Dogs and Indian are Not Allowed

Dogs and Indian are Not Allowed शायद हम हिन्दुस्तानी इस वाक्य को भुल गये या फिर हमारे पुर्वंज हमें बता कर नही गये हिन्दुस्तानी और कुत्ते क्या एक हैं। आज हिन्दुस्तानी फिर से वही जा रहा जहाँ उनहें कुत्ता होने का ऎहसास कराया जाता था। अंग्रेज हमारे देश में व्यापारी बन कर आये थे और हम पर राज करने के साथ हमे हर तरह से नीचा दिखाने का कार्य उन्होने किया। कारण था उनका संस्कार और संस्कृति। पाश्चात्य के देशों में अपने आपको मनुष्य और दुसरे आदमी को बजार माना जाता है और उनका सारा का सारा काम इसी पद्धति पर चलता है। लेकिन हिन्दुस्तान में इससे बिलकुल भिन्न हम सभी को एक इन्सान मानते हैं।
वैलेंटाइन डे भी इसी व्यापार पद्धती के तहत मनाने वाला एक प्रेम पर्व है जिसका हिन्दुस्तान से न कोई लेना देना है और ना ही यहाँ की ये संस्कृती का हिस्सा है। यह तो सिर्फ Dogs and Indian are Not Allowed कहने वालो के द्वारा धोपा गया एक विक्रय कला है जिसके तहत हम हिन्दुस्तानी इस वर्ष 300 हजार करोड़ रुपये विदेश भेज दिया। सोचने का विषय है। प्रेम कोई कथा नहीं कि उसे कथावाचक की जरुरत पड़े। किसी को भाष्य करना पडे़। समझाने की नैबत आए। वह तो स्वत: काव्य है। तरल और सरल । निश्छल, अविरल बिना उलझाव। प्रकृति ने उसे अनगढ़ ही बनाया। प्रेम अनंत है। उसके लिये साल में बस एक दिन। शायद नही प्रेम तो हृदय में उठने बाला तंरग है जो साल के 365 दिन उठता है।लेकिन बाजारु सभ्यता के चलते हमरा इतना पतन हो गया हैं कि हम अपनी सभ्यता को भुल कर इन्सान को एक उपभोग या बजारु चीज समझ लिये हैं। आज एक माल का उपभोग करो अगले साल कोई नया माल का इन्तजाम करो। क्यों कि हम एक इन्सान नही एक बजार समझा जा रहा है और बजार में सब चलता है। माल को खाओ और आगे बढो़।
साल में एक दिन अपने प्यार का प्रर्दशन करो। जैसे साल के किसी एक मौसम में जानवर किया करते हैं। हम इन्सान हैं या जानवर। आज समाज का एक तबका पश्चिमी देशों के द्वारा फैलाये जा रहे व्यापार पद्धति जाल में बुरी तरह फंस गया है उसे न तो अपना संस्कृति को बचाना चाहता है और उसे अपने संस्कृति का ज्ञान है।वही एक तबका वैलेंटाइन डे को गले लगा लिया है और अपने आपको बजार का एक अंग बना लिया है। खुद भी उपभोग कर रहा है और अपना भी उपभोग करवा रहा है। इस समाज के रहनुमा हिन्दुस्तान की महिलायें को सिर्फ एक उपभोग की वस्तु मानता है जैसा कि पश्चिमी देशों में होता है। जहाँ नारी को सिर्फ एक उपभोग की वस्तु माना जाता है। अगर नारी एक उपभोग कि वस्तु है तो शायद ऎसा सोचने वालो के घर में भी कोई न कोई उपभोग की वस्तु होगा ही और उसका भी कोई ना कोई उपभोग कर रहा होगा। क्या हमारे देश में प्रेम को बेचने का जरुरत पर गया है। आज हमें किसी संत वैलेंटाइन की जरुरत नही है हमारी सभ्यता की जड़ इतनी मजबुत है कि संत वैलेंटाइन जैसे कामवसना के पुजारी की जरुरत हमें नही है। हम तो सच्चे प्रेम की पुजा करते हैं। कीसी कामवासना या बजारु सभ्यता के अन्तर्गत साल में एक दिन जानवरो की तरह प्रेम का प्रर्दशन नही किया करते है। यह हिन्दुस्तान है यहाँ 33 करोड़ देवि-देवता का वास होता है किसी कामवासना के द्वारा उन्मत इन्सान को हम पुजना तो दुर देखना भी पसंद नही करते है। यह हिन्दुस्तान है कोई बजार नही। हमे इस बजारु सभ्यता को नकारने की जरुरत है नही तो Dogs and Indian are Not Allowed कहने बालो कही दुबारा अपना साम्राज्य ना फैला ले।


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