आज जब मैं भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेता और आगामी लोकसभा चुनावों के लिये पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी श्री लालकृष्ण आडवाणी के बारे में कुछ लिखने बैठा हूँ तो निश्चय ही लोगों के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि ऐसा मैंने तब क्यों नहीं किया जब अधिकाँश लोग आडवाणी के बारे में लिख रहे थे। जब से लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ का विमोचन हुआ है, आडवानी जी खबरों में हैं। पुस्तक को जैसे जैसे लोग पढते गये उसी अनुपात में कुछ नया समाचार उस सम्बन्ध में आता गया। कुल मिलाकर आडवाणी जी स्वयं और उनके सलाहकार जो चाहते थे वह पूरा होता गया और तकरीबन महीने भर खबरों के केन्द्र में आडवाणी बने रहे। इस दौरान कभी भी मेरी इच्छा आडवानी जी पर कुछ लिखने की नहीं हुई। इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं एक तो मैने स्वयं आडवाणी जी की आत्मकथा पढी नहीं थी और दूसरा मैने आडवाणी जी को कभी क्रांतिकारी और व्यवस्था परिवर्तन का अग्रदूत नहीं माना। आडवाणी एक ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस की यथास्थितिवादी व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन के एक माध्यम थे जो कुछ वैसा ही है जैसे गर्मी की तपती दोपहरी में शीतल हवा का एक झोंका आ जाता है और मन प्रसन्न हो जाता है। आडवाणी जी को लेकर अपनी इस अवधारणा के चलते आडवाणी की आत्मकथा भी मुझे एक छवि निर्माण के प्रयास से अधिक कुछ नहीं दिखी।
आडवाणी जी पर लिखने का कोई प्रयास अब भी नहीं करता यदि पिछ्ले कुछ दिनों में आडवाणी जी द्वारा दिये गये कुछ साक्षात्कार विचलित न करते। पिछ्ले दिनों आडवाणी जी ने भारत के कुछ प्रमुख टी.वी चैनलों को साक्षात्कार दिया और उसके बाद पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र को साक्षात्कार दिया और दोनों स्थानों पर उन्होंने पाकिस्तान की अपनी यात्रा के दौरान जिन्ना के सम्बन्ध में की गयी अपनी टिप्पणियों को सही ठहराया और फिर दुहराया कि इस विषय पर उन्हें ठीक से नहीं समझा गया और पूरे विचार परिवार( संघ परिवार) ने एक ऐसा स्वर्णिम अवसर गँवा दिया जब मुसलमानों को समझाया जा सकता था कि विचार परिवार इस्लाम विरोधी या मुस्लिम विरोधी नहीं होते हुए भी हिन्दुत्व के प्रति आग्रही है।
आडवाणी के ऐसे विचारों से स्पष्ट है कि वह अपनी हिन्दुत्ववादी छवि तोडने के लिये व्यग्र हैं और इसके लिये तरह-तरह के प्रयास कर रहे हैं।
आडवाणी जी की इस स्थिति को समझने के लिये यदि हम आडवाणी की आत्मकथा की प्रस्तावना में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गयी उस टिप्पणी का मर्म समझने का यत्न करें तो बात स्पष्ट हो जायेगी जिसमें अटल जी ने कहा था कि आडवाणी को गलत समझा गया और वे अपनी छवि के शिकार हो गये। आडवाणी की यही विवशता है। सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथ लेकर चलने वाला आडवाणी किसी क्रांति के लिये नहीं निकला था और उनका उद्देश्य भी काँग्रेस द्वारा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चलते हिन्दुओं में पनप रहे असंतोष को राम जन्मभूमि आन्दोलन के प्रतीक के चलते भुनाकर संसदीय व्यवस्था में भाजपा के लिये विपक्ष की भूमिका सृजित करने से अधिक कुछ नहीं था और यही कारण है कि इस आन्दोलन की चरम परिणति के रूप में 6 दिसम्बर 1992 को जब मुगल कालीन ढाँचा ध्वस्त हो गया तो आडवाणी अत्यंत व्यथित हुए और तत्काल इसे अपने जीवन का काला दिन तक घोषित कर दिया। वास्तव में आडवाणी जी बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने हो लेकर अपराध बोध से ग्रस्त हैं और इसे अपने जीवन का पाप मानकर उसके प्रायश्चित के लिये जुटे हैं। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान की अपनी यात्रा के दौरान जिन्ना को सेकुलर घोषित करने के पीछे भी उनकी यही मानसिकता काम कर रही थी।
अभी हाल में पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र डान के साथ साक्षात्कार में आडवाणी ने पुनः वही बातें दुहरायीं कि यदि पाकिस्तान जिन्ना के रास्ते पर चलता तो आज भी सेकुलर रहता और साथ ही उन्होंने अपनी एक काफी पुरानी अवधारणा को भी दुहराया कि आने वाले समय में भारत और पाकिस्तान का एक महासंघ बन सकता है।
आडवाणी के इन बयानों के पीछे आपत्तिजनक क्या है? एक तो यह कि जिन्ना के प्रति अपनी बात को वे यह कह कर न्यायसंगत ठहराते हैं कि इससे भाजपा सहित पूरे संघ परिवार के सम्बन्ध में मुसलमानों की सोच बदल जाती अर्थात आडवाणी भी मानते हैं कि भारत का मुसलमान भारत से अधिक पाकिस्तान की परिस्थितियों और घटनाक्रम से प्रभावित होता है। आडवाणी की इस स्वीकारोक्ति से 1990 के दौरान अल्पसंख्यकवाद के विरुद्ध गढे गये उनके ही मुहावरे गलत सिद्ध होते हैं जब भारतीय मुसलमानों की पाकिस्तान के प्रति निष्ठा को आधार बनाकर हिन्दुत्व की धार तेज की जाती थी। इससे एक अर्थ तो यह निकलता है कि आडवाणी देश की समस्याओं के सन्दर्भ में काँग्रेस से भिन्न राय नहीं रखते और अल्पसंख्यकवाद का नारा मात्र वोट के लिये था और इस समस्या के समाधान को लेकर स्वयं आडवाणी भी गम्भीर नहीं हैं।
जिन्ना को सेकुलर सिद्ध कर आडवाणी पाकिस्तान की निर्मिति को शाश्वत बना देते हैं और भारत पाकिस्तान की समस्या को और उलझा देते हैं। भारत और पाकिस्तान की समस्या के सम्बन्ध में एक तथ्य पर कभी ध्यान नहीं दिया गया और वह यह कि पाकिस्तान और भारत की समस्या भी काफी कुछ इजरायल और फिलीस्तीन की भाँति है जहाँ एक देश दूसरे देश के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान आज भी स्वाधीनता पूर्व की मुस्लिम मानसिकता से ग्रस्त है और समस्त भारत को इस्लामी राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करने का स्वप्न देखता है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत को हजारों घाव देने के योजना के आधार पर आतंकवाद को प्रश्रय क्यों देता? वास्तव में इस पूरी समस्या को इस नजरिये से देखने का प्रयास कभी हुआ ही नहीं और न ही उस मानसिकता को जानने का प्रयास किया गया जो भारत के प्रति शाश्वत शत्रुता को पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार बनाती है। पाकिस्तान की इसी इस्लामपरक मानसिकता के चलते ही भारत का मुसलमान पाकिस्तान के अधिक निकट अपने को पाता है और इसके बाद भी आडवाणी का जिन्ना को सेकुलर सिद्ध करना और पाकिस्तान के रास्ते मुसलमानों के मध्य अपनी छवि बदलने का प्रयास करना यही प्रमाणित करता है कि या तो आडवाणी समस्याओं को सही सन्दर्भ में नहीं देख पा रहे हैं या फिर वे यथास्थितिवादी नेता हैं जो सत्ता परिवर्तन का माध्यम भर हैं।
इस बात की पुष्टि आडवाणी जी की आत्मकथा में इस्लामी उग्रवाद के सम्बन्ध में उनकी धारणा से भी होती है। अपनी आत्मकथा में इस्लामी आतंकवाद के लिये आडवाणी ने इस्लामी उग्रवाद शब्द का प्रयोग किया है और इस समस्या के पीछे एक विचारधारा की प्रेरणा की बात स्वीकार की है परंतु अपनी आत्मकथा के बाद छवि बदलने के अपने प्रयास में किसी भी साक्षात्कार में उन्होंने इस्लामी उग्रवाद या इस्लामी आतंकवाद की चर्चा ही नहीं की। यही नहीं तो राजनेता के रूप में भी आडवाणी जब भी इस्लामी आतंकवाद की चर्चा करते हैं तो इसके पीछे किसी विचारधारा की प्रेरणा सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते। ऐसा शायद वे राजनीतिक दृष्टि से सही होने के लिये या पोलिटिकल करेक्टनेस के कारण नहीं करते। इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि आडवाणी यथास्थितिवादी व्यवस्था के लिये उपयुक्त राजनेता हैं जो सत्ता परिवर्तन तो कर सकते हैं परंतु उनसे किसी क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
आडवाणी स्वयं और उनके सलाहकार उनकी छवि बदलने के कार्य में लग गये हैं और इस प्रयास में वे ऐसे कदम भी उठाते जा रहे हैं जिससे उनके समक्ष अनेक प्रश्न भी खडे होते जा रहे हैं। भारत की संसदीय प्रणाली की व्यवस्था के चलते सम्भव है कि आडवाणी देश के सर्वोच्च पद तक पहुँच भी जायें परंतु उनके नये तेवर से स्पष्ट है कि छ्द्म धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा देने वाला यह राजनेता स्वयं धर्मनिरपेक्षता और छद्म धर्मनिरपेक्षता के मध्य विभाजन नहीं कर पा रहा है।
1 comments: on "क्या चाहते हैं आडवाणी?"
यह तो सभी जानते हैं की अगर भाजपा में अटल जी जैसे दिग्गज और सम्मानित नेता नहीं होते तो आडवाणी जी ही प्रधानमंत्री बनते. और ये उनका एक सपना भी है. लेकिन उस सपने को पूरा करने के लिए भाजपा को पूरे बहुमत के साथ जीतना होगा. उनको लगता है कि अपने को धर्मनिर्पेक्ष साबित कर देने से भाजपा को मुसलमानो का वोट बैंक मिल जाएगा जिससे वो अपने सपने को यथार्थ कर सकेंगे. शायद वो अपने राजनैतिक अनुभव से सही सोच रहे हैं लेकिन वो ये नहीं सोच रहे कि छवि में इस प्रकार से बदलाव से वो हिंदू वोट खो देंगे.
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