पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद के हाल ही में दिए गए एक बयान को लेकर इन दिनों पूरे देश में माहौल गरमाया हुआ है। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर में जनसभाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार को चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए रियासत में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की करंसी को मान्य बनाए। जाहिर है, ऐसे अलगाववादी बयान से तूफान खड़ा होना ही था और वह हो भी गया। राजनीतिक पार्टियों की खेमेबाजी की बात छोड़ दी जाए तो भी पूरे भारत का एक भी राष्ट्रवादी व्यक्ति सईद की इस बात को पचा नहीं पाया है। भले ही इसका कारण कुछ भी हो, पर अलगाववादी भी उनकी बात से सहमत नहीं हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस जरूर अभी तक इस गंभीर मसले पर चुप्पी साधे हुए है। भाजपा और विभिन्न संगठन तो पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में मुफ्ती के पुतले जलाने में जुट गए हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पैंथर्स पार्टी के अलावा कई गैर राजनीतिक संगठनों ने भी इस बयान का पुरजोर विरोध किया है।
वैसे मुफ्ती मोहम्मद सईद का तर्क यह है कि चूंकि एलओसी के दोनों तरफ बसे कश्मीर के बीच जल्द ही व्यापार शुरू होने वाला है, अत: यह आम जनता की सुविधा के लिए जरूरी है। वह यह भी तर्क दे रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान समेत सभी दक्षेस देशों के बीच आपस में मुक्त व्यापार तथा एक मुद्रा की व्यवस्था 2014 तक लागू करने पर भी चर्चा चल रही है, इसलिए इस व्यवस्था को सबसे पहले कश्मीर में लागू किया जाना चाहिए। अब सवाल यह है कि क्या सभी दक्षेस देशों के लिए एक मुद्रा और पाकिस्तानी मुद्रा के बीच कोई फर्क नहीं है? या फिर मुफ्ती यह मानकर चल रहे हैं कि पाकिस्तान की मुद्रा ही सभी दक्षेस देशों की मुद्रा हो जाएगी? या फिर भारतीय रुपये को वह भविष्य में सभी दक्षेस देशों के लिए सर्वमान्य मुद्रा बनते देख रहे हैं? क्या कई देशों के बीच चलन के लिए एक सर्वमान्य संघीय मुद्रा और किसी एक देश की मुद्रा या दो देशों की मुद्राओं के बीच का फर्क वह नहीं जानते? यह सवाल भी कम गंभीर नहीं है कि भविष्य में अगर कोई संघीय मुद्रा आएगी तो सभी दक्षेस देशों में एक साथ लागू की जाएगी या केवल जम्मू-कश्मीर में? अकेले जम्मू-कश्मीर को इसके लिए प्रयोगशाला बनाने का क्या तुक है? यह गंभीरतापूर्वक सोचने का विषय है कि इसे वास्तव में राजनीतिक व कूटनीतिक भोलापन माना जा सकता है, या फिर यह किसी अलगाववादी साजिश का हिस्सा है।
इसे समझने के लिए मुफ्ती और उनकी पार्टी के दूसरे लोगों के दूसरे बयानों से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए तथा साथ ही उनके राजनीतिक इतिहास पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए। न केवल जम्मू-कश्मीर बल्कि दूसरे राज्यों में भी पिछले दो दशकों के राजनीतिक इतिहास के प्रत्यक्षदर्शी इस बयान पर बात करते हुए उस दौर को याद कर रहे हैं जब वीपी सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे और सईद केंद्रीय गृहमंत्री। यह बात कोई कैसे भूल सकता है कि इन्होंने अपनी बेटी को आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए कई खूंखार आतंकवादियों को छुड़वा दिया था। उस एक गलती की बेइंतहा कीमत देश आज तक चुका रहा है और शायद भविष्य में भी लंबे समय तक चुकाता रहेगा। हैरत की बात है कि उनकी सांसद बेटी महबूबा मुफ्ती अपने पिता का समर्थन करते हुए यह भी कह चुकी हैं कि हम कोई आजादी तो नहीं मांग रहे हैं। उनकी इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? आखिर वह चाहती क्या हैं?
उनकी इच्छाओं को स्पष्ट रूप से समझने में शायद उनकी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता तारिक हमीद करा की बात से कुछ मदद मिले। करा फिलहाल जम्मू-कश्मीर राज्य के वित्त मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं। दिसंबर के अंत में एक बैंक के कैलेंडर के विमोचन समारोह में उन्होंने राज्य के लिए अलग करंसी की मांग उठाई थी। अपनी इस मांग के पक्ष में उन्होंने बहुत ही कमजोर और लिजलिजे किस्म के तर्क भी दिए थे। तब भी बड़ा बवेला उठा था। हालांकि तब पीडीपी ने इस मांग से खुद को अलग करते हुए कहा था कि यह करा की निजी राय हो सकती है। लेकिन मुफ्ती और महबूबा की बातों से क्या ऐसा जाहिर नहीं होता कि इसके पीछे पीडीपी का कोई एजेंडा है? अपने उस छिपे हुए एजेंडे को वह धीरे-धीरे, राज्य के हालात की नब्ज टटोल-टटोल कर खोल और आगे बढ़ा रही है? यही वजह है जो केवल भाजपा ही नहीं, राज्य में सक्रिय दूसरी पार्टियां और यहां तक कि गैर राजनीतिक संगठन भी उनके खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं।
पैंथर्स पार्टी के संरक्षक प्रो. भीम सिंह ने तो बाकायदा कानून की तमाम धाराओं तक का उल्लेख करते हुए कहा है कि इनके तहत पीडीपी नेताओं के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया जाए। इस मसले पर अगर कोई चुप है तो वह है कांग्रेस और क्यों चुप है इसकी वजह तो साफ जाहिर है, लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है। मुख्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की चुप्पी तो इसलिए है कि राज्य में उनकी सरकार पीडीपी की बैसाखियों पर टिकी हुई है, पर केंद्र सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह अलगाववादी और राष्ट्रविरोधी तत्वों को पनपने से रोक नहीं पा रही है? इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि हमारे नेता राष्ट्रविरोधी और अलगाववादी बातें तो सुन सकते हैं, पर एक राज्य में अपनी सरकार गंवाना उन्हें मंजूर नहीं है? यह सवाल विपक्ष के लिए भी उतना ही गंभीर है। राज्य के मुख्य और ताकतवर विपक्षी दल के नेता सईद की बात को शिगूफा तो करार दे रहे हैं, पर दो कदम आगे बढ़कर कांग्रेस को उसकी सरकार बचाए रखने का आश्वासन नहीं दे सकते। यह आखिर कैसी राजनीति है, जिसमें राज्य की चिंता छोड़कर जाने कौन सी नीति की जा रही है?
सच तो यह है कि इस गंभीर मसले पर भी सभी राजनेता केवल अपने-अपने स्वार्थो की रोटी सेंक रहे हैं। जहां तक सवाल विरोध का है तो मुफ्ती की बात का विरोध तो अलगाववादी भी कर रहे हैं। उनके विरोध की वजह यह है कि मुफ्ती ने उनका एक मुद्दा हाईजैक कर लिया है। दूसरी तरफ, वे भीतर-भीतर खुश भी हैं कि उनका एजेंडा किसी तरह से लागू करवाने की बात पीडीपी नेता उठा रहे हैं। फिलहाल, निर्णायक तौर पर परिदृश्य जो भी बने लेकिन इतना तो है ही कि सईद ने अलगाववादियों को दोहरी करंसी की इस मांग के रूप में एक और हथियार थमा दिया है। यह कोई मामूली मसला नहीं है। राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को इस मसले को गंभीरता से लेना चाहिए। साथ ही उन्हें आम जनता की भावनाओं तथा देशहित को समझते हुए इस सिलसिले मे तुरंत जरूरी कदम उठाने चाहिए।
1 comments: on "राष्ट्रद्रोही नेता कांग्रेस चुप क्यों है"
राष्ट्रद्रोही नेता कांग्रेस चुप इस लिए है वह इस के ख़िलाफ़ कुछ बोल कर मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकते. उनकी इस मजबूरी को कृपया समझिए.
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