31 मई दिन शनिवार, दिल्ली के रामलीला मैदान पर प्रमुख इस्लामी संगठनों की पहल पर एक आतंकवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन एक बार फिर सहारनपुर स्थित प्रसिद्ध मदरसा दारूल उलूम देवबन्द की पहल पर आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में मुख्य रूप से दारूल उलूम देवबन्द, जमायत उलेमा ए हिन्द, जमायत इस्लामी, नदवातुल उलेमा लखनऊ और मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्यों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधित्व का दावा किया गया। दारूल उलूम देवबन्द के मुख्य मुफ्ती हबीबुर्रहमान द्वारा तथाकथित फतवे पर हस्ताक्षर किये गये जिसके प्रति सभी उपस्थित लोगों ने सहमति व्यक्त की और इस फतवे के अनुसार किसी भी प्रकार की अन्यायपूर्ण हिंसा की निन्दा की गयी और जेहाद को रचनात्मक और आतंकवाद को विध्वंसात्मक घोषित किया गया। आयोजकों के दावे के अनुसार इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से तीन लाख लोगों ने भाग लिया। सम्मेलन में आने वालों में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग शामिल थे।
इससे पूर्व सहारनपुर स्थित प्रमुख इस्लामी शिक्षा केन्द्र और तालिबान के प्रमुख सदस्यों मुला उमर और जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अजहर के प्रेरणास्रोत रहे दारूल उलूम देवबन्द ने 25 फरवरी को भी देश भर के विभिन्न मुस्लिम पंथों के उलेमाओं को आमंत्रित कर आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया था। उस पहल को अनेक लोगों ने ऐतिहासिक पहल घोषित किया था और एक बार फिर रामलीला मैदान पर हुई आतंकवाद विरोधी सभा को एक सकारात्मक पहल माना जा रहा है। परंतु जिस प्रकार फरवरी माह में हुए उलेमा सम्मेलन के निष्कर्षों पर देश में आम सहमति नहीं थी कि ऐसी पहल का इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैला रहे लोगों पर क्या प्रभाव होगा उसी प्रकार का प्रश्न एक बार फिर आतंकवाद विरोधी सम्मेलन से भी उभरता है।
इस सम्मेलन में फतवे की भाषा और वक्ताओं का सुर पूरी तरह उलेमा सम्मेलन की याद दिलाता है। सम्मेलन में पूरा जोर इस बात पर था कि किस प्रकार यह सिद्ध किया जाये कि इस्लाम और पैगम्बर की शिक्षायें आतंकवाद को प्रेरित नहीं करती और इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है। इसके साथ एक बार फिर जेहाद को इस्लाम का अभिन्न अंग घोषित करते हुए उसे आतंकवाद से पृथक किया गया। इसमें ऐसा नया क्या है जिसको लेकर इस सम्मेलन या फतवे को ऐतिहासिक पहल घोषित किया जा रहा है। जब से इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हुआ है तब से इस्लामी बुध्दिजीवी और धर्मगुरु इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म बता रहे हैं और जेहाद को एक शांतिपूर्ण आन्तरिक सुधार की प्रक्रिया घोषित कर रहे हैं परंतु उनके कहे का कोई प्रभाव उन आतंकवादी संगठनों पर नहीं हो रहा है जो जेहाद और इस्लाम के नाम पर आतंकवाद में लिप्त हैं। वास्तव में एक बार फिर इस सम्मेलन ने हमारे समक्ष एक बडा प्रश्न खडा कर दिया है कि क्या इस्लामी संगठन, धर्मगुरु या फिर बुद्धिजीवी इस्लामी आतंकवाद का समाधान ढूँढने के प्रति वाकई गम्भीर हैं। उनके प्रयासों की गहराई से छानबीन की जाये तो ऐसा नहीं लगता।
वास्तव में इस्लामी आतंकवाद को एक सामान्य आपराधिक घटना के रूप में जो भी सिद्ध करने का प्रयास करता है वह इसे प्रोत्साहन देता है। इस्लामी आतंकवाद एक वृहद इस्लामवादी आन्दोलन का एक रणनीति है और इस आन्दोलन का उद्देश्य राजनीतिक इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करना है। समस्त समस्याओं का समाधान इस्लाम और कुरान में है, विश्व की सभी विचारधारायें असफल सिद्ध हो चुकी हैं और इस्लाम ही सही रास्ता दिखा सकता है, पश्चिम आधारित विश्व व्यवस्था अनैतिकता फैला रही है और उसके मूल स्रोत में अमेरिका है इसलिये अमेरिका का किसी भी स्तर पर विरोध न्यायसंगत है, इस्लामी आतंकवाद जैसी कोई चीज नहीं है यह समस्त विश्व में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार का परिणाम है, आज मीडिया इस्लाम को बदनाम कर रहा है, फिलीस्तीन में मुसलमानों के न्याय हुआ होता तो और इजरायल का साथ अमेरिका ने नहीं दिया होता तो इस्लामी आतंकवाद नहीं पनपता। ऐसे कुछ तर्क राजनीतिक इस्लाम के हैं जो इस्लामवादी आन्दोलन का प्रमुख वैचारिक अधिष्ठान है और इन्हीं तर्कों के आधार पर इस्लाम की सर्वोच्चता विश्व पर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। क्या किसी भी इस्लामी संगठन ने इन तर्कों या उद्देश्यों से अपनी असहमति जताई है। इसका स्पष्ट उत्तर है कि नहीं।
31 मई को रामलीला मैदान में जो तथाकथित आतंकवाद विरोधी रैली हुई उसमें भी जिस प्रकार के तेवर में बात की गयी वह यही संकेत कर रहा था कि इस रैली में मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा को ही प्रोत्साहित किया गया और अमेरिका के विरोध में जब भी वक्ताओं ने कुछ बोला तो खूब तालियाँ बजीं। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि अमेरिका शैतान है या नहीं यहाँ प्रश्न यह है कि एक ओर आतंकवाद को इस्लाम से पृथक कर और फिर इस्लामी आतंकवाद के मूल में छिपी अवधारणा को बल देकर इस्लामी संगठन किस प्रकार आतंकवाद से लड्ना चाहते हैं। किसी तर्क का सहारा लेकर यदि आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराये जाने का प्रयास हो तो फिर आतंकवाद की निन्दा करना एक ढोंग नहीं तो और क्या है। आज बडा प्रश्न जो हमारे समक्ष है वह राजनीतिक इस्लाम की महत्वाकांक्षा और इस्लामवादी आन्दोलन है जो इस्लाम में ही सभी समस्याओं का समाधान देखता है। वर्तमान समय में अंतरधार्मिक बहसों में भाग लेने वाले और ऐसी बहसें आयोजित कराने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी भी आतंकवाद के सम्बन्ध में ऐसी अस्पष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं कि उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। ऐसे ही एक मुस्लिम विद्वान हैं डा. जाकिर नाईक उनके कुछ उद्गार सुनकर कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। इस सम्बन्ध में कुछ यू ट्यूब के वीडियो प्रस्तुत हैं। जिन्हें देखकर कोई भी सोचने पर विवश हो सकता है कि मुस्लिम बुध्दिजीवी किस प्रकार इस्लामवादी आन्दोलन का अंग हैं और अंतर है तो केवल रणनीति का है। http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI
http://www.youtube.com/watch?v=KAdwy5IJzj4&feature=related
http://www.youtube.com/watch?v=_MtddCCuaC8&feature=related
http://www.youtube.com/watch?v=ZMAZR8YIhxI&feature=related
31 मई के सम्मेलन के सन्दर्भ में जाकिर नाइक का उल्लेख करना इसलिये आवश्यक हुआ कि आज उन्हें एक नरमपंथी और उदारवादी मुसलमान माना जा रहा है जो बहस में विश्वास करता है परंतु उनके भाव स्पष्ट करते हैं कि आज आतंकवाद की समस्या को एक प्रतिक्रिया के रूप में लिया जा रहा है और इसके लिये मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का सृजन किया जा रहा है। मुस्लिम उत्पीडन की इस अवधारणा का भी वैश्वीकरण हो गया है। एक ओर जहाँ इजरायल और फिलीस्तीन का विवाद समस्त विश्व के इस्लामवादियों के लिये आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने का सबसे बडा हथियार बन गया है वहीं स्थानीय स्तर पर भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा रची जाती है और इसका शिकार बनाया जाता है देश के पुलिस बल और सुरक्षा एजेंसियों को।
रामलीला मैदान में जो भी पहल की गयी उसकी ईमानदारी पर सवाल उठने इसलिये भी स्वाभाविक हैं कि इस सम्मेलन या रैली में एक बार भी इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले वैश्विक और भारत स्थित संगठनों के बारे में इन मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपनी कोई स्थिति स्पष्ट नहीं की। इन तथाकथित शांतिप्रेमियों ने एक बार भी सिमी, इण्डियन मुजाहिदीन, लश्कर, जैश का न तो उल्लेख किया और न ही उनकी निन्दा की या उनके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट की। वैसे आज तक ओसामा बिन लादेन के उत्कर्ष के बाद से विश्व के किसी भी इस्लामी संगठन ने उसके सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की और अमेरिका पर किये गये उसके आक्रमण को मुस्लिम उत्पीडन की प्रतिक्रिया या फिर आतंकवादी अमेरिका पर आक्रमण कह कर न्यायसंगत ही ठहराया। सम्मेलन में जयपुर में आतंकवादी आक्रमण में मारे गये लोगों की सहानुभूति में भी कुछ नहीं बोला गया और पूरा समय इसी में बीता कि इस्लाम को आतंकवाद से कैसे असम्पृक्त रखा जाये। ऐसे में एक बडा प्रश्न हमारे समक्ष यह है कि आतंकवाद के विरुद्ध इस युद्ध में हम इन इस्लामी संगठनों की पहल को लेकर कितना आश्वस्त हों कि इससे सब कुछ रूक जायेगा। क्योंकि समस्या के मूल पर प्रहार नहीं हो रहा है।
25 फरवरी को दारूल उलूम देवबन्द ने उलेमा सम्मेलन किया और एक माह के उपरांत ही मध्य प्रदेश में सिमी के सदस्य पुलिस की गिरफ्त में आये और मई की 13 दिनाँक को जयपुर में आतंकवादी आक्रमण हो गया। जुलाई 2006 को मुम्बई में स्थानीय रेल व्यवस्था पर हुए आक्रमण के बाद अब तक 9 श्रृखलाबद्ध सुनियोजित विस्फोट हो चुके हैं और इन सभी विस्फोटों में भारत के मुस्लिम संगठनों और सदस्यों की भूमिका रही है। इससे स्पष्ट है भारत में मुसलमान वैश्विक जेहादी नेटवर्क से जुड गया है और वह मुस्लिम उत्पीडन की वैश्विक और स्थानीय अवधारणा से प्रभावित हो रहा है। जब तक इस्लामी संगठन इस अवधारणा के सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करते और आतंकवाद के स्थान पर आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध फतवा नहीं जारी करते उनकी पहल लोगों को गुमराह करने के अलावा और किसी भी श्रेणी में नहीं आती।
इस्लामी आतंकवाद आज इस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ से उससे लड्ने के लिये एक समन्वित प्रतिरोध की आवश्यकता है और ऐसी पहल जो पूरे मन से न की गयी हो या जिसमें ईमानदारी का अभाव हो उससे ऐसी प्रतिरोधक शक्ति कमजोर ही होती है जिसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। हमारे देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी-उदारवादी लाबी ऐसे प्रयासों को महिमामण्डित कर प्रस्तुत करती है ताकि इस्लामी आतंकवाद के मूल स्रोत, विचारधारा और प्रेरणा पर बह्स न हो सके। ऐसे प्रयासों के मध्य हमें अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है और साथ ही इस पूरी समस्या को एक समग्र स्वरूप में व्यापक इस्लामवादी आन्दोलन के रणनीतिक अंग के रूप में भी देखने की आवश्यकता है।
1 comments: on "आतंकवाद विरोधी मुस्लिम पहल के निहितार्थ"
जो कल कहा गया वह काफ़ी पहले से कहा जाता रहा है. इस में नया कुछ नहीं है. अगर यह लोग ईमानदार हैं तब इन्हें स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए था कि जो मुसलमान आतंकवाद का किसी भी रूप में समर्थन करेगा उसे इस्लाम से निकाल दिया जाएगा. इन्हें एलान करना चाहिए था कि आतंकवादी संगठनों के सब सदस्य अपने मुसलमान होने का हक़ खो चुके हैं. कोई मुसलमान इन के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध न रखे. इस तरह के फतवों का आतंकवादियों पर कोई असर नहीं होना.
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