इतिहास बनता हुआ तभी अच्छा लगता है, जब हम उस पर गर्व कर सकें। दिल्ली में ओलिंपिक मशाल की दौड़ का आयोजन जिस जबर्दस्त सुरक्षा इंतजाम के बीच हुआ, उसने जरूर कई रेकॉर्ड कायम किए होंगे। वैसे तो किसी न किसी बहाने से राजधानी को छावनी में अक्सर तब्दील होना पड़ता है, लेकिन उस पैमाने से भी यह कुछ ज्यादा ही था। इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।
ओलिंपिक मशाल के सफर में कोई बाधा पड़े, यह सरकार के लिए शर्मिन्दगी की बात होती। वह अपनी तरफ से कोई चूक नहीं रहने दे सकती थी। लिहाजा उसने वही किया, जो राज्य सत्ता करती है। शहर के दूसरे इलाकों में प्रदर्शन हुए, झड़पें और हंगामे भी, लेकिन उन सब पर पाबंदी लगा देना मकसद था भी नहीं। विरोध जताने के लोकतांत्रिक अधिकार को यहां कुचला नहीं जा सकता था, सिर्फ उसकी धार सहनीय बनाए रखनी थी। कोई चाहे तो इसे सरकार और प्रशासन की कामयाबी मान सकता है, लेकिन इसे मशाल दौड़ के विरोधियों की जीत भी समझा जा सकता है।
चीन के तेवरों में हमेशा कुछ ऐसा रहा है, जो चुभने लगता है। पिछले दिनों ऐसा तब हुआ, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल दौरे पर पेइचिंग से नाराजगी भरी बड़बड़ाहट सुनाई दी। उसी बिगड़ैल मूड से एक बार फिर हमारा साबका पड़ रहा है, जिसकी वजह तिब्बत है। पिछले दिनों दिल्ली में तिब्बती प्रदर्शनकारियों ने पुलिस को चकमा देते हुए चीनी दूतावास में घुसने की कोशिश की। इसे ज्यादा से ज्यादा भारत के प्रशासकीय इंतजाम की कमजोरी कहा जा सकता था, तिब्बत को लेकर सहानुभूति नहीं, क्योंकि इससे पहले तिब्बती प्रदर्शनकारियों के साथ हमारी पुलिस बेरहमी से सख्ती कर चुकी है। इसके लिए सरकार ने खासी आलोचना भी झेली है। लेकिन चीन के लिए इस सबका कोई मतलब जैसे था ही नहीं।
पेइचिंग में भारतीय राजदूत निरुपमा राव को रात दो बजे तलब किया गया और भारत में होने जा रहे प्रदर्शनों की जानकारी दी गई। यह अजब बात थी और किसी के लिए इसके निहितार्थ समझना मुश्किल नहीं था। चीन साफ-साफ जता देना चाहता था कि उसे भारत के इरादों पर संदेह है और वह अपनी नाराजगी छुपाने में यकीन नहीं करता। इसे आप कूटनीतिक धमकी कह सकते हैं, हालांकि दोस्ती और अच्छे रिश्तों का लिहाज न करते हुए आपा खो बैठना चीन की आदत है। वह संदेहों का मारा हुआ देश है, जो किसी का यकीन नहीं करता और किसी भी बात पर चिढ़ उठता है। यही डर और चिढ़ उसके इतिहास को दिशा देती रही है और अब ताकत बटोरने के उसके जुनून में नजर आती है। लेकिन हमारे लिए सवाल यह है कि ऐसे पड़ोसी का क्या करें?
हम चीन के साथ दुश्मनी का इतिहास भुला देना चाहते हैं, उसके साथ होकर इस सदी को एशिया की सदी बनाना चाहते हैं, तिब्बत की निर्वासित सरकार को अपने यहां शरण देने के बावजूद तिब्बत की समस्या को लेकर भारत सरकार ठंडी ही रहती है और यहां तक कि वह उसे चीन का हिस्सा मान चुकी है। अब इससे ज्यादा क्या किया जा सकता है कि चीन का मिजाज ठीक रहे? जाहिर है, कुछ भी नहीं, बल्कि हम समझते हैं कि इसे लेकर भारत को बहुत फिक्र भी नहीं करनी चाहिए। कहा जा रहा है कि निरुपमा राव से बदसलूकी के जवाब में ही वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की पेइचिंग यात्रा स्थगित कर दी गई है।
अगर ऐसा है, तो यह सही है, हालांकि सीधे-सीधे अपना विरोध जताने से भी हमें हिचकना नहीं चाहिए। आखिर हम इस बात को लेकर क्यों दुबले होते रहें कि चीन हमारे बारे में क्या सोचता है? क्यों नहीं हम अपनी विदेश नीति को धड़ल्ले से, बिना किसी दुराव-छिपाव के लागू करें? जो हमें नागवार लगे, उसे कहने में क्यों हिचकें? आखिर भारत भी दुनिया का एक अहम देश है, जिसके मिजाज की फिक्र दूसरे देशों को करनी चाहिए- चीन को भी।
3 comments: on "चीन का चमचागीरी"
इस बार ओलंपिक मशाल अपने मकसद की पूर्ति में नाकामरहा है।
आपकी इन बातों को पढ़ते समय मुझे महान विचारक ओशो के इसी विषय पर उद्गार याद आते रहे, की हम भारतीय जिससे भी डरते हैं या असुरक्षित महसूस करते हैं उसके साथ मधुर संबंधों की बात करने लगते हैं, गाँधी ने हिंदू मुस्लिम भाई भाई का नारा दिया. पर हिंदू मुस्लिम ही क्यों? भारत में इनके अलावा जैन, बौद्ध, ईसाई, सिख, पारसी धर्मों को मनाने वाले भी तो हैं. गाँधी हिंदू थे, और मुस्लिमों की विशाल संख्या और राजनैतिक ताकत ने उन्हें मानसिक रूप से असुरक्षित कर दिया, वरना क्या कारण था की सर्वधर्म समभाव का नारा उन्होंने नहीं उठाया? ज़ाहिर है अपने से कमज़ोर ताकतों पर ध्यान ही नहीं गया. और गाँधी की इसी ऐतिहासिक गलती ने मुस्लिमों को सेल्फ कोंसियस कर दिया, और फ़िर जो हुआ सब इतिहास है. यही गलती आज़ादी के तुरंत बाद नेहरू ने दोहराई, चीन की बढ़ती ताकत और भूखी महत्वाकांक्षा से आतंकित होकर फ़िर एक नारा दिया, हिन्दी चीनी भाई भाई, हमने पड़ोस में एक और दुश्मन पैदा कर लिया. आज भी हम चीन की नापाक निगाहों से डरे हुए कभी उसकी ज्यादतियों को नज़रंदाज़ करते हैं, तो कभी धमकियों पर खुशामद, तो कभी चिरौरी करते है.
ये नहीं समझ आता कि चीन के ख़िलाफ़ बोलने में हमारे राजनेताओं की क्यों फटती है? क्यों वो भारत की नाक चीन के मुक्के से तुड़वाने को तैयार रहते हैं? अरे यही विदेश नीति होनी चाहिए कि जो बात ग़लत लगे उसे गले में ना अटका कर उगल दिया जाए और खुल कर विरोध किया जाए. आज तिब्बत निशाने पर है, कल बर्मा और नेपाल होंगे. फिर अरुणाचल प्रदेश और फ़िर...........
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