कर्नाटक की स्थिति अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है और इस राज्य में पहली बार भाजपा अपने बलबूते पर सरकार बनाने जा रही है। चुनाव से पूर्व के तमाम अनुमानों को भी इस चुनाव परिणाम ने ध्वस्त कर दिया है और जो लोग किंगमेकर बनने का या राज्य में सरकार की चाभी अपने हाथ में रखने का स्वप्न संजोये थे जनता ने उन्हें ऐसा कोई अवसर नहीं दिया। इस चुनाव परिणाम को लेकर अनेक प्रकार के विश्लेषण और व्याख्यायें हो रही हैं। इन सभी विश्लेषणों में एक बात सामान्य है कि इन परिणामों से भाजपा का मनोबल काफी बढ जायेगा और इसके विपरीत कांग्रेस कुछ हद तक हताश हो जायेगी। इसके अतिरिक्त सभी विश्लेषक इस बात से भी सहमत हैं कि वर्तमान केन्द्र सरकार की स्थिति अब और भी कमजोर हो जायेगी और उसे कोई भी निर्णय लेने में कठिनाई का सामना करना पडेगा विशेष रूप से अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि के सम्बन्ध में। इसी के साथ अब सरकार पर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव भी बढेगा जैसे कीमतों पर तत्काल नियंत्रण, किसानों की कर्ज माफी में किसानों की भूमि को लेकर नया नजरिया अपनाना। लेकिन ये तो तात्कालिक असर हैं। इसके अतिरिक्त कर्नाटक चुनाव परिणाम के कुछ दूरगामी प्रभाव भी होने वाले हैं।
कर्नाटक में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर भाजपा ने अपने ऊपर लगे उस धब्बे को काफी हद तक धुल दिया है जिसके अनुसार उसे उत्तर भारत की पार्टी कहा जाता था। हालांकि इससे पूर्व भाजपा ने गुजरात और उडीसा जैसे गैर हिन्दी भाषी प्रांतों में भी अपनी सरकार बनाई थी परंतु दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश अभी शेष था। यह एक बडा घटनाक्रम है जिसका आने वाले दिनों में व्यापक प्रभाव हो सकता है क्योंकि अब भाजपा को आन्ध्र प्रदेश में अपनी पैठ बनाने में अधिक समस्या नहीं होगी। कर्नाटक चुनाव अनेक सन्दर्भों में निर्णायक था। इस बार भाजपा इस प्रांत में अपने निरंतर बढ रहे ग्राफ के चरम पर थी और उसे स्वयं को एक ऐसे राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करना था जो कांग्रेस का विकल्प अपने दम पर बन सकने को तैयार है। यह भाजपा के लिये अंतिम अवसर था और यदि इस बार वह असफल हो जाती तो प्रदेश की राजनीति पुनः कांग्रेस केन्द्रित हो जाती। भाजपा ने स्वयं को सशक्त विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर राज्य की राजनीति में द्विदलीय व्यवस्था को स्थापित कर दिया है और 1980 से राज्य में कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित जनता परिवार को स्थानांतरित कर दिया है। अब भाजपा जनता दल सेकुलर के बचे खुचे जनाधार को भी अपने अन्दर समेटने में सफल हो जायेगी। इसका परिणाम यह होगा कि यहाँ दीर्घगामी स्तर पर भाजपा एक शक्तिशाली राजनीतिक दल के रूप में स्थापित हो जायेगी। इस चुनाव परिणाम के एक संकेत की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि भाजपा को समस्त राज्य में मिश्रित सफलता मिली है और उसकी विजय का आधार कोई विशेष क्षेत्र भर ही नहीं रहा है। इसका अर्थ है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने विचारधारा के साथ सामाजिक समीकरणों का संतुलन बैठाना सीख लिया है। यही बात गुजरात के सन्दर्भ में भी देखने को मिली थी जब विचारधारा, सामाजिक संतुलन और विकास ने एक साथ मिलकर काम किया था। यह रूझान निश्चित ही कांग्रेस और देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी के लिये चिंता का विषय होना चाहिये।
भाजपा को विचारधारा और सामाजिक संतुलन स्थापित करने में मिलने वाली सफलता का सबसे बडा कारण भाजपा की हिन्दुत्व की अपील है। यद्यपि इस चुनाव में स्पष्ट रूप से हिन्दुत्व को मुद्दा नहीं बनाया गया था परंतु आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार की नरम नीति को चर्चा के केन्द्र में लाकर भाजपा इस हिन्दुत्व का ध्रुवीकरण करने में सफल रही। यदि इस चुनाव के परिणामों को 1990 में उत्तर भारत में हिन्दुत्व आनदोलन के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि में उत्तर भारतीय राज्यों में मिली सफलता के सन्दर्भ में देखें तो हमें एक समानता देखने को मिलती है कि 1990 के दशक में भी उत्तर प्रदेश में भाजपा को नेता की जाति, हिन्दुत्व की अपील के कारण अनुसूचित जाति-जनजाति और अधिक पिछडा वर्ग का भारी समर्थन मिला था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, लोध के साथ अनुसूचित जातियाँ भी बडी मात्रा में भाजपा के साथ थीं। कर्नाटक चुनाव परिणाम 1990 के उत्तर भारत के समीकरणों की याद दिलाते हैं तो क्या माना जाये कि कर्नाटक में केवल भाजपा की ही विजय नहीं हुई है वरन हिन्दुत्व की भी विजय हुई है।
कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहाँ पिछ्ले कुछ वर्षों से हिन्दुत्व का उफान स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। 2000 से लेकर आजतक जब भी विश्व हिन्दू परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोई जनसभा या हिन्दू सम्मेलन होता था तो लाखों की संख्या में लोग आते थे। इसी प्रकार इस राज्य में उडुपी मठ के संत विश्वेशतीर्थ जी महाराज का प्रभाव क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक है और उन्होंने इस राज्य में हिन्दुत्व जागरण में काफी बडा योगदान किया है। भाजपा की इस विजय में हिन्दुत्व के इस आन्दोलन की अंतर्निहित भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह इस सन्दर्भ में अधिक मह्त्वपूर्ण है कि जो दल भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर उसे किनारे लगाने का प्रयास करते आये हैं उन्हें अवश्य यह सोचना चाहिये कि सेकुलरिज्म के नाम पर अन्धाधुन्ध मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दुओं की अवहेलना की प्रतिक्रिया भी हो सकती है। यहाँ तक कि कांग्रेस के कुछ लोग भी मान रहे हैं कि जयपुर विस्फोट के समय ने उन्हें काफी क्षति पहुँचायी स्पष्ट है कि विस्फोट से तो कांग्रेस का कोई लेना देना नहीं था तो भी जनता का आक्रोश कांग्रेस पर क्यों फूटा जबकि कांग्रेस ने आतंकवाद का उत्तरदायी भाजपा को ठहराते हुए कहा था कि भाजपा के शासनकाल में विमान अपहरण के बदले आतंकवादियों को छोडा गया और उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस तर्क के बाद भी जनता का कांग्रेस के प्रति आक्रोश दर्शाता है कि आतंकवाद के प्रति केन्द्र सरकार और कांग्रेस के रवैये से जनता संतुष्ट नहीं है।
कर्नाटक चुनाव परिणाम एक ऐसा संकेत है जो कांग्रेस को मिला है परन्तु इस मामले में कांग्रेस अपनी भूल सुधार कर पायेगी इसकी सम्भावना नहीं है। कांग्रेस 1992 के बाद अपने से नाराज हुए मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिये अनेक विषयों पर समझौते कर रही है।
कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और संकेत आया है और वह भी कांग्रेस के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। कर्नाटक में चुनाव प्रबन्धन कांग्रेस ने उसी अन्दाज में किया था जब कि देश में नेहरू परिवार का जादू चलता था और चुनाव कार्यकर्ता नहीं गान्धी उपाधि जिताया करता था। देश में पिछ्ले कुछ वर्षों में आये परिवर्तनों से कांग्रेस बेपरवाह पुराने ढर्रे पर चली जा रही है। वैसे तो पिछ्ले अनेक चुनाव परिणामों से कांग्रेस की यह रणनीति धराशायी हो रही है परन्तु इस चुनाव का अलग महत्व है। कांग्रेस द्वारा किसी भी चुनाव में मुख्यमंत्री घोषित न करना उसकी उसी नीति का अंग है कि यह निर्णय हाईकमान करेगा। अब स्थितियों में ऐसा क्या अंतर आ गया है कि कांग्रेस की यह नीति काम नहीं करती। विशेष अंतर यह आया है कि अब देश में 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या उनकी है जो तीस या तीस वर्ष से ऊपर हैं। यह वह पीढी है जिसने अपनी आंखों के सामने न तो स्वाधीनता संग्राम देखा है और न महात्मा गान्धी और जवाहरलाल नेहरू का जादू। इस पीढी का इन पात्रों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। यही कारण है कि जब कांग्रेस अपने पुराने अन्दाज में नीतियों को निर्धारित कर चलती है तो इस आत्मसम्मोहन से बाहर नहीं आ पाती कि आज राहुल गान्धी का आकलन युवा उनके कौशल के आधार पर उनकी योग्यता के आधार पर करता है न कि किसी खानदान के वारिस के तौर पर। यही सूक्ष्म कारण है कि जब कांग्रेस चुनावों में अपना नेता नहीं घोषित करती तो उसे क्षति होती है और लोग नेहरू परिवार के प्रतिनिधि के तौर पर किसी को भी नहीं चुन लेते।
पिछ्ले अनेक चुनावों में पराजय का सामना कर रही कांग्रेस को अपने अन्दर कुछ मूलभूत परिवर्तन करना होगा। उसे एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का स्वरूप त्याग कर सही अर्थों में लोकतांत्रिक होना होगा तभी आगे उसका विस्तार सम्भव है। यही बात सेकुलरिज्म के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक समय था कि देश में सूचनाओं का प्रवाह सीमित था और कोई भी तथ्य या विचार कुछ लोगों तक सीमित था और वे शेष जनता को जैसा समझाते थे जनता मानती थी। आज परिस्थितियों में अंतर आ गया है। आज सूचनाओं का प्रवाह असीमित हो गया है और किसी भी तथ्य के सम्बन्ध में स्पष्ट स्थिति जानने के अनेक साधन हैं इस कारण जनता और विशेषकर युवा वर्ग को प्रोपगेण्डा और विचार के मध्य अन्तर समझ में आता है तभी जिस मोदी को मौत का सौदागर कहकर सम्बोधित किया जाता है उसी मोदी को गुजरात की जनता अपना रक्षक मानकर चलती है। इस अंतर को न समझने के कारण कांग्रेस साम्प्रदायिकता और सेकुलरिज्म की बहस में भी भोथरी सिद्ध हो रही है।
कर्नाटक चुनाव परिणाम से संकेत मिलता है कि आने वाले दिन केन्द्र सरकार के लिये भारी पड्ने वाले हैं और निर्णय लेने की उसकी क्षमता और भी मद्धिम पड जायेगी। इसका तात्कालिक परिणाम तो यह होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु सन्धि प्रायः समाप्त हो जायेगी और इससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की निर्णय न ले पाने वाले प्रधानमंत्री की छवि का आरोप और सही सिद्ध होगा और कांग्रेस के पास ऐसा कोई बडा मुद्दा हाथ में नहीं होगा जिसके सहारे वह जनता के बीच आम चुनाव में जाये। जिस प्रकार कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लडा गया और मँहगाई तथा आतंकवाद पर कांग्रेस पिट गयी वह रूझान आम चुनावों तक चलने वाला है क्योंकि दोनों ही मोर्चों पर कांग्रेस कुछ विशेष कर पाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन इससे यह अर्थ भी कदापि नहीं लगाया जा सकता कि आम चुनावों में भाजपा फ्रण्ट रनर है जैसा भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा। वैसे इसमें राजनीतिक बडबोलापन भी नहीं है। जिस प्रकार कांग्रेस अपनी भूलों से सीख नहीं ले पा रही है और भाजपा एक के बाद एक प्रदेश जीतती जा रही है उससे देश में वातावरण बदलते देर भी नहीं लगेगी।
कर्नाटक चुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ये चुनाव राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेंगे और इन चुनावों में भाजपा के विजयी होने से आम चुनाव नियत समय पर ही होंगे। यह बात पूरी तरह सत्य है। अब चुनाव नियत समय पर ही होंगे और उससे पहले अग्नि परीक्षा भाजपा की है जिसे अपने तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ को बचाने की चुनौती है।
कर्नाटक चुनाव परिणाम से यूपीए के गणित पर भी असर पड सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी के करिश्मे की आस लगाये कुछ घटक अवश्य चिंतित और घबराहट अनुभव कर रहे होंगे।
कर्नाटक चुनाव परिणाम का एक प्रभाव यह भी होगा कि भाजपा छोडकर गये अनेक लोग समाज में अपना बचा खुचा आधार भी खो देंगे और भटकी भाजपा के नाम पर उनकी आलोचना की प्रामाणिकता पर असर पडेगा इसी के साथ पार्टी से उनके मोलतोल में उनका पक्ष कमजोर हो जायेगा। उदाहरण के लिये भाजपा से बाहर हुई उमा भारती जिन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी भी बना ली अब तक कोई भी परिणाम देने में या भाजपा को रोकने में सफल नहीं रही हैं। भाजपा के निरंतर विजय अभियान से उनकी स्थिति कमजोर हो जायेगी और असंतुष्ट भाजपाईयों में समर्थन प्राप्त करने का उनका अभियान अवश्य प्रभावित होगा।
कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक और निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी नहीं होगी कि पिछ्ले दो वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और अब कर्नाटक में जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है और यह रूझान इंगित करता है कि देश के मतदाताओं की प्राथमिकतायें बदल रही हैं और उनके लिये स्थिर सरकार, विकास, सुरक्षा प्राथमिकता है। ऐसे में यदि आम चुनावों में कुछ आश्चर्यजनक परिणाम भी हमारे सामने आयें तो हमें चौंकना नहीं चाहिये। कुल मिलाकर कर्नाटक चुनावों ने राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय कर दी है। आने वाले दिनों में जो पक्ष नेतृत्व, कार्यक्रम, विचारधारा और सामाजिक समीकरणों में सामंजस्य स्थापित कर सकेगा वही देश पर शासन करेगा।
1 comments: on "कर्नाटक जनादेश के मायने"
अच्छा लेख है..मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री घोषित करना तो फायदेमंद होता ही है..और मानना होगा कि भाजपा चतुर हो गई है...वो उस जगह उम्मीदवार नहीं घोषित करती जहां आपस में झगड़ा हो..मसलन पिछले वार दिल्ली या छत्तीसगढ़ में नहीं किया गया था..लेकिन आडवाणी को पीएम का उम्मीदवार बनाना एक बड़ा दांव है..और लगता है थोड़ा फायदा तो जरुर मिलेगा..विशेषकर उन मतदाताओ का जिनका कोई अपना मत नहीं होता और जो हवा देखकर मत देते हैं।
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