न्यूक्लीयर डील पर विश्वास मत हासिल करने की कवायद और उस पर हुए ड्रॉमे ने देश को काफी कुछ बता दिया है। संसद में सरकार ने विश्वास मत तो हासिल कर लिया, लेकिन इस हासिल में बहुतों ने बहुत कुछ खोया है। भारतीय संसद जिस तरह से शर्मसार हुई, उसका उल्लेख बार-बार होगा। जब भी संसद की चर्चा होगी इस बात का उदाहरण दिया जाएगा कि संसद की गरिमा को कैसे धूमिल किया गया। यह उन नेताओं द्वारा किया जिसकी जमीर में हया का वास नहीं है। जिसने भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का बाजार में बदल दिया है। सरे आम जहां खरीद-फरोख्त की जा रही है। उन लाखों-करोड़ों जनता जिसने उन नेताओं को चुनकर अपने प्रतिनिधित्व के रूप में संसद की नुमाइंदगी करने के लिए भेजा आज वह बेचे और खरीदे जा रहे हैं। यह भारत के संसदीय इतिहास में सचमुच एक इतिहास बना गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही संख्या बल पर विश्वास मत हासिल कर लिया, लेकिन नैतिकता के चश्मे से देखे तो यह उनके लिए दागदार वाला दिन रहा। मनमोहन सिंह की अपनी छवि भले ही एक साफ सुथरे नेता की रही हो, लेकिन अपने को संसद में जीता देखने के लिए जिस नेता का दामन पकड़े हुए थे वो दागदार हैं। इससे पहले १९९३ में नरसिंहा राव की सरकार ने अपनी सरकार बचाने के लिए उसी शिबू सोरेने का सहारा लिया था, जिसके लिए मनमोहन सिंह भी बेकरार दिखें। आखिर परमाणु डील इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उन्होंने भारतीय संसद की गरिमा, भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का ताक पर रखकर ऐसे समझौते किए जो उनके लिए तो नहीं, लेकिन देश में टीस पैदा करेंगे। आज भारतीय राजनीति अपने सफर में सबसे नीचे वाले पायदान पर खड़ी नजर आ रही है। अब तक जो ढंके छुपे होता आ रहा था, वह अब बिल्कुल खुला हुआ हमारे समक्ष है। जनता ये जानती थी कि नेता भ्रष्ट होते हैं, लेकिन वे यह भी कहेंगे कि नेता बिकाऊ होते हैं। और इस बात का सारा दारोमदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जाता है। उन्होंने भारतीय राजनीति में यह बात साफ तौर पर जाहिर कर दी कि संख्या बल का जुटाना हो तो जोड़-तोड़ की राजनीति के साथ करोड़ों की डील भी करनी पड़ती है। एक स्वच्छ नेता जिस पर यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राजनीति से गंदगी को साफ कर राजनीति को आम आदमी के बीच पॉपुलर बनाए बजाय उसके उन्होंने इसकी गरिमा को मटियामेट कर दिया। सरकार भले ही अपना पीठ थपथपा रही हो, लेकिन अंदर से उसे भी पता है कि इस संख्या बल जुटाने के लिए उसे कितने रहस्यों पर पर्दा डालना पड़ा है। इस जीत को यूपीए चुनाव में भुनाने की कोशिश करेगी, लेकिन वह जनता को इस बात का जवाब कैसे देगी कि संख्या बल उन्होंने कैसे और किस तरह से जुटाए। देश की जनता ने संसद का पूरा हाल अपनी आंखों से देखा है और वह इतनी आसानी से भूलने वाली नहीं। अगर जनता भूलती है तो यह संसद के अंदर जो कुछ भी हुआ उससे बढ़कर शर्मनाक होगा। लोकसभा में मंगलवार को सांसद राहुल गांधी के भाषण में निरन्तर व्यवधान पर अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि भारत की संसद अपने –अधोबिंदु— पर पहुंच गई है। इसके बावजूद विश्वासमत प्रस्ताव के पक्ष- विपक्ष में दबाव और प्रलोभनों के आरोपों के बाद जिस तरह सदन में नोटों की गड्डियों का प्रदर्शन हुआ, उसे तो –पतन की पराकाष्ठा— ही कहा जाएगा। दरअसल सरकार का बनना और गिरना यदि जनादेश, नीतियों और कार्यक्रमों पर आधारित विशुद्ध लोकतांत्रिक प्रक्रिया हो, तो ऐसी नौबत ही नहीं आए। इसके विपरीत आज तो निजी स्वार्थों, आपसी सौदेबाजी और विचारधारा के विरुद्ध भी गठबंधन हो रहे हैं। ऐसी हालत में ये गठजोड़ कब टूट जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। यही चार साल पुरानी मनमोहन सरकार के साथ हुआ और वामपंथी दल उसे मझधार में डुबोने के लिए अपने धुर विरोधियों भाजपा और उसके सहयोगी दलों से जा मिले। आश्चर्य की बात यह है कि वामपंथी दलों ने तो गत ८ जुलाई को समर्थन- वापसी की घोषणा कर दी थी, फिर सांसदों को घूस देने का –भंडाफोड़— विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान के ही दिन क्यों हुआ?
1 comments: on "भारत की संसद भ्रष्ट नेता का अड्डा"
अफसोसजनक....दुखद....
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