटनाक्रम से कुछ मूलभूत प्रश्न उभरते हैं। जिनका उत्तर हमें स्वयं ढूँढना होगा। एक तो यह घटना मीडिया पर बडा प्रश्न खडा करती है और दूसरा देश में हिन्दुत्व के विरोध में संगठित हो रही शक्तियों पर। गंगासागर जैसे हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थल पर इतना विशाल साम्प्रदायिक आक्रमण हुआ और तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया संवेदनशून्य बना रहा है। आखिर क्यों? इसके पीछे दो कारण लगते हैं। एक तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्टों के खूनी इतिहास को देखते हुए यह कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि इसमें कोई मृत्यु नहीं हुई थी। दूसरा इस विषय को उठाने का अर्थ था कि किसी न किसी स्तर पर इस पूरे मामले की समीक्षा भी करनी पड्ती और इस समीक्षा में पश्चिम बंगाल में उभर रहे हिन्दुत्व का संज्ञान भी लेना पडता जिसके लिये भारत का मीडिया तैयार नहीं है। तो क्या माना जाये कि मीडिया अब यथास्थितिवादी हो गया है और वामपंथ का सैद्धांतिक विरोध करने को तैयार नहीं है। या फिर यह माना जाये कि देश में अब उस स्तर की पत्रकारिता नहीं रही जो किसी परिवर्तन की आहट को पहचान सके। यही भूल भारत की पत्रकारिता ने 2002 में गोधरा के मामले को लेकर भी की थी और सेकुलरिज्म के चक्कर में जनता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को भाँप न सकी थी। देश में हिन्दू- मुस्लिम समस्या बहुत बडा सच है और इससे मुँह फेरकर इसका समाधान नहीं हो सकता। शुतुरमुर्ग के रेत में सिर धँसाने से रेत का तूफान नहीं रूकता और न ही कबूतर के आंख बन्द कर लेने से बिल्ली भाग जाती है। आज भारत का मीडिया अनेक जटिल राष्ट्रीय मुद्दों पर पलायनवादी रूख अपना रहा है। इसका सीधा प्रभाव हमें मीडिया के वैकल्पिक स्रोतों के विकास के रूप में देखने को मिल रहा है। गंगासागर में हुई इस घटना का उल्लेख किसी भी समाचारपत्र ने नहीं किया परंतु अनेक व्यक्तिगत ब्लाग और आपसी ईमेल के आदान प्रदान से यह सूचना समस्त विश्व में फैल गयी और लोगों ने पश्चिम बंगाल में स्थानीय प्रशासन को हिन्दू संहति के नेता तपन घोष की कुशल क्षेम के लिये सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। परंतु यह विषय भी अंग्रेजी ब्लागिंग तक ही सीमित रहा और इस भाषा में जहाँ यह विषय छाया रहा वहीं हिन्दी ब्लागिंग में इसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा गया। हिन्दी ब्लागिंग में अब भी काफी प्रयास किये जाने की आवश्यकता और मीडिया का विकल्प बनने के लिये तो और भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है। लेकिन जिस प्रकार अंग्रेजी ब्लागिंग जगत ने तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया की उपेक्षा के बाद भी गंगासागर में आक्रमण के विषय को अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया उससे यह बात तो साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया अनुत्तरदायित्व और पलायनवादी रूख से उत्पन्न हो रही शून्यता को भरने के लिये ब्लागिंग पत्रकारिता की विधा के रूप में विकसित हो सकती है और इसके सम्भावनायें भी हैं।

गंगासागर में हिन्दू मुस्लिम संघर्ष या जिहादी आक्रमण से एक और गम्भीर प्रश्न उभर कर सामने आया है और वह है इस्लामवादी-वामपंथी मिलन का। गंगासागर की घटना के आसपास ही समाचारपत्रों में समाचार आया था कि केरल राज्य में माओवादियों और इस्लामवादियों ने बैठक कर यह निर्णय लिया है कि वे तथाकथित “ राज्य आतंकवाद”, “ साम्राज्यवाद” और हिन्दूवादी शक्तियो” के विरुद्ध एकजुट होकर लडेंगे। गंगासागर में हिन्दू कार्यशाला पर हुआ मुस्लिम- कम्युनिष्ट आक्रमण इस गठजोड का नवीनतम उदाहरण है। गंगासागर पर आक्रमण के अपने निहितार्थ हैं। यह तो निश्चित है कि इतनी बडी भीड बिना योजना के एकत्र नहीं की जा सकती और यदि यह स्वतः स्फूर्त भीड थी तो और भी खतरनाक संकेत है कि हिन्दू तीर्थ पर आयोजित किसी हिन्दू कार्यशाला पर आक्रमण की खुन्नस काफी समय से रही होगी। जो भी हो दोनों ही स्थितियों में यह एक खतरे की ओर संकेत कर रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है किसी भी समुदाय या संगठन को देश की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर विचार विमर्श का अधिकार है और यदि इस अधिकार को आतंकित कर दबाने का प्रयास होगा और राजसत्ता उसका समर्थन करेगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। गोधरा के सम्बन्ध में ऐसी स्थिति का सामना हम पहले कर भी चुके हैं फिर भी कुछ सीखना नहीं चाहते। आज देश के सामने इस्लामी आतंकवाद अपने भयावह स्वरूप में हमारे समक्ष है अब यदि उसका रणनीतिक सहयोग देश के एक और खतरे माओवाद और कम्युनिज्म के नवीनतम संस्करण से हो जाता है तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा। यदि प्रशासन और सरकार या देश का बुद्धिजीवी समाज या फिर मीडिया जगत इस रणनीतिक सम्बन्ध की गम्भीरता को समझता नहीं तो इसकी प्रतिरोधक शक्तियों का सहयोग सभी को मिलकर करना चाहिये। अच्छा हो कि गंगासागर से उभरे प्रश्नों का ईमानदार समाधान करने का प्रयास हम करें।
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FRIENDS OF HINDU SAMHATI
Registered in: New York, USA. Contact:
hindusamhati@gmail.com


June 13, 2008


The Friends of Hindu Samhati, USA unequivocally condemns today's gruesome attack on the Hindu Samhati training camp at Ganga Sagar (West Bengal) by a murderous mob of local Muslims, at least 6000-7000 strong, starting Thursday (June 12, 2008).

Ganga Sagar is a very reknowned Hindu Tirtha Kshetra (Place of Pilgrimage) where the sacred Ganga River has a confluence with the Bay of Bengal. Ganga Sagar is located on the western edge of the Sunderban Delta on Sagar Island. At the edge of Sagar town - adjacent to the beach - is the ancient temple dedicated to Kapil Muni, the sage responsible for initiating the chain of events that ultimately resulted in Mother Ganga descending to the earth from heaven and giving mankind an opportunity to wash away its sins in her pure water. The earliest mention of this sacred place is found in the Mahabharata where a learned sage explains to Bhishma the significance of taking a dip at the confluence of Ganga Sagar. Millions of Hindu pilgrims visit this holy place all year round to take a dip in the ho,y Ganges, particularly during the Kumbha Mela and Makara Sankranti festivities.

Since this morning (Thursday, 12 June, 2008), Hindu Samhati had started conducting a training camp and workshop on the current socio-political scenario to 180 men, women and children in the peaceful and serene surroundings of Ganga Sagar.


Sri Tapan Kumar Ghosh, the National Convenor of Hindu Samhati is conducting the main sessions of this camp. Other eminent people and local notables are also present. Everything went on smoothly until this evening, when suddenly the camp building was surrounded by a murderous mob of about 6000-7000 local Muslims bent on mayhem. The Muslim attackers were well-prepared and have been throwing gas cylinders and petrol bombs (molotov cocktails) and kept on attacking incessantly for a few hours, to incinerate the whole camp. The entire camp building has been reduced to ashes. All 180 of our camp attendees (a large number of them women and children) and 15 policemen are trapped inside this burning camp along with our dear leader Sri Tapan Kumar Ghosh.

Already 14-15 attendees of the camp have been injured in the carnage, and at least 7 of them are in very critical condition and are not expected to survive. The names of the critically wounded include: Subodh Kundu, Bivas Mondal, Gopinath Biswas, Prasenjit Sardar and Gautam Halder, apart from 2 others that could not be identified because of serious facial burn injuries
.

the camp, the rampaging Muslim mob has attacked and seriously damaged some nearby houses of the local Hindus. They have also seriously damaged and set fire to an adjoining Kali temple and a 'Yatri Nivas' (Travellers' Lodge) run by the Vishwa Hindu Parishad. The fireball attacks have slightly abated but the vicious threats and stone pelting continues – all attuned to the collective chants of both 'naara-e-takbir, allahu akbar' (allah is the Greatest) and 'inquilab zindabad' (Long Live the Revolution).

Sagar island at the Ganga Sagar – the confluence of the Ganga and the Bay of BNine camp attendees are still missing and may have been kidnapped by the Muslim mob. Their names are:
Gautam Mondal, Kartick Biswas, Ram Shil, Palash Roy, Gopal Dolui, Piyush Senapati, Ashok Das, Shankar Nandi and Subhash Roy. We are very apprehensive about their well being.
The local police-station (Thana) has unfortunately sent in a small posse of 15 policemen who are totally inadequate for resisting such a huge Jehadi mob armed to the teeth. The police could not control the mob of Muslims even after firing several rounds.
As of Friday morning (June 13, 2008), as per the recent information received by us, the assault by the Muslim mob at Hindu Samhati campsite in Gangasagar is still on, although the intensity has abated a little bit. Some more police force has reached the trouble spot, though the large force required to subdue a mob of this size and temperament is nowhere in sight. A recent update by phone from the camp is that along with the 14-15 attendees who were injured, 2 policemen have also been seriously injured due to the assault by the Muslim mob. Scores of other attendees to the camp has sustained minor injuries in this most cowardly assault including the National Convener of Hindu Samhati, Sri Tapan Kumar Ghosh. Thankfully his injuries are not serious.
Apart from throwing petrol bombs to incinerate the camp building, the Muslim mob also tried to breach the wall by exploding cooking gas cylinders against it. Failing to break into engal – is one of the holiest pilgrimages of India, where millions of Hindus from all over India and the world gather during the 'Makar Sankranti' (Winter Solstice) for the 'Punya Snan' (Holy Bath) every year. If a peaceful Hindu gathering can be assaulted with such viciousness and impunity in one of the most sacred Hindu sites of pilgrimage, one shudders to think what lies in store for the Hindus of West Bengal a few years hence.

In a travesty of justice, instead of arresting the attackers, the Police in West Bengal have slapped a non-bailable arrest warrant against Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists. The concocted charges against them are listed as being: "Incitement and Instigation for Rioting" and "Disruption of Communal Harmony".

As per the latest news received from the ground, Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists have been framed and arrested for inciting communal disharmony by Kakdwip Thana (Police Station) in West Bengal.


1) The Friends of Hindu Samhati, USA strongly protests this outrageous attack on a peaceful, indoor religious function that was held behind closed doors. There was no provocation for this vicious assault nor was any outdoor procession held at the location. It is pitiable that the police could not provide security to its peace loving citizens and is instead insisting on closing the camp down.

2) We strongly urge the police and the local administration to arrest all the perpetrators of this heinous crime immediately and provide security to continue the camp at a nearby, alternate location.

3) We deeply deplore the travesty of justice in West Bengal and appeal to the police and the local administration to remove the framed charges and release Sri Tapan Kumar Ghosh and 15 Hindu Samhati activists immediately.

4) We request all friends and readers in India and abroad to call up the Indian administration to inquire about this incident. At least, they will know that people still care about justice and peace in India. The Numbers
to Call are:
a) District Magistrate, South 24 ParganasPhone: 033-24793713Email: dm-ali@wb.nic.in
b) Mr. Praveen Kumar
District Superintendent of Police, South 24 Parganas, West Bengal
Mobile Phone: 91-98300-23142

c) Ganga Sagar Police-Station/Thana
Officer in Charge
Phone: 91-3210-240-205

d) Mr. Tomal Das
Officer in Charge
Kakdwip Thana (Police Station)Mobile Phone: 98305-99612
e) Sub-Divisional Police Officer--Senior to Officer in ChargePhone: 94349-66000
5) Finally, please show your solidarity with the beleaguered Hindus of West Bengal, and spread the news of this heinous outrage among your friends, co-workers and family.



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बराक ओबामा की उम्मीदवारी

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो चुकी है और यह तय हो गया है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट की ओर से क्रमशः प्रत्याशी कौन होगा। रिपब्लिकन की ओर से जान मैक्केन का नाम काफी पहले ही घोषित हो गया था और डेमोक्रेट में काँटे की टक्कर चल रही थी कि बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन के बीच कौन बाजी मार ले जाता है। अंततोगत्वा अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के बराक ओबामा को डेमोक्रेट प्रत्याशी बनने में सफलता प्राप्त हुई। बराक ओबामा के प्रत्याशी बनने की सम्भावनाओं के मध्य ही अनेक कथायें सामने आ रही थीं। अब जबकि बराक ओबामा अमेरिका में अश्वेत होकर भी देश के सर्वोच्च पद के लिये चुनाव लड्ने जा रहे हैं तो इस रूझान के अनेक अंतरराष्ट्रीय मायने भी हैं। एक ओर इसे अमेरिका में ऐंग्लो सेक्शन समुदाय के वर्चस्व के समापन का आरम्भ तक भी मान कर चला जा रहा है तो वहीं इसे लेकर विश्व में अमेरिका पूँजीवादी प्रभुत्व के लिये भी एक चुनौती मानकर चला जा रहा है। भारत के लोगों की अमेरिका की राजनीति में प्रत्यक्ष कोई भूमिका नहीं है परंतु इस बार भारत में अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जिज्ञासा काफी प्रबल है।

जब अमेरिका में दो प्रमुख दलों की ओर से प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया चल रही थी उसी समय से भारत में बराक ओबामा को लेकर काफी उत्साह का वातावरण था। अब जबकि यह निश्चित हो गया है कि ओबामा नवम्बर के चुनाव में रिपब्लिकन जान मैक्केन को टक्कर देंगे तो ओबामा के सम्बन्ध में दंतकथाओं का सिलसिला तेज हो गया है।

भारत मूल रूप से एक भावुक देश है और यहाँ के लोग कुछ सूचनाओं की गहराई में गये बिना सामने वाले के साथ स्वयं को भावना के स्तर पर जोड लेते हैं। ऐसा ही भारत में कुछ वर्गों के साथ ओबामा के सम्बन्ध में हो रहा है। भारत के समाचार पत्रों में जब यह समाचार आया कि ओबामा ने अपने पूरे अभियान में कुछ प्रतीक अपने साथ रखे और उसमें हनुमान जी का लाकेट भी था तो इसे भावुकता के साथ लिया गया। लेकिन क्या यह उचित है कि अमेरिका जैसे देश के राष्ट्रपति के चुनाव की समीक्षा अपने राष्ट्रीय हितों और अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में करने के स्थान पर भावुकता के आधार पर की जाये। वैसे जहाँ तक ओबामा के अपने साथ हनुमान जी के लाकेट को रखने का प्रश्न है तो उन्होंने इसे अमेरिका की प्रसिद्ध पाप गायिका मैडोना के साथ रख रखा था। इस विषय पर जब मैंने अमेरिका में रहने वाले भारतीयों से प्रश्न किया तो उन्होंने कहा कि इस विषय को भावना से जोडना कतई उचित नहीं होगा क्योंकि इसे ओबामा का हिन्दू धर्म के प्रति लगाव नहीं वरन पश्चिम में एंटीक पीस रखने के शौक से जोड्कर देखना चाहिये।

इसी प्रकार भारत के समाचार पत्रों में इस आशय के समाचार भी प्रकाशित हुए कि ओबामा के पूरे अभियान में महात्मा गान्धी उनके प्रेरणास्रोत रहे। यहाँ भी यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि पश्चिम में गान्धीजी को मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मण्डॆला जैसे अश्वेत उद्धारकों के साथ रंगभेद के विरुद्ध उनके अभियान के लिये खडा किया जाता है और इसके पीछे भी ओबामा के भारत के प्रति लगाव की भावना देखना जल्दबाजी होगी।

बराक ओबामा के प्रति एक भारतवासी का दृष्टिकोण क्या होना चाहिये। मेरी दृष्टि में विशुद्ध व्यावहारिक कि ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से विश्व राजनीति किस दिशा में जायेगी और भारत का इस पर क्या प्रभाव होगा। इस कसौटी पर कसते समय एक ही विचार ध्यान में आता है कि अमेरिका इस समय युद्ध की स्थिति में है उस युद्ध के साथ चाहे अनचाहे सभी देशों का हित जुड गया है और भारत का हित तो विशेष रूप से। यह युद्ध है इस्लामवाद के विरुद्ध युद्ध।

11 सितम्बर 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आक्रमण के बाद अमेरिका ने इस्लाम के नाम पर कट्टरपंथी रास्ता अपनाने वाली शक्तियों को अपने निशाने पर लिया और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध को लेकर अमेरिका की नीति उचित रही अनुचित यह तो अलग चर्चा का विषय है पर इस युद्ध को लेकर आज विश्व में ऐसी स्थिति निर्मित हो चुकी है कि इस युद्ध में कोई भी तटस्थ नहीं रह सकता।

विशेषकर भारत अपनी विशेष परिस्थितियों के कारण तो बिलकुल भी तटस्थ नहीं रह सकता। इसलिये इस पृष्ठभूमि में बराक ओबामा का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। बराक ओबामा ने विदेश नीति के सम्बन्ध में जो बातें कही हैं उनमें एक तो यह कि वे इराक से अमेरिकी सेनाओं को तत्काल वापस बुला लेंगे और दूसरा वे ईरान के राष्ट्रपति के साथ आमने सामने बैठकर बात करेंगे। इन दोनों ही बयानों से स्पष्ट है कि बुश की आक्रामक विदेश नीति को बदलना चाहते हैं। परंतु इन दोनों ही स्थितियों में कोई भी एकपक्षीय कदम घातक होगा। यदि आज इराक को इस स्थिति में छोड्कर अमेरिका चला जाता है तो वहाँ का प्रशासन किसी भी प्रकार इराक को सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं होगा और पाकिस्तान और अफगानिस्तान की भाँति इराक भी अल कायदा और तालिबान का नया अड्डा बन जायेगा जो कि पाकिस्तान के कबायली क्षेत्रों में पहले से ही पुनः संगठित हो चुके अल कायदा को नया जीवन प्रदान करने जैसा होगा।


इसी प्रकार एक बडा प्रश्न ईरान का है जिस पर किसी का ध्यान अभी नहीं जा रहा है। जिस प्रकार ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने बार बार इजरायल को विश्व के मानचित्र से मिटाने या इसे समाप्त करने की बात दुहराई है वह अब लफ्फाजी के स्तर से आगे जाकर माथे पर चिंता की लकीरें डालने लगी है। जिन लोगों को अभी अहमदीनेजाद के बयानों का निहितार्थ समझ में नहीं आता उन्हें पूरे इस्लामवादी आन्दोलन का स्वरूप समझना चाहिये। इस्लामवादी आन्दोलन की मूल प्रेरणा और इस्लामवादी आतंकवाद का पूरा ताना बाना इजरायल- फिलीस्तीनी संघर्ष और मुस्लिम भूमि पर पश्चिमी देशों द्वारा थोपा गये यहूदी देश की अवधारणा के इर्द गिर्द बुना गया है। अहमदीनेजाद जो कि स्वयं एक कट्टरपंथी इस्लामवादी की श्रेणी में आते हैं और शिया परम्परा के अनुसार बारहवें पैगम्बर या महदी के अवतरण में विश्वास करते हुए स्वयं में कुछ चमत्कारिक शक्तियों का अंश देखकर एक विशिष्ट चिंतन पर चलते हैं इजरायल के विरुद्ध अपने बयानों के निहितार्थ समझने को विवश करते हैं।


अहमदीनेजाद ने पिछ्ले वर्ष अमेरिका के राष्ट्रपति को और फिर जर्मनी की चांसलर को एक खुला पत्र लिखकर अपने उद्देश्य स्पष्ट कर दिये थे कि वे अमेरिका विरोधी और पश्चिम विरोधी धरातल पर विश्व की अनेक शक्तियों को एकत्र करना चाहते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर द्वारा यहूदियों के व्यापक जनसन्हार को एक कपोलकल्पित और गलत इतिहास की संज्ञा देने के लिये ईरान में राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इतिहासकारों का एक सम्मेलन बुलाया जो इतिहास के इस तथ्य को सत्य नहीं मानते। अहमदीनेजाद का मानना है कि इस कपोलकल्पित ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर यहूदियों ने पश्चिम को बन्धक बना रखा है और उसी का हवाला देकर विशेषाधिकार प्राप्त किये हैं। ईरान के राष्ट्रपति के ये प्रयास उनके इस्लामवादी आन्दोलन के नेता बनने की उनकी महत्वाकांक्षाओं की ओर संकेत तो करते ही हैं विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के गठजोड की कडी बनते भी दिखते हैं। ऐसी परिस्थिति में बराक ओबामा का फिलीस्तीन के प्रति नरम रूख अपनाना विश्व स्तर पर इस्लामवाद प्रतिरोधी शक्तियों को कमजोर करेगा।


इसके अतिरिक्त कुछ और भी कारण है जिन्हें लेकर बराक ओबामा की उम्मीदवारी प्रश्न खडा करती है। बराक ओबामा निश्चित रूप से एक अच्छे वक्ता, लोकप्रिय नेता हैं पर एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमताओं पर सन्देह है। अनेक अवसरों पर बराक ओबामा ने दबाव में आकर अपनी स्थिति बदल दी या उस पर सफाई दे डाली। जैसे अमेरिका के जिस अश्वेत चर्च से वे जुडे थे उस शिकागो के ट्रिनीटी यूनाइटेड चर्च आफ क्राइस्ट के पास्टर जेर्मियाह राइट जूनियर के 11 सितम्बर 2001 के अमेरिका पर आक्रमण सम्बन्धी बयान कि यह अमेरिका के कर्मों का फल है, के बाद ओबामा ने वह चर्च छोड दिया। इसी प्रकार अमेरिका के यहूदियों के समक्ष भावुक भाषण देकर जब उन्होंने जेरुसलम को अविभाजित इजरायल की राजधानी रखने का वादा किया तो फिलीस्तीनी अथारिटी के मोहम्मद अब्बास की आपत्ति के बाद ओबामा यहूदियों के समक्ष कही गयी अपनी बात से मुकर गये। यह ओबामा के कमजोर होने का प्रमाण है।

बराक ओबामा के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने भारत के साथ अमेरिका के परमाणु समझौते के सम्बन्ध में सीनेट में जो संसोधन का प्रस्ताव रखा था उसके अनुसार भारत को कोई भी विशेषाधिकार न दिया जाये और भारत को 123 समझौते की परिधि में लाने के लिये उससे सीटीबीटी पर हस्ताक्षर के लिये कहा जाये। अब यदि बराक ओबामा का प्रशासन कार्यभार सम्भालता है तो भारत के ऊपर सीटीबीटी पर हस्ताक्षर और विशेष सहूलियतों का दौर समाप्त हो जायेगा। इसी के साथ कश्मीर के विषय में भी ओबामा की राय जो है उससे पाकिस्तानी प्रोपेगैण्डा के आधार पर कश्मीर विश्व के विभिन्न कूट्नीतिक मंचों पर फिर से प्रमुख विषय बन सकता है क्योंकि बराक ओबामा की राय में अल-कायदा के विरुद्ध पाकिस्तान का सहयोग प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि पाकिस्तान का ध्यान कश्मीर के मामले में न बँटे। ओबामा के इस रूख से कश्मीर में आतंकवादी संगठनों को नया जीवन मिल सकता है और वैश्विक जिहाद को नया आयाम। आज इस विषय पर बहुत ध्यान पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि बराक ओबामा जहाँ एक ओर अमेरिका में आप्रवासियों के लिये सम्भावनायें जगाते हैं वहीं उनका अति वामपंथी और इस्लामवाद के प्रति अपेक्षाकृत नरम होना विश्व के वर्तमान परिदृश्य के लिये नकारात्मक विकास है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अन्ध अमेरिका विरोध के नाम पर कहीं उन शक्तियों के प्रति सहानुभूति न दिखाने लगें जो हमारी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा हैं। आर्थिक नीतियों के आधार पर या वैश्व्वीकरण के नाम पर अमेरिका विरोध के नाम पर वामपंथी-इस्लामवादी धुरी का अंग बनने से भी हमें अपने आप को रोकना होगा।
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आतंकवाद विरोधी मुस्लिम पहल के निहितार्थ

31 मई दिन शनिवार, दिल्ली के रामलीला मैदान पर प्रमुख इस्लामी संगठनों की पहल पर एक आतंकवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन एक बार फिर सहारनपुर स्थित प्रसिद्ध मदरसा दारूल उलूम देवबन्द की पहल पर आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में मुख्य रूप से दारूल उलूम देवबन्द, जमायत उलेमा ए हिन्द, जमायत इस्लामी, नदवातुल उलेमा लखनऊ और मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्यों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधित्व का दावा किया गया। दारूल उलूम देवबन्द के मुख्य मुफ्ती हबीबुर्रहमान द्वारा तथाकथित फतवे पर हस्ताक्षर किये गये जिसके प्रति सभी उपस्थित लोगों ने सहमति व्यक्त की और इस फतवे के अनुसार किसी भी प्रकार की अन्यायपूर्ण हिंसा की निन्दा की गयी और जेहाद को रचनात्मक और आतंकवाद को विध्वंसात्मक घोषित किया गया। आयोजकों के दावे के अनुसार इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से तीन लाख लोगों ने भाग लिया। सम्मेलन में आने वालों में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग शामिल थे।


इससे पूर्व सहारनपुर स्थित प्रमुख इस्लामी शिक्षा केन्द्र और तालिबान के प्रमुख सदस्यों मुला उमर और जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अजहर के प्रेरणास्रोत रहे दारूल उलूम देवबन्द ने 25 फरवरी को भी देश भर के विभिन्न मुस्लिम पंथों के उलेमाओं को आमंत्रित कर आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया था। उस पहल को अनेक लोगों ने ऐतिहासिक पहल घोषित किया था और एक बार फिर रामलीला मैदान पर हुई आतंकवाद विरोधी सभा को एक सकारात्मक पहल माना जा रहा है। परंतु जिस प्रकार फरवरी माह में हुए उलेमा सम्मेलन के निष्कर्षों पर देश में आम सहमति नहीं थी कि ऐसी पहल का इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैला रहे लोगों पर क्या प्रभाव होगा उसी प्रकार का प्रश्न एक बार फिर आतंकवाद विरोधी सम्मेलन से भी उभरता है।


इस सम्मेलन में फतवे की भाषा और वक्ताओं का सुर पूरी तरह उलेमा सम्मेलन की याद दिलाता है। सम्मेलन में पूरा जोर इस बात पर था कि किस प्रकार यह सिद्ध किया जाये कि इस्लाम और पैगम्बर की शिक्षायें आतंकवाद को प्रेरित नहीं करती और इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है। इसके साथ एक बार फिर जेहाद को इस्लाम का अभिन्न अंग घोषित करते हुए उसे आतंकवाद से पृथक किया गया। इसमें ऐसा नया क्या है जिसको लेकर इस सम्मेलन या फतवे को ऐतिहासिक पहल घोषित किया जा रहा है। जब से इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हुआ है तब से इस्लामी बुध्दिजीवी और धर्मगुरु इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म बता रहे हैं और जेहाद को एक शांतिपूर्ण आन्तरिक सुधार की प्रक्रिया घोषित कर रहे हैं परंतु उनके कहे का कोई प्रभाव उन आतंकवादी संगठनों पर नहीं हो रहा है जो जेहाद और इस्लाम के नाम पर आतंकवाद में लिप्त हैं। वास्तव में एक बार फिर इस सम्मेलन ने हमारे समक्ष एक बडा प्रश्न खडा कर दिया है कि क्या इस्लामी संगठन, धर्मगुरु या फिर बुद्धिजीवी इस्लामी आतंकवाद का समाधान ढूँढने के प्रति वाकई गम्भीर हैं। उनके प्रयासों की गहराई से छानबीन की जाये तो ऐसा नहीं लगता।


वास्तव में इस्लामी आतंकवाद को एक सामान्य आपराधिक घटना के रूप में जो भी सिद्ध करने का प्रयास करता है वह इसे प्रोत्साहन देता है। इस्लामी आतंकवाद एक वृहद इस्लामवादी आन्दोलन का एक रणनीति है और इस आन्दोलन का उद्देश्य राजनीतिक इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करना है। समस्त समस्याओं का समाधान इस्लाम और कुरान में है, विश्व की सभी विचारधारायें असफल सिद्ध हो चुकी हैं और इस्लाम ही सही रास्ता दिखा सकता है, पश्चिम आधारित विश्व व्यवस्था अनैतिकता फैला रही है और उसके मूल स्रोत में अमेरिका है इसलिये अमेरिका का किसी भी स्तर पर विरोध न्यायसंगत है, इस्लामी आतंकवाद जैसी कोई चीज नहीं है यह समस्त विश्व में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार का परिणाम है, आज मीडिया इस्लाम को बदनाम कर रहा है, फिलीस्तीन में मुसलमानों के न्याय हुआ होता तो और इजरायल का साथ अमेरिका ने नहीं दिया होता तो इस्लामी आतंकवाद नहीं पनपता। ऐसे कुछ तर्क राजनीतिक इस्लाम के हैं जो इस्लामवादी आन्दोलन का प्रमुख वैचारिक अधिष्ठान है और इन्हीं तर्कों के आधार पर इस्लाम की सर्वोच्चता विश्व पर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। क्या किसी भी इस्लामी संगठन ने इन तर्कों या उद्देश्यों से अपनी असहमति जताई है। इसका स्पष्ट उत्तर है कि नहीं।


31 मई को रामलीला मैदान में जो तथाकथित आतंकवाद विरोधी रैली हुई उसमें भी जिस प्रकार के तेवर में बात की गयी वह यही संकेत कर रहा था कि इस रैली में मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा को ही प्रोत्साहित किया गया और अमेरिका के विरोध में जब भी वक्ताओं ने कुछ बोला तो खूब तालियाँ बजीं। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि अमेरिका शैतान है या नहीं यहाँ प्रश्न यह है कि एक ओर आतंकवाद को इस्लाम से पृथक कर और फिर इस्लामी आतंकवाद के मूल में छिपी अवधारणा को बल देकर इस्लामी संगठन किस प्रकार आतंकवाद से लड्ना चाहते हैं। किसी तर्क का सहारा लेकर यदि आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराये जाने का प्रयास हो तो फिर आतंकवाद की निन्दा करना एक ढोंग नहीं तो और क्या है। आज बडा प्रश्न जो हमारे समक्ष है वह राजनीतिक इस्लाम की महत्वाकांक्षा और इस्लामवादी आन्दोलन है जो इस्लाम में ही सभी समस्याओं का समाधान देखता है। वर्तमान समय में अंतरधार्मिक बहसों में भाग लेने वाले और ऐसी बहसें आयोजित कराने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी भी आतंकवाद के सम्बन्ध में ऐसी अस्पष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं कि उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। ऐसे ही एक मुस्लिम विद्वान हैं डा. जाकिर नाईक उनके कुछ उद्गार सुनकर कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। इस सम्बन्ध में कुछ यू ट्यूब के वीडियो प्रस्तुत हैं। जिन्हें देखकर कोई भी सोचने पर विवश हो सकता है कि मुस्लिम बुध्दिजीवी किस प्रकार इस्लामवादी आन्दोलन का अंग हैं और अंतर है तो केवल रणनीति का है। http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI

http://www.youtube.com/watch?v=KAdwy5IJzj4&feature=related

http://www.youtube.com/watch?v=_MtddCCuaC8&feature=related

http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI&feature=related

31 मई के सम्मेलन के सन्दर्भ में जाकिर नाइक का उल्लेख करना इसलिये आवश्यक हुआ कि आज उन्हें एक नरमपंथी और उदारवादी मुसलमान माना जा रहा है जो बहस में विश्वास करता है परंतु उनके भाव स्पष्ट करते हैं कि आज आतंकवाद की समस्या को एक प्रतिक्रिया के रूप में लिया जा रहा है और इसके लिये मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का सृजन किया जा रहा है। मुस्लिम उत्पीडन की इस अवधारणा का भी वैश्वीकरण हो गया है। एक ओर जहाँ इजरायल और फिलीस्तीन का विवाद समस्त विश्व के इस्लामवादियों के लिये आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने का सबसे बडा हथियार बन गया है वहीं स्थानीय स्तर पर भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा रची जाती है और इसका शिकार बनाया जाता है देश के पुलिस बल और सुरक्षा एजेंसियों को।


रामलीला मैदान में जो भी पहल की गयी उसकी ईमानदारी पर सवाल उठने इसलिये भी स्वाभाविक हैं कि इस सम्मेलन या रैली में एक बार भी इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले वैश्विक और भारत स्थित संगठनों के बारे में इन मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपनी कोई स्थिति स्पष्ट नहीं की। इन तथाकथित शांतिप्रेमियों ने एक बार भी सिमी, इण्डियन मुजाहिदीन, लश्कर, जैश का न तो उल्लेख किया और न ही उनकी निन्दा की या उनके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट की। वैसे आज तक ओसामा बिन लादेन के उत्कर्ष के बाद से विश्व के किसी भी इस्लामी संगठन ने उसके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की और अमेरिका पर किये गये उसके आक्रमण को मुस्लिम उत्पीडन की प्रतिक्रिया या फिर आतंकवादी अमेरिका पर आक्रमण कह कर न्यायसंगत ही ठहराया। सम्मेलन में जयपुर में आतंकवादी आक्रमण में मारे गये लोगों की सहानुभूति में भी कुछ नहीं बोला गया और पूरा समय इसी में बीता कि इस्लाम को आतंकवाद से कैसे असम्पृक्त रखा जाये। ऐसे में एक बडा प्रश्न हमारे समक्ष यह है कि आतंकवाद के विरुद्ध इस युद्ध में हम इन इस्लामी संगठनों की पहल को लेकर कितना आश्वस्त हों कि इससे सब कुछ रूक जायेगा। क्योंकि समस्या के मूल पर प्रहार नहीं हो रहा है।


25 फरवरी को दारूल उलूम देवबन्द ने उलेमा सम्मेलन किया और एक माह के उपरांत ही मध्य प्रदेश में सिमी के सदस्य पुलिस की गिरफ्त में आये और मई की 13 दिनाँक को जयपुर में आतंकवादी आक्रमण हो गया। जुलाई 2006 को मुम्बई में स्थानीय रेल व्यवस्था पर हुए आक्रमण के बाद अब तक 9 श्रृखलाबद्ध सुनियोजित विस्फोट हो चुके हैं और इन सभी विस्फोटों में भारत के मुस्लिम संगठनों और सदस्यों की भूमिका रही है। इससे स्पष्ट है भारत में मुसलमान वैश्विक जेहादी नेटवर्क से जुड गया है और वह मुस्लिम उत्पीडन की वैश्विक और स्थानीय अवधारणा से प्रभावित हो रहा है। जब तक इस्लामी संगठन इस अवधारणा के सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करते और आतंकवाद के स्थान पर आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध फतवा नहीं जारी करते उनकी पहल लोगों को गुमराह करने के अलावा और किसी भी श्रेणी में नहीं आती।


इस्लामी आतंकवाद आज इस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ से उससे लड्ने के लिये एक समन्वित प्रतिरोध की आवश्यकता है और ऐसी पहल जो पूरे मन से न की गयी हो या जिसमें ईमानदारी का अभाव हो उससे ऐसी प्रतिरोधक शक्ति कमजोर ही होती है जिसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। हमारे देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी-उदारवादी लाबी ऐसे प्रयासों को महिमामण्डित कर प्रस्तुत करती है ताकि इस्लामी आतंकवाद के मूल स्रोत, विचारधारा और प्रेरणा पर बह्स न हो सके। ऐसे प्रयासों के मध्य हमें अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है और साथ ही इस पूरी समस्या को एक समग्र स्वरूप में व्यापक इस्लामवादी आन्दोलन के रणनीतिक अंग के रूप में भी देखने की आवश्यकता है।
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कर्नाटक जनादेश के मायने

कर्नाटक की स्थिति अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है और इस राज्य में पहली बार भाजपा अपने बलबूते पर सरकार बनाने जा रही है। चुनाव से पूर्व के तमाम अनुमानों को भी इस चुनाव परिणाम ने ध्वस्त कर दिया है और जो लोग किंगमेकर बनने का या राज्य में सरकार की चाभी अपने हाथ में रखने का स्वप्न संजोये थे जनता ने उन्हें ऐसा कोई अवसर नहीं दिया। इस चुनाव परिणाम को लेकर अनेक प्रकार के विश्लेषण और व्याख्यायें हो रही हैं। इन सभी विश्लेषणों में एक बात सामान्य है कि इन परिणामों से भाजपा का मनोबल काफी बढ जायेगा और इसके विपरीत कांग्रेस कुछ हद तक हताश हो जायेगी। इसके अतिरिक्त सभी विश्लेषक इस बात से भी सहमत हैं कि वर्तमान केन्द्र सरकार की स्थिति अब और भी कमजोर हो जायेगी और उसे कोई भी निर्णय लेने में कठिनाई का सामना करना पडेगा विशेष रूप से अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि के सम्बन्ध में। इसी के साथ अब सरकार पर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव भी बढेगा जैसे कीमतों पर तत्काल नियंत्रण, किसानों की कर्ज माफी में किसानों की भूमि को लेकर नया नजरिया अपनाना। लेकिन ये तो तात्कालिक असर हैं। इसके अतिरिक्त कर्नाटक चुनाव परिणाम के कुछ दूरगामी प्रभाव भी होने वाले हैं।

कर्नाटक में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर भाजपा ने अपने ऊपर लगे उस धब्बे को काफी हद तक धुल दिया है जिसके अनुसार उसे उत्तर भारत की पार्टी कहा जाता था। हालांकि इससे पूर्व भाजपा ने गुजरात और उडीसा जैसे गैर हिन्दी भाषी प्रांतों में भी अपनी सरकार बनाई थी परंतु दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश अभी शेष था। यह एक बडा घटनाक्रम है जिसका आने वाले दिनों में व्यापक प्रभाव हो सकता है क्योंकि अब भाजपा को आन्ध्र प्रदेश में अपनी पैठ बनाने में अधिक समस्या नहीं होगी। कर्नाटक चुनाव अनेक सन्दर्भों में निर्णायक था। इस बार भाजपा इस प्रांत में अपने निरंतर बढ रहे ग्राफ के चरम पर थी और उसे स्वयं को एक ऐसे राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करना था जो कांग्रेस का विकल्प अपने दम पर बन सकने को तैयार है। यह भाजपा के लिये अंतिम अवसर था और यदि इस बार वह असफल हो जाती तो प्रदेश की राजनीति पुनः कांग्रेस केन्द्रित हो जाती। भाजपा ने स्वयं को सशक्त विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर राज्य की राजनीति में द्विदलीय व्यवस्था को स्थापित कर दिया है और 1980 से राज्य में कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित जनता परिवार को स्थानांतरित कर दिया है। अब भाजपा जनता दल सेकुलर के बचे खुचे जनाधार को भी अपने अन्दर समेटने में सफल हो जायेगी। इसका परिणाम यह होगा कि यहाँ दीर्घगामी स्तर पर भाजपा एक शक्तिशाली राजनीतिक दल के रूप में स्थापित हो जायेगी। इस चुनाव परिणाम के एक संकेत की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि भाजपा को समस्त राज्य में मिश्रित सफलता मिली है और उसकी विजय का आधार कोई विशेष क्षेत्र भर ही नहीं रहा है। इसका अर्थ है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने विचारधारा के साथ सामाजिक समीकरणों का संतुलन बैठाना सीख लिया है। यही बात गुजरात के सन्दर्भ में भी देखने को मिली थी जब विचारधारा, सामाजिक संतुलन और विकास ने एक साथ मिलकर काम किया था। यह रूझान निश्चित ही कांग्रेस और देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी के लिये चिंता का विषय होना चाहिये।

भाजपा को विचारधारा और सामाजिक संतुलन स्थापित करने में मिलने वाली सफलता का सबसे बडा कारण भाजपा की हिन्दुत्व की अपील है। यद्यपि इस चुनाव में स्पष्ट रूप से हिन्दुत्व को मुद्दा नहीं बनाया गया था परंतु आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार की नरम नीति को चर्चा के केन्द्र में लाकर भाजपा इस हिन्दुत्व का ध्रुवीकरण करने में सफल रही। यदि इस चुनाव के परिणामों को 1990 में उत्तर भारत में हिन्दुत्व आनदोलन के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि में उत्तर भारतीय राज्यों में मिली सफलता के सन्दर्भ में देखें तो हमें एक समानता देखने को मिलती है कि 1990 के दशक में भी उत्तर प्रदेश में भाजपा को नेता की जाति, हिन्दुत्व की अपील के कारण अनुसूचित जाति-जनजाति और अधिक पिछडा वर्ग का भारी समर्थन मिला था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, लोध के साथ अनुसूचित जातियाँ भी बडी मात्रा में भाजपा के साथ थीं। कर्नाटक चुनाव परिणाम 1990 के उत्तर भारत के समीकरणों की याद दिलाते हैं तो क्या माना जाये कि कर्नाटक में केवल भाजपा की ही विजय नहीं हुई है वरन हिन्दुत्व की भी विजय हुई है।

कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहाँ पिछ्ले कुछ वर्षों से हिन्दुत्व का उफान स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। 2000 से लेकर आजतक जब भी विश्व हिन्दू परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोई जनसभा या हिन्दू सम्मेलन होता था तो लाखों की संख्या में लोग आते थे। इसी प्रकार इस राज्य में उडुपी मठ के संत विश्वेशतीर्थ जी महाराज का प्रभाव क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक है और उन्होंने इस राज्य में हिन्दुत्व जागरण में काफी बडा योगदान किया है। भाजपा की इस विजय में हिन्दुत्व के इस आन्दोलन की अंतर्निहित भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह इस सन्दर्भ में अधिक मह्त्वपूर्ण है कि जो दल भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर उसे किनारे लगाने का प्रयास करते आये हैं उन्हें अवश्य यह सोचना चाहिये कि सेकुलरिज्म के नाम पर अन्धाधुन्ध मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दुओं की अवहेलना की प्रतिक्रिया भी हो सकती है। यहाँ तक कि कांग्रेस के कुछ लोग भी मान रहे हैं कि जयपुर विस्फोट के समय ने उन्हें काफी क्षति पहुँचायी स्पष्ट है कि विस्फोट से तो कांग्रेस का कोई लेना देना नहीं था तो भी जनता का आक्रोश कांग्रेस पर क्यों फूटा जबकि कांग्रेस ने आतंकवाद का उत्तरदायी भाजपा को ठहराते हुए कहा था कि भाजपा के शासनकाल में विमान अपहरण के बदले आतंकवादियों को छोडा गया और उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस तर्क के बाद भी जनता का कांग्रेस के प्रति आक्रोश दर्शाता है कि आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार और कांग्रेस के रवैये से जनता संतुष्ट नहीं है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम एक ऐसा संकेत है जो कांग्रेस को मिला है परन्तु इस मामले में कांग्रेस अपनी भूल सुधार कर पायेगी इसकी सम्भावना नहीं है। कांग्रेस 1992 के बाद अपने से नाराज हुए मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिये अनेक विषयों पर समझौते कर रही है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और संकेत आया है और वह भी कांग्रेस के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। कर्नाटक में चुनाव प्रबन्धन कांग्रेस ने उसी अन्दाज में किया था जब कि देश में नेहरू परिवार का जादू चलता था और चुनाव कार्यकर्ता नहीं गान्धी उपाधि जिताया करता था। देश में पिछ्ले कुछ वर्षों में आये परिवर्तनों से कांग्रेस बेपरवाह पुराने ढर्रे पर चली जा रही है। वैसे तो पिछ्ले अनेक चुनाव परिणामों से कांग्रेस की यह रणनीति धराशायी हो रही है परन्तु इस चुनाव का अलग महत्व है। कांग्रेस द्वारा किसी भी चुनाव में मुख्यमंत्री घोषित न करना उसकी उसी नीति का अंग है कि यह निर्णय हाईकमान करेगा। अब स्थितियों में ऐसा क्या अंतर आ गया है कि कांग्रेस की यह नीति काम नहीं करती। विशेष अंतर यह आया है कि अब देश में 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या उनकी है जो तीस या तीस वर्ष से ऊपर हैं। यह वह पीढी है जिसने अपनी आंखों के सामने न तो स्वाधीनता संग्राम देखा है और न महात्मा गान्धी और जवाहरलाल नेहरू का जादू। इस पीढी का इन पात्रों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। यही कारण है कि जब कांग्रेस अपने पुराने अन्दाज में नीतियों को निर्धारित कर चलती है तो इस आत्मसम्मोहन से बाहर नहीं आ पाती कि आज राहुल गान्धी का आकलन युवा उनके कौशल के आधार पर उनकी योग्यता के आधार पर करता है न कि किसी खानदान के वारिस के तौर पर। यही सूक्ष्म कारण है कि जब कांग्रेस चुनावों में अपना नेता नहीं घोषित करती तो उसे क्षति होती है और लोग नेहरू परिवार के प्रतिनिधि के तौर पर किसी को भी नहीं चुन लेते।

पिछ्ले अनेक चुनावों में पराजय का सामना कर रही कांग्रेस को अपने अन्दर कुछ मूलभूत परिवर्तन करना होगा। उसे एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का स्वरूप त्याग कर सही अर्थों में लोकतांत्रिक होना होगा तभी आगे उसका विस्तार सम्भव है। यही बात सेकुलरिज्म के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक समय था कि देश में सूचनाओं का प्रवाह सीमित था और कोई भी तथ्य या विचार कुछ लोगों तक सीमित था और वे शेष जनता को जैसा समझाते थे जनता मानती थी। आज परिस्थितियों में अंतर आ गया है। आज सूचनाओं का प्रवाह असीमित हो गया है और किसी भी तथ्य के सम्बन्ध में स्पष्ट स्थिति जानने के अनेक साधन हैं इस कारण जनता और विशेषकर युवा वर्ग को प्रोपगेण्डा और विचार के मध्य अन्तर समझ में आता है तभी जिस मोदी को मौत का सौदागर कहकर सम्बोधित किया जाता है उसी मोदी को गुजरात की जनता अपना रक्षक मानकर चलती है। इस अंतर को न समझने के कारण कांग्रेस साम्प्रदायिकता और सेकुलरिज्म की बहस में भी भोथरी सिद्ध हो रही है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से संकेत मिलता है कि आने वाले दिन केन्द्र सरकार के लिये भारी पड्ने वाले हैं और निर्णय लेने की उसकी क्षमता और भी मद्धिम पड जायेगी। इसका तात्कालिक परिणाम तो यह होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि प्रायः समाप्त हो जायेगी और इससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की निर्णय न ले पाने वाले प्रधानमंत्री की छवि का आरोप और सही सिद्ध होगा और कांग्रेस के पास ऐसा कोई बडा मुद्दा हाथ में नहीं होगा जिसके सहारे वह जनता के बीच आम चुनाव में जाये। जिस प्रकार कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लडा गया और मँहगाई तथा आतंकवाद पर कांग्रेस पिट गयी वह रूझान आम चुनावों तक चलने वाला है क्योंकि दोनों ही मोर्चों पर कांग्रेस कुछ विशेष कर पाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन इससे यह अर्थ भी कदापि नहीं लगाया जा सकता कि आम चुनावों में भाजपा फ्रण्ट रनर है जैसा भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा। वैसे इसमें राजनीतिक बडबोलापन भी नहीं है। जिस प्रकार कांग्रेस अपनी भूलों से सीख नहीं ले पा रही है और भाजपा एक के बाद एक प्रदेश जीतती जा रही है उससे देश में वातावरण बदलते देर भी नहीं लगेगी।


कर्नाटक चुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ये चुनाव राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेंगे और इन चुनावों में भाजपा के विजयी होने से आम चुनाव नियत समय पर ही होंगे। यह बात पूरी तरह सत्य है। अब चुनाव नियत समय पर ही होंगे और उससे पहले अग्नि परीक्षा भाजपा की है जिसे अपने तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ को बचाने की चुनौती है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से यूपीए के गणित पर भी असर पड सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी के करिश्मे की आस लगाये कुछ घटक अवश्य चिंतित और घबराहट अनुभव कर रहे होंगे।
कर्नाटक चुनाव परिणाम का एक प्रभाव यह भी होगा कि भाजपा छोडकर गये अनेक लोग समाज में अपना बचा खुचा आधार भी खो देंगे और भटकी भाजपा के नाम पर उनकी आलोचना की प्रामाणिकता पर असर पडेगा इसी के साथ पार्टी से उनके मोलतोल में उनका पक्ष कमजोर हो जायेगा। उदाहरण के लिये भाजपा से बाहर हुई उमा भारती जिन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी भी बना ली अब तक कोई भी परिणाम देने में या भाजपा को रोकने में सफल नहीं रही हैं। भाजपा के निरंतर विजय अभियान से उनकी स्थिति कमजोर हो जायेगी और असंतुष्ट भाजपाईयों में समर्थन प्राप्त करने का उनका अभियान अवश्य प्रभावित होगा।

कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी नहीं होगी कि पिछ्ले दो वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और अब कर्नाटक में जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है और यह रूझान इंगित करता है कि देश के मतदाताओं की प्राथमिकतायें बदल रही हैं और उनके लिये स्थिर सरकार, विकास, सुरक्षा प्राथमिकता है। ऐसे में यदि आम चुनावों में कुछ आश्चर्यजनक परिणाम भी हमारे सामने आयें तो हमें चौंकना नहीं चाहिये। कुल मिलाकर कर्नाटक चुनावों ने राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय कर दी है। आने वाले दिनों में जो पक्ष नेतृत्व, कार्यक्रम, विचारधारा और सामाजिक समीकरणों में सामंजस्य स्थापित कर सकेगा वही देश पर शासन करेगा।
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आरुषि के बहाने मीडिया का पलायनवाद

पिछले चार पाँच दिन से समाचार माध्यमों में नोएडा की रहने वाली आरुषि की रहस्यमय हत्या का मामला छाया है। मीडिया द्वारा इस विषय को महत्व देना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है, इससे पूर्व भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हुई हत्याओं को काफी महत्व मिलता रहा है। परंतु इस घटना के समय को लेकर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि जब इसी समय अभी कोई दस दिन पहले राजस्थान की राजधानी जयपुर में आतंकवादी आक्रमण हुआ है और उस सम्बन्ध में भी जाँच चल रही है तो हमारे समाचार माध्यमों का ध्यान उस ओर क्यों नहीं जा रहा है या फिर यूँ कहें कि उनका ध्यान उस ओर से पूरी तरह हट गया है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर गम्भीरतापूर्वक सोचने की आवश्यकता है।

आरुषि हत्याकाण्ड में जिस प्रकार समाचार माध्यमों ने रुचि दिखाई और पुलिस प्रशासन को दबाव में लिया कि नोएडा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को बकायदा प्रेस कांफ्रेस करनी पडी और इस मामले में जाँच में हो रही प्रगति के सम्बन्ध में मीडिया को बताना पडा। यह मीडिया की शक्ति की ओर संकेत करता है पर वहीं एक प्रश्न यह भी उठता है कि आरुषि के मामले को इतना तूल देकर कहीं मीडिया ने जयपुर मामले में बहस से लोगों का ध्यान हटाने का शुभ कार्य तो नहीं किया है। निश्चय ही मीडिया के इस कार्य से सरकार काफी राहत मिली है और उसी राहत का अनुभव करते हुए भारत के गृहमंत्री ने बयान दे डाला कि मोहम्मद अफजल को फांसी की पैरवी नहीं करनी चाहिये।

आरुषि मामले को मीडिया द्वारा तूल देने के पीछे कोई षडयंत्रकारी पक्ष देखना तो उचित तो नहीं होगा पर इससे कुछ प्रश्न अवश्य उठते है। क्या मीडिया जयपुर जैसी घटनाओं को नजरअन्दाज करने की रणनीति अपना रहा है। इस बात के संकेत मिलते भी हैं। पिछले तीन वर्षों में यदि इस्लामी आतंकवाद के सम्बन्ध में मीडिया की रिपोर्टिंग पर नजर डाली जाये तो कुछ स्थिति स्पष्ट होती है। 11 जुलाई 2006 को देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में लोकल रेल व्यवस्था पर आक्रमण हुआ और उस समय की रिपोर्टिंग और अब जयपुर में हुए आक्रमण की प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया की रिपोर्टिंग में कुछ गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यह गुणात्मक परिवर्तन इस सन्दर्भ में है कि ऐसी घटनाओं की क्षति, लोगों पर इसके प्रभाव और इस आतंकवाद में लिप्त लोगों पर चर्चा को उतना ही रखा जाये जितना पत्रकारिता धर्म के विरुद्ध नहीं है। इस नजरिये से घटना की रिपोर्टिंग तो होती है परंतु घटना के बाद इस विषय से बचने का प्रयास किया जाता है। यह बात 2006 से आज तक हुए प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के सम्बन्ध में क्रमशः होती रही है। यदि जयपुर आक्रमण के बाद विभिन्न समाचार पत्रों में सम्पादकीय या उससे सम्बन्धित लेखों की संख्या देखी जाये तो ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में खाना पूरी की जा रही है और जोर इस बात पर अधिक है कि यह घटना लोगों के स्मरण से कितनी जल्दी दूर हो जाये या इसे लोग भूल जायें।

मीडिया के इस व्यवहार की समीक्षा इस पृष्टभूमि में भी की जा सकती है कि कहीं आतंकवादी घटनाओं की अधिक रिपोर्टिंग और उस पर अधिक चर्चा नहीं करने को भी इस आतंकवाद से निपटने का एक तरीका माना जा रहा है जैसा कि प्रसिद्ध आतंकवाद प्रतिरोध विशेषज्ञ बी रमन ने हाल के अपने एक लेख में सुझाव दिया है। उनका मानना है कि आतंकवादी आक्रमणों के बाद ऐसा प्रदर्शन नहीं करना चाहिये कि हमारे जीवन पर इसका कोई प्रभाव हो रहा है क्योंकि इससे आतंकवादियों को लगता है कि वे अपने उद्देश्य में सफल हैं। बी रमन मानते हैं कि आतंकवादी न तो साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड पाये हैं और न ही पर्यटन स्थलों पर आक्रमण कर लोगों को ऐसे स्थलों पर जाने से रोक सके हैं।

इसी प्रकार का सुझाव जुलाई 2006 में मुम्बई में स्थानीय रेल व्यवस्था पर हुए आक्रमण के पश्चात संसद एनेक्सी में कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा बुलाए गये आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में प्रधानमंत्री और सूचना प्रसारण मंत्री की उपस्थिति में दिया गया था और मीडिया को अमेरिका और यहूदियों का एजेंट बताकर उनपर आरोप लगाया गया था कि वे आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे सुझाव अब असर करने लगे हैं और इस्लामी आतंकवाद को लेकर मीडिया ने अपने ऊपर एक सेंसरशिप थोप ली है और इस सम्बन्ध में क्षमाप्रार्थना का भाव व्याप्त कर लिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस रूख से किसे लाभ होने जा रहा है और क्या इस रूख से आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के इस युग में हम आतंकवाद पर विजय प्राप्त कर सकेंगे? निश्चित रूप से इससे आतंकवाद के युद्ध में आतंकवादियों को ही लाभ होने जा रहा है और उन राजनीतिक दलों को लाभ होने जा रहा जो इस्लामी आतंकवाद से मुस्लिम समुदाय के जुडाव के कारण इस विषय में न कोई चर्चा करना चाहते हैं और न ही कोई कार्रवाई।

जयपुर पर हुए आक्रमण के बाद जिस प्रकार आक्रमण में घायल हुए लोगों, जाँच की प्रगति और आतंकवाद के मोर्चे पर पूरी तरह असफल केन्द्र सरकार की कोई खबर मीडिया ने नहीं ली उससे एक बात स्पष्ट है कि आज लोकतंत्र के सभी स्तम्भ यहाँ तक कि पाँचवा स्तम्भ माना जाने वाला मीडिया भी शुतुरमुर्गी रवैया अपना रहा है और इन सबकी स्थिति उस कबूतर की भाँति है जो बिल्ली के सामने अपनी आंखें बन्द कर सोचता है कि बिल्ली भाग जायेगी। लोकतंत्र में मीडिया की अपनी भूमिका होती है लेकिन जिस प्रकार मीडिया बहस से भाग रहा है उससे इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वालों को यही सन्देश जा रहा है कि हमारे अन्दर इच्छाशक्ति नहीं है और मुकाबले के स्थान पर पलायन का रूख अपना रहे हैं।

आखिर यह अंतर क्यों आया है। जयपुर के सम्बन्ध में अंतर यह आया है कि अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में स्थानीय मुसलमानों का एक वर्ग इस्लाम के नाम पर पूरे विश्व में चल रहे जिहाद के साथ जुड चुका है और वह देश में आतंकवादियों के लिये हर प्रकार का वातावरण निर्माण कर रहा है। इसी कारण इस मामले से हर कोई बचना चाहता है।

इस प्रकार का रवैया अपना कर हम पहले दो बार जिहादवाद के विस्तार को रोकने का अवसर खो चुके हैं और तीसरी बार वही भूल करने जा रहे हैं। पहली बार जब 1989 में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद ने प्रवेश किया तो हमारे नेताओं, पत्रकारो और बुद्धिजीवियों ने उसे कुछ गुमराह और बेरोजगार युवकों का काम बताया और बाद में इन्हीं गुमराह युवकों ने हिन्दुओं को घाटी से निकाल दिया और डंके की चोट पर घोषित किया कि यह जिहाद है। इसी प्रकार जब भारत में कश्मीर से बाहर पहली जिहादी घटना 1993 में मुम्बई में श्रृखलाबद्ध बम विस्फोटों के रूप में हुई तो भी इसे जिहाद के स्थान पर बाबरी ढाँचे के 1992 में ध्वस्त होने की प्रतिक्रिया माना गया। वह अवसर था जब जिहादवाद भारत में विस्तार कर रहा था पर उस ओर ध्यान नहीं दिया गया। आज हम तीसरा अवसर खो रहे हैं जब हमें पता चल चुका है कि भारत में मुस्लिम जनसंख्या का एक बडा वर्ग वैश्विक जिहाद के उद्देश्य से सहानुभूति रखता है तो उस वर्ग का विस्तार रोकने के लिये कठोर कानूनी और विचारधारागत कदम उठाने के स्थान पर हम इस पर बहस ही नहीं करने को इसका समाधान मानकर चल रहे हैं।

जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद जिस प्रकार इस मामले को मीडिया ने ठण्डे बस्ते में डाला है वह सराहनीय नहीं है। इस सम्बन्ध में लोगों की सहनशीलता को असीमित मानकर चलने की यह भावना खतरनाक है। ऐसे आक्रमणों का सामना इनकी अवहेलना कर नहीं इस पर बहस कर किया जा सकता है। क्योंकि बहस न होने से यह पता लगा पाना कदापि सम्भव नहीं होगा इस विषय पर देश में क्या भाव है और लोग इसके मूलभूत कारणों के बारे में क्या सोचते हैं। कहीं ऐसा न हो कि इस विषय में संवादहीनता का परिणाम आगे चलकर भयावह हो जाये जैसा कि पहले कई अवसरों पर हम देख भी चुके हैं।
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जयपुर विस्फोट के सन्देश

13 मई को राजस्थान की राजधानी जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण के तत्काल बाद इसके मूल कारणों पर विचार करते हुए लोकमंच ने एक लेख प्रकाशित किया था और इस समस्या के मूल में जाकर इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया था। जयपुर विस्फोट के बाद जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं और सुरक्षा एजेंसियों को इस सम्बन्ध में नये सुराग मिल रहे हैं, वैसे- वैसे यह बात पुष्ट होती जा रही है कि इस्लामी आतंकवाद की इस समस्या को व्यापक सन्दर्भ में सम्पूर्ण समग्रता में देखने की आवश्यकता है।
विस्फोट के एक दिन बाद इण्डियन मुजाहिदीन नामक एक अप्रचलित इस्लामी संगठन ने इस आक्रमण का उत्तरदायित्व लेते हुये करीब 1800 शब्दों का एक बडा ई-मेल विभिन्न समाचार पत्रों और टीवी चैनलों को भेजा। देश के प्रसिद्ध अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दू ने इस ई-मेल के प्रमुख बिन्दुओं को अपने समाचार पत्र में स्थान दिया। वास्तव में यह ई-मेल केवल विस्फोट का दायित्व लेने तक सीमित नहीं था वरन यह भारत में हो रहे जिहाद का एक घोषणा पत्र था। इस ई-मेल में इण्डियन मुजाहिदीन ने जो प्रमुख बिन्दु उठाये हैं उसके अनुसार इस विस्फोट का उद्देश्य काफी व्यापक है।


इस संगठन के अनुसार जयपुर को निशाना बनाकर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि भारत का मुसलमान वैश्विक जिहाद के साथ एकज़ुट है। दूसरा सन्देश हिन्दुओं को दिया गया है कि वे राम, सीता और हनुमान जैसे गन्दे ईश्वरों की उपासना बन्द कर दें अन्यथा उन्हें ऐसे ही आक्रमणों का सामना करना होगा। इन दो सन्देशों के बाद यह संगठन सीधे भारत में मुसलमानों के उत्पीडन की बात करता है और उसके अनुसार पिछ्ले 60 वर्षों से भारत में मुसलमानों को प्रताडित किया जा रहा है। सन्देश में 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराये जाने और 2002 में गुजरात में हुए दंगों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मस्जिद गिरने के बाद जब नरमपंथी मुसलमानों ने अयोध्या जाकर विरोध करने का प्रयास किया गया तो उन्हें गिरफ्तार कर उनका उत्पीडन किया गया। जयपुर में विस्फोट के पीछे इस संगठन ने मुख्य कारण यह बताया है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी को दो बार भारी बहुमत से विधानसभा में पहुँचा कर हिन्दुओं ने स्वयं को ऐसे आक्रमणों का निशाना बना लिया है। साथ ही सन्देश में कहा गया है कि भारत में हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों को आर्थिक सहायता देते हैं। इसके साथ ही कहा गया है भारत के सभी नागरिक मुजाहिदीनों के निशाने पर हैं क्योंकि वे भारत की संसद में उन नेताओं को चुनकर भेजते हैं जो मुसलमानों के उत्पीडन का समर्थन करते हैं।
इण्डियन मुजाहिदीन ने भारत को सन्देश में कुफ्रे हिन्द ( काफिरों का स्थान) कहकर सम्बोधित किया है और कहा है कि यदि इस देश में इस्लाम और मुसलमान सुरक्षित नहीं है तो इस देश के लोगों के घर में भी जल्द ही अन्धेरा हो जायेगा।


इस सन्देश के अपने मायने हैं। देश के एक अन्य अंग्रेजी समाचार पत्र मेल टुडे में इण्डियन मुजाहिदीन के इस ई-मेल पर सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह की प्रतिक्रिया प्रकाशित की गयी है। श्री सिंह के अनुसार ऐसे मेल भेजकर इस्लामी संगठन शेष मुसलमानों को एक सन्देश देते हैं और उन्हें अपने विचारों से अवगत कराते हैं। श्री सिंह 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने या गुजरात में हुए दंगों के आधार पर ऐसे विस्फोटों को न्यायसंगत ठहराने की इस्लामी संगठनों की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए कहते हैं कि अतीत में घटी घटनाओं को आधार बनाकर ऐसे आक्रमणों को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। श्री सिंह मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा को भी खारिज करते हुए कह्ते हैं कि देश के राजनीतिक दल इसी दबाव में आ जाते हैं और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिराते हैं उनके अनुसार यह बकवास है कि अपराध या आतंकवाद को अंजाम देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करते समय सेकुलर सिद्धांत का पालन किया जाये और अपराधी मुसलमान हो तो उसके बराबर ही हिन्दुओं को भी गिरफ्तार किया जाये। सीमा सुरक्षा बल का पूर्व महानिदेशक यदि ऐसे निष्कर्ष निकालता है तो और कुछ कहने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती।

जयपुर विस्फोटों के सम्बन्ध में एक और रोचक खोज प्रसिद्ध हिन्दी समाचार चैनल जी न्यूज ने की। 17 मई को रात 10 बजे इनसाइड स्टोरी नामक अपने कार्यक्रम में चैनल ने पूरी उत्तरदायित्व से उन चार प्रमुख चेहरों की विस्तार से जानकारी दी जिनका स्केच राजस्थान पुलिस ने तैयार किया है। इनमें प्रमुख शमीम है और शेष तीन के नाम अबू फजल, इमरान उर्फ अमजद और मुख्तार इलियास हैं। इनमें से केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और शेष तीनों भारत के मुसलमान है। इनमें से एक शमीम तो जयपुर से 60 किलोमीटर दूर सीकर नामक स्थान पर नगीना मस्जिद में एक मदरसे में पढाता भी था। समाचार चैनल को एक लैण्ड लाइन दूरभाष नम्बर भी मिला जिसपर शमीम बात करता था और इस चैनल के संवाददाता ने जब इस नम्बर पर बात की तो पता चला कि यह नम्बर काम करता है और दशकों से अस्तित्व में है और इस घर में रहने वाला 16-17 वर्ष का बालक शमीम का विद्यार्थी भी रहा है। अब यदि शमीम मदरसे और मस्जिद में रह कर जयपुर से 60 किलोमीटर दूर किसी के घर के फोन का प्रयोग कर सारी रणनीति बना सकता है तो फिर सुरक्षा एजेंसियों को दोष कैसे दिया जाये। शमीम उसी वलीउल्लाह का राजस्थान का प्रभारी है जिसे उत्तर प्रदेश में हुए बम धमाकों का मास्टर माइण्ड माना गया है। इसी प्रकार अबू फजल मध्य प्रदेश में सिमी का कार्यकर्ता है और 2007 से इन्दौर से फरार है। इमरान उर्फ अमजद का पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्ध है केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और भारत में हूजी के लिये काम करता है।


इन तथ्यों को देखकर क्या निष्कर्ष निकाला जाये कि गडबड कहाँ है। वास्तव में इस्लामी आतंकवाद के प्रति हमारा दृष्टिकोण इस समस्या के लिये उत्तरदायी है। इस समस्या को हम 1990 के दशक के चश्मे से देख रहे हैं और उसी अवधारणा के आधार पर आगे बढ रहे हैं कि हमारा पडोसी पाकिस्तान ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहा है। यह बात कुछ अंशों में सत्य है पर अब यह पूरी तरह सत्य नहीं है। इस अवधारणा पर जब सख्त कदम उठाये जाने चाहिये थे तब उठाये नहीं गये और जब पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी शिविर ध्वस्त करने से इस समस्या का समाधान निकल सकता था तब हमने अवसर गँवा दिया और अब स्थिति वहीं तक सीमित नहीं है। आज भारत में इस्लामी आतंकवादी संगठनों का व्यापक नेटवर्क फैल चुका है और यदि इण्डियन मुजाहिदीन के सन्देश को हम अधिक ध्यान से देखें तो स्पष्ट होता है कि पिछ्ले डेढ दशक में आतंकवाद की इस लडाई में कुछ गुणात्मक परिवर्तन आया है। एक 1993 के आसपास भारत के जिहादी गुटों की शक्ति और उनका विस्तार सीमित था और बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने के बाद बदले की कार्रवाई में वे मुम्बई को ही निशाना बना सके। आज 15 वर्षों के बाद भारत में उनका नेटवर्क इतना व्यापक हो गया है कि वे अब महानगरों तक सीमित नहीं रह गये हैं वरन राज्यों की राजधानियों या छोटे-छोटे नगरों में भी आतंकी आक्रमण करने की उनकी क्षमता हो गयी है। 2005 से लेकर अब तक कुल 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट देश में हो चुके हैं और इनमें 500 से अधिक लोग मौत की नींद सो चुके हैं।


इन 15 वर्षों में ऐसा क्या परिवर्तन हुआ कि हम जिहाद की इस भावना को समझने में असफल रहे हैं। वास्तव में जिहादवाद ने एक वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर लिया है और इस्लामी आतंकवादियों का उद्देश्य इस्लामी उम्मा के साथ एकाकार हो चुका है। अब देश की विदेश नीति, अमेरिका के साथ उसके सम्बन्ध, ईरान के सम्बन्ध में उसकी नीति, इजरायल के साथ सम्बन्धों का स्वरूप इस्लामी आतंकवादियों की रणनीति का आधार बनता है। जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण की निन्दा कुछ इस्लामी संगठनों ने की है परंतु उन्होंने फिर सरकार को सावधान किया है कि यदि मुसलमानों की शिकायतों पर उचित ध्यान नहीं दिया गया और सुरक्षा एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को निशाना बनाती रहीं तो ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकेगा। यह सशर्त निन्दा एक व्यापक वैश्विक रूझान की ओर संकेत करती है। आज समस्त विश्व में इस्लामी संगठन आतंकवाद की निन्दा भी करते हैं और मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा को प्रश्रय भी देते हैं। विश्व के जिन भी देशों में आतंकवाद प्रभावी है वहाँ की सरकार की मुस्लिम और इस्लाम विरोधी नीतियों को इसका उत्तरदायी बताया जाता है। परंतु यह कितना वास्तविक है इसकी जाँच कभी नहीं की गयी।


इण्डियन मुजाहिदीन ने अपने सन्देश में जिस प्रकार गुजरात में मोदी की दूसरी बार विजय और भारतीय संसद में उन नेताओं की विजय जो मुस्लिम उत्पीडन में सहायक हैं उसको आक्रमण का कारण बताया गया है वह भी वैश्विक जिहाद की ही एक प्रवृत्ति का संकेत है। अमेरिका ने जब इराक पर आक्रमण किया और वहाँ बहुराष्ट्रीय सेनायें तैनात कर दीं तो अनेक देशों के जनमत को प्रभावित करने के लिये और देशों को अपनी नीतियाँ बदलवाने के लिये इस्लामी आतंकवादियों ने विस्फोटों का सहारा लिया। स्पेन में मैड्रिड में रेल विस्फ़ोट के बाद हुए चुनावों में तत्कालीन सरकार पराजित हुई और जनता ने मतदान उस दल के पक्ष में किया जो इराक से स्पेन के सैनिकों को वापस बुलाने की पक्षधर थी। इसी प्रकार अनेक देशों के पत्रकारों का अपहरण करके भी इस्लामी आतंकवादी देशों की नीतियों को प्रभावित करने में सफल रहे हैं। यह नजारा हम 1999-2000 में देश ही चुके हैं जब भारत के एक विमान का अपहरण कर कुछ दुर्दांत आतंकवादियों को छुडा लिया गया था। उसमें से एक आतंकवादी मसूद अजहर ने छूटने के बाद पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद का निर्माण किया और उसी संगठन ने 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण किया। ये तथ्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि आज इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हो गया है और इस समस्या को उसी परिदृश्य में देखने की आवश्यकता है।


लेकिन भारत में क्या हो रहा है। आज यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जिहादी एक इस्लामी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं और उनका उद्देश्य कुरान और शरियत के आधार पर एक नयी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है और इसके लिये उन्होंने वैश्विक आधार पर मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा का सृजन किया है और इस अवधारणा ने बडी मात्रा में ऐसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी आकर्षित किया है जो इस्लाम की हिंसक व्याख्या से सहमत न होते हुए भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का समर्थन करते हैं और इस्लामी आतंकवाद की निन्दा सशर्त करते हैं। भारत में प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और वामपंथी इसी धारणा के शिकार हैं और भारत में इस्लामी आतंकवाद को हिन्दू कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया मानते हैं। इस धारणा के चलते दोनों ही दल समस्या के मूल को समझने में असफल हैं। जुलाई 2005 को जब मुम्बई में लोकल रेल में धमाके हुए और 187 लोग मारे गये और इससे भी अधिक लोग घायल हुए तो कांग्रेस के अनेक नेताओं ने खुलेआम कहा कि ऐसे घटनायें इसलिये हुई हैं कि पिछ्ले कुछ वर्षों में देश में एक समुदाय विशेष की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ नेताओं ने तो टीवी चैनल पर आकर कहा कि जब आप किसी की मस्जिद गिरायेंगे और उनकी महिलाओं और बच्चों का कत्ल करेंगे तो क्या आपके विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं होगी। इसी प्रकार जयपुर में हुए विस्फोटों के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने आतंकवाद के विषय में चर्चा करते हुए भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की तुलना आतंकवादियों से कर दी और कहा कि वे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का वातावरण बिगाड कर वही काम कर रहे हैं जो आतंकवादी चाहते हैं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अनुरोध किया कि राजनीतिक दल आतंकवाद को साम्प्रदायिक रंग न दें। अब ऐसी प्रतिक्रिया से क्या लगता है कि सरकार और कांग्रेस इस्लामी आतंकवाद को युद्ध मानने को तैयार ही नहीं है। क्योंकि यदि इसे युद्ध माना जाता तो शत्रु को पहचान कर उसे नाम दिया जाता और उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा की जाती। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में लिया जा रहा है।


2005 से लेकर अब तक हुए 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट एक ही कहानी कहते हैं कि भारत में मुसलमानों का एक वर्ग वैश्विक जिहाद की विचारधारा और उसके नेटवर्क से गहराई से जुड गया है और वह इस बात का संकेत भी दे रहा है कि अब ऐसे आक्रमणों के लिये पडोसी देशों को दोष देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने के छोटे रास्ते से बचा जाये और भारत के देशी मुसलमानों के बीच पल रही इस नयी विचारधारा को पर प्रहार किया जाये। देश में एक समुदाय विशेष के तुष्टीकरण की नीतियों के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जो समझौते किये गये हैं उसका परिणाम हमारे सामने है। जब बांग्लादेशी घुसपैठी भारत की सीमा में प्रवेश कर रहे थे उन्हें वोट बैंक माना गया, जब पाकिस्तान के आईएसआई एजेण्ट खुलेआम भारत में आकर अपनी अगली रणनीति पर काम कर रहे थे तो उन पर लगाम नहीं लगाई गयी। आज जब विश्व की परिस्थितियों में परिवर्तन आ गया और जिहाद एक वैश्विक स्वरूप धारण कर विचार के स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या को प्रभावित और प्रेरित कर रहा है तो हम फिर भूल कर रहे हैं और डेढ दशक पुरानी भाषा में पाकिस्तान को दोष दे रहे हैं। जिस प्रकार इस्लामी आतंकवादी देश में अपना विस्तार करने में सफल हो रहे हैं और धार्मिक राजनीतिक अपील से देश में मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं वह एक खतरनाक संकेत है। जिस प्रकार पिछ्ले तीन वर्षों में वे अपने मन मुताबिक विभिन्न स्थानों पर आक्रमण करने में सफल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वे दिनोंदिन अपना नेटवर्क व्यापक ही करते जायेंगे और देश के छोटे कस्बों को भी शीघ्र ही अपना निशाना बनायेंगे।
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अफजल पर कुत्ते छुड़वा देते

अमेरिका के दो टावरों टूटे तो उसने दो मुल्को को तहस-नहस कर दिया. आप अभी भी मौन हैं. प्रश्न करती हैं उन बेवाओ की आँखें जिन्होंने जयपुर के आतंकवादी हमले में अपने पति खोये हैं, बच्चे खोये हैं. प्रश्न है की आखिर सर्वोच्च-न्यायालय के आदेश के बाद भी संसद भवन पर हमला करने वाले अफजल को फाँसी क्यों नहीं दी गई. जयपुर काण्ड के बाद क्या जयपुर के हवा-महल में सार्वजनिक तौर पर अफजल जैसे आतंकवादी को फाँसी नहीं होना चाहिए? जिससे एक बार तो कम से कम आतंकी सोचे की भारत में आतंक फैलाने का प्रतिफल क्या हो सकता है.

अब तो करलो बुद्धि मित्र ठिकाने पर,
संसद भी रखी है आज निशाने पर.
नौ-नौ सिंहों को खोकर भी खामोशी,
कब टूटेगी सिंघासन की बेहोशी?
अंधे लालच का सिंधु भर के चित में.
धृतराष्ट्र हैं मौन स्वयम सुत के हित में.
वरना वो खूनी पंजे तुड़वा देते.
अब तक अफजल पर कुत्ते छुड़वा देते.

-कवि सौरभ सुमन
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जयपुर विस्फोट उत्तरदायी कौन

भारत का एक और सुन्दर व अपेक्षाकृत शांत समझा जाने वाले जयपुर शहर आतंकवादियों का निशाना बना। आज सायंकाल कोई सात बजकर 15 मिनट पर बम विस्फोटों की श्रृंखला आरम्भ हुई और 20 मिनट के अन्दर कुल 8 विस्फोट हुए। इन विस्फोटकों को नयी साइकिलों पर रखा गया था। आरम्भ में तो इस सम्बन्ध में अलग-अलग समाचार आ रहे थे और विभिन्न समाचार चैनलों द्वारा कहा गया कि विस्फोटकों को रिक्शे और होण्डा सिटी कार में भी रखा गया था। बाद में राज्य के गृहमंत्री गुलाब चन्द कटारिया ने विभिन्न टीवी चैनलों को स्पष्ट किया कि विस्फोटक नयी साइकिलों पर ही रखे गये थे। इन विस्फोटों के लिये शहर के व्यस्ततम क्षेत्रों को चुना गया था। परंतु विस्फोटों के सम्बन्ध में चर्चा करते समय एक तथ्य को यथासम्भव दूर रखने का प्रयास विभिन्न टीवी चैनलों ने किया और वह यह कि विस्फोटों का निशाना एक बार फिर हनुमान मन्दिर को बनाया गया और विस्फोट के लिये दिन भी एक बार फिर मंगलवार का चुना गया। इससे पूर्व 2006 मार्च में जब वाराणसी के प्रसिद्ध हनुमान मन्दिर संकटमोचन मन्दिर को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था तो भी मंगलवार के दिन को चुना गया था। आखिर साम्य का कारण क्या है और इस तथ्य से बचने का प्रयास क्योंकर हो रहा है। मंगलवार के दिन अधिकाँश हिन्दू हनुमान जी को प्रसाद चढाने और उनका प्रसाद लेने मन्दिर में जाते हैं। इस दिन को निशाना बनाकर आतंकवादी कुछ संकेत देना चाहते हैं परंतु हम उस संकेत को समझने के स्थान पर उससे बचने का प्रयास कर रहे हैं।


इसी प्रकार जयपुर में हुए विस्फोट के बाद सरकार और विपक्ष की ओर से आने वाली प्रतिक्रिया भी अपेक्षित ढंग से ही रही है। एक ओर केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री ने शांति बनाये रखने की अपील करते हुए घटना की निन्दा की है तो विपक्षी दल भाजपा ने वर्तमान केन्द्र सरकार की आतंकवाद के प्रति नरम नीति को इस विस्फोट का उत्तरदायी ठहराया है। कुछ हद तक यह बात ठीक है पर समस्या का मूल इससे भी कहीं अधिक व्यापक है जिसके सम्बन्द्ध में चर्चा करने का साहस भाजपा में भी नहीं है।

भारत का इस्लामी आतंकवाद नामक चीज से पहली बार पाला 1989 में पडा था जब जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद ने कश्मीर को भारत से स्वतंत्र कराने के अभियान से व्यापक वैश्विक जिहाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया था और वहीं से जिहाद के नाम पर इस्लामी आतंकवाद का आधारभूत संगठन अस्तित्व में आने लगा। 1989 में जब इस्लामी आतंकवाद अपना विस्तार कर रहा था और जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान में रूस के विरुद्ध लडने वाले लडाके भारत में कश्मीर को भी इस्लामी राज्य बनाने के संकल्प के साथ कश्मीर में जिहाद आरम्भ कर रहे थे तो भारत में इस समस्या को पूरी तरह दूसरे सन्दर्भ में देखा जा रहा था। इस समस्या को कश्मीर की जनता की बेरोजगारी और कुछ नवयुवकों के भटकाव से जोडकर देखा जा रहा था। अपनी पीठों पर एके 47 लादे अल्लाहो अकबर का नारा लगाने वाले नवयुवक भारत के राजनेताओं को बेरोजगारी और भटकाव का परिणाम दिखाई दे रहे थे। ऐसा नहीं है कि उस समय स्थिति को समझा नहीं जा रहा था परंतु समस्या के वास्तविक स्वरूप से जनता को अनभिज्ञ रखा जा रहा था।

1989 के ये बेरोजगार और भटके हुए नवयुवक कब कश्मीर की सीमाओं से बाहर आ गये और शापिंग काम्प्लेक्स और हिन्दुओं के मन्दिरों को निशाना बनाने लगे पता भी नहीं चला। 1990 के दशक में ऐसा क्या परिवर्तन आ गया कि जिस विषय को हमारे राजनेता और बुद्धिजीवी केवल कश्मीर की सीमाओं तक सीमित मान रहे थे वह कश्मीर की सीमाओं तक सीमित न रह सका और यह जिहाद एक वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर भारत में हिन्दुओं को निशाना बनाने लगा।

इसके कारण में यदि हम जायें तो हमें कुछ कारण दिखाई पडते हैं। फरवरी 1998 को ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में इण्टरनेशनल इस्लामिक फ्रण्ट की ओर से पहली बार यहूदियों और ईसाइयों के विरुद्ध जिहाद का आह्वान विश्व भर के मुसलमानों से किया गया था। जिहाद के इस आह्वान के बाद विश्व में अल कायदा द्वारा स्वयं और उसके फ्रण्ट में सम्मिलित विभिन्न इस्लामी आतंकवादी संगठनों की ओर से पश्चिमी देशों और यहूदियों को निशाना बनाया जाने लगा। 1998 में जिहाद के इस वैश्विक आह्वान के बाद भारत स्थित इस्लामी अतिवादी संगठनों में इसे लेकर उहापोह की स्थिति रही और लगभग तीन वर्षों तक अर्थात 11 सितम्बर 2001 तक भारत स्थित आतंकवादी संगठन कश्मीर केन्द्रित होने के कारण अमेरिका और ब्रिटेन के विरुद्ध खडे अल कायदा का साथ देना नहीं चाह्ते थे। 11 सितम्बर 2001 के बाद विश्व स्तर पर जिहाद की परिभाषा पूरी तरह बदल गयी और विश्व में स्थानीय आधार पर विभिन्न देशों में अलग इस्लामी राज्य के लिये उग्रवाद के रास्ते पर चल रहे इन संगठनों ने विश्व स्तर पर खिलाफत और शरियत व कुरान आधारित विश्व की संस्थापना का उद्देश्य अपना लिया नये। परिवेश में अल कायदा उन सभी संगठनों को एक छतरी के नीचे लाने में सफल रहा जो विभिन्न देशों में अलग इस्लामी राज्य के लिये संघर्ष कर रहे थे फिर वह फिलीपींस, दक्षिणी थाईलैण्ड, कश्मीर, चेचन्या या विश्व के अन्य भाग हों। इन सभी अलगाववादी उग्रवादी आन्दोलनों ने स्थानीय स्तर पर अलग इस्लामी राज्य की स्थापना के स्थान पर विश्व स्तर पर एक ऐसी व्यवस्था निर्माण को अपना लक्ष्य बना लिया जो कुरान और शरियत पर आधारित हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये जिहाद को भी व्यापक रूप दिया गया और एक उद्देश्य से कार्य करने वाले विभिन्न संगठन विभिन्न देशों में सक्रिय हो गये।


पिछ्ले 50 से अधिक वर्षों से इस्लामी आतंकवाद की त्रासदी झेल रहे मध्य पूर्व से इस समस्या का गुरुत्व केन्द्र दक्षिण एशिया की ओर आ गया। यदि 2001 के बाद दक्षिण एशिया की ओर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस उप महाद्वीप में इस्लामी आतंकवाद की दशा और दिशा दोनों में व्यापक परिवर्तन आया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में इस्लामी आतंकवादी संगठन सशक्त हुए हैं और इन सभी देशों में कार्यरत इस्लामी संगठन कहीं अधिक कट्टरता से शरियत आधारित विश्व व्यवस्था के निर्माण के लक्ष्य की ओर उद्यत हैं। भारत में सिमी, पाकिस्तान में लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद तथा बांग्लादेश में हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी ऐसे संगठन हैं जो स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि इनका उद्देश्य कुरान और शरियत आधारित विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है। ये संगठन अपने देशों की व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं और प्रशासन के लिये सिरदर्द बन चुके हैं।

आज जिहादवाद एक खतरनाक स्थिति में पहुँच गया है जहाँ विश्व के अनेक कट्टर इस्लामी आतंकवादी संगठन केन्द्रीय रूप से न सही तो भी वैचारिक आधार पर अल कायदा से अवश्य जुड गये हैं और ये सभी संगठन अपनी स्थानीय इकाइयों के सहारे आतंकवाद की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। वास्तव में मूल समस्या यही है कि जिसे कानून व्यवस्था की समस्या माना जा रहा है वह सभ्यता और बर्बरता का संघर्ष है। ये बर्बर शक्तियाँ यदि पूरी तरह इस्लामी शक्तियाँ नहीं हैं तो भी इस्लाम धर्म से प्रेरणा ग्रहण कर रही हैं और इस्लामी धर्मगुरु और बुद्धिजीवी इस सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि वे इस इस्लामवादी आन्दोलन के साथ है या नहीं जो विश्व व्यवस्था बदलने के लिये हिंसा का सहारा ले रहा है।

वैसे तो पिछ्ले कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध इस्लामी मदरसा दारूल-उलूम-देवबन्द ने एक बडा सम्मेलन आयोजित कर इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद से इस्लाम को असम्पृक्त करने का प्रयास किया परंतु उस सम्मेलन में कुछ प्रश्नों को अनछुआ ही रहने दिया कि कुरान और शरियत के आधार पर विश्व व्यवस्था के निर्माण को लेकर उन लोगों का दृष्टिकोण क्या है? भारत में सक्रिय उन इस्लामी आतंकवादी संगठनों को लेकर उनका दृष्टिकोण क्या है जिनका उद्देश्य कुरान और शरियत आधारित विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है और इसके लिये वे हिंसा का सहारा ले रहे हैं और ऐसे संगठन में सर्वप्रथम नाम सिमी का आता है। इसके साथ ही ऐसे सम्मेलनों की नीयत पर बडा सवाल तब खडा हुआ जब इस सम्म्मेलन में सुरक्षा एजेंसियों और सरकार को निशाना बनाते हुए कहा गया कि आतंकवाद के नाम पर मदरसों और बेगुनाह मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे प्रस्तावों से स्पष्ट है कि पहले से ही मुस्लिम तुष्टीकरण में लिप्त सरकारों और राजनीतिक दलों के ऊपर इस बात के लिये मनोवैज्ञानिक दबाव डालना कि वे समस्या के पीछे के मूल तत्वों पर विचार न करें और प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों पर दबाव डालें कि वे आतंकवाद को देश में सहयोग देने वाले तत्वों को खुली छूट दें। निश्चित रूप से इस्लामी धर्मगुरुओं और बुद्धिजीवियों की यह रणनीति सफल रही है और मार्च माह में सिमी के अनेक बडे आतंकवादियों की गिरफ्तारी और मध्यप्रदेश के एक गाँव में सिमी के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर होने के खुलासे के बाद कुछ ही महीनों में जयपुर में हुआ विस्फोट प्रमाणित करता है कि देश में सुरक्षा एजेंसियों पर दबाव है और इसी का परिणाम है कि इस विस्फोट का कोई सुराग खुफिया एजेंसियों के पास भी नहीं था।

जयपुर में विस्फोट होने के बाद केन्द्र और राज्य सरकारें खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों को दोष दे रही हैं इससे स्पष्ट है कि साँप गुजरने के बाद लाठी पीटने का खिसियाहट भरा खेल खेला जा रहा है। जब खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव बना कर उनका मनोबल कमजोर किया जा रहा है तो क्या अपेक्षा की जानी चाहिये कि ऐसी घटनाओं पर वे रोक लगा सकेंगे। 2001 में देश में सिमी पर प्रतिबन्ध लगाया गया था और उसके बाद इस संगठन का विस्तार देश के अनेक राज्यों में हुआ है। यह तथ्य इस बात तो पुष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि यह प्रतिबन्ध बिलकुल अप्रभावी है। प्रतिबन्ध के बाद भी इस संगठन का फलना फूलना और पिछ्ले दो वर्षों मे प्रायः सभी बडी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना इस बात को प्रमाणित करता है कि सरकारें इस्लामी आतंकवाद के इस्लामी स्वरूप के कारण इससे निपटने में हिचक रही हैं और इस समस्या के मूल में स्थित विचारधारा के बारे में देश में कोई बहस न होने से इस्लामी धर्मगुरु और बुद्धिजीवी लोगों का ध्यान हटाने में सफल हो रहे हैं जिसका सीधा लाभ ये इस्लामी संगठन अपने संगठन और प्रसार के लिये उठा रहे हैं।


पिछ्ले सात- आठ वर्षों में इस्लामी आतंकवादियों ने एक से एक दुस्साहसिक घटनाओं को अंजाम दिया है परंतु उसका प्रतिरोध या उनकी पुनरावृत्ति रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। 1999-2000 में इस्लामी आतंकवादियों ने कुछ खूँखार आतंकवादियों को छुडाने के उद्देश्य से भारत के एक विमान का अपहरण किया और भारत सरकार को इन आतंकवादियों के आगे झुकने को विवश होना पडा। आज इस घटना के आठ वर्षों बाद भी सरकार ने कुछ नहीं सीखा है और 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण के लिये मृत्युदण्ड प्राप्त आतंकवादी मोहम्मद अफजल को क्षमादान के प्रयासों के तहत जेल में सुरक्षित रखा है। सरकार के ऐसे निर्णय न केवल आतंकवादियों के मनोबल को बढाते हैं वरन उनके समक्ष भारत को एक आतंकवाद समर्थक राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करते है जो अपनी गलतियों से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं करता।

भारत में अनेक प्रमुख पत्रकार और बुध्दिजीवी इस बात के लिये भारत की प्रशंसा करते नहीं थकते कि इस देश में आतंकवाद की समस्या को पश्चिम से भिन्न स्वरूप में लिया गया है और उसके प्रति दृष्टिकोण भी पश्चिम से भिन्न है। उनका संकेत इस बात की ओर रहता है कि जहाँ पश्चिम में आतंकवाद के बाद इस्लाम धर्म और मुसलमानों के प्रति एक विशेष प्रकार का भाव व्याप्त हुआ है उससे भारत बिलकुल मुक्त है। यह स्थिति कुछ मात्रा में प्रशंसनीय हो सकती है परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पश्चिम की सरकार और वहाँ के समाज ने जिस प्रकार इस समस्या को गम्भीरता से लिया है और उस पर चिंतन आरम्भ किया है उसी का परिणाम है कि अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, एक-एक बडे आक्रमण का सामना करने के उपरांत अनेक वर्षों से किसी भी आक्रमण को रोकने में सफल रहे हैं। इसके विपरीत भारत में औसतन प्रत्येक तीसरे चौथे माह बडा आतंकवादी आक्रमण होता है जिसमें 20 से 25 लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। आज हमें इस बारे में गम्भीरता से विचार करना होगा कि पश्चिम का इस सम्बन्ध में आत्मरक्षा की सतर्कता अच्छी है या हमारी आक्रमण सहन करने की उदारता। अब वह समय आ गया है कि इस्लामी आतंकवाद के मूल में छिपी विचारधारा, इसके सहयोगियों और इसका पोषण करने वालों के सम्बन्ध में हम खुलकर विचार करें। वास्तव में यह एक युद्ध की घोषणा है और अब हमें अपने शत्रुओं को पहचान लेना चाहिये।
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